आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

Saturday, June 20, 2015

नव आल्ह - छंद (अवधी आल्हा) - 2012

छोड़ि सुमिरिनी, छोड़ि प्रार्थना, पारम्परिक सबै आख्यान।
कहौं आजु कै देशु - काल गति, रचि नव आल्ह - छंद सुप्रधान॥

इन्द्रप्रस्थ नव, संजोगिनि नव, नव रण - भूमि, नए सम्राट।
नए  सतैया,  नए  लड़ैया,  नव छल - छंदु, नए पंचाट॥

बढ़ी  आय, पर बढ़ी  विषमता,  बढ़ी  धाँधली, भ्रष्टाचार।
बढ़े शहर औ सिकुड़े जंगल, पिटि कै गाँव भए लाचार॥

ज्यादा उपजै सड़ै ख्यात मां, उपज घटेउ ते मरै किसान।
माटी,  बारू,  ईंटा,  पाथर, लकड़ी लुटी, लुटे खलिहान॥

जैसे बादर उड़ि - उड़ि आवैं, बिनु बरसे फिरि जांय बिलाय।
जलु भरि गगरी, मुँह कै संकरी, जैसे प्यास न सकै बुझाय॥

वैसै हालति है गरीब कै, अनकथ व्यथा - कथा है भाय।
पैंसठ साला आज़ादी का कौनौ असरु न परै देखाय॥

प्रजातंत्र कै ठेकेदारी जिन - जिन सिर पर लीन उठाय।
उनिकै तौ बसि चाँदी होइगै, बाकी हुँआ - हुँआ चिल्लांय॥

जो सरकारी ओहदा पावैं, उनिके भागि तुरत खुलि जांय।
करि व्यापार मुनाफा काटैं, उनिकेउ पूत फिरैं इतराय॥

कहै - सुनै का बड़ी प्रगति है, ऊँचे भवन रहे चुँधियाय।
किन्तु दिया के तरे अँधेरा, ना हाकिम का परै देखाय॥

संविधान मां सोशलिस्ट सब, सांची कहे होश उड़ि जांय।
तीस रुपैया के अमीर हैं, रोज़ी तीस लाख उइ खांय॥

तीस रुपैयौ केरि अमीरी, तीस कोटि जन सके ना पाय।
साठि साल के लोकतंत्र कै, यह दुर्दशा सही ना जाय॥

जैसे सूरज ऊर्जा बाँटै, सारा भेदु - भाव बिसराय।
जैसे चंद्रमा मनु भरमावै, योग - वियोग न चित्त लगाय॥

जैसे वायु सबका दुलरावै, रंग - रूप का भेदु भुलाय।
जैसे नदी जलु भरि - भरि लावै, सबका तृप्त करै अघवाय॥

कहाँ हवै अस सोशलिज्म औ केहि नेता का ऐसु दरबार।
केहि धनपति कै ऐसि तिजोरी, केहि शासन कै ऐसि दरकार॥

भारत के केहि संविधान मां सबका होइ आस - विश्वास।
सबका मिलिहै छप्पर - छानी, सबका मिटी रोग - संत्रास॥

केहिमां दुःखी मजूर न होई, केहिमां मालिक होई उदार।
केहिमां प्रानु किसान न देई, कहाँ न रोई बेरोजगार॥

भोजन, स्वास्थ्य, सूचना, शिक्षा, चाहै जौनु मिलै अधिकार।
सेवा का अधिकार मिलै या जनजातिन का वनाधिकार॥

बंदरबाँट मची है चहुँ - दिशि, जब तक मिटी न यहु व्यभिचार।
तब तक सब अधिकार व्यर्थ हैं, हैं अनर्थ के ही आधार॥

कब तक जन - गण - मन का सपना, बसि भासन ते होई साकार।
थोथा चना घना बाजै औ घना चना बैठा मन मार॥

चलौ, उठौ, अब नई जंग कै, चंगी फौज करौ तैयार।
बुद्धि, विवेक, ज्ञान, साहस कै तानौ चमाचम्म तरवार॥

अब तक हारे, अब ना हारब, चलौ जीत के करौ उपाय।

शेष कहानी समरभूमि कै, फिरि कौनेउ दिन द्याब सुनाय॥

अरे पुरुषजन! (अवधी आल्हा)

अल्प ज्ञान है, करौं अल्पता, कहौं अल्प स्त्री - दुखु गाय।
जो है जननी, जो है भरनी, कस वह छली नित्य ही जाय॥
                   
नारि ताड़ना कै अधिकारी, तुलसी कहा यथारथु गाय।
आँचरु दूधु आँखि माँ पानी, कहा मैथिलीशरण बुझाय।।

मरद - जाति कै मरी चेतना, अबला कथा कही ना जाय।
किन्तु जागरत होइ कुछु नारी, निज विमर्श अबु रहीं सुनाय॥

यहि विमर्श का पुरुष न बूझइ, सूझइ कहूँ न सम व्यवहार।
अहं भावना मन  पर  हावी, देवै  सबै  तर्क  दुतकार॥

कहैं देवता बसैं हुँआ, जहँ, नारी का नित्य होय सम्मान।
किन्तु आचरनु एकदम उलटा, पल - पल करैं नारि अपमान॥

प्रेम - विटप विश्वास - बीज ते अँकुरै, बढ़ै, खूबु हरियाय।
फूलै - फरै, तुष्टि उपजावै, नई सृष्टि का करै उपाय॥

पर जब कटै विवेक - मूल तौ डार - पात सब जायँ सुखाय।
अविश्वास कै अमरबेलि चढ़ि चूसै प्रेम - द्रव्य इठलाय॥

जैसे आँखिन माड़ा छावइ, वैसइ दृष्टि - नाश होइ जाय।
नारि - दुर्दशा का निमित्त बनि, पुरुष रहा केतनौ दुखु पाय॥

बिटिया घर माँ होय न पैदा, यहिके केतनेउ करै उपाय।
तरह - तरह कै औषधि - गोली, झाड़ - फूँक माँ रकम लुटाय॥

द्याखै नित चाइनीज कलन्डर, करै मिलन तरकीब भिड़ाय।
परखनली माँ वीर्य फेंटिकै, नर - शुक्राणु रहा बिलगाय॥

लिंग - परीक्षण करै भ्रूण का, गर्भपात का करै उपाय।
जनम ते पहिले मारै बिटिया, यहि ते अधम कहाँ कछु भाय॥

यहि साज़िश ते बचिकै कौनिउ कन्या जनमु लेय घर आय।
छाती  पीटै  सासु  बहुरिया  का  दस  बातैं रोजु सुनाय॥

जैसे - जैसे बड़ी होय वह, घर माँ चिन्ता जाय समाय।
तरुणी होतै बनै जेलु घर, बाहर जस डकैत मँडरांय॥

खेतु - पात, स्कूल, मोहल्ला, ताना फ़ब्ती परै सुनाय।
राक्षस पुरुष चहूँ दिसि घूमैं, गाथा सुनि करेजु फटि जाय॥

साथ पढ़ैया, ज्ञानु सिखैया, द्याह रखैया सबै लबार।
कहाँ सुरक्षित है हियाँ नारी, भारी सजा भोग - दरबार॥

कोर्ट - कचेहरी, थाना - शासन, सब ढिग चुवै पुरुष कै लार।
अस्पताल माँ, चलति कार माँ, इज्जति लुटै भरे बाज़ार॥

व्याह - योग्य होवै तौ रोवइ, बिनु दहेज कहँ मिलइ भतार।
कर्जु - कुर्जु लै जब सब निपटै, ताना तबौ सुन नित चारि॥

आपन मातु - पिता, घरु छूटै, पति घर बसइ मोहु सब त्यागि।
तबौ सहइ कहुँ थप्पड़ु - गारी, जरइ कहूँ लालच कै आगि॥

प्रसव - वेदना सहै दुसह वह, पालइ पूत नौकरी छाड़ि।
भेदु - भाव सदियन ते झ्यालइ, मन कै व्यथा मनै माँ गाड़ि॥

खून के आँसू रोवइ नारी, काटइ ककस बहेलिया का जाल।
कैसे उड़इ संगठित होइकै, अपनि अस्मिता करइ बहाल॥

स्वेच्छाचारी, स्वारथु भारी, हारी पुरुष - चेतना आज।
मानैं नारी है बेचारी, तबौ न लागइ कौनिउ लाज॥

जैसे खुशबू व्यर्थ हवा बिन, बिन खु्शबू न फूलु मन भाय।
वैसइ नाता नर - नारी का, टूटै तौ अनर्थ होइ जाय॥

‘जिय बिनु देह’, ‘पुरुष बिनु नारी’, तुलसी कहा उलट कुछु गाय।
बिनु कन्या कहँ कोमलताई, नारी बिनु कहँ पुरुष सोहाय॥

अरे पुरुषजन! उठौ आजु, अब करौ न कौनौ सोचु - विचार।
समय आइगा परिवर्तन का, संसकार सब लेउ सुधारि॥

नई चेतना जगै देश माँ सबका मिलइ न्याय - अधिकार।
नई डगरिया, नई बयरिया, बहै नई समता कै धार॥

मुक्त होउ संकीर्ण सोच ते, तजौ घृणित व्यभिचार - विचार।
मनुज जाति का अमिरितु नारी, जेहिते होय सृष्टि - संचार॥

नर - नारी वहि रथ के पहिया, जेहि पर चढ़िकै चलै समाजु।
एकै गति ते दूनउ चलिहैं, तबहीं पूर्ण होइ सब काजु॥

आँखीं ख्वालौ, अब ना ड्वालौ, ब्वालौ एक कंठ ते आजु।

नर बिनु नारि, नारि बिनु नर कहँ, अग जग करैं दोउ मिलि राजु॥

अकथ कहानी (अवधी आल्हा)

मोरे देस कै अकथ कहानी, येहिका अजब रीति - व्यवहार।
आल्हा के प्राचीन छंद मां बरनौ किए बिना बिस्तार।।

कहैं 'अहिंसा परमो धर्मः' चक्कू लेहे फिरैं बाज़ार।
लाठी छोड़ि तमंचा थामिन, सजे दबंगन के दरबार।।

कहैं बिनय बाढ़ै बिद्या ते किन्तु बढ़ा उल्टा आचार।
जे गरीब अनपढ़ ते विनयी, पढ़े - लिखे कै ऐंठ अपार।।

'सत्यमेव जयते' का ठप्पा निरे झूठ का बनै प्रमाण।
झूठी जाति, आय, शिक्षा औ झूठि बल्दियत क्यार जुगाड़।।

दुई नम्बर कै बड़ी प्रतिष्ठा, कोठी, एसयूवी सब होय।
सत्य मार्ग पर चलै तौ आपनि लोटिया तुरतै देय डुबोय॥

हेय परम श्रम मानैं लेकिन 'श्रमेव जयते' का परचार।
जूता तक नौकर पहिनावैं, सेवा - भोगिन कै भरमार॥

'परपीड़ा सम नहिं अधमाई' तुलसी वचन उचारैं रोज़।
दुसरे का कस दुखु पहुँचावैं, यहि कै करैं नित्य ही खोज॥

कहैं नारि देवी सरूप है, मौका मिलतै लूटैं लाज।
करैं नीचता बिटियन के संग, गिरै न उन पर कौनिउ गाज॥

कहैं स्वच्छता सुजन निशानी, किन्तु अस्वच्छ करैं परिवेश।
पूजैं धरती, पीपर, बरगद, लूटैं प्रकृति - सम्पदा शेष॥

कहैं श्रेष्ठ है आपनि भाखा, मुलु अंगरेज़ी मां बतियांय।
लरिकन का भाखौ ना आवै, 'हाय', 'हलो' सुनि जिया जुड़ाय॥

परम्परा कै देयँ दोहाई, मरमु न हिरदय रखैं लगाय।
जाति - पाँति के मकड़जाल मां, सदियन ते समाजु बिल्लाय॥

पहली बारिश मां खुश होइकै, जैसे ब्वावै खेतु किसान।
किन्तु न फिरि बरसै तौ जानौ छप्पर - छानी सबै बिकान॥

वहै हालु है देसु का भैया, उत्तम बीज बुद्धि औ ज्ञान।
पर विवेक - जलु मिलै न तौ फिरि डार - पात बीचै मां सुखान॥

स्वारथवादी रचि विधान नव दीन्हिनि ऐसु भरम फैलाय।
रूढ़िवादिता भरी मगज़ मां, मन ते मनुज-प्रेम मिटि जाय॥

कूकुर, बिल्ली, तोता पालैं, पर गरीब मानुस न सोहाय।
वहिका दूरिअ ते दुतकारैं, प्रीति न तनिकौ चित्त समाय॥

स्वारथ मां मनई अस आंधर, कांधु न देय कष्ट मां कोय।
शरण देय वहिका घर लूटैं, कूकुर उनते नीकै होय॥

पालनहार मातु - पितु ते बड़, येहिमा रहा न कुछु बिस्वास। 
कोकिल - अंडज काकपूत सम, धोखा देइ उड़ैं आकाश।।

कथनी - करनी मां बड़ अंतर, कहं तक कहौ देश कै रीति।
प्रीति भुलानी, नीति बिकानी, जन - जन के मन बाढ़ी भीति॥

कैसे सुधरी, चाल जो बिगरी, चिन्ता यहै खाय दिन - रात।
कौनु सिखैहै, कौनु बतैहै, हमका आत्म - शुद्धि कै बात॥

सरबनाश ते पहिले सँभरौ, का बरखा जब कृषी सुखान।
युवजन, बिटिया, बबुआ जागौ, तुमहीं हौ भविष्य कै शान॥


तुमहीं धारक, तुम परिचारक, तुमहीं संस्कृति के रखवार।
पुनर्जागरण कै बिजुरी बनि, चमकौ घटाटोप के पार॥

Sunday, June 14, 2015

‘निर्वासन’ में भारतीय समाज का थ्री - डी विश्लेषण (उपन्यास - चर्चा)

वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह कहते हैं, ‘हिन्दी के ज़्यादातर आधुनिक लेखन में विस्थापन की पीड़ा किसी न किसी रूप में ध्वनित होती है, क्योंकि उसमें ज़्यादातर वे लोग हैं, जो गाँव से आए हैं। वे शहर के बन पाते हैं या नहीं बन पाते हैं, लेकिन शहर में अपने आपको एडजस्ट करने में एक बड़ी लड़ाई लड़ते हैं। उस लड़ाई में बहुत कुछ खोते हैं। एक ख़ास तरह का मध्यमवर्ग शहर में विकसित होता जा रहा है, जो गाँवों से आया है। आधुनिक हिन्दी साहित्य उन्हीं लोगों का साहित्य है।’ विस्थापन का सबसे कठिनतम स्वरूप है निर्वासन, जहाँ कोई मनुष्य या वस्तु जबरन अपने मूल से अलग की जाती है। विभिन्न प्रकार की प्राकृतिक, सामाजिक अथवा आर्थिक परिस्थितियाँ इसका कारक होती हैं, किन्तु कहीं - कहीं यह सत्ता की क्रूर अथवा स्वार्थपूर्ण नीतियों के चलते भी घटित होता है। निर्वासन की पीड़ा सचमुच ही मनुष्य को जीवन भर कचोटती है, चाहे वह जिन परिस्थितियों में और जैसे हुआ हो और चाहे उसके फलस्वरूप मनुष्य को कितनी ही सुख - सुविधाओं के संसार में प्रवेश करना का मौका मिला हो। अपने अतीत से, पुरखों से, मिट्टी से, वातावरण से, यहाँ तक कि छोटी - छोटी निर्जीव वस्तुओं से मनुष्य को जो लगाव होता है, वह विस्थापन के बावजूद कपड़ों में लिपटी धूल की तरह उसके मन में रमा रहता है। निर्वासन के जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव की तीव्रता विस्थापन की दूरी अथवा कालावधि के सापेक्ष बदलती नहीं। निर्वासन चाहे घर से हो रहा हो या गाँव से, शहर से, प्रदेश से अथवा देश से, उसका भावनात्मक असर लगभग एक जैसी तीव्रता वाली संवेदनाएँ जगाता है। निर्वासन केवल भौगोलिक सीमाओं के संदर्भ में ही नहीं होता, यह पारिवारिक, सामाजिक अथवा सांस्कृतिक संदर्भों में या फिर जीवन के दैनंदिन उपक्रमों परम्पराओं, मान्यताओं अथवा विश्वासों के संदर्भ में भी अनुभूत किया जाता है। अखिलेश का नया उपन्यास ‘निर्वासन’ विस्थापन की ऐसी तमाम प्रकार की संवेदनाओं की बड़े ही विचारपूर्ण एवं मनोवैज्ञानिक तरीके से पड़ताल करता है। इसी के साथ, यह वर्तमान समय की पारिवारिक, सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक परिवेश की भी जमकर विवेचना करता है तथा उसके विद्रूप को पूरी शक्ति के साथ उद्घाटित करता है। भाषा, शैली, कथानक, काल - चेतना आदि की दृष्टि से भी यह उपन्यास समकालीन हिन्दी साहित्य को कई नए आयाम देता है।

'निर्वासन' का कथानक एक ऐसे व्‍यक्‍ति के जीवन के आस - पास घूमता है जिसे प्रेम - विवाह करने के लिए पिता के द्वारा परिवार से निष्‍कासित कर दिया जाता है। इस उपन्‍यास का नायक सूर्यकांत अपनी प्रेमिका व पत्‍नी गौरी का पिता के द्वारा किया गया अपमान बर्दाश्‍त नहीं कर पाता है और तत्‍काल सुल्‍तानपुर में स्‍थित अपना घर त्‍याग देता है। दोनों पति पत्‍नी परिवार व शहर से निर्वासित होकर लखनऊ में आ बसते हैं। गौरी अपने को सूर्यकांत से भी ज्‍यादा अपमानित महसूस करती है और गौरी की संतुष्‍टि के लिए सूर्यकांत अपने घर, परिवार तथा शहर को मन ही मन निरन्तर याद करते हुए भी हमेशा यही सिद्ध करना चाहता है कि भावनात्‍मक रूप से ही नहीं मानसिक रूप से भी वह अपने परिवार से बहुत ही दूर है। निर्वासन के इस मुख्य प्रसंग में अखिलेश ब्रिटिशकाल में दुर्भिक्ष से पीड़ित उत्‍तर प्रदेश के गोसाईंगंज नामक गांव से पलायन कर गए एक ऐसे व्‍यक्‍ति के निर्वासन का आख्‍यान भी जोड़ देते हैं, जो फैजाबाद से वाया कलकत्‍ता, सूरीनाम पहुँच जाता है और कालांतर में उसका पोता रामअजोर पांडे अमेरिका का एक सफल उद्यमी बन जाता है। रामअंजोर पांडे, अपने परिवार की जड़ों को तलाशना चाहता है और इसी नाते वह सूर्यकांत के संपर्क में आता है। पांडे के पैतृक गांव गोसाईंगंज की तलाश में सूर्यकांत के चाचा उसके सहयोगी बनते हैं जो स्‍वयं अपने परिवार के संग रहते हुए भी परिवार से निर्वासन की पीड़ा भोग रहे होते हैं, क्‍योंकि सोच के धरातल पर पत्‍नी और बच्‍चों से उनका कोई मेल नहीं खाता और वे घर के पिछवाड़े के एक कमरे में अपनी एक अलग दुनिया बसा लेते हैं। इन्‍हीं तीनों अलग - अलग किस्‍म के निर्वासन के शिकार पात्रों की जीवन - यात्रा को आधार बनाकर अखिलेश भारत की आज़ादी के कई दशक पहले से लेकर वर्तमान समय तक के लगभग डेढ़ सौ बरस के राष्‍ट्रीय और अन्‍तर्राष्‍ट्रीय परिदृश्‍य को आधार बनाकर विश्‍व के एवं विशेष रूप से भारत के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं सांस्‍कृतिक परिवर्तनों की व्‍यापक तौर पर तथा सूक्ष्‍म दृष्‍टि के साथ मीमांसा करते हैं। वे भारतीय समाज में व्‍याप्‍त गरीबी, अशिक्षा, सामाजिक रूढ़ियों व कुरीतियों, राजनैतिक पतन, नीतिगत विसंगतियों, भ्रष्टाचार व नैतिक पतन की शिकार शासकीय व प्रशासनिक मशीनरी आदि का एक ऐसा खाका खींचते हैं, जिससे उसका असली चेहरा तो उजागर होता ही है, अपने घिनौनेपन से वह हमें हतप्रभ भी करता है।

उपन्यास के तीनों निर्वासित पात्रों के चारों तरफ दिखने वाले जो परिवारजन, मित्र, सहयोगी या अन्य लोग हैं, उनके सामाजिक सरोकारों, पक्षधरताओं, विचारों तथा स्‍वार्थ से भरी प्रवृत्‍तियों को भी अखिलेश ने बखूबी चित्रित करते हुए उनका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया है। सूर्यकांत की पत्नी गौरी को पति व बेटे से अनन्य प्रेम है, किन्तु सूर्यकांत के वापस अपने अतीत से जुड़ जाने की आशंका के कारण उसे यह भय भी होता है कि कहीं वह उसे खो न दे। उसका मित्र बहुगुणा चालाक एवं धंधेबाज़ किस्म का पत्रकार है, किन्तु सूर्यकांत की मदद वह निष्ठा के साथ करता है। अमेरिका से आया रामअजोर पांडे अपनी जड़ों से तो जुड़ना चाहता है लेकिन अपने कारोबारी हितों को बिना कोई नुकसान पहुँचाए और इसी के चलते वह एक बड़ी परियोजना में धन लगाकर सरकार में तुरंत अपनी पैठ बना लेता है। सरकारी पर्यटन निगम का मुखिया सम्पूर्णानंद बृहस्पतिएक रूढ़िवादी, सत्तालोलुप एवं मक्कार किस्म का राजनेता है जो अपने स्वार्थ के लिए किसी को भी दूध की मक्खी की तरह निकालकर फेंक सकता है और कभी भी किसी गधे को भी अपना बाप बना सकता है। सूर्यकांत की बहन नूपुर व बहनोई देवदत्त तेंदुलकर परस्पर प्रगाढ़ प्रेम करने वाले युगल हैं, किन्तु पैसा कमाने के लिए घर से उजड़कर अमेरिका जाने के लिए बेचैन हैं। उसका भाई शिब्बू व उसकी पत्नी कामना भी कुछ ऐसी ही जुगत में हैं। सूर्यकांत के माँ - बाप पुराने ख़्यालात के हैं। उसके पिता अवध नारायण प्रेम - विवाह के कारण बहू को भद्दी - भद्दी गालियाँ देते हुए सूर्यकांत को घर से निकाल देते हैं। माँ के मन में बेटे से लगाव है, किन्तु वह कोई प्रतिरोध नहीं कर पाती। सूर्यकांत के चाचा बड़े ही विचारशील किन्तु एक असफल प्रेमी हैं। वे जीवन से समझौता करके शादी तो कर लेते हैं किन्तु स्वार्थी व बिगड़ैल बीबी - बच्चों के रंग - ढंग से विक्षिप्त होकर आत्मनिर्वासन को अपनाते हुए घर के पिछवाड़े के कमरे में अपनी अलग दुनिया रमा लेते हैं और वह भी समाज के हाथों से फिसलती जा रही तमाम चीज़ों व छीजते जा रहे विचारों को समेटकर। सूर्यकांत की दादी की उपस्थिति उपन्यास में संक्षिप्त रूप से ही होती है, किन्तु बड़े ही संवेदनापूर्ण तरीके से पीढ़ियों के बीच के वैचारिक एवं मनोवैज्ञानिक टकराव को तथा घरों में बुजुर्गों द्वारा झेली जा रही पीड़ा को अभिव्यक्त कर जाती है। उपन्यास का मुख्य आकर्षण सुल्तानपुर शहर तथा गोसाईंगंज गाँव के वे दृश्य हैं, जो आज के शहरी मध्यवर्ग व पिछड़े ग्रामीण समाज के शोषण व पतन का इतिहास और भूगोल बयान करते हैं और हमारी विकासोन्मुखी राजनीति की मक्कारी की धज्जियाँ उड़ाकर रख देते हैं। 

          निर्वासन की मन:स्थिति व्यक्ति की संवेदनाओं को किस गहराई तक विचलित कर देती है, यह अखिलेश ने उपन्यास में बखूबी दरशाया है। रामअजोर पांडे अपने बाबा की तरह जीना चाहता है। वह भारत आने पर हौली में घुघरी खाते हुए शराब पीना चाहता है, नाली में लोटना चाहता है। चाचा अपने वैचारिक सिद्धान्तों, अतीत की यादों और हाथ से फिसलती जा रही वस्तुओं में खो जाना चाहता है। सूर्यकांत अपने पिता से पत्नी गौरी के साथ हुए अपमान का बदला लेना चाहता है। वह इस दुनिया में अपने को मरुथल में भटकने जैसी स्थिति में पाता है। आज की आपाधापी से भरी भाग - दौड़ वाली ज़िन्दगी के संदर्भ में अखिलेश 'हम अपनी रफ्तार के चलते अपने आसपास से वंचित रहते हैं' कहकर बड़े ही सहज ढंग से वर्तमान समय की सामाजिक त्रासदी का बयान कर देते हैं। 'अब मेरी अंदरूनी दुनिया का सारा इलाक़ा जीवन भर खंडहर बना रहेगा' कहकर अखिलेश उस विडंबना की ओर इशारा करते हैं जो एक विस्थापित के जीवन में घटित होती है, भले ही वह कितनी ही संपन्नता और सुख - सुविधाओं से भरे बाह्य संसार में जीने लगे। इसी तरह से सत्‍य की परख और झूठ के मूल्‍यांकन के संबन्ध में अखिलेश का यह कथन भी बहुत ही महत्‍वपूर्ण है, ‘संसार में सच की परख उसके उद्देश्य के आधार पर नहीं की जाती है। सत्य स्वयं में कसौटी है। किंतु झूठ का मूल्यांकन उसके प्रयोग के पीछे निहित मंतव्य के आधार पर होता है। झूठ का इरादा यदि भलाई, करुणा या परहित है तो वह सत्य जैसा दर्जा हासिल कर लेता है।मानवीय संबंध चाहे जितने गहरे हों, उन संबन्धों में अंतर्निहित रहस्‍यों की थाह लेने से भी अखिलेश नहीं चूकते। वैयक्तिक संबंध परस्‍पर विश्‍वास के बने रहने पर ही चलते हैं और इस विश्‍वास को बनाए रखने के लिए यदि कहीं कुछ छिपाकर रखना होता है तो वह भी काफी जरूरी होता है। अखिलेश कहते है, 'कोई कितना भी अपना क्यों न हो .... नज़दीक से नज़दीक - हम उसे पूरा कहां जान पाते हैं। उसका कुछ न कुछ ताले के भीतर छुपा रह ही जाता है।’ इसी से वे इस अवधारणा पर पहुँचते हैं, ‘संबंध सब कुछ बता देने से नहीं चलता है, कुछ न कुछ छिपा लेने से वह बचा रहता है और चलता है।’

‘निर्वासन’ में अखिलेश मानव - मन की भावनाओं को सहज रूप से स्‍पर्श करते हुए अपने पात्रों का हर समय मनोविश्‍लेषण करते दिखते हैं। जब पांडे के पैतृक गाँव की खोज के सिलसिले में सूर्यकांत वापस सुल्‍तानपुर जा रहा होता है, तो वह अपने पिता से मिलने के दृश्य की कल्‍पना में यह सोचकर परेशान हो उठता है कि वह अपने तथा गौरी के प्रति किए गए अपमानजनक व्‍यवहार के कारण पिता से कोई बात तो करना नहीं चाहता लेकिन यदि उनके सामने जाते ही उन्‍होंने अतिशय प्रेम - व्‍यवहार का प्रदर्शन किया तो कहीं वह विचलित न हो जाए और उनसे समझौता न कर बैठे। अखिलेश उसकी इस मानसिक द्वंद का बड़ा ही मार्मिक चित्रण करते हैं, 'अगर बाबू ने दरवाज़ा खोल कर उसे बुलाया या गले लगा लिया, इस संभावना से वह सर्वाधिक डरा हुआ था। उसे लग रहा था कि इस पर वह भावुक होकर कहीं बाबू से माफ़ी न मांगने लगे। इस स्थिति को वह गौरी और गौरी के प्रति अपने प्रेम का घोर अपमान मानता था। यहां आने के विचार की शुरूआत में ही प्राणप्रण कर लिया था कि अपने प्रेम, अपने विवाह और अपने दाम्पत्य के बारे में वह हर क्षण सिर उठाकर बात करेगा।’ लेकिन जब सूर्यकांत पिता के सामने जाता है तो वह उनकी दयनीय शारीरिक दशा को देखकर एक ऐसी चिन्ता - भरी स्‍थिति में पहुंच जाता है, जहां वह न खुश हो सकता है ओर न ही दुखी। यह एक अलग तरह का वैकारिक द्वंद्व है जिसे अखिलेश ने बखूबी चिन्हित किया है, ‘सूर्यकांत उन्हें लगातार देख रहा था और वह समझ नहीं पा रहा था कि उनको इस दयनीय दशा में देख कर वह खुश हो रहा है या दुखी। वह जीता हुआ अनुभव कर रहा था अथवा शिकस्त खाया हुआ इसकी एकदम सटीक व्याख्या करना उसके लिए सरल नहीं था।' अपने पिता से अपमान का बदला लेने की स्‍थिति में अपने को न पाकर सूर्यकांत स्‍वयं को एक पराजित व्‍यक्‍ति के रूप में देखने लगता है। यह उसकी दोहरी पराजय है। पहले अपमानित किए जाने के कारण हुई पराजय और अब बदला न ले पाने के कारण हो रही पराजय। अखिलेश उसकी इस मन:स्थिति को यूँ अभिव्यक्त करते हैं, ‘मगर उसके दिमाग़ में कुछ चमका और उसका समस्त रोष चकनाचूर हो गया, उसने सोचा - अगर उसी वक़्त या उसके साल दो साल भीतर नहले पर दहला जड़ता तो मैं विजेता होता। लेकिन वह अवध नारायण अपनी उम्र, ताक़त, सत्ता और तंदुरुस्ती के साथ ही विदा हो गया। यह जो यहां है, अवध नारायण की मृत्यु की छाया है। उसने अनुभव किया कि वह हमेशा हमेशा के लिए अपने पिता से हार गया है। पहले पिता की ताक़त से वह पराजित हुआ था और अब उसे उनकी निर्बलता ने हरा दिया।' जीतने की आकांक्षा और हार जाने की विडंबना के ऐसे आख्यान हम सबके जीवन में सहज रूप से घटित होते रहते है और मनुष्य के जीवन की इसी सहजता को शब्दों में साकार करना अखिलेश की विशेषता है।

जैसा पहले इंगित किया गया है, इस उपन्यास में केवल किसी व्‍यक्‍ति के अपने परिवार अथवा समाज से निर्वासित होकर जीने की अनुभूतियों का ही चित्रण नहीं है। भौगोलिक परिस्‍थितियों की भिन्नता के कारण इस तरह का भौतिक निर्वासन तो आज के वैश्वीकृत मनुष्य के जीवन में होता ही रहता है, जिसमें व्यक्ति अपने मूल स्‍थान से विस्‍थापित होकर विभिन्‍न कारणों से नए - नए स्‍थानों पर रहने के लिए मजबूर हो जाता है, अपरिचित या असम्‍बद्ध लोगों के साथ अपना संबन्ध स्‍थापित करता है, अनजानी वस्‍तुओं के साथ जीता है, अपनी नई पहचान बनाता है, नई भाषाएँ सीखता है और अपने को एक अलग संस्‍कृति में ढालने की कोशिश करता है। इस उपन्यास में एक दूसरी तरह के निर्वासन का भी चित्रण है, जो जीवन में प्राय: अपने भीतर खुद के साथ ही अथवा अपने आस - पास की चीज़ों के साथ घटित होता रहता है। हमें इसका आभास भी नहीं होता कि पुरानी चीजें कैसे धीरे - धीरे जीवन से निर्वासित होती चली जाती हैं और नई - नई चीजें कैसे उनका स्‍थान लेती रहती हैं। ये निर्वासित चीजें चाहे शब्‍द हों, विचार हों, मान्‍यताएँ हों, व्यवस्‍थाएँ हों, परंपराएँ हों, इनका अलगाव भी उतना ही कष्‍टकर होता है, जितना कि भौगोलिक, सामाजिक अथवा सांस्‍कृतिक दृष्‍टि से अपने भौतिक संसार से होने वाला अलगाव। सूर्यकांत अपने रजिस्टर में उन शब्‍दों को लिखकर रखता है जो हमारे बीच से गायब हो रहे हैं। गौरी उन शब्‍दों को संजोने की उसकी आदत से यह मान बैठती है कि वह उन शब्‍दों की तरह ही उन रिश्‍तों को भी जरूर अपने मन में संजोकर रखता होगा जो उसके जीवन में पहले कभी रहे हैं। निर्वासन से पीड़ित व्यक्ति के भीतर अपनी अस्मिता को बचाए रखने की, अपने वज़ूद को संरक्षित करने की जो छटपटाहट होती है, सूर्यकांत की खोते जा रहे शब्दों को रजिस्टर में लिखकर रखने की यह प्रवृत्ति उसी का सूचक है। अखिलेश ने गौरी के मानसिक अन्तर्द्वन्द्व का चित्रण करते हुए, सूर्यकांत के व्यक्तित्व की मनोवैज्ञानिक मीमांसा कुछ इस प्रकार से की है, ‘इनमें से किसी एक शब्‍द से भी गौरी वाक़िफ़ न थी लेकिन वह यह जान गयी कि ये वे शब्‍द हैं जिन्‍हें सूर्य ने अपने गांव, कस्‍बे और मां पिता के घर में बोला सुना था और वहां से विच्‍छेद बाद ये शब्‍द उसके व्‍यवहार से धीरे धीरे विदा हो गये थे। यह कोई ख़ास बात न थी। ऐसा बहुतेरों के साथ होता है। पर रजिस्‍टर में उनकी इस प्रकार आमद देख कर वह तनावग्रस्‍त हो गयी थी। क्‍योंकि उसमें यह कौंधा कि ये शब्‍द जो दफ़्न हो गये थे अभी सूर्य में ज़िन्‍दा हैं तो वे रिश्‍ते भी हर हाल में जिन्‍दा होंगे जिन्‍हें खत्‍म हुआ मान कर वह सुकून से थी। वह जीवन, वह समाज भी सूर्य में बसा हुआ होगा। बल्‍कि इतने वर्षों के विछोह के कारण वे सारे के सारे ज्‍यादा दिलकश और रंगबिरंगे हो गये होंगे।

अखिलेश निर्वासन की अनुभूति को नए - नए आयाम देते हुए उसके दायरे को अनुभूतियों के उस व्यापक संसार की ओर ले जाते हैं, जहाँ सामान्यत: हमारी दृष्टि नहीं जाती। उनकी निगाहें प्रकृति में हो रहे उन परिवर्तनों को भी छूती हैं जो स्वाभाविक नहीं है। परिवर्तन प्रकृति का नियम है। उसमें नैसर्गिक रूप से विकास की एक प्रक्रिया चलती रहती है, जिसमें भौगोलिक परिवर्तनों के प्रति अनुकूलन तथा सरलता से जटिलता की ओर का प्रस्थान भी शामिल रहता है। लेकिन विकास की नैसर्गिक प्रक्रिया के विपरीत वहाँ विनाशकारी मानवीय गतिविधियों और शोषणकारी प्रवृत्तियों के कारण आज एक ऐसा परिवर्तन भी हो रहा है जो बाहर से थोपा गया है। यह परिवर्तन पूरे इकोसिस्टम को प्रभावित कर रहा है। प्रकृति में समस्त जीव - जन्तु व वनस्पतियाँ एक - दूसरे पर आश्रित रहते हुए एक आपसी सामंजस्य स्थापित कर लेती हैं। इस प्रकार पूरा का पूरा इकोसिस्टम एक समग्र इकाई के रूप में जीता है और अपनी पहचान पर कायम रहता है। जब किसी स्थापित इकोसिस्टम में कोई एक तत्व दूसरे पर हावी होने की कोशिश करता तो बिगड़ते हुए बैलेन्स को ठीक करने वाले तत्व भी उसके भीतर ही प्रकट हो जाते है। लेकिन जब से धरती पर मनुष्य का वर्चस्व बढ़ा है, उसने इस पृथ्वी के समेकित इकोसिस्टम को तथा उसके विभिन्न भू - भागों में स्थापित विविध प्रकार के विशिष्ट पहचान वाले पारिस्थितिक केन्द्रों के बैलेन्स को हिलाकर रख दिया है। मनुष्य के इस हस्तक्षेप की कोई तोड़ नहीं दिखती। इसकी परिणति सिर्फ़ विनाश की ओर ले जाने वाली लगती है। मनुष्य अपने स्वार्थ में इस इकोसिस्टम से कुछ तत्वों को उजाड़ रहा है। इसके चलते दूसरे कुछ तत्व इसमें से अपने आप ही उजड़े जा रहे हैं। दिल्ली जैसे महानगरों में गौरैया जैसी घरेलू चिड़िया का लगभग ग़ायब हो जाना इसी तरह का एक परिवर्तन माना जा सकता है। गौरैया इन महानगरों से खुद नहीं ग़ायब हुई है। उसे ग़ायब होने के लिए मजबूर किया गया है। उसे यहाँ से निर्वासित किया गया है। अखिलेश की बायस्कोपी दृष्टि प्रकृति में हो रहे इस तरह के निर्वासन पर भी पड़ती है। वे लिखते हैं, ‘जब वृक्ष, उनकी शाखें, उनके पत्‍ते नहीं होंगे तो चिड़िया चहकेंगी कहां, आखिर इन चिड़ियां चुनमुन ने कहां ठिकाना बनाया होगा? क्‍या इन्‍होंने अपने प्रति आदमजात की बेमुरौव्‍वती, बेरहमी से आजिज होकर आत्‍मनिर्वासन चुन लिया है  या डर कर, घबरा कर बहुत से पक्षी लोग बचने के लिए किसी गुप्‍त ठीहे पर चले गये हैं?’ अखिलेश द्वारा अभिव्यक्त पक्षियों की यह पीड़ा निर्वासन की उस महावेदना को अभिव्यक्त करती है, जो इस दुनिया के कोने - कोने में व्याप्त है और मनुष्यों की अपनी ही हरक़तों के कारण तीव्र से तीव्रतर होती जा रही है।  

‘निर्वासन’ में ‘गोसाईंगंज चरित’ के बहाने अखिलेश ने आज के ग्रामीण परिदृश्य का बड़ा ही यथार्थपरक ख़ाका खींचा है। प्रेमचंद के ‘गोदान’, फणीश्वरनाथ रेणु के ‘मैला आंचल’ तथा श्रीलाल शुक्ल के ‘राग दरबारी’ के बाद एक लंबे समय के पश्चात हिन्दी के उपन्यास जगत में इस तरह का ग्रामीण अंचल से जुड़ा सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक विमर्श हमारे सामने आया है। रेणु और श्रीलाल शुक्ल के ज़माने का गाँव अब पूरी तरह बदल गया है। वहाँ पंचायतीराज संस्थाओं की लूट - खसोट जारी है। सभी के हाथों में मोबाइल हैं, घरों में टीवी सेट हैं, सरकार लैपटॉप बंटवा रही है, लेकिन बेरोजगारी बेशुमार है। खेती के तौर - तरीके बदल गए हैं। मशीनीकरण के चलते मवेशी ग़ायब रहे हैं। अखिलेश ने आज के इस बदले हुए गाँव की बदहाली और व्यथा को तो अपनी कथा में समेटा ही है, रामअजोर के पुरखों की खोज के बहाने उसके अतीत में भी बखूबी झांका है। इस बदलाव के दौरान गाँव से आदमी ही नहीं, और क्या - क्या निर्वासित हुआ है, इसकी भी उन्होंने पड़ताल की है। मसलन उनका यह वर्णन देखिए, ‘गांवों में छोटी जाति वाले खेतिहर भी ट्रैक्‍टर से खेत की जुताई कराते हैं इसलिए बैल बेकार की चीज़ हो गये हैं। यही हाल गाय भैंसों का है। देशी वाली सेर भर से ज्‍यादा दूध नहीं देती तो उनको बैठा कर कोई क्‍यों खिलायेगा क्‍योंकि अब उनके बच्‍चों की भी कोई क़ीमत नहीं रह गयी। उन्‍हें क़साई को देने में कई बार ममता तो कई बार धरम राह रोकता है। इसलिए उनको गांव से खदेड़ दिया जाता है। भाग कर वे दूसरे गांव जाते हैं, वहां से भी खदेड़ दिए जाते हैं। आख़िरकार शहर में भटकने, पिटने, मार खाने, जलील होने के लिए चले आते हैं।गांव से मवेशियों का यह निर्वासन दयनीय है और गाँव से शहर की ओर पलायन करके वहाँ फुटपाथों और फ्लाई ओवरों के नीचे परिवार - सहित गुजर - बसर करने वाले भूमिहीन मजदूरों की दुर्दशा के समान है। जगदम्बा कुम्हार के बाबा भी गाँव से दुर्भिक्ष के समय पलायन करके कलकत्ता चले गए थे। उसके बाद उनका क्या हुआ यह किसी को ज्ञात नहीं। उपनिवेशकाल में विदेशों की ओर पलायन कर गए मजदूर परिवारों के ऐसे लाखों लोगों के बारे में भारत के हज़ारों गाँवों में किसी को कुछ पता नहीं। परिवार के जो लोग यहाँ बचे, वे धीरे - धीरे उन्हें भूल गए और जो वहाँ जाकर बस गए, उनके पोते - पड़पोते अपनी जड़ें तलाशते घूम रहे हैं। गोसाईंगंज का इतिहास, भूगोल और समाजशास्त्र बताने के लिए अखिलेश खूबसूरती के साथ जगदम्बा के वृत्तान्त का सहारा लेते हुए एक बालक से उपन्यास ‘2048’ लिखवाते हैं और उसमें अपनी कल्पना - शक्ति के सहारे अतीत के गोसाईंगंज का एक ऐसा रूपक खड़ा करते हैं, जो उस ज़माने के इतिहास की गहराई में जाता है, और जहाँ जरूरी है, वहाँ उसकी बखिया भी उधेड़ता है। उसमें अवध के किसानों द्वारा ब्रिटिशकाल में ज़मींदारों के विरुद्ध किए गए विद्रोह, आज़ादी के आंदोलन, स्वतंत्रता सेनानियों की दुर्दशा आदि तमाम बातों का पैना विश्लेषण है।

उपन्यास के कथानक में अखिलेश ने जगह - जगह हमारे चारों तरफ बढ़ते जा रहे इस मनुष्यजनित विस्थापन की विवेचना को खुबसूरती से पिरोया है जो हमारे भीतर कथा के आस्वादन को समृद्ध करने के साथ - साथ एक गंभीर विचारोत्तेजना भी पैदा करता है। चाचा के घर में जब सूर्यकांत तरह - तरह की पुरानी उन वस्‍तुओं को देखता है जो अब आमतौर पर घरों में प्रयोग में नहीं लाई जातीं तो वह चकित हो उठता है। चाचा का मानना है ये वस्‍तुएँ नैसर्गिक रूप से गायब नहीं हो रहीं, उन्हें जानबूझकर गायब किए जाने की साज़िश रची जा रही है। चाचा इसका खुलासा इस प्रकार से करते हैं, "वे गायब नहीं हुई हैं।" चाचा हंसे – "वे अपनी अपनी जगह से धकेल दी गयी हैं। मैं समझ रहा हूं तुम्‍हारी बात। ये देसी आम, ये बरतन ढिबरी, लालटेन, ये सिकहर, ये सिल लोढ़ा, ये सब इसी भारत देश में है पर अपनी अपनी जगह से धक्‍का दे दिए गए हैं। ये ऐसे अंधेरे में गिर गए हैं कि तुम लोगों को दिखायी नहीं देते। पर ये हैं।" और तो और, अखिलेश ने हमारे आसपास से गायब होती जा रही संज्ञाओं के निर्वासन की ओर भी हमारा ध्यान आकर्षित किया है। ये संज्ञाएं हमने ही रची थीं और अब हम ही उन्‍हें देश निकाला दे रहे हैं। अखिलेश इस बारे में लिखते हैं, हमारे देश को गुलाम बनाने वाले अंग्रेजों ने हमारी इन संज्ञाओं का नाश नहीं किया। उनके समय में और उनके जाने के बाद भी हमारे स्‍थान, वस्‍तुएं, ऋतुएं, मौसम, दूरियां, स्‍वाद - सब अपनी अनगिनत संज्ञाओं के साथ थे। पर इधर हमने उन्‍हें कुचला। देशनिकाला दिया। वे मिट गये हैं या बेदखली भोग रहे हैं। यह ख्‍याल कितना भयानक है कि कई मील, कई कोस में फैला एक जेलखाना है जिसमें असंख्‍य संज्ञाएं सजा भुगत रही हैं। कालकोठरी में मृत्‍युदंड की सज़ा पाये कैदी की तरह।इसमें भारतीय अस्मिता के क्षरण के कारणों पर एक नया दृष्टिकोण रखा गया है। इसमें उन लोगों को एक करारा जबाब दिया गया है, जो हमारी पहचान के खो जाने का सारा दोष देश की गुलामी और अंग्रेज़ों द्वारा किए गए सांस्कृतिक आक्रमण पर मढ़ते हुए सच्चाई से मुँह चुराते घूमते हैं। इसमें हमारी अस्मिता पर हो रहे संक्रमण के कारक तत्वों की ओर इशारा किया गया है और इस ऐतिहासिक तथ्य को रेखांकित किया गया है कि यह संक्रमण और संज्ञाओं का विलोपन औपनिवेशिक काल में नहीं हुआ है। यह सब तो आज़ादी के बाद हो रहा है, जिसके लिए अंग्रेज़ नहीं, सिर्फ़ हम जिम्मेदार हैं, हमारी नीतियाँ जिम्मेदार हैं। यहाँ इस बात की ओर भी एक इशारा है कि हमारी वास्तविक पहचान कहीं खोई नहीं है, वह तो बस बेदखल करके गाँवों में बसने वाले उस भारत की ओर धकेल दी गई है, जो इस बदले हुए भारत के भीतर डरा - सहमा किसी कैदी की तरह रहता है। अखिलेश का यह विमर्श ‘भारत बनाम इंडिया’ के विमर्श जैसा है। अखिलेश का हमारी मौलिक संज्ञाओं का यह कैदख़ाना अरविन्द अडिगा के उपन्यास ‘द व्हाइट टाइगर’ में वर्णित बहुचर्चित ‘अँधेरे भारत’ जैसा है। अखिलेश ने इस उपन्यास के माध्यम से हमारे देश में वर्तमान सभ्यता के भीतर मुँह छिपाकर जीने वाली मौलिक सभ्यता, आधुनिकता के आवरण में ढँकी छद्म - वैचारिकता, वैश्वीकरण के प्रभाव से बढ़ती जा रही सामाजिक एवं सांस्कृतिक विषमता आदि का एक ऐसा ख़ाका खींचा है, जो हमें बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर देता है।    

अखिलेश ने ‘निर्वासन’ में विश्व भर में और विशेष रूप से भारतीय समाज में व्याप्त असहिष्णुता और हाशिए पर फेंक दिए गए, या कह लें, धकेल दिए गए लोगों के प्रति उसकी संवेदनहीनता के प्रतिरोध में भी आवाज़ उठाई है। ‘निर्वासन’ में ‘बतर्ज़ हिन्द स्वराज’ अध्याय में चाचा - भतीजे के संवाद के बहाने उन्होंने इन मुद्दों पर जमकर अपनी बात कही है। वे लिखते हैं, ‘पुराने का जाना और नये को आकर पुराना होना और जाना, इस नियम से मैं भी वाकिफ हूं किंतु ऐसा भी नहीं होता कि किसी वृक्ष पर केवल नये पत्‍तों को ही रहने का अधिकार होता है। पतझड़ एक साथ सभी पुरानी पत्‍तियों को नहीं उखाड़ देता है। इस तर्क से समाज में जो पिछड़े हैं, जो हाशिए पर हैं, उनकी संस्कृतियों, उनके रिवाज़ों, उनकी रुचियों के लिए कोई जगह ही नहीं होनी चाहिए।अखिलेश की दृष्टि में स्वार्थपरता और आपाधापी से भरे इस संसार में मनुष्य अपनी उल्टी गंगा बहा रहा है। यहाँ ताक़तवर इन्सान अपने हित को ही आगे रखकर विकास का फार्मूला तय करता है और कमज़ोर लोगों की राहों में कांटे बोता हुआ चलता है। बाद में जब यही दबे - कुचले लोग संघर्षरत हो उठते हैं तो उसकी ऐय्याशी की हवा भी निकल जाती है। इस प्रकार मनुष्य ही यहाँ मनुष्य का सबसे बड़ा दुश्मन बना हुआ है। अखिलेश इस संदर्भ में स्पष्ट लिखते हैं, ‘मौजूदा सभ्‍यता तो अपने आप में एक आभासी संसार है जिसमें बाशिन्‍दों के साथ एक कपटलीला हो रही है। वे समझते हैं कि पा रहे हैं लेकिन दरअसल वे खो रहे हैं। जिसे वे अमीरी, सुख, सुरक्षा जान रहे हैं वह असल में दारिद्र्य, दुख और ख़तरा है। जो बहुत चमकीला है वह बहुत बदरंग है। उलटबासी ही आज का  यथार्थ है।’ मेरे विचार में  ‘निर्वासन’ के ‘बतर्ज़ हिन्द स्वराज’ अध्याय में दर्ज़ चाचा - भतीजे के संवाद का वैचारिक विमर्श और भारत की स्थिति की सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक विवेचना, या कह लें, चीर - फाड़ साहित्यिक दृष्टि से बेजोड़ है। इसमें वर्णित चाचा के आत्मनिर्वासन का रहस्य, उनके दौलत की दासता से छोड़कर सादगी के रास्ते पर बढ़ चलने का कारण, ऊपर उद्धृत आधुनिकता की उलटबासी, यौन - शुचिता की अवधारणा, विलोम से भरी व्यवस्था, विकास - परियोजनाओं का विद्रूप, समष्टि के विकास का फार्मूला, समृद्ध और ताक़तवर देशों की हिंसात्मक व साम्राज्यवादी प्रवृत्ति, तरक्की की स्पीड के पीछे छिपा शोषण का आखेट, दलित - आंदोलन की विफलता, आधुनिकता की मीमांसा, सभी कुछ आज के साहित्य और समाज में वही महत्व अर्जित करता है, जैसा कि मध्यकाल में सामाजिक नीति और आचरण के संबन्ध में तुलसी के ‘रामचरित मानस’ में दर्ज़ राम और भरत के संवाद ने अर्जित किया था।   

‘निर्वासन’ के चाचा को नएपन से परहेज़ नहीं है, किन्तु उनके लिए उसका अहंकार और बेमुरव्वती असह्य है। इसीलिए उन्हें नएपन से घृणा है। वे ऐसे समय में रहना चाहते थे जहाँ नए - पुराने दोनों की सुंदरताएँ एक - दूसरे को मजबूती देती हों, लेकिन ऐसी जगह कहीं मिली नहीं। वे जानते हैं कि मनुष्य अकेले अपने सपनों के भविष्य को हासिल नहीं कर सकता, इसीलिए वे भविष्य में न जाकर अतीत में चले गए। वे जानते हैं कि यह पुराना समय सहज नहीं, बनावटी है, किन्तु फिर भी उन्हें संतुष्टि है कि यह उन्हीं का गढ़ा हुआ है। उन्हें अश्लीलता परोसते टेलीविज़न - कार्यक्रमों और सिनेमा में कोई रुचि नहीं और न ही अर्धनग्न अभिनेत्रियों में। वे यौन - शुचिता में भले ही विश्वास न करते हों किन्तु वे सोचते हैं कि स्त्री हो या पुरुष, यदि वह प्रेम करेगा तो वह केवल मन के स्तर पर ही न होकर शरीर के स्तर पर भी जरूर होगा, इसलिए यदि भावना के स्तर पर साथी की हिस्सेदारी पसन्द नहीं की जा सकती तो फिर शरीर के स्तर वह कैसे स्वीकार्य हो सकती है। व्यक्ति जब प्यार करने वाले को ही अपनी आत्मा का समूचा अमृत पिलाना चाहता है, तो फिर वह शरीर का सारा वैभव और सौन्दर्य भी उसे ही अर्पित करना चाहेगा। उन्हें यह देखकर दुख होता है कि न्याय, स्वास्थ्य, शिक्षा, राजनीति जैसी चीज़ें जो समाज को सुन्दर बनाने के लिए रची गई हैं, वे ही इन्सान को आज के ज़माने में सबसे ज़्यादा डरा रही हैं, अपने मक़सद के विलोम से भरी हुई हैं। उनका मानना है कि सुन्दरता तभी जन्म लेती है जब उसमें इन्सान, पशु, पक्षी किसी का भी जीवन भीतर से खुशी पाए। ये राष्ट्रीय राजमार्ग जो करोड़ों वृक्षों का वध करके बने हैं, खूबसूरत कैसे हो सकते हैं? ये औद्योगिक विकास के उपक्रम जो किसानों की ज़मीन छीनकर तैयार हो रहे हैं, ये बांध, बिजली परियोजनाएँ जो इलाके की पूरी - पूरी आबादी को बेघर, विस्थापित करके प्रकट हो रही हैं, सुन्दर कैसे हो सकती हैं? ये विकास दरअसल लूट - खसोट है। मनुष्य की बेहतरी ही असली विकास है। कोशिश यही होनी चाहिए कि संसार की हर प्रिय चीज़ का रूप, रस, गंध, स्पर्श बचाते हुए तरक्की की मंज़िलें हासिल हों। अच्छी चीज़ों को खोकर विकास को पाना अक्लमंदी नहीं। विकास और आज की सभ्यता का यही शऊर है कि आने वाली पीढ़ियों और आने वाले समय के बारे में मत सोचो, सब कुछ आज ही दुह लो। अपना भला कर लो, भविष्य अंधकारमय हो तो होता रहे। आज जो जितना ही समृद्ध है उतना ही हिंसक है और जो जितना ही ताक़तवर है, वह उतना ही असहिष्णु। लोग नहीं समझते कि दूसरों को अशान्त करके, सता करके, दुखी करके, हड़प करके कोई शांत और सुखी नहीं रह सकता, पनप नहीं सकता। स्पीड आज की सभ्यता की बुनियाद भले ही हो, किन्तु शिकारी के डर से दौड़ लगाने वाले सुन्दर नहीं लग सकते। आज जो लोग भाग रहे हैं, उन्हें तो पता भी नहीं कि उनका आखेट हो रहा है। उनकी धारणा है कि आधुनिकता वह होती है जिसके सामने पुराना स्वयं मिट जाए। जो आधुनिकता पुराने को जबरदस्ती मिटाती है, उसे तबाह करके काबिज़ होती है, वह सच्ची आधुनिकता नहीं है। जो ताक़त, छल, भरम, धन और क्रूरता के बल पर अपने को स्वीकार कराता है, वह दमनकारी होता है, आधुनिक नहीं। नयापन वह है जो ईश्वर और मृत्यु को चुनौती दे। असलियत यह है साइंस और नएपन का उद्देश्य सभी को हराना, उन्हें अपना ग़ुलाम बनाना हो गया है। वे मूर्ख होते हैं जो मानते हैं कि हथियार खुद निर्णय नहीं लेते, वे केवल हमारी इच्छाओं के मुताबिक चलते हैं और उनकी अपनी कोई इच्छा नहीं होती। आदमी ने तकनीक और तरक्की को हथियार बनाया है मगर अंतत: वह खुद उनका हथियार साबित हो रहा है।              

          अखिलेश का यह उपन्यास भारत की आर्थिक एवं सामाजिक विषमताओं, औपनिवेशिक काल से लेकर आज तक उसके आर्थिक व सामाजिक ढाँचे में आए बदलावों, वर्तमान राजनीतिक व प्रशासनिक विद्रूपताओं आदि पर एक यथार्थपरक एवं बृहत्तर दृष्टिकोण हमारे सामने रखता है। भारत में सामाजिक विषमता ने ही किसी न किसी रूप में आर्थिक विषमता को भी बढ़ावा दिया है, ऐसी सर्वमान्य धारणा है। इसके लिए वह मनुवादी व्यवस्था जिम्मेदार है, जिसने जन्म के आधार पर मनुष्यों को ऊँची - नीची जातियों के खाँचे में फिट कर दिया है और उनके जीवन भर के काम - काज व श्रम के विनियोग की दिशा तय कर दी है। अलग - अलग जातियों के लिए निर्धारित कर्म के आधार पर ही उनके बीच आर्थिक संसाधनों का बँटवारा भी होने से आर्थिक विषमता सीधे - सीधे सामाजिक विषमता से जुड़ गई। जातिगत ऊँच - नीच को तथा उससे संबद्ध श्रम के विभाजन को एक दंडविधान के सहारे इतना मजबूत बना दिया गया कोई भी उसके विरुद्ध चूँ भी नहीं कर पाया था। सदियों से चली आ रही इस विषमताकारी व्यवस्था को आज़ाद भारत में संवैधानिक प्रावधानों के सहारे तोड़ने और मिटाने का सपना जरूर देखा गया किन्तु यह विषमता है कि मिटती ही नहीं। ऊँच - नीच की मानसिकता हमारे भीतर इतने गहरे पैठी हुई है कि लाख पढ़ - लिख जाने के बाद और सामाजिक समता के सिद्धान्तों के बीच जी लेने के बाद भी कोई उससे पूरी तरह उबर नहीं पाता। और तो और जो इस सामाजिक सीढ़ी में आरक्षण आदि के सहारे नीचे से ऊपर आ जाता है, वह पलटकर अपनी ही जाति के अन्य लोगों को नीचे ही बनाए रखने में अपना हित देखने लगता है। अखिलेश ने इन सभी सामाजिक तथ्यों का यथार्थपरक और तटस्थ रूप से चित्रण किया है। रामअजोर पांडे के पूर्वजों की वस्तुस्थिति गोसाईंगंज के जगदंबा कुम्हार के पूर्वजों से मेल खाती है, तो भी जातीय चश्में से ही सारे रिश्ते - नाते जाँचने - परखने वाले भारतीय समाज में यह शोध - परिणाम मान्य नहीं होगा, इस यथार्थ को सामने रखकर ही अखिलेश उपन्यास में सूर्यकांत से रामअजोर पांडे को ऐसी अप्रिय रिपोर्ट नहीं दिलवाते हैं। उनकी डीएनए मैचिंग कराए जाने पर राम अजोर पांडे के समाजच्युत हो जाने का ख़तरा है। रामअजोर पांडे के पूर्वज ब्राह्मण नहीं थे, कुम्हार थे, यह बात वह अमरीकावासी हो जाने के बाद भी नहीं स्वीकारेगा, यही दुनिया भर में फैले भारतीय डायस्पोरा का यथार्थ है। अखिलेश इस यथार्थ को बेबाकी से सामने रखते हुए हमारी जातिवादी मानसिकता की डीएनए मैपिंग इस प्रकार से करते  हैं, ‘इस देश में एक पंड़ित का शूद्र बन जाना या शूद्र का ब्राह्मण होना असंभव है। यहाँ असंख्‍य कहानियाँ, लोकगाथाएँ, गीत, शास्‍त्र, मत मतांतर, जादू, फंतासी और चमत्कार हैं पर किसी में ब्राह्मण और शूद्र एकमएक नहीं हुए। एक ब्राह्मण पेड़ में बदल सकता है या पत्‍थर में; वह जानवर, राक्षस, पहाड़, नदी सब कुछ हुआ है, लेकिन वह शूद्र हो गया हो और शूद्र ब्राह्मण, ऐसा अजूबा कभी नहीं घटा।’ अखिलेश की यह व्यंग्योक्ति भारतीय वर्ण - व्यवस्था के क्रूर चेहरे पर एक जोरदार तमाचा है।

चूँकि उपनिवेशकाल में आर्थिक रूप से वही ज़्यादा पिछड़े व विपन्न थे, जो वर्ण - विधान में निचले पायदान पर थे और सामाजिक रूप से हाशिये पर थे, इसलिए किसी भी आपदा का सबसे ज़्यादा दुष्प्रभाव भी उन्हीं पर पड़ता था। ‘निर्वासन’ में अखिलेश ने उस समय की इस ऐतिहासिक सच्चाई को सामने लाने की कोशिश की है। जो अकाल के कारण अपने गाँवों से देश के अन्य हिस्सों अथवा गिरिमिटिया मजदूर आदि बनकर अंग्रेज़ों की चाकरी करने के लिए विदेशों की तरफ पलायन करने को मजबूर हुए, वे ज़्यादातर भूमिहीन खेतिहर मजदूर आदि थे और निम्न मानी जाने वाली जातियों से ही थे। सम्पन्न घरों के लोग भी प्राय: उच्च शिक्षा या काम - धंधे की तलाश में उपनिवेशकाल में अपनी जड़ों से दूर जाते थे, किन्तु या तो वे एक निश्चित अवधि के बाद वापस लौट आते थे या फिर वे जहाँ भी बसते थे, वहाँ से अपने घर - परिवार से संपर्क बनाए रखते थे और आवाजाही करते रहते थे। वे आज भी ऐसा ही करते हैं और उनका अपनी जड़ों से कभी भी ऐसा विलगाव नहीं होता कि वे उनकी तलाश में छटपटाते रहें किन्तु उन तक पहुँच न पाएँ। उपनिवेशकाल के आपदाजन्य विस्थापन की पड़ताल करते हुए अखिलेश ‘निर्वासन’ में लिखते हैं, ‘जब अकाल पड़ा था तब सवर्ण जातियों, जिनके अनेक लोग अपने को आपके बाबा के कुल का दीपक बता रहे हैं, से कोर्इ भी गांव गोसाईंगंज से विस्‍थापित नहीं हुआ था। काम धंधा, रोजगार के चक्‍कर में फ़ैजाबाद या पास के किसी दूसरे शहर तक नहीं गया था, शायद इसकी ज्‍यादा जरूरत नहीं पड़ी थी। उस दौर में गांव से विस्‍थापन, पलायन करने वाले अधिसंख्‍य लोग पिछड़ी और अस्‍पृश्‍य जातियों के थे। चमार, तेली, यादव, कुम्‍हार, धोबी, नाई, केवट जातियों के लोगों का कोई ऐसा घर नहीं था जिसका कम से कम एक सदस्‍य कमाई के सिलसिले में गांव छोड़ने के लिए मजबूर न हुआ हो। पलायन के झटके का सामना करने वालों को कहीं अपनी पहचान छिपाने की जरूरत पड़ी, तो कहीं उसको बदलने की। ऐसा होना स्वाभाविक था, कहीं कुछ पाने के लिए, कहीं बेइज्जती से बचने के लिए। आज से सौ साल पहले तो पिछड़ी और दलित जाति वाले व्यक्ति के लिए वर्ण - विधान से अलग होने या उसे तोड़ने की न तो कोई मंशा ही हो सकती थी और न ही उनके लिए इसका कोई अवसर हो सकता था। उस समय आज की भाँति अपनी पहचान का प्रमाण - पत्र देने से उन्हें किसी आरक्षण या विशेषाधिकार का लाभ भी नहीं मिलने वाला था, बल्कि उस पहचान से घाटा ही घाटा था। अत: जो भी अपनी पहचान छिपाकर कुछ बेहतर हासिल कर सकता था, उसने चुपचाप वैसा कर लिया। अखिलेश उस काल की इस स्थिति को अपने उपन्यास में यूँ बयान करते हैं, ‘भगेलू कुम्‍हार यानी कि रामअजोर के बाबा द्वारा अपनी जाति असत्‍य बतलाने के पीछे कोई सुनियोजित रणनीति नहीं थी। ऐसा भी नहीं था कि वर्णाश्रम व्‍यवस्‍था में ऊंचे पायदान पर पहुंचने की कोई आकांक्षा थी उनके मन में। क्‍योंकि वर्णाश्रम में यह कभी संभव ही नहीं था और न किसी के भीतर ऐसी हसरत पैदा होने की गुंजाइश थी।’

अखिलेश ने आधुनिकता के प्रश्न से जुड़े विचारों को अपने उपन्यास में जगह - जगह उलट - पलटकर परखा हैं और विभिन्न पात्रों के माध्यम से अपने निष्कर्षों को हमारे सामने रखा है। निर्वासन की बात पर केन्द्रित रहते हुए वे पुरानी चीज़ों, शब्दों व विचारों के ग़ायब होने का प्रश्न जरूर सामने रखते हैं, किन्तु ऐसा नहीं है कि वे अतीत के मोह में प्रतिक्रियावादी बन रहे हों। चाचा - भतीजे के संवाद से इसका स्पष्ट खुलासा होता है कि वे अतीत के कायल नहीं, किन्तु वर्तमान की भयावहता से वे इस क़दर व्यथित हैं कि पुराने में रमे रहने का मन करता है। यहाँ आधुनिकता के प्रति मोह - भंग की स्थिति है। इस संवाद में चाचा कहते हैं, ‘मैं बिल्‍कुल पुरातनपंथी नहीं हूं न मैं इसका क़ायल हूं कि सच्‍चाई और सुंदरता पुराने में ही बसती है। लेकिन मैं क्‍या करूं.... जो वर्तमान है इन दिनों, इसका हर मंज़र देख कर, इसकी हर ध्‍वनि सुन कर मेरा माथा फटने लगता है। महसूस होता है संसार इतना बदसूरत कभी नहीं रहा होगा। मैं यह सोचते हुए थर्रा उठता हूं कि ज़माना इसी रफ़्तार से चलता रहा तो हमारा भविष्‍य और आने वाला संसार कितना घटिया और भयंकर होगा।’ भविष्य की यही चिन्ता उन्हें आधुनिक एवं उत्तर आधुनिक सोच से परे हटकर कुछ नया सोचने को मजबूर करती है। वैसे भी अखिलेश स्वभाव से भविष्य - चिंतक लेखक हैं। वे किसी भविष्यदृष्टा की तरह भविष्य में घटित होने वाली बातों को भांपकर अपने आख्यान में शामिल कर लेते हैं। सच्ची आधुनिकता क्या है, इसे स्पष्ट करते हुए सूर्यकांत ‘निर्वासन’ में गौरी से कहता है, ‘लेकिन सोचो कि वंश की गुमनामी ने तुम्‍हें कितनी सामाजिक बुराइयों से बचाया है। वंश का ज्ञान और उसकी प्राचीनता हमें क्‍या देती है धर्म और जाति की लम्‍बी, अगम्‍य कट्टरता। इस मायने से सोचने पर पाओगी कि तुम कितनी सामाजिक बुराइयों से बची हुई हो - एक ऐसी इंसान हो जो सही अर्थ में आधुनिक है। तुम जाति, धर्म, कर्मकांड, रूढ़ियों, अंधविश्‍वासों से मुक्‍त अनोखी शै हो जिसे मैं बेइंतिहा प्‍यार करता हूं। तुम क्‍यों इतिहास और जड़ों के नाम पर, अपने प्राचीन की पहचान के नाम पर अपने लिए एक क़ैदखाना बनाना चाहती हो।जातीय और धार्मिक कट्टरता अतीत के मोह से बढ़ती है। उसकी पहचान मनुष्य को संकीर्णता में जकड़ देती है। जो इस पहचान से मुक्त हो जाता है, वही सही मायने में आधुनिक है। राजकुमार अपने लेख ‘निर्वासन - बहुरि नहिं आवना ये देस’ (नया ज्ञानोदय, अंक 134, अप्रैल 14) में लिखते हैं, ‘आधुनिकता के सांस्कृतिक मूल्यों में अन्तर्निहित विडंबनाओं का उद्घाटन करने वाला अपने तरह का हिन्दी में लिखा गया यह पहला उपन्यास है। …… यह उपन्यास आधुनिकता के मूल्यों की ही नहीं, भारतीयता की उस अवधारणा की भी आलोचना करता है, जिसमें जाति - प्रथा, पितृ - सत्ता और हिन्दू - साम्प्रदायिकता को गौरवान्वित किया जाता है।’ राजकुमार की यह निष्पत्ति पूरी तरह से सही लगती है।  

‘निर्वासन’ की सबसे विशिष्ट और मजेदार बाद यह है कि जहाँ अभी तक के सभी महत्वपूर्ण उपन्यासों में लेखकगण पात्रों के चरित्र और विचारों में घुसकर अपनी बात कहते हुए समाज की विसंगतियों का प्रतिपक्ष बनते रहे हैं, इस उपन्यास में अखिलेश ने जगह - जगह पात्रों को लेखक के प्रतिपक्ष के रूप में खड़ा किया है। यह एकदम नई शैली है। इसमें अनोखा अर्थ भी निहित है। यहाँ आत्मालोचना व आत्म - विश्लेषण भी है। यह आत्म - विश्लेषण तुलसी के ‘कवि न होंउ’ जैसी विनम्र अभ्युक्ति जैसा नहीं है, जहाँ लोगों को अपने ऊपर भरोसा बढ़ाने के लिए अपने कृत्य का साधारणीकरण किया गया। यहाँ पात्रों की कथाकार से जमकर भिड़ंत होती है। तर्क - वितर्क होता है। कथा की प्रतिकथा सृजित की जाती है। कहे गए सच के पीछे छिपा झूठ उजागर किया जाता है। मसलन जगदम्बा के पोते का यह सोचना देखिए, ‘मेरे बाबा श्रीयुत जगदम्बा की भूख का चित्रण लेखक द्वारा बड़ा रस लेकर किया गया है। मेरा इस पर सख्‍़त ऐतराज है। मुझे लगता है लेखक को गरीबों की भूख का अहसास ही नहीं है अथवा वह गरीबों को भूखा रखने वाली सरमायादार ताकतों का एजेण्‍ट है।’ इसी तरह का एक अन्य संदर्भ देखिए, ‘मैं उपन्‍यासकार साहेब से एक सवाल करना चाहूंगा कि ठीक है समस्‍या की वजह ज्‍यादा प्रजनन है और ज्‍यादा प्रजनन की वजह हमारा असभ्‍य और अशिक्षित होना है। तो कामरेड ख़ता हमारी है कि इस समाज व्‍यवस्‍था की जिसने हमें असभ्‍य अशिक्षित बनाया और बना रहने दिया। यह कलंक हमारे माथे पर नहीं लिखा जाना चाहिए कि भूख लगने की बीमारी के कारण हम परेशान हैं, बल्कि इस मुल्‍क की उन पूंजीवादी, सामंतवादी सत्‍ताओं के माथे को दाग देना चाहिए कि यदि यह बीमारी है तो उसका तुम्‍हारे पास इलाज क्‍यों नहीं है? कोई भी इंसान भूखा, अशिक्षित, बीमार और तंगहाल होता है तो गलती उसकी नहीं, सरमायादार ताकतों की होती है।’ अखिलेश ने इस तरह के अंशों को जोड़कर उपन्यास - कला को एक नया आयाम दिया है। उपन्यासकार की तरफ से लिखे गए कथानक व पात्रों के संवादों से अलग इस तरह के कथ्य उस संभावना का आगाज़ हैं, जिसमें रचनाकार स्वयं आभासी पाठक बनकर अपने लेखकीय प्रतिरूप से अपनी मनमर्जी के अनुरूप सवाल कर सकता है। यह निश्चित ही रचनाकार एवं रचना की विश्वसनीयता को बढ़ाने वाला कदम है।

भाषा की दृष्टि से अखिलेश एक अतिसंपन्न कथाकार तो हैं ही, किन्तु ‘निर्वासन’ में उन्होंने अपनी विशिष्ट शैली के साथ - साथ भाषा की प्रयोगशाला - सी स्थापित कर दी है। प्रचलित शब्दों का तिलिस्म रचने के साथ - साथ उन्होंने इस उपन्यास में भाषा से निर्वासित शब्दों को खोजने और उन्हें सामने रखने का काम किया है। दाल पकाने के लिए पुराने ज़माने में इस्तेमाल किए जाने वाले अदहन को वे सामने लाते हैं। उन्होंने लड़बहेर, लाल बुझनी, गड़खुल्ली जैसे अनेक अजीबोगरीब देशज शब्दों का प्रयोग भी किया है। उन्हें अंग्रेज़ी और उर्दू के प्रचलित शब्दों से भी कोई परहेज़ नहीं, क्योंकि इनका प्रयोग तो भाषा को संपन्न ही बनाता है।  ‘गरीब की लुगाई, गाँव भर की भौजाई’, जिसको मौज़ आए मज़ाक़ करे’, ‘अम्‍मा मेरे लिए एक तपता की तरह रहीं जो जाड़े के मौसम को बदल नहीं सकता मगर उसकी आंच में आप कैसी भी सर्द रात काट सकते हो’, ‘आग के दो पेड़ दौड़े जो थोड़ी ही दूरी पर अररा कर गिर गये’ जैसे अनेक ज़ुमलों का प्रयोग करके उन्होंने अपनी भाषा को अत्यन्त प्रभावशाली बना दिया हैं।      इस उपन्यास से उनकी भाषा और शैली का एक बेहतरीन नमूना देखिए, “निवेदन करना है मान्यवर कि आप गुटखा, तंबाकू, सुपाड़ी आदि का इस्तेमाल कदापि न करें। सर स्वास्थ्य और जीवन अमूल्य है जबकि ये खाद्य पदार्थ अनेक मारक रोगों के कारक बनते हैं। उनमें एक रोग ऐसा है जो असाध्य और प्राणहंता होता है। इसलिए मैं करबद्ध प्रार्थना करता हूँ कि आप गुटखा, तंबाकू आदि लेना बंद कर दें।” …… अभी अभी उसने संपूर्णानंदबृहस्पतिसे जो कहा था उसका भावानुवाद इस प्रकार है - “अबे बदमाश! गुटखा तंबाकू वगैरह जो हमेशा तू खाता रहता है, छोड़ दे! कंजूस की दुम, इससे तेरा पैसा बचेगा और तंदुरूस्ती भी ठीक रहेगी। अगर अपनी आदत से बाज़ नहीं आया तो तुझको कैंसर हो सकता है। तब एक दिन तू नहीं तेरी लाश ही खायेगी गुटखा और तंबाकू। नाली के कीड़े! बेग़ैरत! तंबाकू, गुटखा ज़हर है ज़हर, इसे छोड़ देने में ही तेरी भलाई है।उपन्यास पढ़ने के बाद लगता है कि निर्वासनके कवर पर सुप्रसिद्ध लेखक काशीनाथ सिंह द्वारा ‘हिन्दी में गिने - चुने कथाकार हैं जो कलाकार भी हैं और इस मामले में अखिलेश का कोई जोड़ नहीं’, कहा जाना कहीं से भी अतिशयोक्ति नहीं।    

औपन्यासिक कला की दृष्टि से ‘निर्वासन’ निश्चित ही अन्य सारे समकालीन उपन्यासों से हटकर है। इसके कथानक में कुछ अलग किस्म की रोचकता है। किसी स्थान, व्यक्ति, विकार या विचार के वर्णन की अखिलेश की शैली शुरू से ही निराली रही है। यह हमने उनकी कहानियों में भी देखा है। वे घटनाओं एवं विचारों का सूक्ष्म विश्लेषण करना पसन्द करते हैं। उनसे जुड़े विभिन्न पहलुओं पर एक साथ नज़र डालते हुए वे उनके गुण - दोषों का परीक्षण करते हैं। मुख्य कथानक के बीच - बीच में छोटी - छोटी अन्तर्कथाओं को या ऐसे अन्य प्रसंगों को समेट लाते हैं, जो विषयवस्तु को विस्तार देते हुए उसकी सारगर्भिता को कई गुना बढ़ा देते हैं, किन्तु कहीं से पैचवर्क न लगकर मुख्य कथानक में पूरी तरह घुले - मिले या अंत:स्थ लगते हैं। मनोविनोद उनके व्यक्तित्व का अभिन्न हिस्सा है और उनके लेखन का भी। वे बीच - बीच में हास्य का भाव पैदा करने वाले तत्व अपने कथानक में, पात्रों के स्वभाव में एवं उनके संवादों में जरूर शामिल करते हैं। ‘निर्वासन’ में जगदम्बा का बेहिसाब पादना व अतिशय भुक्खड़ होना, प्रधान का सूर्यकांत के गाँव आने पर पेड़ पर छिप जाना, गाँव वालों का उसका मखौल उड़ाना आदि ऐसे अनेक दृश्य हैं जो हास्य का संचार करते हैं। यौनिकता के सूक्ष्म मनोभावों व कामुक - व्यवहार की विभिन्न अंतरंग स्थितियों के ऐसे चित्र भी इस उपन्यास में हैं, जो इसकी रोचकता में अभिवृद्धि करते हैं। उपन्यास का अंत भी अखिलेश एक अलग ही अंदाज़ में कथानायक सूर्यकांत के मुँह से अपने पुरखों का गाँव ढुँढ़वा रहे पांडे से, ‘मुझे कुछ नहीं कहना है’ कहलवाकर करते हैं। आज के समय का सच ही यही है कि किसी भी समस्या या प्रश्न के बारे में कोई भी अंतिम रूप से कुछ कहने की स्थिति में नहीं है। कभी यह सही लगता है, कभी वह। सब कुछ गड्डमड्ड - सा, संकरित एवं असमंजस - भरा हो गया है। न पूंजीवाद ठीक लगता है, न मार्क्सवाद से संतुष्टि मिलती है। मिश्रित व्यवस्था की अपनी समस्याएँ हैं। विभ्रम की यह स्थिति ही आज का यथार्थ है। पांडे के बाबा के परिजनों की तलाश में गाँव से लेकर शहर तक के अतीत एवं वर्तमान दोनों ही तरह के परिदृश्यों के सच को जान - समझकर उपन्यास का अंत होते - होते उसका नायक सूर्यकांत भी कुछ ऐसी ही विभ्रम की स्थिति में पहुँच जाता है और अपने संघर्ष के आभासी हथियारों को नीचे डाल देता है। वह घर वापस लौटकर बहुत कुछ लिखना चाहता है, किन्तु रात भर जागने के बाद भी उसके मेफेयर रजिस्टर के पन्ने कोरे ही रहते हैं। महाभारत के युद्ध से पूर्व अर्जुन जिस विभ्रम की स्थिति में थे, सूर्यकांत अपने महायुद्ध के अंत में लगभग उसी स्थिति में पहुँचा दिखाई देता है। ‘निर्वासन’ का आख्यान एक तरह से आज के अर्जुन की युद्धोत्तर विभ्रम की स्थिति का आख्यान है। लेकिन अखिलेश उपन्यास के ख़त्म होने की घोषणा करने के पश्चात भी अपने आख्यान का समापन नहीं करते हैं, और गौरी से यह कहलवाकर ही पाठकों से विदा लेते हैं, ‘बहरहाल मेरे पास उस रोज़ के कुछ अन्‍य ब्‍यौरे, सूचनाएं और वृत्‍तांत हैं जिनके ज़रिए कोई चाहे तो अपना मनपसंद समापन गढ़ सकता है।’ इस प्रकार तमाम निराशा और विभ्रम की स्थिति के बावजूद अखिलेश एक संभावना को ज़िन्दा रखकर ही उपन्यास का समापन करते हैं।


          काशीनाथ सिंह ने - ‘निर्वासन’ मेरी नज़र में भारतीय समाज के विकास के मॉडल की सोनोग्रॉफ़ी है’ कहकर जिस चर्चा को जन्म दिया है, वह निश्चित ही एक लंबे समय तक चलेगी। कुछ लोगों के अभिमत तो सामने आ भी चुके हैं। वीरेन्द्र यादव ने हंस पत्रिका में लिखा है, - ‘निर्वासनसमूचे वर्तमान भारतीय समाज और समय की कथात्मक आलोचना है।अजय वर्मा ‘उम्मीद’ (अंक 3, जुलाई - सितम्बर 2014) में प्रकाशित अपने लेख ‘मनुष्य की बेदखली का आख्यान’ में कहते हैं, ‘अगर इस उपन्यास को आधुनिकता से उत्तर आधुनिकता तक का महाख्यान कहा जाय तो अतिशयोक्ति न होगी।’ राहुल सिंह ‘उम्मीद’ के इसी अंक में छपे अपने लेख 'निर्वासन': कृति का मर्म एक विस्तार है’ में कहते हैं, 'निर्वासन' कथ्य के स्तर पर आधुनिकतापरक है और बरतने (ट्रीटमेन्ट) के स्तर पर उत्तर आधुनिक।’ श्रीप्रकाश शुक्ल ‘परिचय’ (अंक 14) के अपने संपादकीय में लिखते हैं, ‘यह उपन्यास साम्राज्यवाद/ औपनिवेशिकता का विरोध करता हुआ हर क्षण बदल रही दुनिया में स्थिरता की तलाश का उपन्यास है, जो कि वास्तव में कहीं नहीं है। … यह देशज आधुनिकता का संकेत भी है और इससे विच्छिन्न होने की पीड़ा भी।’ राजकुमार ने नया ज्ञानोदय (अंक 134, अप्रैल 14) में प्रकाशित अपने लेख ‘निर्वासन - बहुरि नहिं आवना ये देस’ में कहा है, ‘अखिलेश का उपन्यास 'निर्वासन' पारम्परिक ढंग का यथार्थवादी उपन्यास नहीं है। यह आधुनिकतावादी या उत्तर आधुनिकतावादी ढंग का भी उपन्यास नहीं। यथार्थवादी, आधुनिकतावादी और उत्तर आधुनिकतावादी उपन्यासों की खूबियाँ सँजोए असल में यह भारतीय ढंग का उपन्यास है।’ मेरी समझ में अखिलेश ने इस उपन्यास में साधारण आँखों न दिखाई पड़ने वाले भारतीय समाज के बनते - बिगड़ते स्वरूप, या कह लें, आज के विद्रूप को सूक्ष्मदर्शी यंत्र के लेन्स लगाकर देखा है। उन्होंने उसका थ्री - डी विश्लेषण किया है। मेरा मानना है कि हर काल में लोगों में एक अपनी ही तरह की आधुनिकता की सोच होती है और उसके बाद के काल की आधुनिकता पूर्व की आधुनिकता के सापेक्ष उत्तर आधुनिक विचारों वाली कही जा सकती है। अत: जो पिछली शताब्दी के पूर्वार्ध में आधुनिक था या उत्तरार्ध में उत्तर आधुनिक, वह आज इक्कीसवीं सदी के नवाधुनिक विचारों या अद्यतन आधुनिकतावाद से मेल नहीं खा सकता। अत: मैं इस सैद्धान्तिक बहस में नहीं जाऊँगा कि यह उपन्यास कितना यथार्थवादी है अथवा कितना आधुनिकतावादी या उत्तर आधुनिकतावादी। मैं तो बस यही निष्कर्ष निकालना चाहूँगा कि यह उपन्यास एक रोचक कथावृत्त एवं शब्द - सम्पन्न भाषा व नूतन शैली के सहारे भारतीय समाज के वर्तमान समय की सामाजिक विडंबनाओं, राजनीतिक दिशाहीनता, आर्थिक विषमता, वैचारिक घुटन आदि को उनकी पूरी पृष्ठभूमि के साथ हमारे सामने प्रकट करते हुए हमारी सोच व चेतना को झकझोर देता है। निश्चित ही ‘निर्वासन’ की यह विशिष्टता पाठकों को एक लंबे समय तक अपनी ओर आकर्षित करती रहेगी तथा साहित्य में उसकी एक अमिट पहचान बनेगी।