आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Saturday, June 22, 2013

जनतंत्र को और कारगर बनाएँ (21 मई 2013 को 'जनसंदेश टाइम्स' समाचार-पत्र में प्रकाशित) - फीचर

देश की आम जनता की लंबी प्रतीक्षा व भारत के चुनाव आयोग के अथक प्रयासों के बावजूद हमारे लोक-तंत्र को मजबूत, टिकाऊ व मूल्य-आधारित बनाने वाले जरूरी चुनाव-सुधार को अभी अमली जामा नहीं मिल पाया है. हमारा जनप्रतिनिधि अधिनियम लगभग 62 वर्ष पुराना है. इसमें दशकों से ऐसी व्यवस्थाएँ लाने के प्रयास किए जा रहे हैं, जिनसे चुनाओं में मतदाताओं पर धन-बल, बाहु-बल एवं साम्प्रदायिक व जातिगत प्रभावों का कम से कम असर पड़े. किंतु चुनाओं पर इन सब बातों का असर कम होना तो दूर, इनका प्रभाव चुनाव दर चुनाव बढ़ता ही जा रहा है. भारत के सेवानिवृत्त कैबिनट सचिव श्री टी.एस.आर. सुब्रमनियम ने अभी हाल ही में कहा कि यह गंभीर चिंता का विषय है कि हिमाचल प्रदेश व गुजरात के पिछले विधान सभा चुनाओं में जीतने वाले प्रत्याशियों में से क्रमश: 65 तथा 74 प्रतिशत करोड़पति हैं. इसी प्रकार क्रमश: 21 तथा 31 प्रतिशत जीतने वाले प्रत्याशी ऐसे हैं जिनके ऊपर आपराधिक मामले चल रहे हैं. धर्मनिरपेक्ष संसद व विधान सभाओं में जीतकर पहुँचने वाले धार्मिक कट्टरपंथियों की संख्या भी बढ़ती ही जा रही है. इसी तरह से भारत जैसे समाजवादी राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करने वाले सदस्यों के बीच बड़े-बड़े उद्योगपतियों की संख्या में भी लगातार वृद्धि हो रही है. कुछ राज्यों में तो प्रत्याशियों द्वारा कार्यकर्त्ताओं को ही नहीं, सीधे वोटरों तक को पैसे बाँटने की शिकायतें मिलने लगी हैं. यह प्रवृत्तियाँ गंभीर चिंता पैदा करने वाली है, क्योंकि यह व्यापक संवैधानिक उद्देश्यों और उनका अनुपालन सुनिश्चित कराने वाली विधायिका के सदस्यों के निजी निहित स्वार्थों के बीच टकराव अथवा विरोधाभास का सृजन-सा करती हुई दिखती है.

            भारत का चुनाव आयोग एक लंबे समय से चुनाव-सुधारों को लागू करने की दिशा में यथाशक्ति अपने सीमित संसाधनों के सहारे अनेक प्रकार के कदम चुनाव दर चुनाव उठाता रहा है. यह सब बातें मुख्यतः चुनावों में होने वाली धाँधली तथा सत्ता-पक्ष द्वारा उठाए जाने अनुचित फायदों को रोकने से जुड़े हुए कदम रहे हैं. इसके लिए छपे हुए मतपत्रों व मतपेटियों की जगह इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों का इस्तेमाल किया जाने लगा. फोटोयुक्त मतदाता पहचान-पत्रों को लगभग पूर्ण रुप से जारी कराकर फर्ज़ी मतदाताओं की समस्या से करीब-करीब मुक्ति पा ली गई. मतदाताओं की फोटोयुक्त मतदाता-सूचियाँ भी देश में लगभग पूरी तौर पर तैयार हो चुकी हैं, जिनसे बोगस वोटिंग को ख़त्म करने में और भी ज्यादा मदद मिलेगी. मतदाता-सूचियों के सूक्ष्म पुनरीक्षण और लंबे समय तक घर पर न रहने वाले वोटरों की पहचान के माध्यम से भी फर्ज़ी मतदान को रोकने में सफलता मिली है. आदर्श चुनाव संहिता को लागू करने के मामले में चुनाव आयोग ने समय-समय पर उच्चतम न्यायालय की मदद ली है. आज यह भले ही कहा जाता हो कि आदर्श चुनाव संहिता नख-दंत-विहीन है, किंतु यदि देखा जाय तो वास्तव में राजनीतिक दल और खास तौर पर सत्ता-पक्ष को इस बात का काफी भय रहता है कि उसके ऊपर इस संहिता के उल्लंघन के आरोप न लगें. चुनाव आयोग की नोटिस मिलते ही केंद्र तथा राज्य सरकारें मतदाताओं को लुभाने वाली घोषणाएँ करने तथा अनैतिक रूप से अहम फैसले लेने से पीछे हट जाती हैं. सभा-स्थलों के आवंटन, अतिथि-गृहों के आरक्षण, सरकारी वाहनों के दुरुपयोग, अनर्गल बयानबाज़ियों, लोगों के जन-जीवन को प्रभावित करने वाले चुनाव-प्रचार के तौर-तरीकों आदि के प्रति जिला-प्रशासन भी काफी सजग बना रहता है. गैर-कानूनी हथियार रखने वालों के विरुद्ध होने वाली कार्रवाइयों, चुनाव-प्रचार के दौरान काले धन का इस्तेमाल रोकने के लिए डाले जाने वाले छापों व नकदी लेकर चलने वालों पर शुरू की गई धर-पकड़ आदि का भी सकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है.

            लेकिन चुनाव-सुधार के यह सारे प्रयास कभी-कभी ऐसे ही लगते हैं, जैसे कैंसर के मरीज़ को बुखार की दवा देकर ठीक करने की कोशिश की जा रही हो. वास्तव में भारतीय लोकतंत्र को पटरी पर लाने के लिए जिस तरह की कड़वी घुट्टी की जरूरत है, वह राजनीतिक दलों को जनप्रतिनिधित्व अधिनियम में व्यापक संशोधन करके ही पिलाई जा सकती है. धन-बल, बाहु-बल तथा धार्मिक, जातीय व वर्गीय शक्ति का भरपूर इस्तेमाल कर रहे राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि क्या विधायिका के माध्यम से अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने वाले ऐसे संशोधनों के लिए कभी तैयार होंगे? आज की सबसे बड़ी समस्या ही यही है कि विखंडित जनादेश के चलते किसी भी दल के पास यह शक्ति नहीं है कि वह अपने कतिपय सदस्यों की आपत्तियों को दरकिनार करके चुनाव-सुधारों की दृष्टि से व्यापक जनहित अथवा देश-हित में कोई बड़ा फैसला लेने की ओर कदम बढ़ाएँ. आज ज्यादातर चुनाव बहु-कोणीय होते हैं. जीतने वाला प्रत्याशी कुल डाले गए मतों में से 50 प्रतिशत मत भी नहीं पाता है और जीत जाता है. इसी प्रकार बहुदलीय चुनावों के चलते विभिन्न राज्यों तथा केंद्र में साझा सरकारें बनने की परम्परा स्थापित हो गई है. इन सरकारों में प्राय: भिन्न-भिन्न विचारधाराओं और नीतियों वाले दल शामिल होते हैं, जिससे सरकार को नीतिगत निर्णय लेने में काफी कठिनाइयाँ आती है और कई बार मतैक्य के अभाव में देश-हित के कई महत्वपूर्ण फैसले लटके ही रह जाते हैं. केंद्र के स्तर पर यह समस्या तब और ज्यादा गंभीर लगने लगती है, जब हम देखते हैं कि सरकार में शामिल किसी राज्य विशेष के क्षेत्रीय दल की जिद के चलते पूरी की पूरी केंद्र सरकार देश-हित के किसी अहं एवं व्यापक फैसले को लेने में असमर्थ हो जाती है. ऐसे मामलों में राष्ट्र-हित पर सता बचाने का हित भारी पड़ता है. कुछ मौकों पर तो मंत्रिमंडल के क्षेत्रीय दलों के प्रतिनिधि प्रधानमंत्री तक की इच्छा या निर्देशों का अनुपालन करने से विमुख नज़र आते हैं. क्या चुनाव-सुधारों का दायरा कभी इन सब समस्याओं से निपटने की ओर भी आगे बढ़ेगा?

            चुनाव-सुधारों के विशेषज्ञ भारतीय लोकतंत्र की मजबूती के लिए समय-समय पर अनेक सुझाव देते आए हैं. 1972 की संसदीय समिति सहित विभिन्न समितियाँ समय-समय पर चुनाव में धन-बल का प्रभाव कम करने तथा अच्छे व ईमानदार प्रत्याशियों को बिना पैसा खर्च किए चुनाव लड़ने हेतु सक्षम बनाने के लिए चुनाव-प्रचार के खर्च का वहन सरकार द्वारा किए जाने की व्यवस्था बनाने की सलाह देती रही हैं. लेकिन ऐसा कोई विधान तो अभी दूर ही लगता है. जघन्य अपराधों के आरोपियों को चुनावी-प्रक्रिया से दूर रखने का बात भी अभी दूर की कौड़ी लगती है. विधायिका के मौजूदा सदस्यों को सजा मिलने के बाद भी अपील या पुनर्विचार की याचिका लंबित रहने तक अयोग्य नहीं माने जाने तथा राजनीतिक दलों द्वारा विधिक व्यवस्था के विपरीत सरकारी कंपनियों या विदेशी स्रोतों से धन प्राप्त किए जाने के विरुद्ध विभिन्न न्यायालयों के समक्ष दायर की गई जनहित याचिकाओं के फैसले निश्चित ही अहं होंगें. सबसे बड़ी बात तो यह देखने की होगी कि क्या जनप्रतिनिधि अधिनियम में संशोधन करके राजनीतिक दलों को अंदरूनी तौर भी अपने पदाधिकारियों तथा प्रत्याशियों के चयन के लिए एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया अपनाने पर मजबूर किए जाने की भी कोई व्यवस्था बनेगी या वे फिर वर्तमान की भाँति ही आगे भी कुछ विशेष राजनीतिक परिवारों या व्यक्तियों की गिरफ़्त में ही बनी रहेंगी. मुझे तो यह भी लगता है कि केंद्र सरकार को छोटे-छोटे क्षेत्रीय दलों की धींगामुश्ती से मुक्त रखने तथा संविधान के मुताबिक संघ की सूची में शामिल विषयों पर राष्ट्र-हित में सरलता से बड़े फैसले लेने या कानून निर्मित करने हेतु सक्षम बनाने के लिए जनप्रतिनिधि अधिनियम में केवल राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों को ही संसदीय आम चुनाव लड़ने लिए योग्य बनाए जाने की व्यवस्था की जानी चाहिए तथा राज्य स्तर पर मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों, अन्य पंजीकृत दलों तथा निर्दलीय प्रत्याशियों को राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त दलों के कंधे से कंधा भिड़ाकर केवल राज्य विधान-सभाओं के चुनाव लड़ने तक ही सीमित कर दिया जाय. इससे एक तरफ तो केंद्र में राष्ट्रीय हितों की व्यापक व संतुलित चिंता करने वाली राष्ट्रीय मान्यता-प्राप्त दलों की अपेक्षाकृत मजबूत सरकारें बनेंगी, वहीं दूसरी तरफ राज्यों में राष्ट्रीय दलों, क्षेत्रीय दलों या उन दोनों की मिली-जुली संघीय गणराज्य को मजबूत करने वाली तथा स्थानीय जनता की आकांक्षाओं को पूरा करने वाली सरकारें बनेंगी. लेकिन हमारे मौजूदा राजनीतिक वातावरण में क्या राष्ट्र-हित में कोई भी दल इस तरह की किसी पहल के बारे में सोचेगा?

(लेखक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी हैं किन्तु यह उनके निजी विचार हैं)            


आम जन की कहीं कोई सुनवाई है क्या:सब्र का प्याला छलकने वाला है (14 मई 2013 को 'जनसंदेश टाइम्स' समाचार-पत्र में प्रकाशित) - फीचर

पिछले मंगलवार को सुबह टहलते समय मेरे मोबाइल पर एक अपरिचित नंबर से कॉल आई, "गाँव में रहने वाला एक किसान हूँ. दबंग पड़ोसी ने मेरे ट्रैक्टर पर कब्ज़ा कर लिया है. उस पर चढ़ा बैंक का कर्ज़ धीरे-धीरे बढ़कर चार लाख से ऊपर पहुँच गया है. सब जगह शिकायतें कर लीं. कहीं कोई सुनवाई नहीं. अख़बार में आपका लेख पढ़ा. मोबाइल नंबर भी था इसलिए सोचा आप ही को फोन करूँ. शायद आप ही मेरी समस्या का कुछ समाधान करा दें?" आम आदमी इसी तरह से हताश और परेशान होकर अपनी समस्याओं का हल तलाश रहा है. उसकी सुनने वाला कोई नहीं. पैसे वाला थैली के सहारे अपना सारा काम करा लेता है. रसूख वाला वरिष्ठ अधिकारियों और मंत्रियों के साथ उठता-बैठता है, सो उसका काम भी नहीं रुकता. लेकिन गरीब व साधारण जन-गण के लिए न्याय का दरवाज़ा प्रायः बंद ही रहता है. वह खटखटाने से भी नहीं खुलता. ऐसी व्यवस्था में भला इनके मन का अधिनायक कौन हो सकता है? बकौल रघुबीर सहाय आज सबसे बड़ा प्रश्न ही यही है कि इस प्रजातांत्रिक देश में 'फटे सुथन्ने वालों' का 'भारत-भाग्य-विधाता' कौन है? सोचने की बात यही है कि ये सामान्य जन इस तरह की लाचारी के साथ कब तक जी सकते हैं? नई पीढ़ी में शिक्षा का प्रसार हो रहा है. जागरूकता फैल रही है. सब्र का प्याला छलकने वाला है. इसके पहले कि प्रतिगामी शक्तियाँ इस मौके का फायदा उठाकर लोगों की निराशा और आक्रोश को नकारात्मक दिशा में मोड दें, सरकारी-तंत्र को सजग हो जाना चाहिए. अब वक्त आ गया है कि देश की व्यवस्था प्रजातांत्रिक-प्रणाली के मर्म को पहचाने और अपनी सारी क्षमता उन लोगों को न्याय दिलाने की तरफ केन्द्रित करे, जिनका साथ देने वाला कोई नहीं है.   

            ऐसा नहीं कि व्यवस्था का इस तरफ ध्यान नहीं गया है. जन-सेवाओं को समयबद्ध रूप से उपलब्ध कराने के लिए केंद्र तथा कुछ राज्य सरकारों ने लगभग डेढ़ दशक पहले ही नागरिक-संहिताएँ बनाने की शुरुआत कर दी थी. लेकिन इनका अनुपालन स्वैच्छिक था अतः वे प्रयास ज्यादा सफल नहीं हुए. केंद्र सरकार ने वर्ष 2005 में 'सेवोत्तम' पद्धति की शुरुआत की. सैद्धांतिक रूप से यह बहुत अच्छा मॉडल था लेकिन यह सामान्य जनता से ज्यादा जुड़ नहीं पाया. यदि 'सेवोत्तम' जैसे मुश्किल शब्द के स्थान पर 'उत्तम सेवा' जैसा सरल नाम होता तो शायद यह लोगों को ज्यादा भाता. वर्ष 2007 में भारत सरकार ने केंद्रीकृत लोक शिकायत निवारण व मॉनीटरिंग प्रणाली की शुरुआत की लेकिन यह एक वेब-आधारित पोर्टल पर आश्रित होने के कारण गरीब व कम्प्यूटर तक पहुँच न रखने वाले लोगों के बीच ज्यादा उपयोगी नहीं सिद्ध हो पाया. कुछ कमी इसके प्रचार-प्रसार में भी रही. लेकिन इसी बीच कुछ राज्य सरकारों ने क्रांतिकारी पहल करते हुए जन-सेवा गारंटी कानून लागू करने शुरू किए. पहला कानून वर्ष 2010 में मध्य प्रदेश में बना. पिछले दो वर्षों में बिहार, दिल्ली, पंजाब, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, केरल, उत्तराखंड, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, झारखंड आदि राज्यों में भी ऐसे जन-सेवा गारंटी कानून बने हैं. लेकिन कोई भी कानून बनना अपनी जगह है, उसका प्रभावी ढंग से लागू होना अपनी जगह. उसमें पहला कदम यानी कौन सी सेवाओं को गारंटी के तहत लाया जाय, यही सबसे ज्यादा निर्णायक पहलू है. यदि ऐसा करते समय कुछ महत्वपूर्ण सेवाएँ दायरे से बाहर रख दी गईं तो समझिए कि पूरा कानून ही निष्प्रभावी हो जाएगा. दूसरे निर्णायक चरण में यह भी बेहद महत्वपूर्ण है कि सरकारी-तंत्र अपनी सोच में परिवर्तन लाकर चिन्हित जन-सेवाओं को गारंटीशुदा तरीके से लोगों को उपलब्ध कराने में तत्पर हो. इसका मतलब यह भी नहीं निकाला जाना चाहिए कि जो जन-सेवाएँ किसी कारण से अधिसूचित नहीं की गई हैं, उन्हें मुहैया कराने की तरफ कोई ध्यान ही न दिया जाय. अब देखना यही है कि अगले चरण में इन सभी राज्यों में बने कानूनों के तहत लोगों को कौन-कौन सी जन-सेवाएँ समयबद्ध रूप से प्रदान किए जाने की एक सुदृढ़ व्यवस्था स्थापित होती है और इससे इन सेवाओं के क्षेत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार में कितनी कमी आती है.

            वर्ष 2011 में जब जन-लोकपाल बिल के आंदोलन ने जोर पकड़ा तो केंद्र सरकार ने भी समय की आवश्यकता को समझते हुए बड़ी तत्परता के साथ नागरिक माल और सेवाओं का समयबद्ध परिदान और शिकायत निवारण अधिकार विधेयक, 2011 तैयार किया और उसे संसद के सामने पेश कर दिया. मेरी समझ में सरकारी-तंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार को कम करने तथा तथा सार्वजनिक सेवाओं को जनोन्मुख बनाने की दृष्टि से यह विधेयक लोकपाल विधेयक से ज्यादा महत्वपूर्ण है. लेकिन समस्या यह है कि जिस जनाकांक्षा को भुनाकर और अन्ना हजारे को आगे कर कुछ तथाकथित समाज-सेवियों ने जनलोकपाल-व्यवस्था को देश से भ्रष्टाचार मिटाने की संजीवनी बूटी बनाकर पेश किया, उसी जनाकांक्षा को ताख पर रखकर वे स्वयंभू नेता इस सेवा-गारंटी देने वाले और शिकायत निवारण अधिकार देने वाले बिल की बात ही नहीं करते. जाहिर है कि वे शायद जनलोकपाल के बहाने कुछ और ही हासिल करना चाहते हैं. लोगों की समस्याओं का शीघ्र निवारण हो यह उनका लक्ष्य नहीं है. वे शायद सत्ता-केंद्रों पर परोक्ष रूप से गैर-सरकारी संगठनों का दबदबा कायम करने के निहित उद्देश्य से ही उस आंदोलन को लेकर सामने आए और भाग्य से व्यवस्था के प्रति आक्रोशित आम जन उनके साथ खड़ा दिखाई दिया और टी. आर. पी. के भूखे मीडिया ने उनका साथ दे दिया. सबसे बड़ा दुर्भाग्य तो तब हुआ जब अन्ना हजारे ने विधिक प्रक्रिया की नासमझी का परिचय देते हुए माल व सेवा-गारंटी तथा शिकायत निवारण का अधिकार देने वाले केंद्रीय बिल में  प्रावधानित अपील-निस्तारण जैसी अनिवार्य व्यवस्थाओं की खुले-आम आलोचना कर दी, जिससे यह मामला और भी ठंडा पड़ गया.

            भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए लोकपाल जैसी एक संस्था केंद्र में तथा हर राज्य में जरूरी है. लेकिन इस संस्था के बहाने निहित स्वार्थ वाली शिकायतों के जरिए तथाकथित जन-सेवकों व गैर-सरकारी संगठनों की दूकान न चल निकले इसका ध्यान भी सरकार को रखना ही होगा, भले ही ऐसे स्वार्थी तत्व उसकी कितनी ही आलोचना करें. नागरिक माल और सेवाओं का समयबद्ध परिदान और शिकायत निवारण अधिकार विधेयक, 2011 का केवल यही फायदा नहीं है कि इससे लोगों को केंद्र सरकार की चिन्हित सेवाएँ समयबद्ध तरीके से मिलेंगी, बल्कि इससे पूरे देश में एक समान व्यवस्था के तहत राज्य सरकारों की चिन्हित सेवाओं की गारंटी की भी व्यवस्था स्थापित होगी और साथ ही पूरे देश के लोगों को केंद्र तथा राज्य सरकार की सेवाओं के संदर्भ में अपनी शिकायतों के निवारण का अधिकार भी मिलेगा. संभवतः आम आदमी के लिए सूचना के अधिकार के बाद यह देश का एक सबसे बड़ा परिवर्तनकारी कानून होगा जिसे शीघ्र लागू किया जाना चाहिए.

(लेखक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी हैं किन्तु यह उनके निजी विचार हैं)             

जनता त्रस्त -व्यवस्था पस्त:हमारी पुलिस ऐसी क्यों है (7 मई 2013 को 'जनसंदेश टाइम्स' समाचार-पत्र में प्रकाशित) - लेख

छोटी-छोटी बच्चियों तक पर निर्मम बलात्कार की खबरों के आने का सिलसिला जारी है. स्त्रियों के विरुद्ध अत्याचार हर तरह की सीमाएँ पार कर रहा है. लूट-पाट, चोरी, डकैती, हत्या जैसे तमाम जघन्य अपराध भी बदस्तूर हो रहे हैं. कहीं कोई भी सुरक्षित नहीं. न कोई शहर, न कोई कस्बा, न कोई गाँव. कमोवेश देश के हर राज्य का यही माहौल है. ऐसे में अपराधों को रोकने की नाकामी का ठीकरा पुलिस के सिर फूटना लाज़मी है. जनाक्रोश का निशाना भी पुलिस को ही बनना है. लेकिन हमारी पुलिस ऐसी क्यों है? उसकी अक्षमता और उसमें व्याप्त संवेदनहीनता एवं लाचारी का जिम्मेदार कौन है? इस सब पर राजनीतिक हलकों में कम ही विचार होता है. सत्तापक्ष हो या विपक्ष सब चाहते हैं कि पुलिस उनके इशारों पर नाचे. उनके समर्थकों को किसी आपराधिक जाँच में फँसने से बचाए रखे. जब भी कोई बड़ी घटना होती है और पुलिस की लापरवाही, साँठ-गाँठ या राजनीतिक हस्तक्षेप की बात सामने आती है तो पुलिस और सत्ताधारी पार्टी की लानत-मलानत के साथ-साथ देश में पुलिस सुधारों को लागू किए जाने की चर्चा भी जोर पकड़ने लगती है. किंतु थोड़े दिनों के बाद फिर सब वैसे का वैसा ही हो जाता है और मीडिया तथा न्यायालय भी जैसे फिर किसी बड़ी घटना का इंतज़ार करने लगते हैं.
     
      देश का पुलिस अधिनियम अंग्रेज़ी जमाने का है. ब्रिटिश हुकूमत के आते ही 1861 में यह लागू हुआ. आज़ादी के बाद भी किसी भी राज्य में इसमें कोई व्यापक बदलाव लाने की कोशिश नहीं की गई. वर्ष 1979 में गठित राष्ट्रीय पुलिस आयोग ने पहली बार इस अधिनियम में परिवर्तन लाए जाने की पुरजोर सिफारिश की. लेकिन सरकारें खामोश रही. आखिरकार, वर्ष 1996 में दो सेवानिवृत्त पुलिस महानिदेशक, प्रकाश सिंह व एन.के. सिंह पुलिस सुधारों को लागू किए जाने की माँग की जनहित याचिका लेकर उच्चतम न्यालालय पहुँचे. उच्चतम न्यायालय ने मामले की पड़ताल के लिए वर्ष 1998 में रिबेरो समिति गठित की जिसने वर्ष 1999 में न्यायालय को अपनी रिपोर्ट सौंपी. उसके बाद पद्मनाभैया समिति ने इस रिपोर्ट का अध्ययन करके वर्ष 2000 में अपनी संस्तुतियाँ न्यायालय के समक्ष रखीं. इस पर सोली सोराबजी की अध्यक्षता में नए पुलिस विधेयक का मसौदा तैयार करने के लिए एक समिति बनी. अंत में दस साल की लम्बी प्रतीक्षा के बाद उच्चतम न्यायालय ने प्रकाश सिंह केस में अपना निर्णय देते हुए देश में पुलिस सुधारों को लागू किए जाने के बारे में एक सात-सूत्री फार्मूला रखा. इसके तहत सभी राज्यों में राज्य सुरक्षा आयोग गठन किया जाना, पुलिस महानिदेशक की नियुक्ति योग्यता के आधार पर एवं पारदर्शी तरीके से न्यूनतम दो वर्ष के लिए करना, जिले तथा थाने के स्तर पर पुलिस प्रभारियों को न्यूनतम दो वर्ष का सेवाकाल देना, पुलिस विभाग में कानून-व्यवस्था तथा अपराध-अंवेषण की जिम्मेदारियों को अलग करना, पुलिस उपाधीक्षक के नीचे के स्तर के अधिकारियों के तबादलों, तैनातियों, प्रोन्नतियों आदि से जुड़े फैसलों के लिए राज्य स्तर पर एक पुलिस सेवा बोर्ड का गठन किया जाना, राज्य व जिले के स्तर पर पुलिस अधिकारियों के विरुद्ध होने वाली शिकायतों की जाँच आदि के लिए पुलिस शिकायत प्राधिकरण गठित किया जाना तथा केंद्रीय पुलिस संगठनों के मुखियाओं के चयन आदि के लिए केंद्र के स्तर पर एक राष्ट्रीय पुलिस आयोग का गठन किया जाना आदि शामिल था.

      उच्चतम न्यायालय के आदेश पर वर्ष 2008 में गठित जस्टिस के.टी. थॉमस समिति द्वारा की गई निगरानी व कोर्ट से समय-समय पर राज्यों को सीधे मिली डाँट-फटकार के बावजूद वर्ष 2006 से लेकर आज तक केरल के अतिरिक्त किसी भी राज्य सरकार ने इन पुलिस सुधारों को लागू करने के लिए कोई वैधानिक व्यवस्था नहीं बनाई है, भले ही जबानी जमा-खर्च के लिए तरह-तरह के प्रशासनिक आदेश निकालकर सुधारों की कुछ हद तक खानापूरी कर ली हो. केरल सरकार द्वारा वर्ष 2011 में लागू किए गए नए पुलिस अधिनियम में अनेक ऐसे प्रावधान किए गए हैं जो आम आदमी को अपार राहत देने वाले हैं. इस अधिनियम में प्रावधानित पुलिस के कर्त्तव्यों में ही यह बात शामिल है कि पुलिस का काम किसी भी ख़तरे से लोगों की रक्षा करना, किसी भी प्राकृतिक या मानव-जनित आपदा, विनाश या दुर्घटना से प्रभावित लोगों की मदद करना, लोगों के बीच सामन्य रूप से एक सुरक्षा की भावना पैदा करना तथा सार्वजनिक स्थलों व सड़्कों पर पाए जाने वाले असहाय व निराश्रित लोगों, विशेष रूप से स्त्रियों व बच्चों की देख-भाल की व्यवस्था एवं सहायता करना भी है. इस अधिनियम के तहत लोगों को यह अधिकार दिया गया है कि वे किसी भी समय थाने में प्रवेश कर सकते हैं और पुलिस से समस्त न्यायसंगत सेवाएँ प्राप्त कर सकते हैं. साथ यह भी कि कोई भी व्यक्ति किसी भी समय थाने के प्रभारी से मिल सकता है और अपनी शिकायत दर्ज़ करा सकता है या मामलों की सूचनाएँ दे सकता है तथा बिना किसी स्पष्ट कारण के थाने का प्रभारी उसकी सूचना लेने से मना नहीं कर सकता. इस कानून के तहत गठित राज्य सुरक्षा आयोग में राज्य के गृह व कानून मंत्रियों के साथ-साथ विपक्ष के नेता, उच्च न्यायालय के एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश तथा तीन गैर-सरकारी सदस्यों को भी रखा गया है. इसके तहत पुलिस कर्मियों के आचरण से सम्बंधित विशेष प्रावधान भी किए गए हैं जिनके अधीन पुलिस कर्मियों द्वारा अनावश्यक बल-प्रयोग किए जाने, लोगों से दुर्व्यवहार किए जाने, गाली-ग़लौज़ किए जाने, असहिष्णुता दिखाए जाने, विशेष रूप से अपराध-पीड़ित स्त्रियों, बच्चों, वरिष्ठ नागरिकों व विकलांगों से, आदि की मनाही है. अधिनियम में हर थाने में एक सामाजिक संपर्क समिति गठित किए जाने की भी व्यवस्था की गई है. यह समितियाँ इलाके में पुलिस सेवाओं की सामान्य प्रकृति वाली उभरती हुई आवश्यकताओं को चिन्हित करेंगीं और क्षेत्र में सुरक्षा बनाए रखने के लिए कार्य-योजना बनाएँगीं. इनके माध्यम से इलाके में अपराधों की रोकथाम तथा सुरक्षा के उपायों के बारे में जागरूकता फैलाने का काम किया जाना भी प्रावधानित है. अधिनियम में राज्य-स्तर पर उच्च न्यायालय के एक सेवानिवृत्त न्यायाधीश तथा जिले के स्तर पर एक सेवानिवृत्त जिला न्यायाधीश की अध्यक्षता में पुलिस शिकायत प्राधिकरण गठित किए जाने का प्रावधान भी किया गया है. इस अधिनियम के तहत घूसखोर पुलिस अफसर को सात साल तक की तथा लोगों को अनावश्यक छापामारी, ज़ब्ती, गिरफ्तारी आदि के माध्यम से तंग करने वाले पुलिस अधिकारी को तीन साल तक की सज़ा दिए जाने की भी व्यवस्था है. साथ ही महिलाओं के साथ छेड़खानी, बदसलूकी व चित्र तथा वीडियो लेकर तंग करने वालों को तीन साल तक की सज़ा दिए जाने का भी प्रावधान है.

      स्पष्ट है कि पुलिस-सुधार से जुड़ी जनहित याचिकाओं, विभिन्न समितियों व माननीय न्यायालय की चिंताओं के केंद्र में पुलिस की प्रशासनिक व्यवस्था की खामियाँ, तबादलों व तैनातियों में होने वाले राजनीतिक हस्तक्षेप तथा भ्रष्ट व निरंकुश अधिकारियों के ख़िलाफ प्रभावी कार्रवाई न हो पाने की समस्या जैसे मसले ही रहे हैं. इनकी चिंताओं में आम आदमी, शिकायती, पीड़ित, स्त्री-दलित-दुर्बल वर्ग, समाज में फैलती जा रही अराजकता कहीं नहीं है. आँकड़ों में कुछेक को छोड़कर सभी राज्यों में पुलिस-सुधारों की प्रगति संतोषजनक है और उच्चतम न्यायालय के आदेशों का सत्तर से अस्सी फीसदी तक अनुपालन हो गया बताया जाता है. लेकिन वास्तव में स्थिति दिनो-दिन बिगड़ती ही जा रही है. सच यही है कि उच्चतम न्यायालय के सात-सूत्री मार्गनिर्देश बहुत देरी से आए हैं तथा काफी लम्बे समय से उपेक्षा के शिकार हैं. आज ये मार्गनिर्देश नाकाफी भी हैं. आज इनसे आगे बढ़कर केरल के पुलिस अधिनियम की तर्ज़ पर सभी राज्यों में तत्काल कुछ किया जाना अनिवार्य लगता है. अब देखना यह है कि बढ़ रहे अपराधों तथा भ्रष्टाचार के लिए लोग सिर्फ पुलिस को कोसते ही रहेंगे या फिर जरूरी पुलिस-सुधारों को लागू कराने के लिए भी कोई जनांदोलन चलाएँगे.


(लेखक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी हैं किन्तु यह उनके निजी विचार हैं)