आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

Sunday, August 22, 2010

विविधा

अल्हड़ता

बरसात में उफनाती
सौ-सौ बल खाती
तट-बंधों को लाँघ-लूँघ
स्वेच्छा से यहाँ-वहाँ बह जाती
प्रबल प्रवाह का प्रमाद समेटे
कभी आकर्षित, कभी अपकर्षित करती
लघुजीवी नदी होती है अल्हड़ता।

प्रेमासक्ति

सारी इन्द्रियां जब
महसूस करें एक ही बात,
मन के सारे विचार जब
केन्द्रित होने लगें एक ही बिन्दु पर,
शरीर की सारी क्रियायें
उत्प्रेरित हों जब एक ही आशा में,
और वह भी किसी एक क्षण,
किसी एक दिन नहीं,
शाश्वत हो किसी के प्रति ऐसा लगाव
तभी पूर्णता को प्राप्त होती है प्रेमासक्ति।

इन्द्रधनुष

सतरंगी सपनों का स्वामी
उम्मीदों की किरणों के संग उदित होता
आर्द्रता के उद्बुदों पर तन जाता
निराशा के पंक में डूबने से बचाता
धरती से अम्बर तक जिजीविषा का सेतु सजाता
टूते छप्परों की सांसों और सूखे दरख़्तों के पीछे से भी
कितने सुंदर अहसास जगाने वाला होता है,
इन्द्रधनुष ।

Monday, August 2, 2010

जाम लगा है

मूसलाधार बारिश में
बहुत लंबा जाम लगा है
हर सड़क पर दिल्ली की,
कार में बैठे-बैठे कुढ़ो मत यार!
खाते रहो चुपचाप मूँगफली,
सुनते रहो एफ एम रेडियो पर
भीगी-भीगी रातों के गाने,
फूँककर ढेर सारा पेट्रोल
चलते रहो बस चींटी की चाल,
कभी न कभी तो
पहुँच ही जाओगे अपने मुक़ाम पर।

आक्रोश में मत कोसो
इनको, उनको,
जाम में फसने की यह बिसात तो
हम सबने मिलकर ही बिछाई है।

जाम सिर्फ दिल्ली की सड़कों पर ही नहीं लगा है,
मुसीबतों के इस दौर में
भीतर ही भीतर घुमड़कर
बरसते आँसुओं के बीच
जाम तो सीने के उन गलियारों में भी लगा है,
जिनसे गुज़रकर ही फैलती है
इन्सानी रिश्तों-नातों की ख़ुशबू
इस पूरे शहर में।

आगे बढ़ने को आतुर है
बगलगीर की राह काटता हर कोई,
दूरदर्शन चैनल की तरह
रुकावट के लिये खेद
भी नहीं व्यक्त करता,
कैसे खुश होते हैं सब के सब
बढ़ते ही बस दो गज़ आगे
जैसे ही उनको लगता है
छूट चुके हैं पीछे ही, कुछ बड़े अभागे।

जाम लगा है सोच-समझ में,
जाम लगा है हाव-भाव में,
सड़कों तक ही सिमटी रहती
गलाकाट यह खींचा-तानी
तब तो कोई बात नहीं थी,
जकड़ चुकी है यह शरीर की
हर धमनी, हर एक स्नायु को,
फँसे विचारों के वाहन हैं,
जाम-ग्रस्त मन का हर कोना,
नस-नस में अब जाम लग रहा,
इस तनाव से कैसे उबरें?
कहाँ नियन्त्रण-कक्ष बनायें?