आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Saturday, October 25, 2014

भूमि पर स्वर्ग लाने की कामना करने वाला कवि (मलयालम के महाकवि अक्कित्तम पर लेख)


मलयालम के सुप्रसिद्ध कवि अक्‍कित्‍तम अच्‍युतन नम्‍बूदिरी की कविताओं की यात्रा पैंसठ वर्ष से भी अधिक की है। इस लम्‍बी काव्‍य-यात्रा में उनकी कविताएँ अनेक कविता-संग्रहों तथा खंड-काव्‍यों के रूप में हमारे सामने आई हैं। मलयालम में शायद ही किसी अन्‍य कवि ने इतनी अधिक कविताएँ लिखी हों। उनके भीतर कविता की नदी निरन्‍तर प्रवाहित होती रहती है। एम.टी. वासुदेवन नायर ने इस प्रवाह की तुलना निला नदी के विस्‍तरित होते प्रवाह से की है। यह प्रवाह अभी रूका नहीं है और ऐसा लगता है कि यह कभी रूकेगा भी नहीं। स्‍वयं अक्‍कित्‍तम का कहना है कि उनकी सर्वोत्‍तम कविता अभी लिखी जानी है। उन्‍हें हर नई कविता लिखते समय यह लगता है कि वह उनकी पूर्ववर्ती कविता से बढ़िया है।

            अक्‍कित्‍तम की कविता आद्यन्‍त आत्‍मान्‍वेषण की कविता है। यथार्थ का अन्‍वेषण। चिरन्‍तन सत्‍य की खोज। इस खोज में चारों तरफ वेदना है। आँसुओं का प्रवाह है। तरलता ही तरलता है। जहाँ क्रोध है, अमर्ष है, वहाँ उसके शमन का विधान बनने वाले आँसू भी हैं। इसी आर्द्रता से सृजित होते हैं मानवीय गुण, जीवन के सत्‍य का अमृत। भौतिक जीवन में उष्‍णता है, पसीना ही पसीना है, छल है, संघर्ष है। धनिक वर्ग द्वारा सामान्‍य-जन का उत्‍पीड़न है, पाशविकता है। संसार की नाटकीय प्रवृत्तियों ने मनुष्‍य को पिशाचवत कर दिया है। राजनीतिक नेतृत्‍व खोखला है। सिद्धान्‍तों व पूर्वाग्रहों के जाल में जकड़ा है। उसका आन्‍दोलनकारी रवैया बस छलावा है। उसका आंतरिक स्‍वरूप स्‍वार्थमय है। निस्‍वार्थ, निश्‍छल प्रेम ही दुनिया को बचा सकता है। अहिंसा ही प्रगति के रास्‍ते पर ले जा सकती है। असली तत्‍व-ज्ञान नि:शर्त प्रेम ही है।

         अक्‍कित्‍तम परम्‍पराओं के अनुगमन में विश्‍वास नहीं करते। वे परम्‍पराओं का निरन्‍तर आकलन करते हुए अच्‍छाइयों को चुनते हैं, सन्‍मार्ग को पहचानने का प्रयत्‍न करते हैं और आधुनिक परिवेश में उस पाम्‍परिक ज्ञान का उपयोग, समाज को, इस सारे विश्‍व को बेहतर बनाने के लिए करने का संदेश देते हैं। वे ईश्‍वर-विश्‍वासी हैं, कृष्‍ण के उपासक हैं, वे वेदान्‍तवेत्‍ता बनने का प्रयत्‍न न करते हुए, वेदों की विचारधारा के उदात्‍त पक्ष को अपनाने की कोशिश करते हैं। वे परमाणु-उर्जा के खतरनाक उपयोग के प्रति सचेत करते हैं तथा विश्‍व में प्रकाश फैलाने जैसे शांतिपूर्ण कार्यों में उसके उपयोग के पक्षधर हैं। वे नितान्‍त आधुनिकतावादी भले न दिखें लेकिन उनकी कविता की अंतर्ध्‍वनि निश्‍चित रूप से हमें अंधविश्‍वासों से निकालकर आधुनिकता की सच्‍ची व शाश्‍वत वैचारिक धारा की ओर ले जाती है। वहीं उनका स्‍वर्ग है और उसी स्‍वर्ग की रचना के लिए वे सभी का आह्वान करते रहते हैं इस सत्‍कर्म में उन्‍हें प्रत्‍यक्ष या परोक्ष से प्रेरित करने अथवा धकेलने वाले सभी लोगों के प्रति वे कृतज्ञता भी ज्ञापित करते हैं।

         बीसवीं सदी का इतिहास निश्‍चित रूप से उनकी सबसे महत्‍वपूर्ण्‍ एवं कालजयी रचना है। आलोचकों ने इसकी तुलना टी.एस. इलियट के वेस्‍ट लैंड से की है। सोवियत क्रांति तथा दो विश्‍व-युद्धों की पृष्‍ठभूमि में 1952 में प्रकाशित हुआ काव्‍य है यह। इसमें हमारे आस-पास जो भी उस समय घटित हो रहा था, उसकी मीमांसा स्‍वर्ग, नरक, पाताल, भूमि इन चार खण्‍डों में की गई है। इसके प्रारंभ में अक्‍कित्तम ने अद्भुत शब्‍दों में अपनी इच्‍छा, अपने आदर्श, अपने विचारों का प्रकटीकरण इस प्रकार किया है:-

            जब मैं एक बूँद आँसू दूसरों के लिए टपकाता हूँ
            उदित होते हैं मेरी आत्‍मा में हजारों सौर-मंडल
            जब मैं एक मुस्‍कान दूसरों के लिए बिखेरता हूँ
            हृदय में पसर जाती है नित्‍य निर्मल पूर्णिमा।

            दूसरों के लिए एक बूँद आँसू टपकाने वाला अपने आप में कितना अधिक संवेदनशील होता है, इस प्रवृत्‍ति में वह कितना आनन्‍द प्राप्‍त करता है और ऐसा करने पर उसकी आत्‍मा थोड़ा बहुत नहीं, हजारों सौर-मंडलों के आलोक से प्रकाशमान होती है। अक्‍कित्‍तम की दृष्‍टि में दूसरे के लिए एक मुस्‍कान बिखेरना ही आनन्‍द के प्रकटीकरण का सबसे नायाब तरीका होता है। ऐसे व्‍यक्‍ति के हृदय में निर्मल पूर्णमासी जैसी शीतल प्रभा शाश्‍वत रूप से स्‍थान ग्रहण कर लेती है। कवि आगे केवल इसी बात पर दु:खी होता है कि उसे इस दिव्‍य आनन्‍द के स्रोत का ज्ञान इतने विलम्‍ब से क्‍यों हुआ और इस विलम्‍ब के कारण उसने जो कुछ खोया है, उसे याद कर वह दु:ख से रोता है, - इतने समय तक क्‍यों न जान सका मैं/ इस दिव्‍य आनन्‍द के उद्गम को/ इस महाहानि को याद कर/ दुखी हो, कंपकंपाकर रोता हूँ मैं।

            बीसवीं सदी का इतिहास के स्‍वर्ग खंड में अक्‍कित्‍तम अपने अतीत की याद करते हैं। इस अतीत में उनका अपना बचपन है, माँ का वात्‍सल्‍य है और साथ ही इस समस्‍त सृष्‍टि का भी नैसर्गिक आभास है। माता के मधुर, उदार वात्‍सल्य रस का झाग/ आज भी है मेरे तम्‍बाकू के दाग से रंजित होंठों पर कहकर वे इस अतीत को अपने वर्तमान के विकृत हो चुके रूप से जोड़ देते हैं। वे इस स्‍वर्ग सरीखे अतीत को याद कर आँसू बहाते हैं और उसे खो चुकने के यथार्थ का बोध होने पर वे पूरी तरह दुखी हो जाते हैं, - अतीत की सोच में डबडबाकर/ अंधराई मेरी आंखों में/ भर आते हैं आँसू/ बह निकलते हैं दो धाराओं में/ होंठों पर टिककर उनके सूख जाने पर/ महसूस करता हूँ मैं/ दु:ख की खटास को/ पूर्णता में।

            नरक खंड में अक्‍कित्‍तम तत्‍समय की सामाजिक, नैतिक वे रानीतिक स्‍थिति का बेबाकी से चित्रण करते हैं। यह स्‍थिति हर दृष्‍टि से नाटकीय है। यह उस ज्ञान से उपजी है, जो वास्‍तव में अज्ञान है, - देखो, फीकी पड़ गई हैं/ बाल मन की रंगीन कल्‍पनाएँ/ आनन्‍द के तुहिन-कण सूख गए हैं/ ज्ञान की धूप खिलने पर कहकर वे स्‍वर्ग के नरक में परिवर्तित होते रूप की ओर इशारा करते हैं और साथ ही यह व्यंग्य भी करते हैं, कि ऐसा ज्ञान की धूप खिलने पर हो रहा है। उनकी दृष्‍टि में प्रकृति रहस्‍यमयी किन्‍तु  शाश्‍वत है, - लहरों, तारों व बालू के कणों की/ गिनती तो असंभव होती है/ उड़ते जाने, उड़ते जाने पर भी/ निस्‍सीम ही बना रहता है आकाश/ काटते रहने पर भी/ पल्‍लवित होती हैं/ घास, वृक्ष, लताएँ आदि।।‘ मनुष्‍य के लिए संभव नहीं है इस विशालता की पार पाना। वह थक जाता है इसकी खोज में, - अन्तरिक्ष में अनेक प्रकाश वर्ष दूर स्‍थित/ अन्‍य सूर्य और उनके सौर-मण्‍डल/ फिर जैसे-जैसे उनके आगे भी जाता है/ मनुष्‍य देखता है करोड़ों सूर्यों व उनके सौर-मण्‍डलों को/ मनुष्‍य ही नहीं, उसकी कल्‍पना-दृष्‍टि भी/ इस विशालता का पार नहीं पा सकी है/ थक जाती है।

            अक्‍कित्‍तम की दृष्‍टि में इस नारकीय स्‍थिति का कारण मनुष्‍य के हृदय में भरा अहंभाव है, - सत्‍य है/ फिर भी देखता हूँ मैं/ सविस्‍मय/ मनुष्‍य के हृदय में भरे/ अहंभाव के विस्‍तार को।‘  वे मनुष्‍य को समस्‍त जीवों में श्रेष्‍ठतम सृष्‍टि मानते हैं, - उससे (बंदर से) भी श्रेष्‍ठ पाता हूँ/ मैं एक और जीव को/ इस भूमि को दो पैरों पर छोड़/ उठ खड़े हुए मनुष्‍य को।‘ वह प्रकृति का उपभोग करने में कुशल है, - भूमि के भीतर सुसुप्‍त कोयला व ज्‍वलनशील पदार्थ/ नदी के जल में निहित विद्युत-शक्‍ति/ सूर्य रश्‍मियाँ, वायु/ परमाणुओं की अंदरूनी दिव्‍य-शक्‍ति आदि से/ मनचाहा काम करवाता है कुशल मनुष्‍य। किन्‍तु अहंभाव से ग्रसित हो जब यही मानव पाशविक प्रवृत्ति पर उतर आता है तो अक्‍कित्‍तम के लिए शोषण का प्रेरक, अन्‍याय की आग तथा आनन्‍द की समाप्‍ति का कारण बन जाता है, - लेकिन उसकी दिग्‍विजय वहीं नहीं रुकती/ आदमियों से भी पशुवत काम कराता है अधम मनुष्‍य/ हल पर झुक कर खड़े होकर ही/ चल पाता है थका मांदा किसान/ उसकी गहरी छाप है मेरे मानस पटल पर/ उसकी उच्छ्वास हैं धान की पत्तियाँ/ उनके ऊपर तनी हुई बालियाँ/ बीजों की आंखों में उभरते रक्‍त-कण/ इसे खाने वाला वह स्‍वयं नहीं/ यह सत्‍य जिस दिन मैंने जाना/ मेरे हृदय का चांद अस्‍त हो गया। मिल के मजदूरों की इस पीड़ा को भांपकर कि जिन कपड़ों का निर्माण वे करते हैं, उनसे अपने स्‍वयं के तन को नहीं ढक सकते, अक्‍कित्‍तम अपने जीवन को एक काल-रात्रि से घिरा हुआ पाते हैं, - असुर गणों सी/ लौह-युक्‍त भीमाकार धुंआ उगलती मशीनों से चालित/ कारखानों में/ रक्‍त चूसने वाली चर्खी दर चर्खी/ मांसपेशियाँ गलाते हैं मजदूर/ यह ठीक है कि/ उस भीमकाय के मुख से/ निकलते हैं सुंदर सपाट ऊनी व रेशमी कपड़े/ किन्‍तु ये सृष्‍टा/ अपनी ठंड नहीं दूर कर सकते उनसे/ यह जिस दिन से समझा मैंने/ काल-रात्रि बन गया मेरा जीवन।

            बीसवीं सदी के समाज की विसंगतियों में अक्‍कित्‍तम को सबसे प्रबलता से दिखाई पडती हैं नैतिकता के ह्रास  से जुड़ी हुई समस्‍याएँ। यह ह्रास दुनिया के पाप के बोझ को बढ़ा रहा है, - शुद्ध देशी पुष्‍प का/ शालीन परिवेश नष्‍ट हो रहा है/ पाप का बोझ थका रहा है जगत को। नैतिकता की इस गिरावट के कारण ही मनुष्‍य का हृदय नारकीय आग की लपटों से घिरा जा रहा है, - गली में कौवा नोचता है/ मृत औरत की आँखें/ स्‍तन चूसता है/ नर-वर्ग का नवातिथि/ इस कटु सत्‍य को समझ पाने वाले/ शापित क्षणों से ही/ मेरी नसों में लपकती हैं/ नरक की आग की लपटें।

            नरक के इस अन्‍वेषण की, नीचता के इस इतिहास की, बातें यहीं नहीं रुकती। मनुष्‍य का चारित्रिक ह्रास हृदय को अशान्‍त बनाता है और मानसिक सन्‍निपात का कारण बनता है। व्‍यभिचार के फलस्‍वरूप होती हैं भ्रूण-हत्‍यायें। आग में कूदकर मर कर पड़े हुए पतंगों जैसी स्‍थिति हो रही है, गलियों में शिशु-शवों की, - क्‍या यह अति आडम्‍बर/ शान्‍त हृदय का प्रतिबिंब है? क्‍या यह भी प्राय: मानसिक सन्‍निपात का कारण नहीं बनता? चावल पकाने वाले की आग में/ पतंगें आकर गिरते हैं तो/ अगले दिन/ गली-कूचों में दिखाई पड़ते हैं ढेरों शिशु-शव। तभी अक्‍कित्‍तम भावी पीढ़ी से अपना यह अनुभव-जन्‍य संदेश कह बैठते हैं कि प्रकाश दु:खमय होता है, सुखप्रद तो अंधेरा है, - रोते हुए उस दिन कहा मैंने/ भावी नागरिक से यों/ प्रकाश दु:ख है, बेटे! तम ही तो सुखप्रद है। अक्‍कित्‍तम का मानना है कि इन्‍हीं नारकीय प्रवृत्‍तियों ने मनुष्‍य को पिशाच बना दिया है।

            बीसवीं सदी का इतिहास के पाताल खंड में अक्‍कित्‍तम पहले तो अपने पापों को स्‍वीकार करने को उद्यत होते हैं अपने अत्‍याचार गिन-गिन कर/ बता रहा हूँ मैं/ ततैया ने डंक मारा हो जैसे/ ऐसी टीस व सृजन भरे मन से। इसी स्‍वीकारोक्‍ति के साथ ही वे समाज के कर्णधरों के कृत्‍यों-कुकृत्‍यों का भी वर्णन करते हैं। वे सामाजिक व राजनीतिक स्‍तर पर मुक्‍ति पाने के लिए किए जा रहे प्रयत्‍नों का आकलन करते हैं। वे क्रांति की प्रक्रिया का तथा उसके प्रभावों की विस्‍तार से समीक्षा करते हैं। वे राजनीतिक नेतृत्‍व के खोखलेपन को कठोरता से बेनकाब करते हैं, विशेष रूप से विचारधारा के पूर्वाग्रहों से ग्रस्‍त स्‍वार्थी एवं निष्‍ठुर नेतृत्‍व के। वे इन स्थितियों के प्रति द्रवीभूत हो जाते हैं। समूचे आकलन के पश्‍चात वे इस निष्‍कर्ष पर पहुँचते हैं कि नि:शर्त प्रेम के बिना दुनिया में कुछ नहीं बचेगा, - नि:शर्त जीव-प्रेम के बिना/ कुछ भी आगे नहीं बढ़ेगा/ ऐसा कहने की शक्‍ति भी समेट ली हैं मैंने। अक्‍कित्‍तम का मानना है कि जहाँ दुनिया में एक ओर थीसिस है तो वहीं दूसरी ओर एंटीथीसिस भी। स्‍वर्ग की सिन्‍थेसिस अथवा पुनर्स्‍थापना इन दोनों के बीच के रास्ते से ही संभव है।

            अक्‍कित्‍तम ने जमींदार, पूंजीपति, धनाड्य, अधिकारी, कर्मचारी, सम्‍पत्‍ति वाले किसान, बुद्धिजीवी, कलाकार, वैज्ञानिक आदि को सामान्‍य मनुष्‍यों, पशुओं, वृक्षादि से भिन्‍न माना है। तत्‍ववेत्‍ता इन लोगों को बुर्जुआ तथा पेटी बुर्जुआ की श्रेणी में रखते हैं तथा स्‍वयं अपने को ही समाज का असली रक्षक मानते हुए इनके विनाश की कामना करते हैं। अक्‍कित्‍तम ने इस प्रकार के पूर्वाग्रहों से ग्रसित नेतृत्‍व की तीखी आलोचना की है, - हृदय व बुद्धि न उनमें कभी थी/ न आगे कभी होगी/ न आज ही है/ शिलावत हैं वे/ दु:खी लोगों के प्रति/ सहानुभूति की शक्‍ति व त्‍याग की इच्‍छा/ उनमें हो सकती है/ यह धारणा ही गलत होगी/ इसका विचार करना भी गलत होगा। अक्‍कित्‍तम के अनुसार ऐसे लोगों का सिद्धान्‍त जिसकी लाठी उसकी भैंस वाला ही है।

            अक्‍कित्‍तम ने राजनेताओं के छल-कपट भरे व्‍यवहार, उनकी कार्य-प्रणाली तथा उनके संगठन के विस्‍तार के तरीकों को बड़ी बारीकी के साथ अपनी पंक्‍तियों में स्‍थान दिया है। वे कच्‍ची उम्र के मासूमों को अपना शिकार बनाते हैं, - वे अभी-अभी/ अंडों से निकले/ मंद हवा के झकोरों के बीच स्‍थित/ उन कबूतरों जैसे हैं/ जिनके पंख हिलाने व आँखें खोलने का/ समय नहीं आया है अभी। आगे चलकर अक्‍कित्‍तम बताते हैं कि नेता इन कच्‍ची उम्र के अनुयायियों को कैसे धीरे-धीरे अपनी विचारधारा के रंग में रंगता है, -उनकी जठराग्‍नि पचा सके जिसे/ पहले उतनी ही मात्रा में/ विश्‍व-प्रेम का अच्‍छा दूध ही/ उन्‍हें दिया मैंने/ आगे चलकर उस दूध में मैंने/ विद्वेष का थोड़ा विष भी मिला दिया/आखिर में गूढ़ मुस्‍कान के साथ/ मैंने दूध देना ही बन्‍द कर दिया/ अंत में वे स्‍वयं ही मुझे समझाने लगे हैं/ यह वास्‍तविकता कि विद्वेष ही दिव्‍य मार्ग है। अक्‍कित्‍तम बताते हैं कि जब एक स्‍वार्थी नेता अनुयायी को पूरी तरह अपने रंग में रंग लेता है तब भी वह उसे नायक का स्‍थान देने को तैयार नहीं होता, - रोपित भी कर चुका था मैं/ मिट्टी पलटाये खेतों में/ आधिपत्‍य-भ्रम के फल देने वाले/ अंधविश्‍वास के कटीले पौधे/ वे और मैं एकाकार हो गये/ अभिन्‍न वस्‍तु बन गये/ फिर भी नायक मैं ही था/ वे तो बच्‍चे ही ठहरे?’

          अक्‍कित्‍तम क्रांतिकारियों के विद्रूप को भी हमारे सामने रखते हैं, - कीचड़ व धूल/ जिन्‍हें कंघी करने की फुरससत न मिली ऐसी जुल्‍फें/ पसीने व बीड़ी की मिली-जुली/ उबकाने वाली दुर्गन्‍ध। राजनेता अपने स्‍वार्थ के लिए इन क्रांतिकारियों की बलि चढ़ाने पर आमादा है, - आग में घी डालते/ उनके जीवन को/ चूल्‍हें में झोंक रहे हैं/ मेरे परमार्थी शिष्‍य। खा़की पतलून में पिस्‍तौलें छिपाकर रोम-रोम में प्रतिकार की ज्‍वाला समेटे यह क्रांतिकारी नशा करने में भी नहीं हिचकते, - कभी भी/ मौका मिलते ही/ यूरोपीय मधुशालाओं में घुस/ छक कर पी/ लड़खड़ाते हुए चलता हूँ। अक्‍कित्‍तम ने पाताल खंड में क्रांति का विस्‍तृत उल्‍लेख किया है। इस क्रांति में हिंसा है, प्रतिकार है। फसलों व अन्‍न-भंडारों पर कब्‍जा है। पुलिस का दमन-चक्र है। देश की सत्‍ता को वश में करने की इच्‍छा है, - फूंक मारने भर से ढह जाएँगें/ आज के सारे न्‍यायालय/ समय आकर पुकार रहा है/ आँखें खोलो/ उठो! शत्रुओं को मारकर/रक्‍त-रंजित आंतों की माला धारण करो! लकड़ी के भालों से बींध/ देश को अपने वश में कर लो!

            लेकिन जब क्रांति समाप्‍त होती है तो उसका अवदान है एक श्मशान, तिमिरावृत्‍त मन, मनुष्‍य का नित्‍य-रोदन, - दीनों का संग्राम खत्‍म हुआ/ केरल शमशान बन गया/ तिमिर से आवृत्‍त मेरा मन/ मेरे कानों में गूँजता है/ नित्‍य मनुष्‍य का रोदन/ मेरे पांवों में चुभते हैं/ नर-मुंडों के कंकाल। मानवता के इस रोदन से टपके हैं करोड़ों आँसू। अक्‍कित्‍तम इन्‍हीं आँसुओं में पाते हैं उस प्रकाश का उद्गम, जो आकाश में फैला हुआ है। यदि आँसुओं से नहीं तो शायद इस विनष्‍ट हो रहे ब्रह्मांड के ताबूत की कीलों से निकला है यह आकाश में प्रसारित आलोक, - वहाँ प्रकाश फैला है/ करोड़ों अश्रु-कणों से/ या फिर/ ब्रह्मांड के ताबूत की कीलों के पुंज से तो नहीं? जब क्रांतिकारी नीचे गिर जाता है, मृतात्‍माएँ घेर लेती हैं उसे। अक्‍कित्‍तम उस समय सारी काव्‍य-कल्‍पनाओं में बेजोड़ हो उठते हैं, जब वे कहते हैं, - प्रेतों के कपोलों से उमड़ती है/ आँसुओं की नदियाँ/ उनकी दीर्घ नि:श्‍वासों की तरंग फैलने से/ सिहर उठती है/ उसके चेहरों की बाघ जैसी मूंछें।‘ प्रेतों के कपोलों पर आँसुओं की नदियों का उमड़ना एक अनूठी परिकल्‍पना है जो साहित्‍य में अन्‍यत्र कहीं नहीं दिखाई पडती, भले हिन्दी में मुक्तिबोध ने प्रेत के बिम्ब का प्रयो किया हो। यह संवेदना की उत्‍कटता है। यह उत्‍पीड़न का सबसे मार्मिक अवशेष है। गिरे पड़े क्रांतिकारी के चेहरे की बाघ जैसी मूंछों का सिहरना एक अनूठा व प्रभावशाली बिम्‍ब है। पाताल खंड का पटाक्षेप हृदय परिवर्तन के साथ होता है, - दीन रोदन के टकराने पर/ उसे भी रोने की चाह हुई/ किन्‍तु उठ न सकी उसकी आवाज़/ सूर्योदय तक।

        अक्‍कित्‍तम ने बीसवीं सदी का इतिहास के भूमि खंड में अपनी सृजनात्‍मक चेतना का परिचय देते हुए धरातल पर स्‍वर्ग को पुन: स्‍थापित करने की आकांक्षा को मूर्त रूप देने का मार्ग प्रतिपादित किया है। इस प्रक्रिया में सबसे पहले उन्‍होंने आत्‍मान्‍वेषण के माध्‍यम से पश्‍चाताप का मार्ग प्रशस्‍त किया है। यह वह अवसर है, जब क्रांति का महानायक अपने को महापापी घोषित करता हुआ अपने अहिंभाव तथा अपने व्‍यतिचलन के कारणों की पहचान करता है, - बारूद से भरी बन्‍दूक/ अपने हृदय में रखकर/ अशान्‍त हो/ समता का सुन्‍दर उद्यान खोजता हआ/ भटकता रहा मैं/ पुस्‍तक-ज्ञान के आधार पर/ रक्‍त भरे मनुष्‍यों को/ केले के तने की तरह कटवा डालने वाला/ पाताल भैरव हूँ मैं/ मुर्गी के अंडे की भाँति/ मुट्ठी में बंद कर सकता हूँ/ इस महाब्रह्मांड को/ ऐसी भ्रामक धारणा बना ली मैंने। परिवर्तन के लिए अपनाये गये गलत तौर-तरीके के प्रति भी सजग होता है वह, विष-वृक्ष के बोने पर भी/ उग आएँगे/ अमृत-फल देने वाले कल्‍पवृक्ष/ ऐसा ही सोच बैठा मैं। तदुपरान्‍त मानव-समाज से क्षमा मांगता है वह, - भूमि पर बसने वाले दो सौ करोड़ मनुष्‍यों/ अज्ञानतावश मेरे द्वारा किया गया/ अपराध क्षमा करो। भूमि को सुधारने के लिये अपने कलंक को धोकर साफ करने का संकल्‍प लेता है वह, इस भूमि को सुधारने की/ आशा करनी है तो/ पहले अपने भीतर के कलंक को/ धोकर साफ करना होगा मुझे।

            आज जब देश में परमाणु-उर्जा से बिजली बनाने के विकल्‍प की इतनी ज्‍यादा आवश्‍यकता महसूस की जा रही है, उस स्‍थिति में यह देखकर सुखद आश्‍चर्य होता है कि अक्‍कित्‍तम जैसे कालदृष्‍टा कवि ने आज से साठ वर्ष पूर्व ही भूमि खंड में इसका आह्वान कर डाला था, बम के लिए दुर्व्‍यय की जा रही/ अणु-उर्जा की शक्‍ति से/ गांव के अंधेरे नुक्‍कड़ों में/ स्‍नेह के दीप जलाओ। अक्‍कित्‍तम स्‍नेह के दीप में ही विश्‍वास रखते हैं। यह स्‍नेह का दीप अंधकार के बाद ही जलता है। अंधकार के आँसू ही इस दीप को प्रकाशित करते हैं। इसीलिये अक्‍कित्‍तम को अंधकार सुखप्रद लगता है और आँसू दिव्‍यानन्‍द के स्रोत। वे नि:शर्त प्रेम को ही सत्‍य का स्‍वरूप मानते हैं तथा उसके परिपालन को ही मनुष्‍य का धर्म मानते हैं, - नि:शर्त प्रेम/ प्राप्‍त करेगा बल क्रमश:/ यही है सौन्‍दर्य/ यही सत्‍य/ इसका परिपालन ही धर्म है। अक्‍कित्‍तम की यही मीमांसा उनकी कविता का प्राण तत्‍व है और उनका जीवन-दर्शन भी।

            बीसवीं सदी का इतिहास के बाद क्रमेण अक्‍कित्‍तम की कविताओं में जीवन की क्षुद्रता का, उसकी आर्द्रता का, आँसुओं की महत्‍ता का, निस्‍वार्थ-नैसर्गिक प्रेम की अनिवार्यता का अवबोधन बढ़ता ही गया। वे दुनिया को बेहतर बनाने के लिए जीवन को क्‍लेशों में झोंक देने की प्रेरणा देते हैं। योद्धा में वे कहते हैं, - अपने जीते जी एक सुव्‍यक्‍त एवं सुन्‍दर नव-पथ/ सृजित करना है इस दुनिया में/ नहीं तो मैं हूँ ही क्‍या? दुस्‍सह क्‍लेशों को पराभूत करने को ही तो/ शक्‍तिमान बना हूँ मैं। आगे वे फिर कहते हैं, - कठिन हो जाने दो मेरी जिन्‍दगी/ तभी मेरे हृदय-लोक में कौंधेगा आलोक। किन्‍तु इस सर्जना में वे अंधानुकरण के पक्षधर नहीं। उन्‍हें सूर्य की तड़क-भड़क व उष्‍णता की तुलना में चंद्रमा की शीतलता व विविधता श्रेयस्‍कर लगती है, - सूर्य के कांचन रथ की लीक में/ ले जाने की जरूरत नहीं/ चन्‍द्र!  तुम्‍हें अपना रथ/ नित्‍य नये-नये रूप में चमकते हो तुम/ विश्‍व-चकित है इसी बात में। किन्‍तु, अंधानुकरण के पक्षधर न होने का यह अर्थ नहीं, वे परम्‍परा में विश्‍वास न रखते हों। वे भारतीय परंपराओं में विकसित सद्गुणों को संजोने तथा उन्‍हें परम सत्‍य के रूप में ग्रहण करने में निरन्‍तर विश्‍वास दिखाते है। भारतीय का गान कविता में उनकी इन पंक्‍तियों को देखिए, - ‘एक समु्द्र के मंथन से/ प्राप्‍त हुआ है यह/ एक सौरभ का वरदान/ एक सौभाग्‍य का वरदान/ एक अमृत/ सत्‍य के भी सत्‍य की तरह/ घोर तपस्‍या से कृशित /भारत के पूर्व वीरों की मज्‍जा में/ कमल-नाल जैसी सुषुम्‍ना नाड़ी में/ हजारों-हजार वर्ष पहले से विद्यमान वही अमृत/ हमारे भीतर भी प्रवाहित हो रहा है। यह भी गौरतलब है कि जिस समुद्र का मंथन अक्‍कित्‍तम के अतीत में हो रहा है, वह हजारों-हजार अश्रु-नदियों के मिलन से बना है। अर्थात अक्‍कित्‍तम की दृष्‍ट में आँसू ही सत्‍य के सौन्‍दर्य के आत्‍मालोक के प्रकटीकरण का मूल स्रोत है, कारक है।

            नित्‍यमेघ कविता में यह बात और ज्‍यादा स्‍पष्‍ट हो जाती है। इसमें जो वर्षा-मेघ हैं वह लीलामय हैं तथा कालपुरूष ने उन्‍हें आँसुओं से निर्मित किया है, - पिया-विरह पीड़ा की अग्‍नि से, धूम-जाल से/ नि:श्‍वास वायु से, कालपुरुष ने बनाए हैं/ अश्रुओं से वर्षा-मेघ। अक्‍कित्‍तम को आँसुओं से बना यह वर्षा-मेघ विस्‍मित करता है तथा उसमें उन्‍हें मुरलीधर का विश्‍व रूप दिखाई पड़ता है - देख यह वर्षा-मेघ, काल थम, याद करे/ मुरली धरे विश्‍व के शासक श्‍यामदेहि को/ उसके मुख में दिखे विश्‍वरूप जैसा मुझे/ विस्‍मित करता है, मेघ, तुम्‍हारा महारूप ये/ अक्‍कित्‍तम ने संगमरमर की कहानी में आँसू की ही बूंद को पत्‍थर की भांति जमकर भूमि के विभिन्न हिस्सों में संगमरमर के रूप में विस्‍तरित होते देखा है। तुलसी में जब विष्‍णु तुलसी का चरित्र-हनन करते हैं तो अक्‍कित्‍तम के अनुसार तुलसी का शरीर आँसू बनकर पिघल जाता है और यही आँसू उमड़कर गण्‍डकी नदी का रूप ले लेते हैं तथा अपने प्रवाह क्षेत्र में विविध रूपों में नव-जीवन का परिपोषण करते हैं - आँसू बनकर पिघल गया/ अपवित्र हुआ मेरा शरीर/ नेपाल में हिमगिरि के निकट/ सुरभिपूर्ण व सुरम्‍य एक आश्रम में/ मेरे उमड़ते आँसू नदी बन गए/ गण्‍डकी नाम से बह चली वह/ प्रवाहित होती जा मिली गंगा में।'

            जहाँ भी विसंगति है, धर्म-च्‍युति है, अक्‍कित्‍तम आवाज़ उठाने से नहीं चूकते। तुलसी में उन्‍होंने मूर्ति के रूप में पूजित देवताओं को प्रश्‍न के कटघरे में खड़ा किया है। वे विष्‍णु के कृत्‍य को धर्म-च्‍युति की संज्ञा देते हैं - स्‍थिति व लय का कारण बनी मूर्तियों से स्‍वरूपित / हे मतिमानों! आपने धोखा नहीं किया क्‍या? क्‍या धर्म-च्‍युति नहीं की अर्जित/ अपवित्र हुआ क्‍या तुलसी का पातिव्रत/ या फिर कहीं/ पद्मावती के पति का पत्‍नीवृत तो नहीं? विष्‍णु गए थे तुलसी के पास/ किन्‍तु तुलसी तो चली थी/ प्रेम-तपस्‍या का फल पाने/ अपने प्रिय सुन्‍दर पुरूष से न! अक्‍कित्‍तम इस पर भी कटाक्ष करते हैं कि जब तुलसी की पत्‍तियाँ विष्‍णु व शिव पर चढ़ती हैं तो क्‍या वे दीनता से घबराते नहीं हैं - चरण-कमलों पर चढ़ाए जाते समय/ हरि-हर आज भी/ दीनता से किंचित घबराते नहीं क्‍या?’

         अक्‍कित्‍तम के द्वारा सत्‍य व सौन्‍दर्य का अन्‍वेषण निरन्‍तरता में आँसुओं के माध्‍यम से ही किया गया है। झंकार में वे दीनानुकंपा में वाष्‍पित हो उठते हैं - मैं दीनानुकंपा में वाष्‍पित हो/ गीत की तरह हवा में तैर रहा हूँ।‘ पिता आभार जताते है में वे प्रवाहित हो रहे आँसुओं के बीच में सारे घटना-संसार को लिखा हुआ पाते हैं - ओणम-लता के मंद-मंद हिलने-डुलने में/ प्‍यारी बच्‍ची! तेरे सामीप्‍य का आस्‍वादन करता हूँ मैं/ उसी समय प्रवाहित हो रहे आँसुओं के बीच/ इस घटना-संसार को लिखा हुआ भी पाता हूँ। इस कविता के अंतिम चरण में पिता सद्ज्ञान देने के लिए अपनी दिवंगत बेटी को आँसुओं से ही कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं - मृत्‍यु मिथ्‍या भ्रम है/ यह जताकर/ मेरी आँखें खोल देने वाली बेटी! मैं आँसुओं से तेरे प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ। कहीं-कहीं आँसुओं का स्‍थान आर्द्रता ले लेती है। घास में अक्कित्तम ने इसी आर्द्रता को अपने अस्‍तित्‍व का मूलाधार बनाया है - पांवों के नीचे अभी भी नम है/ भूमि द्वारा अतीत में लिपटाई गई मिट्टी /उस मिट्टी को छुड़ाऊँगा नहीं मै/ अन्‍यथा मेरा कमल-पुष्‍प बिखर जायेगा न/ मेरी मिट्टी में ही उगी है न/ तुम्‍हारे होठों की बांसुरी भी तो/’ यहाँ अपनी विरासत को संजोकर रखने तथा मिट्टी से जुड़े रहने की उत्‍कट आकांक्षा का प्रकटीकरण भी किया है अक्‍कितम ने। आँसुओं की असली उपादेयता और उनका नैसर्गिक अवदान तब सामने आता है जब अक्‍कितम प्राणायाम में कहते हैं - आँसुओं से सानकर बनाए गए/ एक मिट्टी के लोंदे पर/ जोरों से पनपता है/ हमारे पूर्वजन्‍म के सौहार्द का आवेश। जब नित्‍यानन्‍द की अनुभूति करते हुए उसके प्रभावों के प्रति आश्‍चर्य प्रकट करते हुए अक्‍कित्‍तम अपने भीतर उठ रहे अन्‍तर्द्वन्‍द का चित्रण करते हैं तो बहुधा उनकी कविताओं में जिस हृदय के प्रस्‍वेदन तथा आँखों से होने वाले आंसुओं के प्रवाह का उल्लेख आता है, उसका अन्‍तर्सम्‍बन्‍ध स्‍पष्‍ट हो जाता है - ऐसा क्‍यों होता है यह सोचकर/ मेरा अंतकरण पसीने में नहाने पर/ आँसुओं में चमकते हैं मोरपंखी नेत्र/ उसके नीचे उभरता है मन्‍दहास भी?’

             अक्‍कित्‍तम की अनेक कविताओं में उनके अगाध प्रकृति-प्रेम के भी दर्शन होते हैं। वे भूमि पर मानवेतर जीवों के अधिकारों के प्रति हमें सचेत करते हैं। कल की क्रांति कविता में वे मेढ़कों से कैसा सीधा सवाल करवाते हैं- अभिनय नहीं करते/ भाषाओं को छापकर नहीं बेचते हम/ राशन नहीं खाते/ तो क्‍या ब्रम्‍हा की सृष्‍टि नहीं हैं हम?’ मेढ़क आगे मनुष्‍यों को चेतावनी देते हैं, जिसे अक्‍कित्‍तम ने कल की क्रांति का सूचक माना है - किसने दिए हैं हाथ/ मनु-पुत्रों को/ हमें मारने के लिए/ एकजुट होने पर हमें भी उनको मारने की शक्‍ति मिल सकती है शायद। जानवरों की सभा के संकल्‍प के माध्‍यम से अक्‍कितम इस कविता में यह स्‍पष्‍ट करते हैं कि मनुष्‍य के अहंभाव का मूल कारण धन-बल है - कागज के शेर की भाँति / वे तीनों सिंह-शीश देखने पर ही तो/ मनुष्‍य में उभरता है/ अरे मैं ऐसा हिरण्‍यकश्‍यपत्‍व। इस हिरण्‍यकश्‍यपत्‍व को चकनाचूर करने के लिए ही जानवरों की वह सभा एक नई क्रांति का बिगुल बजाती है - हम जुलूस के रूप में चलने पर/ गिर वन में कैद दु:खी सिंहों को मुक्‍त कर सकते हैं/ उन्‍हें भी साथ लेकर चल सकेंगें/ नासिक तक बिना थके/ वहाँ प्रेस में छपने वाले/ नोटों की सारी गड्डियों को जला सकेंगें/ त्रिगुणों से हीन ये/ मनु-पुत्र बैठे रह जायेंगे तत्‍क्षण। इस कविता के अंत में चिर-परिचित शैली में अक्‍कित्‍तम का संदेश आता है- यह आग/ भूमि के भीतर सुलग रही है/ इसे समझे बिना/ आज भी मरने-मारने पर उतारू हैं लोग/ वस्‍त्रों से ढँकी हुई है नग्‍नता।

            एक चुम्‍बन की समृति कविता में अक्‍कितम प्रकृति से छेड-छाड़ की हमारी प्रवृत्‍ति को आत्‍मघाती बताते हैं। यह तथाकथित कालिदास जैसी अवस्था है जो उसी डाल को काट रहे थे, जिस पर वे स्वयं बैठे थे। हमें उन्‍हीं की तरह ज्ञान की आवश्‍यकता है। अक्‍कित्‍तम इसके लिए हमें सचेत करते हैं -स्‍वयं बैठी है जिस डाल पर/ उसे ही नीचे से काटने वाली मान्‍यते! नीचे खड़े हो आक्रोशित होता हूँ मै/ रोक दे इस आत्‍महत्‍या को तू! वे अणु-विस्‍फोट की आशंका के पीछे का कारण स्‍नेह-विहीनता को ही मानते हैं – ‘आज अणु-विस्‍फोट की आशंका/ मृत्‍यु के बरामदे में/ खड़े होकर कांपती है/ स्‍नेहविहीन क्षणों में।‘



        अक्‍कित्‍तम की वहिर्दृष्‍टि जितनी व्‍यापक है, उनकी अन्‍तर्दृष्‍टि उतनी ही गहरी है। वे कठिन से कठिन परिस्‍थिति को समग्रता से जाँचते-परखते हैं और फिर कविता के माध्‍यम से हमें उसके बीच से, समस्या का साक्षात्‍कार कराते हुए, जिज्ञासाओं के समाधान की ओर ले जाते है। वे निर्लिप्‍त बने रहकर सत्‍य का अन्‍वेषण करते हैं। यह उनके जीवन की कठोर साधना का परिणाम है। उनकी कविता इसी साधना का निचोड़ है। इसमें कहीं बनावट या मिलावट नहीं है। नित्‍यमेघम में उन्‍होंने अपने इस काव्‍य-दर्शन का प्रतिपादन सटीक रूप से किया है - ’छिदित हीर-रत्‍नों के/ भीतर से मैं गुज़र सका/ भाग्‍यवश ही/ क्‍योंकि मैं बस एक धागा-मात्र था। कुछ आलोचकों ने अक्‍कित्‍तम को कवियों में ऋषि-तुल्‍य बताया है। सरल, सौम्‍य, शान्‍त, हमेशा सत्‍यान्‍वेषण की चाह रखने वाले। संघर्ष और अमर्ष के प्रस्‍वेदन से भीगना।, फिर वायु से उसका शीतीकरण, उठती हुई आग का आँसुओं से प्रशमन, नि:शर्त प्रेम के साम्राज्‍य की स्‍थापना का स्‍वप्‍न, भूमि पर स्‍वर्ग उतारने की निरन्‍तर आकांक्षा, यह सब एक ऋषि ही सोच या कह सकता है। उपनिषद में कहा गया है कि जो ऋषि नहीं वह कवि नहीं हो सकता। नानृषि:कवि: की यह उक्‍ति अक्‍कित्‍तम पर सटीक बैठती है।   

संकर संस्कृति का बढ़ता दायरा (लेख)

संस्‍कृति शब्‍द मानव-समाज की पहचान से जुड़ा है। यह स्‍थान विशेष व समय विशेष के संदर्भ में मनुष्‍य-समूह के विचार-व्‍यवहार का समेकित प्रदर्शन है। जब दो स्‍थानों की अथवा दो काल-खंडों की स्‍थापित संस्‍कृतियों के बीच किसी प्रकार का अन्‍तर्सम्‍बन्‍ध स्‍थापित होता है, तो वे दोनों एक-दूसरे को प्रभावित करना शुरू कर देती हैं और इस प्रकार एक किस्‍म की संकर संस्‍कृति अथवा हाइब्रिड कल्‍चर का जन्‍म होना प्रारम्‍भ होता है। हाइब्रिड शब्‍द की उत्‍पत्ति लैटिन के शब्‍द 'हाइब्रिडा से हुई है, जिसका प्रयोग दो जंगली पशुओं की संकर सन्‍तान के लिए किया जाता था। इसका शाब्दिक अर्थ मिश्रण है तथा हाइब्रिडिटी का अर्थ मिश्रित करना है। अठारहवीं शताब्‍दी में इस शब्‍द  का प्रयोग नस्‍लीय मिश्रण के लिए किया जाने लगा। हाइब्रिड अंग्रेजी में लैटिन भाषा से आया हुआ शब्‍द है, जिसका मौलिक अर्थ प्रजातियों के संकरण से जुड़ा है। अंग्रेजी में इसका व्‍यापक उपयोग भिन्‍न-भिन्‍न जातियों, प्रजातियों, संप्रदायों, नस्‍लों के संकरण से जुड़कर होने लगा। यहाँ तक कि कृषि-विज्ञान में केवल गुणों के संकरण के लिए चयनित जीन्‍स को एक प्रजाति या नस्‍ल से दूसरी प्रजाति या नस्‍ल  में पहुँचाने की प्रक्रिया को हाइब्रिडाइजेशन का नाम दिया गया और ऐसी परिवर्तित प्रजाति को हाइब्रिड या संकर माना गया। लेकिन कल्‍चरल हाइब्रिडाइजेशन या सांस्‍कृतिक संकरण के मामले में हाइब्रिडिटी अथव संकरता को ऐसे सीमित दायरे में रखकर नहीं देखा जा सकता है। यहाँ मामला विचार-व्‍यवहार के लंबे समय से अलग-अलग मानव-समूहों में स्‍थापित विचारों या व्‍यवहारों के संकरण का है और यह बहुत ही जटिल तथा एक लंबे समय में होने वाली प्रक्रिया है। जैसे एक संस्‍कृति सदियों अथवा सहस्राब्दियों में विकसित अथवा स्‍थापित होती है, वैसे ही एक संकर संस्‍कृति भी कई दशकों अथवा सदियों में जन्‍म लेती है अथवा अपनी जड़ें मजबूत करती है।

            संकर संस्‍कृति की प्रकृति या उसके स्‍वरूप के विस्‍तार में जाने से पहले, यहाँ यह समझ लेना जरूरी है कि वास्‍तव में संस्‍कृति क्‍या है? पाश्‍चात्‍य विद्वान होबेल का मत है, वह संस्‍कृति ही है जो एक व्‍यक्ति को दूसरे व्‍यक्तियों से, एक समूह को दूसरे समूहों से और एक समाज को दूसरे समाजों से अलग करती है। इसका अर्थ यह है कि संस्‍कृति एक सामूहिक प्रवृत्ति का परिचायक है, जो समूह से समूह और समाज से समाज तक भिन्‍न-भिन्‍न होती है। विश्‍व में प्रकृति के रूप एक जैसे हैं। मनुष्‍य भी प्राकृतिक रूप से अथवा जन्‍मना पूरे विश्‍व में एक जैसे होते हैं। किन्तु वे गर्भावस्था में एवं उसके बाद भिन्‍न-भिन्‍न संस्‍कृतियों का हिस्‍सा बनकर पलते-बढ़ते हैं। इस प्रकार मनुष्य को जन्‍म से ही किसी एक संस्‍कृति का वाहक मान लिया जाता है। मनुष्‍य जन्‍म से लेकर मृत्‍यु तक जिन विचारों को ग्रहण करता है और जिन व्‍यवहारों को सीखता है, वही संपूर्ण रूप से उसकी संस्‍कृति का परिचायक होते हैं। यह सब एक सांस्‍कृतिक वातावरण में होता है और इसका बहुत कुछ हिस्‍सा  विरासत में निहित होता है और बहुत कुछ वर्तमान समय के वातावरण में। सुप्रसिद्ध नृवैज्ञानिक मैलिनाव्‍स्‍की के अनुसार मानव जाति की समस्‍त सामाजिक विरासत या मानव की समस्‍त संचित सृष्टि का ही नाम संस्‍कृति है।

            संस्‍कृति शब्‍द संस्‍कृत  के सम' उपसर्ग, कृ' धातु तथा क्तिन  प्रत्‍यय को जोड़कर बनाया गया है (सम+कृ+क्तिन=संस्‍कृति), जो समान आचार-व्‍यवहार का परियायक है। टी.एस. इलियट के अनुसार शिष्‍ट व्‍यवहार, ज्ञानार्जन, कलाओं के आस्‍वादन इत्‍यादि के अतिरिक्‍त किसी जाति की वे समस्‍त राष्‍ट्रीय क्रियाएँ एवं कार्य-कलाप जो उसे विशिष्‍टता प्रदान करते हैं, संस्‍कृति का अंग है।' यहाँ पर विशिष्‍टता शब्‍द अत्‍यन्‍त महत्‍वपूर्ण है। जैसे खाना खाना, नित्‍य-क्रियाएँ करना, विवाह करना, सेक्‍स करना, बच्‍चे पैदा करना आदि सामान्‍य कार्य-कलाप हैं जो हर काल में हर स्‍थान विशेष के मनुष्‍य करते ही रहते हैं, अत: इन बातों से संस्‍कृति नहीं निर्धारित होती है। संस्‍कृति का निर्धारण तो ये बातें करती है कि हम खाना क्‍या खाते हैं और कैसे खाते हैं, नित्‍य-क्रियाएँ कैसे करते हैं, विवाह कैसे करते हैं और उसके बारे में क्‍या धारणाएँ-मान्‍यताएँ रखते हैं, सेक्‍स कैसे करते हैं, बच्‍चे  कैसे पैदा करते हैं और उनका पालन-पोषण व विकास कैसे करते हैं तथा उनमें किस प्रकार के गुणों का प्रसार करते हैं, आदि-आदि। पं. जवाहर लाल नेहरू ने संस्‍कृति के बारे में कहा है, - संस्‍कृति का अर्थ मनुष्य का आंतरिक विकास और उसकी नैतिक उन्‍नति है, पारम्‍परिक सद्व्‍यवहार है और एक-दूसरे को समझने की शक्ति है।  यह संस्‍कृति का एक उदात्‍त पक्ष है अत: यह परिभाषा केवल एक सीमित अभिव्‍यक्ति लगती है। वास्‍तव में संस्‍कृति को वैचारिक व क्रियात्‍मक मानवीय व्‍यवहार की सम्‍पूर्णता में ही देखा जाना चाहिए। रामधारी सिंह दिनकर ने संस्‍कृति की इसी व्‍यापकता व पहचान की सम्‍पूर्णता की ओर इशारा करते हुए कहा है, - संस्‍कृति मानव जीवन में उसी तरह व्‍याप्‍त है, जिस प्रकार फूलों में सुगन्‍ध और दूध में मक्‍खन। इसका निर्माण एक या दो दिन में नहीं होता, युग-युगान्‍तर में संस्‍कृति निर्मित होती है।

            संस्‍कृति की अवधारणा को समझ लेने के बाद यह समझना आसान है कि संकर संस्‍कृति क्‍या है। जिन मनुष्‍यों के विचार-व्‍यवहार में विभिन्‍न संस्‍कृतियों का घाल-मेल हो, वे संकर-संस्‍कृति के वाहक होते हैं और ऐसी व्‍यक्तियों के समूह अथवा समाज की संस्‍कृति को संकर संस्‍कृति माना जाता है। लेकिन यह संकरता (हाइब्रिडिटी) भिन्‍न-भिन्‍न स्‍तरों वाली हो सकती है और प्राय: ऐसा भी हो सकता है कि भिन्‍न-भिन्‍न संस्‍कृतियों का टकराव अथवा मेल-मिलाप  केवल विचार-व्‍यवहार के कुछ संदर्भों में ही हुआ हो और कोई विशेष मानव-समूह केवल उन्‍हीं  कुछ संदर्भों में ही सांस्‍कृतिक संकरता का शिकार हुआ हो तथा बाकी के संदर्भों में अपने मौलिक सांस्‍कृतिक विचार-व्‍यवहार पर ही टिका हो। सांस्‍कृतिक परिवर्तन तो एक सामाजिक आनिवार्यता है और समय के साथ-साथ यह परिवर्तन प्राकृतिक रूप से होता ही चलता है। किन्‍तु ऐसे स्‍वाभाविक परिवर्तन को संस्‍कृति का परिष्‍करण ही माना जाना चाहिए, उसका हाइब्रिडाइजेशन नहीं। किसी संकर संस्‍कृति का जन्‍म कृत्रिम संश्‍लेषण में ही निहित होता है, अर्थात् जहाँ दो संस्‍कृतियाँ आपस में टकराती है और एक दूसरे को प्रभावित करती है, वहीं पर किसी संकर संस्‍कृति का जन्‍म होता है।

            अतीत में भिन्‍न-भिन्‍न संस्‍कृतियों के लोगों के मेल-मिलाप अथवा टकराव के अवसर तब पैदा होते थे जब लोग व्‍यापार करने, पर्यटन करने अथवा धर्म-प्रचार के लिए दूरस्थ क्षेत्रों या देशों में जाया करते थे। लेकिन यह सब एक सीमित दायरे में होता था और ऐसे लोगों की संख्‍या भी सीमित होती थी। अत: ऐसे अवसरों पर किसी एक संस्‍कृति से जुड़े लोगों के भीतर ऐसा कोई स्‍थायी बदलाव, जो व्‍यापक हो और सांस्‍कृतिक परिवर्तन ला दें, कम ही हो पाता था। तब विचारों के संचार का माध्‍यम भी यही संचारी प्रवृत्ति के लोग होते थे। लेकिन जैसे-जैसे विज्ञान के आविष्‍कार होते गए, विश्‍व भर का एक साथ आधुनिकीकरण होने लगा। वैज्ञानिक सिद्धान्‍तों ने लोगों की सोच बदलनी शुरू कर दी। इसी के साथ लोगों में सांस्‍कृतिक बदलाव भी आने लगा। अब यह लोगों की शिक्षा व विज्ञान की प्रगति पर निर्भर था कि इस प्रकार के आधुनिकीकरण से कहाँ-कौन सी संस्‍कृति कितनी प्रभावित होती है। वैज्ञानिक सोच वाले लोगों की एक अलग संस्‍कृति विश्‍व में विकसित हुई और आध्‍यात्मिक अथवा धार्मिक सोच वाले लोगों की अलग, लेकिन यह वर्गीकरण भी एक सीमित आयाम वाला ही है। इन दोनों ही वर्गों के लोगों के अन्‍य विचार व व्‍यवहार उनके अपने-अपने क्षेत्र में पूर्व से स्‍थापित सांस्‍कृतिक परम्‍परा के वाहक बने और अपनी विशिष्‍ट प्रकार की संकर संस्‍कृति के वाहक बने नजर आए। अत: ऐसा सांस्‍कृतिक संकरण आंतरिक था और इसमें दो संस्‍कृतियों के बीच घाल-मेल होने जैसी परिस्थितियाँ नहीं थी। व्‍यापारियों, पर्यटकों अथवा धर्म-प्रचारकों ने तो मुख्‍यत: भिन्‍न-भिन्‍न संस्‍कृतियों वाले लोगों के बीच सूचना के सेतु का काम किया तथा एक संस्‍कृति के समाज को दूसरे समाज की संस्‍कृति से परिचित कराया तथा उसके गुण-दोषों का आकलन किया। सेंट थॉमस, फाह्यान या ह्वेन्‍तसांग जैसे विदेशी पर्यटकों की भारत-यात्राओं को इसी कड़ी में जोड़कर देखा जा सकता है तथा महेन्द्र व संघमित्रा आदि की श्रीलंका व अन्‍य दक्षिण-पूर्वी एशिया के देशों की यात्राओं को भी।

            राजनीतिक रूप से विश्‍व में बड़े-बड़े परिवर्तन ईसा के पूर्व के काल से ही होते रहे हैं और साम्राज्‍यों के प्रसार के साथ-साथ संस्‍कृतियों का प्रसार अथवा टकराव भी समय-समय पर होता रहा है। दुनिया में साम्राज्य-विस्तार की प्रवृत्ति संकर संस्‍कृतियों के उद्भव  का यह एक बड़ा कारण रही है। नई दुनिया की खोज के पहले इस प्रकार के सांस्‍कृतिक टकराव का प्रमुख क्षेत्र यूरोप तथा भारतीय उपमहाद्वीप था। सिकन्‍दर के समय से ही भारत पर विदेशी आक्रमणों की परम्‍परा शुरू हो गई थी और तभी से भिन्‍न-भिन्‍न सांस्‍कृतिक पृष्‍ठभूमि वाले  शासकों की सत्‍ता भी भारत में समय-समय पर स्‍थापित होती रही है। इस प्रकार भारत में सांस्‍कृतिक संकरण का एक लम्‍बा इतिहास है। अमेरिका में कोलम्‍बस के पहुँचने के बाद से लेकर पिछले लगभग छह सौ वर्षों में कुछ इस प्रकार का सांस्‍कृतिक संक्रमण हुआ है कि वहाँ की मूल संस्‍कृतियाँ जैसे रेड इंडियन्‍स की संस्‍कृति लगभग गायब ही हो गई है। यही हाल कमोवेश आस्‍ट्रेलिया के आदिवासियों की संस्‍कृति का हुआ और अंग्रेजों ने उन्‍हें लगभग समाप्‍त ही कर दिया। किन्‍तु लैटिन अमेरिका व अफ्रीका में बाह्य प्रभावों के कारण भिन्‍न-भिन्‍न प्रकार की संकर संस्‍कृतियों का जन्‍म हुआ। चीनी संस्‍कृति के प्रभाव-क्षेत्र में बाहरी संस्‍कृतियों का प्रभाव ज्‍यादा नहीं पड़ा। इस प्रकार देखा जाए तो संकर-संस्‍कृतियों के विकास की यूरोप तथा भारतीय उपमहाद्वीप में तो एक लंबी परंपरा है, किन्‍तु विश्‍व के अन्य भू-भागों में सांस्कृतिक संकरण मुख्‍यत: कॉलोनाइजेशन अथवा उपनिवेश-काल के दौर में अर्थात् पिछले तीन-चार सौ वर्षों में ही हुआ है। सूचना-क्रांति एवं व्‍यापारिक वैश्‍वीकरण के चलते पिछले तीस-चालीस वर्षों में सांस्‍कृतिक संकरता भी तेजी से बढ़ी है और आज लगभग विश्‍व की हर स्‍थापित संस्‍कृति इसकी चपेट में है।

            पाश्चात्य विद्वान नेस्‍टर गार्सिया कैन्क्लिनी ने संकर संस्‍कृतियों के विकास तथा उनमें अन्‍तर्निहित प्रवृत्तियों का गहराई से अध्‍ययन किया है। संकर संस्‍कृति के संश्‍लेषण की जटिलता को समझने के लिए उन्‍होंने लैटिन अमेरिका की परिस्थितियों को बारीकी से परखा हे। उनका मानना है कि संकर संस्‍कृति के जन्‍म के पीछे सिर्फ सामाजिक मेल-मिलाप ही एकमात्र कारण नहीं होता है। पिछले तीन-चार सौ वर्षों में तेजी से हुआ औद्योगीकरण, शिक्षा का प्रसार, विज्ञान की खोजें, तकनीकी ज्ञान का विकास आदि भी इसके कारण हैं। हालांकि इन सब कारणों से सांस्‍कृतिक संकरता पैदा ही हो ऐसा नहीं है। यह सब कारण कभी-कभी पारम्‍परिक संस्‍कृति को मजबूत करने का काम भी करते हैं। कभी-कभी यह  सांस्‍कृतिक टकराव भी पैदा करते हैं, जिससे बदलाव आता है। लेकिन इस बदलाव में परम्‍पराएँ पूरी तरह मिट नहीं जाती हैं। इससे प्राय: महानगरों में तो एक बहु-सांस्‍कृतिक मिश्रण तैयार होता है लेकिन अन्‍य क्षेत्रों में पारम्‍परिक विचार-व्‍यवहार पूर्ववत् अपनी जड़ें जमाए रहता है। इस प्रकार के सांस्‍कृतिक संक्रमण से न तो पारम्‍परिक कलाएँ विलुप्‍त होती है, न प्रजातांत्रिक मूल्‍यों के सामने अधिकार-मोह की प्रवृत्ति समाप्‍त होती है, और न ही आधुनिक साहित्‍य व लिखित वाड्.मय के सामने पारम्‍परिक श्रुति-परम्‍परा के वाड्.मय का अंत होता है। गार्सिया का मानना है कि कहीं-कहीं आधुनिकता तक पहुँच न बन  पाने के कारण भी कुछ हिस्‍सों में पारम्‍परिक संस्‍कृति अक्षुण्‍ण बनी रहती है और उसी क्षेत्र के अन्‍य हिस्‍सों में आधुनिक संस्‍कृति जड़ें जमा लेती है, जिससे ऐसे क्षेत्र में एक संकर संस्‍कृति का विकास होता है।

            भारतीय संस्‍कृति विश्‍व की सबसे प्राचीनतम संस्‍कृतियों में से एक है और आज इसका जो स्‍वरूप है, वह संकर संस्‍कृति का सर्वोत्‍तम उदाहरण है। यहाँ एक तरफ तो सनातनधर्मी विचार एवं व्‍यवहार की हिन्‍दू संस्‍कृति है, जो विश्‍व की सबसे पुरानी संस्‍कृति है तथा आज भी उपनी सोच व परम्‍परा को अक्षुण्‍ण बनाए हुए है। दूसरी तरफ यहाँ समय-समय पर बाहर से आए मनुष्‍य-समूहों के प्रभाव से उत्‍पन्‍न विशिष्‍ट संस्‍कृतियाँ हैं, जैसे ईसाई समुदाय की संस्‍कृति, इस्‍लामिक समाज की संस्‍कृति, यहूदी समाज की संस्‍कृति, सिखों की संस्‍कृति, बोद्धों की संस्‍कृति आदि-आदि। इसी के साथ भारत के विभिन्‍न हिस्‍सों में प्राचीन काल से विद्यमान आदिवासी समुदायों की संस्‍कृतियाँ भी है। इन सबकी अपनी-अपनी धार्मिक मान्‍यताएँ है, संस्‍कार हैं, व्‍यावहारिक प्रवृत्तियाँ हैं, त्‍योहार हैं, खान-पान की विशेषताएँ हैं, पहनावे हैं, भाषायी विशिष्‍टताएँ हैं व कलाएँ हैं। इस प्रकार सांस्‍कृतिक दृष्टि से भारत एक विविधता से परिपूर्ण देश है, किन्तु यदि इसकी संस्‍कृति को सम्‍पूर्णता में देखा जाय तो यह एक विविधतापूर्ण संस्‍कृति है, जिसमें अनेक प्रकार के समान विचार-व्‍यवहार होने के साथ-साथ कई भिन्‍न-भिन्‍न रंगों वाले शेड्स भी हैं। धर्म-परायणता, आध्‍यात्मिकता, समन्‍वय की प्रवृत्ति, सहनशीलता आदि तमाम ऐसे सांस्‍कारिक गुण हैं, जो भारत के हर समुदाय अथवा हर सांस्‍कारिक-समूह में परिलक्षित होते हैं, और भारतीय संस्‍कृति इन्‍हीं के चलते सहस्राब्दियों से अपनी पहचान अक्षुण्‍ण बनाए हुए है। पाश्‍चात्‍य विद्वान भारतीय-संस्‍कृति की इन विशिष्‍टताओं के हमेशा से कायल रहें हैं। जर्मन विद्वान मैक्‍समूलर ने कहा है, यदि मुझसे पूछा जाय कि किस देश में मानव-मस्तिष्‍क ने अपनी एवं बौद्धिक शक्तियों को विकसित करके, उनका सही अर्थों में सदुपयोग किया है तो मैं भारत की ओर संकेत करूँगा।

            फ्रांस के महान तत्‍वचिंतक वोल्‍तेयर ने भारतीय संस्‍कृति की महानता की ओर संकेत करते हुए लिखा है, मुझे इस बात का पूरा विश्‍वास है कि हमारे पास जो भी ज्ञान है, वह हमें गंगा-तट से ही प्राप्त हुआ है। इसी प्रकार अध्‍ययन के लिए भारत आए लॉर्ड वेलिंग्‍टन ने लिखा है, समस्‍त भारतीय चाहे राजकुमार हों या झोपड़ों में रहने वाले गरीब, वे संसार के सर्वोत्‍तम शील-सम्‍पन्‍न लोग हैं, मानो यह उनका नैसर्गिक धर्म है। उनकी वाणी एवं व्‍यवहार में माधुर्य एवं शालीनता का अनुपम सामंजस्‍य दिखाई पड़ता है। वह दयालुता एवं सहानुभूति के किसी कर्म को नहीं भूलते। भारतीय संस्‍कृति का अतीत में दक्षिण-पूर्वी एशिया तथा पैसिफिक के तमाम भू-भागों तक भी विस्‍तार हुआ। यह निश्चित है कि ऐसा उन व्‍यापारियों के आवागमन के कारण हुआ होगा जो भारत से वहाँ जाया करते थे और बाद में एक बड़ी संख्‍या में वहीं पर बस भी गए। जावा के बोरोबदार स्‍तूप व कम्‍बोडिया के शिव मंदिर न केवल आस्‍था एवं विश्‍वास के केन्‍द्र थे बल्कि राज-सत्‍ता के ऊपर काफी प्रभाव रखने वाले भी थे। थाईलैन्‍ड, मलेशिया, सिंगापुर आदि देशों में भी भारतीय संस्‍कृति का व्‍यापक असर दिखाई पड़ता है। जापान, कोरिया जैसे सुदूरवर्ती देश में भी भारतीय धर्मों एवं जीवन-दर्शन का व्‍यापक प्रभाव देखा जा सकता है। भारत में आविष्‍कृत गणित-विद्या का प्रभाव भी पूरे विश्‍व पर पड़ा और आधुनिक विज्ञान में इसका व्‍यापक उपयोग हो रहा है।

            भारत में आर्य-समूह के लोग बाहर से आए या नहीं, इस पर मेरे लिए कोई अंतिम निष्‍कर्ष निकाल पाना कठिन है, किन्‍तु इतना स्‍पष्‍ट है कि भारतीय सभ्‍यता का जितना भी प्राचीनतम विवरण अभी तक उपलब्‍ध हो सका है, उसके अनुसार यहाँ प्रारम्‍भ से ही आर्य व अनार्य दोनों समूह विद्यमान रहे हैं।  अनार्यों मे द्रविण-समूह के  लोग मुख्‍यत: दक्षिण भारत में रहते थे। इसी के साथ भिन्‍न-भिन्‍न आदिवासी गोत्र-वर्गों के लोग भी भारत के विभिन्‍न हिस्‍सों में शुरु से ही रहते आए हैं। इन सभी समुदायों की अपनी-अपनी सांस्‍कृतिक परम्‍पराएँ, रीति-रिवाज, पर्व-त्‍योहार, आचार-विचार, धार्मिक आस्‍थाएँ व मान्‍यताएँ होने के बावजूद ये सभी सहजीविता के सिद्धांत पर चलते हुए, बिना एक दूसरे की संस्‍कृति पर कोई आक्रामकता या दुराव की भावना दर्शाए, एक साथ रहते आए हैं।  विश्‍व में जितने धर्मों का प्रादुर्भाव भारत में हुआ है,  उतने किसी भी अन्‍य देश में नहीं जन्‍मे।  सनातन हिन्‍दू धर्म के अतिरिक्‍त बौद्ध, जैन व सिख धर्मों की उत्‍पत्‍ति भारत में ही हुई है। इसके अलावा तमाम आदिवासी समूह भी भारत में हैं, जो या तो हिन्दू या ईसाई धर्म को मानते हैं या फिर अपनी अलग प्रकार की विशिष्‍ट धार्मिक मान्यताएँ रखते हैं। यही नहीं इस्‍लाम का भी भारत में व्‍यापक प्रभाव है। इन भिन्‍न-भिन्‍न धर्मों को मानने वाले लोगों के बीच भी तमाम एक जैसी परम्‍पराएँ व मान्‍यताएँ व्याप्त हैं। इस प्रकार यदि कहा जाय कि यहाँ एक विशाल भारतीय संस्‍कृति के भीतर धार्मिक दृष्‍टि से भिन्‍न-भिन्‍न उपसंस्‍कृतियाँ विद्यमान हैं तो अनुचित न होगा। कलात्‍मक, भावात्‍मक, दार्शनिक व पारिवारिक-व्‍यवस्‍था की दृष्‍टि से भारत के हर धार्मिक समूह तथा समुदाय में समान प्रवृत्‍तियों के अनेक उदाहरण दिखाई पड़ते हैं। इनमें जाति-व्‍यवस्‍था भी शामिल है। भारत में जातीय ऊँच-नीच की धारणा केवल हिन्‍दू समाज में ही व्‍याप्‍त न होकर ईसाई, इस्‍लाम तथा सिख समुदायों तक को प्रभावित करती है। सैद्धांतिक रुप से इन धर्मों में वर्ण-व्‍यवस्‍था न होने के बावजूद, व्‍यावहारिक रुप से इन सभी समुदायों में जातीय ऊँच-नीच का बोलबाला है। इसी प्रकार संगीत एवं नृत्‍य व अन्‍य कलाओं की भी सभी समुदायों में एक जैसी भारतीय परम्‍परा होने के बावजूद भिन्‍न-भिन्‍न समुदायों के अपने-अपने विशिष्‍ट लोक-संगीत, लोक-नृत्‍य व अन्‍य लोक कलाएँ हैं, जो भारतीय संस्‍कृति को बहुत ही विविधतापूर्ण व जटिल बना देती हैं।

            सामाजिक परम्‍पराओं व मान्‍यताओं की दृष्‍टि से देखा जाए तो भारत के विभिन्‍न समुदायों के लोगों के बीच एक अप्रत्‍याशित एकरूपता दिखाई पड़ती है। संयुक्‍त परिवार-प्रथा, बड़ों-बुजुर्गों के प्रति सम्‍मान, बच्‍चों व छोटों के प्रति नियंत्रण की भावना, वैवाहिक व्‍यवस्‍था, परिवार में बहू की स्‍थिति, समाज में स्‍त्रियों की स्‍थिति, सार्वजनिक स्‍थलों पर मनुष्‍य का व्‍यवहार, सार्वजनिक संपत्‍तियों व संसाधनों के प्रति नागरिकों का दृष्‍टिकोण, सेक्‍स की अवधारणा, स्‍त्री-पुरुष सम्‍बन्‍ध जैसे तमाम मामलों में जो एकरूपता यहाँ सभी समुदायों के बीच पूरे देश में दिखाई पड़ती है वह भारतीय समाज के कार्य-व्‍यवहार की मुख्‍यधारा को दर्शाती है। वरना भारत के भिन्‍न-भिन्‍न धार्मिक व भौगोलिक समुदायों के बीच विविधता की भी कहीं कोई कमी नहीं है। भारत की धार्मिक विविधता को देखा जाए तो यहाँ लगभग 80% आबादी हिन्‍दू तथा 13% मुस्‍लिम है।  भारत में लगभग 2-3 करोड़ ईसाई, 1.9 करोड़ सिख, 0.8 करोड़ बौद्ध तथा 0.4 करोड़ जैन मतानुयायी भी रहते हैं।

            भारत की भाषायी विविधता भी अनोखी है। यहाँ सरकार द्वारा संवैधानिक रूप से अंगीकृत 22 भाषाएँ हैं।  इन सभी भाषाओं की अपनी-अपनी व्‍याप्‍ति है, इनका  अपना-अपना साहित्‍य है तथा इनके विकास की अपनी-अपनी परम्‍परा है। लेकिन भारत की लगभग सभी भाषाओं पर संस्‍कृत भाषा का व्‍यापक प्रभाव है और संस्‍कृत भाषा ही भारत की सांस्‍कृतिक विरासत को एक सूत्र में पिरोए हुए हैं। सामान्‍य भारतीय व्‍यक्‍ति अपनी भाषा तथा बोली से अत्‍यधिक लगाव रखता है, किन्‍तु भारत का अधिकांश शिक्षित समाज बहुभाषी है। व्‍यापार तथा पर्यटन से जुड़े भारतीय प्राय: फर्राटे से एक से अधिक भारतीय भाषाएँ एवं अंग्रेजी बोलते हैं। भाषा की ही भाँति भारतीयों की वेश-भूषा तथा खान-पान की विविधता भी अनोखी है। भारतीयों के पारम्‍परिक पहनावे में पुरूषों व स्‍त्रियों द्वारा धोती या साड़ी तो देश भर में पहनी जाती है, किन्‍तु इनके पहनने का तरीका अलग-अलग क्षेत्रों में भिन्‍न-भिन्‍न है।  खान-पान की दृष्‍टि से तो भारतीय संस्‍कृति पूरी दुनिया में अपनी विविधता के लिए विख्‍यात है। कश्‍मीरी, मुगलई, अवधी, पूर्वोत्‍तर भारतीय, बंगाली, उड़िया, मराठी, राजस्‍थानी, पंजाबी, गुजराती, दक्षिण भारतीय, हैदराबादी, मलाबारी, आदि विभिन्न प्रकार के भारतीय खानों की अपनी-अपनी विशेषताएँ हैं, इनकी अपनी-अपनी विशिष्‍ट डिशें हैं, सबका पकाने व खाने का अपना-अपना तरीका है, सबका अपना-अपना स्‍वाद है, सबमें अपनी-अपनी तरह की विशिष्ट मिठाइयाँ हैं, पेय-पदार्थ हैं। दुनिया में इस प्रकार की विविधता किसी अन्‍य देश या महाद्वीप में दिखाई नहीं देती। भोजन की यह विविधता, भारतीय संस्‍कृति की सबसे उल्‍लेखनीय विशेषता है। लेकिन इसी विविधता के साथ-साथ कुछ ऐसी बातें भी हैं, जो भारतीय भोजन को सम्‍पूर्णता में एक जैसी पहचान देती हैं, जेसे पूरे भारत में सब्‍जियों व मांस को पकाने का तरीका तथा उसमें मसालेदार करी का इस्‍तेमाल, मिठाई के रूप में चावल की खीर, दही से बनी कढ़ी व रायते आदि देश के हर क्षेत्र में, विभिन्‍न समुदायों के लोगों के बीच समान रूप से प्रचलित हैं।

            भाषा, भोजन तथा पहनावे की दृष्‍टि से विदेशी समुदायों का जिनता प्रभाव समय-समय पर भारतीय संस्‍कृति पर पड़ा, उतना शायद ही दुनिया में कहीं पड़ा हो। जैसे-जैसे विदेशी समुदायों के लोग भारत में आ-आकर बसते गए, वैसे-वैसे उनकी बोलियों के शब्‍द संस्‍कृत में मिलते गए और प्राकृत तथा पाली भाषाओं का जन्‍म हुआ। बाद में इन्‍हीं में अन्‍य तमाम तरह के देशज शब्‍दों के सम्‍मिलित हो जाने से अपभ्रंश भाषाओं का जन्‍म हुआ। धीरे-धीरे यही अपभ्रंश भाषाऍं परिष्‍कृत होती गई तथा संस्‍कृत शब्‍दों के साथ मिल-जुल कर इन्‍हीं में से हिन्‍दी, गुजराती, बंगाली, मराठी, पंजाबी, उड़िया आदि भारतीय भाषाओं तथा उनकी तमाम बोलियों का जन्‍म हुआ। संस्‍कृत भाषा का प्रभाव द्रविड भाषाओं, तमिल, तेलूगू, कन्‍नड़ व मलयालम पर भी देखा जा सकता है। हिन्‍दी की खड़ी बोली का जन्‍म हुए तो अभी लगभग डेढ़ सौ वर्ष ही हुए हैं। इसी प्रकार संस्‍कृत भाषा में प्रचुर गद्य-साहित्य उपलब्‍ध होने के बावजूद भारत की वर्तमान में प्रचलित विभिन्‍न भाषाओं में गद्य का विकास हुए भी अभी लगभग डेढ़-दो सौ वर्ष ही हुए हैं। गद्य का यह विकास अंग्रेजी भाषा के प्रभाव के कारण ही हुआ है, जिस पर बाद में संस्‍कृत की भी प्रचुर छाप पड़ी। भारत की लगभग सभी आधुनिक भाषाओं पर मुगलों, अफगानों आदि के आगमन के साथ-साथ अरबी, फारसी  आदि का व्‍यापक प्रभाव पड़ा तथा इसी के चलते उर्दू भाषा का जन्‍म हुआ। यूरोपीयों के आगमन के साथ-साथ भारतीय भाषाओं पर अंग्रेज़ी, फ्रेंच, जर्मन आदि भाषाओं का प्रभाव पड़ना शुरु हुआ और आज अंग्रेज़ी के तमाम प्रचलित शब्‍द भारत की विभिन्‍न आधुनिक भाषाओं में सहजता से इस्‍तेमाल किए जाते हैं। औपनिवेशिक गतिविधियों के चलते जैसे-जैसे अंग्रेज व फ्रांसीसी कंपनियाँ भारतीय मजदूरों को हिन्‍द महासागर के द्वीपों, अफ्रीकी देशों तथा कैरीबियाई द्वीपों आदि में ले गई, वैसे-वैसे वहाँ भी भारतीय संस्‍कृति का प्रसार हुआ और भारतीय रहन-सहन, पहनावा, खान-पान व बोलियाँ आज इन सब भू-भागों में व्‍यापक रुप से प्रचलित हैं।

            इस प्रकार देखा जाय तो संस्‍कृतियों का संकरण एक लगातार जारी रहने वाली प्रक्रिया है, जो पहले लोगों के व्‍यापार, पर्यटन आदि के चलते होने वाले विस्‍थापन से जुड़ी थी किन्‍तु बाद में राजनीतिक विस्‍थापन, साम्राज्यीकरण व औपनिवेशिक गतिविधियों के चलते ज्‍यादा तेजी पकड़ गई और फलस्‍वरुप विश्‍व के अनेक भूभागों में विभिन्‍न प्रकार की संकर संस्‍कृतियों को जन्‍म देती चली गई। कहीं-कहीं पर यह भी हुआ कि विस्‍थापितों की संस्‍कृति मूल-संस्‍कृति पर पूरी तरह हावी हो गई और उसका लगभग ख़ात्‍मा ही कर दिया, जेसा कि उत्‍तरी अमेरिका तथा आस्‍ट्रेलिया में हुआ। लैटिन अमेरिका तथा अफ्रीका के अधिकांश देशों में आब्रजन के कारण व्‍यापक तौर पर सांस्‍कृतिक टकराव की स्‍थितियाँ उत्‍पन्‍न हुई और इसी के चलते रंगभेद नीति तथा गुलामी की प्रथा जैसी अमानवीय सांस्‍कृतिक प्रवृत्‍तियों का जन्‍म हुआ। भारतीय संस्‍कृति की विशेषता यही है कि तमाम विदेशी समुदायों के आगमन एवं उनके प्रभाव तथा औपनिवेशिक ताकतों द्वारा बलात् लागू किए गए नियमों, व्‍यवस्‍थाओं एवं भाषाओं के बावजूद अपनी उदारता एवं समन्‍वयवादी गुणों के कारण इसने अन्‍य तमाम संस्‍कृतियों को समाहित तो किया है किन्‍तु इसकी मूल विशेषताएँ आज भी बरकरार है। शायद इसी कारण जहाँ ईसाई धर्म का प्रभाव पूरे यूरोप, उत्‍तरी अमेरिका, लैटिन अमेरिका तथा अफ्रीका के अनेक देशों पर व्‍यापकता से पड़ा और अधिकांश लोग उसके अनुयायी हो गए तथा इस्‍लाम का प्रभाव खाड़ी, पश्‍चिम एशिया तथा उत्‍तरी अफ्रीका के तमाम देशों पर पड़ा और लोग उसे मानने लगे, वहीं भारत के हिन्‍दू धर्म के अनुयायी उसी पर टिके रहे और अपने धर्म को सनातन मानते रहे। यहाँ लोगों ने समय-समय पर अन्‍य धर्मों को भी अपनाया लेकिन धर्म-परिवर्तन करने वाले ऐसे लोगों की संख्‍या सीमित ही बनी रही।  लेकिन भारतीयों की विशेषता यही रही कि उन्‍होंने सभी के साथ पूरा समन्‍वय स्‍थापित किया और साथ-साथ जीन सीखा। भारतीय संस्‍कृति की इस विविधता का बड़ा ही रोचक उल्‍लेख जाने-माने लेखक हरिशंकर परसाई ने अपने व्‍यंग्‍य-लेखन में किया है – ‘हमारी हजारों साल की महान संस्‍कृति है और यह समन्‍वित संस्‍कृति द्रविड, आर्य, ग्रीक, मुस्‍लिम आदि संस्‍कृतियों के समन्‍वय से बनी है। इसलिए स्‍वाभाविक है कि इस महान समन्‍वित संस्‍कृति वाले भारतीय व्‍यापारी इलायची में कचरे का समन्‍वय करेंगे, गेहूँ में मिट्टी का, शक्‍कर में सफेद पत्‍थर का, मक्‍खन में स्‍याही-सोख कागज का। जो विदेशी हमारे माल में मिलावट की शिकायत करते हैं, वे नहीं जानते कि यह मिलावट नहीं समन्‍वय है, जो हमारी संस्‍कृति की आत्‍मा है। कोई विदेशी शुद्ध माल मांगकर किसी भारतीय व्‍यापारी का अपमान न करे।‘’

            उपनिवेश- काल में बढ़ते औद्योगीकरण के साथ-साथ विभिन्‍न संस्‍कृतियों पर सबसे ज्‍यादा जिस बात का प्रभाव पड़ा है वह है, आधुनिकीकरण। आधुनिकता की प्रवृत्ति अपनी वैज्ञानिक सोच के बल पर विश्‍व की लगभग हर संस्‍कृति के साथ टकरायी। वैज्ञानिकों ने धार्मिक आस्‍थाओं एवं कुरीतियों को एक-एक करके  नकारना शुरु किया। अंधविश्‍वास टूटने लगे। कुप्रथाओं की जड़ों पर चोट पड़ने लगी। मनुष्‍य एक है, इस धारणा को बल मिलने से रंग, जाति, नस्‍ल आदि के आधार पर भेद-भाव करने वाली सांस्‍कृतिक प्रवृत्‍तियों के विरुद्ध सुधारों का आहवान हुआ। बाल-विवाह, सती, अस्‍पृश्‍यता जैसी सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ तमाम सुधारकों तथा संगठनों ने काम करना शुरु किया, विशेष रुप से भारत में। इस प्रकार सामाजिक परिवर्तन लाने की एक नई सांस्‍कृतिक मुहिम भारत में शुरु हुई। अमेरिकी देशों तथा अफ्रीका के देशों में भी इसी प्रकार के सामाजिक-परिवर्तनों का दौर चला। चिकित्‍सा व शिक्षा की पद्धतियों में आमूल-चूल परिवर्तन आया। संचार-माध्‍यमों के विकास ने परिवर्तन के इन प्रयासों पर धीरे-धीरे और ज्‍यादा बल दिया और आज वैज्ञानिक सोच की पहुँच दूर-दराज के जंगली इलाकों में अलग-थलग रहने वाले आदिवासी-समुदायों तक भी स्‍थापित हो चुकी है।  धीरे-धीरे सब जगह परिवर्तन आ रहा है।  लेकिन भारत में इस विज्ञान-जनित आधुनिकता का भी कम ही प्रभाव पड़ा है।  यहाँ अंधविश्‍वासी प्रवृत्‍तियों तथा तमाम सामाजिक कुरीतियों का अभी भी बोलबाला है। विशेष रुप से जाति-प्रथा का। अस्‍पृश्‍यता भी अभी पूरी तरह खत्‍म नहीं हुई है। ग्रामीण-समाज में बाल-विवाह अभी भी धड़ल्‍ले से होते हैं। कुछ मंदिरों में आज भी बलि चढ़ाई जाती है। कहीं-कहीं दलितों का मंदिरों में प्रवेश आज भी एक समस्‍या है। प्रेम-विवाहों या समगोत्रीय विवाहों का अभी भी व्‍यापक विरोध होता है, विशेषकर ग्रामीण-समाज में और ऐसे लोगों का हुक्‍का-पानी बंद कर दिया जाता है। कुछ कबीलाई जातीय संस्‍कार भी गजब के हैं।  खाप-पंचायतें आज भी उल्‍टे-सीधे फरमान सुनाती हैं। पर्दा-प्रथा का प्रचलन उत्‍तर भारत के ग्रामीण हिन्‍दू-समाज में आज भी व्‍यापक तौर पर है। देवी-देवाताओं की मूर्तियाँ आज भी दूध या शराब पीती देखी जा सकती हैं।  इस प्रकार भारतीय संस्‍कृति के तहत ऐसी तमाम परंपराएँ आज भी विद्यमान हैं, जिन्‍हें आधुनिकता के वैश्‍विक प्रभाव तथा वैज्ञानिकता के प्रसार के साथ विलुप्‍त हो जाना चाहिए था। ऐसी दक़ियानूसी परम्पराएँ आज भी अपनी जगह पर कायम हैं, और यही शायद भारतीय संस्‍कृति की सबसे बड़ी विशेषता है।

            औद्योगिक विकास के साथ-साथ  विश्‍व में एक अन्‍य प्रकार की सार्वभौमिक संस्‍कृति का भी विकास हुआ है जिसे हम औद्योगिक संस्‍कृति कह सकते हैं। इस औद्योगिक संस्‍कृति में विभिन्‍न परमपराओं व संस्‍कृतियों का आन्‍तरिक टकराव भी समाया हुआ है। औद्योगिक जगत की मान्‍यताएँ आर्थिक प्रबंधन व मुनाफा कमाने की बुनियादी जरुरत पर टिकी हुई हैं। यहाँ मजदूर हैं, प्रबंधक है और मालिक हैं। मजदूर विश्‍व भर में अधिकतर सर्वहारा वर्ग से ही आते है। दुनिया भर में मजदूरों की अपनी एक अलग संस्‍कृति का विकास हुआ।  श्रमिकों का मालिकानों से समय-समय पर टकराव हुआ, जिसके कारण प्राय: आर्थिक व कभी-कभी  सांस्‍कृतिक भी रहे। श्रमिकों के संगठित होने से उद्योग-क्षेत्रों में एक विशेष प्रकार की कार्य-संस्‍कृति का जन्‍म हुआ। औद्योगिक क्षेत्र के बाहर भी संचार प्रौद्योगिकी के विकास के साथ-साथ एक अलग तरह की परिस्‍थिति का जन्‍म हुआ। नए-संचार माध्‍यमों के जरिए पिछड़े चेत्रों में समाज और संस्‍कृति पर अपने से भिन्‍न संस्‍कृतियों का प्रभाव व्‍यापक रुप से जमने लगा, जिससे स्‍थानीय संस्‍कृतियों में व्‍यापक बदलाव आना शुरु हुआ। लैटिन अमेरिका में जहाँ 1970 से केवल 205 टेलीविजन केन्‍द्र थे, वहीं 1988 में इनकी संख्‍या  बढ़कर 1459 हो गई। इससे लोगों की सोच-समझ में व्‍यापक बदलाव आया। भारत जैसे देश में भी उपग्रह-संचार शुरु होने के बाद टेलीविजन चैनलों की संख्‍या में बाढ़ सी आ गई है।  दूर-दराज के क्षेत्रों में रेडियो तथा दूरदर्शन ने अपनी पहुँच का व्‍यापक विस्‍तार किया है। शहरी तथा कस्बाई क्षेत्रों में आज सैकड़ों 'डायरेक्ट टू होम' चैनलों की पहुँच घर-घर में हैं। ये सारे चैनल मिल-जुलकर आज देश में एक अलग किस्म भी संकर संस्कृति का विस्तार कर रहे हैं। संचार माध्‍यमों के इस विस्‍तार के कारण आज लोग एक दूसरे की भाषा, वेष-भूषा, खान-पान, नृत्य-संगीत, पारस्‍परिक लोक-कथाओं आदि के बारे में बड़ी तेजी से जानकारी हासिल करते जा रहे हैं। इस सबका भारतीय संस्‍कृति पर व्‍यापक प्रभाव भी पड़ रहा है। आज सलवार-सूट जैसी महिलाओं की पंजाबी ड्रेस पूरे देश की नई पीढ़ी द्वारा अपनायी जा चुकी है। इसी प्रकार शर्ट-पैंट का पहनावा पूरे देश की कामकाजी महिलाओं की संस्‍कृति का हिस्‍सा बन चुका है। खान-पान की तमाम चीजें पूरे देश में एक साथ सामान्‍य रूप से उपलब्‍ध होने लगी हैं। आज दक्षिण भारत का दोसा-इडली उत्‍तर में कश्‍मीर से लेकर पूर्वोत्‍तर के अरूणाचल प्रदेश या मिजोरम तक कहीं भी मिल जाएगा तथा इसी प्रकार पूर्वोत्‍तर भारत के नूडुल्‍स या मोमो दक्षिण भारत के किसी भी स्‍थान पर आसानी से मिल जाएंगे। दिल्‍ली की जिस सरोजिनी नगर मार्केट में दस साल पहले मोमो जैसी तिब्‍बती डिश के दर्शन भी नहीं होते थे, आज उसी बाजार का कोर्इ ऐसा नुक्‍कड़ नहीं है, जहाँ सुबह से शाम तक गर्मागरम मोमो न बिकते रहते हों। विभिन्‍न चैनलों के प्रसारण देखने के आदी हो चले तमिलनाडु-वासियों के मन में आज न तो हिंदी चैनलों के प्रति कोई विरोध है, न हिन्‍दी भाषा के प्रति पहले जैसा वैमनस्‍य।

            परम्‍परा व विरासत को नकारने वाली आधुनिकता के प्रसार और उसके बाद भूमंडलीकरण के प्रभाव ने कहीं न कहीं लोगों की अस्‍मिता को एक प्रकार से नेस्‍तनाबूद करने का काम भी शुरू कर दिया है। समाज-विज्ञानी पार्थ चटर्जी का मानना है कि आधुनिकता एक आर्थिक बल है जो सामाजिक, सांस्‍कृतिक व राजनीतिक बलों के साथ मिलकर अपना काम करती है तथा परम्‍परा एक सांस्‍कृतिक बल है जो सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक बलों के साथ तादात्‍म्‍य मिलाकर ही काम कर सकती है। लेकिन इसी प्रकार की जटिल स्‍थिति के कारण ही जब कहीं अशिक्षा आदि के कारण विवेक-शून्‍यता हावी हो जाती है, तो वहाँ पर सभी कुछ गड्डमड्ड हो जाता है। इसमें आर्थिक बल के नाम पर सिर्फ एक उपभोक्‍ता संस्‍कृति है जो पूरे भारत पर हावी होती जा रही है। एक संकुचित सामाजिक विचारधारा है जो सामुदायिकता व संप्रदायवाद से ग्रस्‍त होकर प्रजातंत्र को वोट-तंत्र में बदलती जा रही है। यहाँ संस्‍कार, भाषा, कला आदि के प्रति जरा भी आत्‍मसम्‍मान बचाकर रखने की जरूरत नहीं, सब कुछ व्‍यापार-केंद्रित है। छिछली व बेतुकी व्‍यापार-केंद्रित भाषा के माध्‍यम से कोई गंभीर विमर्श संभव ही नहीं हो सकता, किंतु वैश्‍वीकरण की बीमारी से ग्रस्‍त भारत के आधुनिक संचार माध्‍यम इसी प्रकार की बेसिर-पैर की भाषा का प्रसार करते चले जा रहे हैं। भारत की शीर्ष सहकारी संस्‍था अमूल जब विज्ञापन देती है - ‘पियो मस्‍ट इन एवरी सीजन / पियो दूध फॉर एवरी रीजन / रहोगे फिर फिट और फाइन /जियोगे पास्‍ट नाइन्‍टी नाइन’ तो इस पर कोई भी समझदार हिन्‍दुस्‍तानी सिर्फ सिर पीटने के अलावा और क्‍या कर सकता है? इसी उपभोक्‍तावादी प्रवृत्‍ति ने संस्‍कृति के स्‍थापित स्‍वरूपों पर सबसे बड़ा कुठाराघात किया है। मैंने स्‍वयं अपनी ‘अगिया बैताल’ शीर्षक कविता में लिखा है, ‘मेरे गाँव में धीरे से / यूरोप का एक गाँव घुस आया है / मेरे कस्‍बे में, शहर में / कौन जाने कहाँ का कचरा आ समाया है / मेरी रसोई में न जाने कहाँ का आटा है, कहाँ की भाजी है / वह माचिस जिससे मैंने अभी-अभी अपना दिया जलाया है / पता नहीं किस देश से आई है।’ अज्ञेय की ये पंक्‍तियाँ भी यहाँ उल्‍लेखनीय हैं - ‘आँगन के पार / द्वार खुले / द्वार के पार आंगन / भवन के ओर-छोर / सभी मिले / उन्‍हीं में कहीं खो गया भवन।’ आज अज्ञेय का यह भवन खो जाने की तरह ही हिन्‍दी व अन्‍य भारतीय भाषाओं एवं संस्‍कृति के भूमंडलीकरण के चलते कहीं हमारी अस्‍मिता भी न खो जाए, इसकी चिन्‍ता करना जरूरी है।

            गार्सिया ने लैटिन अमेरिका के अध्‍ययन के आधार पर कहा है कि आधुनिकीकरण अपने साथ कुछ अपसंस्‍कृति भी लेकर आता है। वहाँ भूमंडलीकरण के प्रभाव से ग्रामीण क्षेत्रों से लोगों का विस्‍थापन हुआ है और शहरों में तनाव तथा हिंसा बढ़ी है। नशीली दवाओं का उपयोग, आर्थिक असमानता, बाह्य कर्ज आदि समस्‍याएँ भी व्‍यापक हुई हैं। जिस प्रकार का अप्रभावी सम्‍मिलन परम्‍परा और आधुनिकता के बीच स्‍थापित हुआ है, उसमें स्‍थानीय साहित्‍य, कला आदि का ह्रास हुआ है और स्‍वभाषायी पुस्‍तकों का प्रकाशन आदि भी कम हो गया है। स्‍थानीय थियेटर, स्‍थानीय कला-केंद्र, भाषायी सिनेमाघर आदि की गतिविधियाँ मंद पड़ गई हैं। तमाम प्रकाशक और रेडियो स्‍टेशन आदि यूरोपीय या अमेरिकी नियंत्रण वाली कंपनियों के हाथ में चले गए हैं, जिसके फलस्‍वरूप उनके प्रसारण-कार्यक्रमों में आमूल-चूल परिवर्तन आ गया है। आर्थिक व औद्योगिक क्षेत्र पर भी इस प्रकार के अप्रभावी सम्‍मिलन का, जिसमें स्‍थानीय परम्‍पराओं का प्रभाव बहुत कम हो जाता है, काफी नकारात्‍मक असर पड़ा है। घरेलू पारम्‍परिक उत्‍पादों का बनना काफी कम हो गया है और ऐसे प्रतिष्‍ठानों का अंतर्राष्‍ट्रीय कम्‍पनियों के सामने बाजार में टिकना मुश्‍किल हो रहा है। आर्थिक मंदी के आज के दौर में लोगों की आय भी घट रही है, जिससे उनकी खरीद-क्षमता में भी कमी आई है। ऐसे में पारम्‍परिक उत्‍पादों के सामने आया संकट और गहरा गया है। भूमंडलीकरण के ऐसे दुष्‍प्रभाव भारत में भी काफी हद तक देखे जा सकते हैं। यहाँ भी ग्रामीण व घरेलू उत्‍पादन लगभग ठप सा पड़ता जा रहा है। आज दीपावली में चीन निर्मित बिजली की झालरों तथा होली में चीन में बनी पिचकारियों से बाजार पट जाते हैं। खिलौनों के बाजार में भी चीनी उत्‍पाद हावी हैं। इलेक्‍ट्रॉनिक साधनों के बाजार पर भी चीन का कब्‍जा होता जा रहा है। विभिन्‍न प्रकार की वस्‍तुओं के पारम्‍परिक घरेलू उद्योग लगभग बंदी के कगार पर हैं। आधुनिकता की आड़ में नशाखोरी, बेईमानी, हिंसा, व्‍यवहारिक उच्‍चश्रृंखलता, स्‍त्रियों का अपमान, वेश्‍यावृत्‍ति आदि प्रवृत्‍तियाँ भारतीय समाज में बढ़ती ही जा रही हैं। निश्‍चित ही इन सब बातों का संस्‍कृति पर एक नकारात्‍मक प्रभाव पड़ रहा है। भारत में तो संचार-माध्‍यमों ने अंधविश्‍वासों एवं धार्मिक व सामुदायिक भावनाओं को भी भुनाना चालू कर दिया है। यह सब सहस्‍त्राब्‍दियों से स्‍थापित उदारवादी, समन्‍वयकारी व सर्वसमावेशी भारतीय परम्‍परा के प्रभाव को कम करता जा रहा है तथा लोगों में सामुदायिक भावनाएँ एवं अंधविश्‍वास प्रबल होते जा रहे हैं। इसका प्रभाव राजनीति, शिक्षा, कला, सामाजिक-व्‍यवहार आदि हर क्षेत्र पर पड़ रहा है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स के माध्‍यम से जिस प्रकार का दुष्‍प्रचार किया जा सकता है, उसका एक उदाहरण हमने अभी हाल में देखा ही है, जब मनगढ़ंत तस्‍वीरों के जरिए मुंबई, बंगलुरू व चेन्‍नई आदि के मुसलमानों के बीच पूर्वोत्‍तर भारतीय लोगों के खिलाफ दुर्भावना पैदा की गई, जिसके कारण मुंबई में हिंसा हुई तथा डर के मारे दक्षिण भारत से पूर्वोत्‍तर भारतीयों का व्‍यापक रूप से पलायन हुआ। यह सब भारतीय संस्‍कृति की पारम्‍परिक सहिष्‍णुता व सहजीविता के सिद्धान्‍तों को गंभीर रूप से विकृत कर रहा है।
           
            पिछले दो-तीन दशकों में पूरे विश्‍व में आर्थिक उदारीकरण एवं व्‍यापारिक एकीकरण का एक दौर चला है, जिससे भूमंडलीकरण (‘ग्‍लोबलाइजेशन’) की प्रक्रिया तेज हुई है। भूमंडलीकरण की इस प्रक्रिया ने औद्योगिक एवं व्‍यापारिक संस्‍कृति को ही नहीं बदला है, बल्‍कि इसके कारण सामाजिक संस्‍कृति पर भी व्‍यापक प्रभाव पड़ रहा है। नेडरवीन पीटर्सी ने वैश्‍वीकरण की प्रक्रिया को एक दीर्घकालीन गतिविधि के रूप में देखा है और प्रतिपादित किया है कि इसके दूरगामी परिणाम होंगे। होमी भाभा, स्‍टुवर्ट हाल, गायत्री स्‍पाइवाक जैसे विद्वान भी वैश्‍वीकरण के कारण संकरता की प्रवृत्‍ति के मजबूत होने की बात का समर्थन करते हैं। इनका मानना है कि इससे राजनीतिक सीमाओं में भी परिवर्तन आ सकता है। पूर्वी व पश्‍चिमी जर्मनी का आपस में विलय और यूरोपियन यूनियन का गठन भी इसी ओर इशारा करते हैं। लेकीन यशदीप श्रीवास्‍तव जैसे विद्वान इस बात को नहीं मानते कि वैश्‍वीकरण व आधुनिकीकरण की यह प्रक्रिया भारतीय संस्‍कृति को विलुप्‍त करके रख देगी। उनका मानना है कि भारतीय संस्‍कृति हमेशा से औपनिवेशिक व अन्‍य प्रकार के बाह्य-प्रादुर्भूत परिवर्तनों को आवश्‍यकतानुसार अपने में समावेशित करती आई है। ताजमहल, शालीमार गार्डन तथा सूफी-काव्‍य परम्‍परा जैसी चीजें भारतीय संस्‍कृति को मुगलों की देन हैं। अंग्रेजी की लाई आधुनिकता ने भले ही हमारी पारंपरिक संस्‍कृति की कुछ बातों को प्रभावित किया हो, कितु इन्‍फ्रास्‍ट्रक्‍चर व उद्योगों से लेकर राजनीति व संचार आदि के क्षेत्रों में उसकी देन कुछ कम नहीं है। ब्रिटिश आधुनिकता के प्रभाव ने राजा राममोहन राय तथा राजा रवि वर्मा जैसे लोगों को बहुत कुछ नया करने के लिए प्रेरित किया जिससे भारतीय संस्‍कृति समृद्ध हुई।

            जापानी मामलों के विशेषज्ञ रॉशेल काप्‍प संकर संस्‍कृति के मामले में जापानी बहुराष्‍ट्रीय कंपनियों द्वारा अपनाई गयी संकरित कार्य-संस्‍कृति का उदाहरण देते हुए लिखते हैं कि ऐसी कंपनियों में जहाँ विभिन्‍न सांस्‍कृतिक पृष्ठभूमि वाले लोग एक साथ काम करते हैं, वहाँ कार्य-क्षेत्र में भी टकराव की संभावनाएँ बहुत ज्‍यादा होती हैं और ऐसे में उनकी अलग-अलग कार्य-शैली को मिलाकर प्रबंधन के लिए एक मिश्रित कार्य-शैली स्‍थापित करना अनिवार्य हो जाता है। ऐसी कंपनियों में एक आदर्श किस्‍म की संकरित कार्य-संस्‍कृति जन्‍म ले रही है, जिससे भूमंडलीकरण के इस दौर में काम करना आसान हो रहा है। इससे संचार, कार्यक्षमता व प्रभाविता में सुधार होता है और एक समेकित वातावरण का निर्माण होता है। क्‍या समाज के बारे में भी ऐसी ही एक संकर संस्‍कृति का विकास किया जा सकता है? क्‍या भूमंडलीकरण के प्रभाव से हमारे कदम किसी सार्वभौमिक संकर संस्‍कृति के विकास की ओर बढ़ चुके हैं? इस बारे में दो भिन्‍न-भिन्‍न मत स्‍थापित हैं। पहला यह कि भूमंडलीकरण से पूरे विश्‍व में सांस्‍कृतिक समरसता व एकरूपता स्‍थापित होती चली जा रही है, और दूसरा यह कि भूमंडलीकरण के कारण विभिन्‍न संस्‍कृतियों में अपने को संरक्षित करने की जागरूकता बढ़ रही है और उनकी अपने विचारों-व्‍यवहारों पर दृढ़ता और मजबूत हो रही है। यदि भारतीय संस्‍कृति को देखें तो हमें इन दोनों ही मतों पर कुछ न कुछ समर्थक तत्‍व तो दिखाई ही देते हैं। एक तरफ तो महानगरीय संस्‍कृति है जिसमें अंतर्राष्‍ट्रीय कार्य-संस्‍कृति की पोषक बहुराष्‍ट्रीय कंपनियों का प्रसार है, मॉल्‍स हैं, पब्‍स हैं, आधुनिक व्‍यवस्‍था की मांग है, इंटरनेट की दुनिया है, नए-नए संचार व मनोरंजन के माध्‍यम हैं, बदलते संस्‍कार हैं, स्‍त्री-पुरूष दोनों की व्‍यावहारिक स्‍वतंत्रता है। दूसरी तरफ पारम्परिक समाज है जिसमें दिन पर दिन मजबूत हो रहे ग्रामीण व सामुदायिक संगठन है, शिक्षा से प्राप्‍त विश्‍व  ज्ञान है, परम्‍परा के प्रति आदर है, संस्‍कारों के पोषण के प्रति जागरूकता है, आध्‍यात्‍मिक चेतना है, कुरूतियों व अंधविश्‍वासों को दूर कर धार्मिक प्रवृत्‍तियों को सुदृढ़ करने की चेष्‍टा है। इन दोनों विकास-क्रमों के साथ-साथ होने के कारण कभी-कभी लगता है कि भारतीय समाज एक दोराहे पर खड़ा है, जिसमें सांस्कृतिक दृष्टि से एक अन्तर्संघर्ष है। संभवत: इसी प्रकार के माहौल के कारण विद्वानों का एक वर्ग यह भी मान रहा है कि भूमंडलीकरण के प्रभाव से भारत में सांस्‍कृतिक टकराव की स्‍थिति उत्‍पन्‍न हो रही है और सांस्‍कृतिक संकरण बढ़ रहा है। लेकिन यह कोई नई बात नहीं है, और इस प्रकार का संकरण हमेशा से होता चला आया है, और आगे भी होता रहेगा। वास्‍तव में इस प्रकार का सांस्‍कृतिक संकरण कम से कम भारत में तो सदियों से होता ही रहा है और यहाँ जिस प्रकार की एक बहु-सांस्‍कृतिक हिन्‍दुस्‍तानी संस्‍कृति स्थापित है, वह भूमंडलीकरण के सांस्‍कृतिक टकराव के महत्‍व को कम कर देती है। फिर भी भूमंडलीकरण के कारण होने वाले परिवर्तन व्‍यापक हैं और इससे भारत में भी एक नए प्रकार की संकर संस्‍कृति का विकास हो रहा है यह मानना ही पड़ेगा। यह जरूर है कि सांस्कृतिक संकरण की यह प्रक्रिया शहरों में तेजी से चल रही है और ग्रामीण क्षेत्रों में अभी प्रारम्‍भिक दौर में है।


            निष्‍कर्ष यही निकलता है कि विश्व में संकर संस्‍कृति के जन्‍म एवं विकास का एक लंबा इतिहास है या यूँ कहा जाय कि यह एक अनिवार्य प्रक्रिया है जो विश्‍व के विभिन्‍न भू-भागों में अपने-अपने ढंग से समय-समय पर संचालित होती रहती है। अतीत में प्राय: सांस्‍कृतिक सम्‍मिलन, टकराव तथा परिवर्तन अथवा संश्‍लेषण या तो पर्यटकों, व्‍यापारिक यात्रियों या धर्म-प्रचारकों के माध्‍यम से होता था, या फिर बाह्य राजनीतिक अतिक्रमणों व सत्‍ता पर दूसरी संस्‍कृतियों वाले समुदायों अथवा समूहों के काबिज होने से होता था। बाद में इसमें औपनिवेशिक गतिविधियों की भूमिका अहम् हो गई। औपनिवेशिक औद्योगीकरण तथा साम्राज्‍यीकरण ने विश्‍व के तमाम हिस्‍सों में नई-नई संस्‍कृतियों को जन्‍म दिया तथा अनेक देशों में संकर संस्‍कृतियों की स्‍थापना की, जिनमें भारत का भी एक प्रमुख स्थान है। लेकिन वैज्ञानिक क्रांति व आधुनिकता के प्रसार के साथ पूरे विश्‍व की तमाम संस्‍कृतियों में एक नए तरह का आन्‍तरिक टकराव शुरू हुआ और उसके फलस्‍वरूप तमाम नए नैतिक मूल्‍यों व सांस्‍कृतिक विचारधाराओं की स्रष्‍टि हुईं। बाद में सूचना प्रौद्योगिकी पर आधारित संचार-क्रांति ने एक अलग ही तरह की तेजी से बदलाव लाने वाली प्रक्रिया शुरू की जिसने धीरे-धीरे एक सार्वभौमिक संस्‍कृति को जन्‍म देना शुरू  किया। इसने पारम्‍परिक व धार्मिक मान्‍यताओं को मजबूत करने तथा इनके प्रसार का रास्‍ता भी प्रशस्‍त किया। लेकिन पिछले पच्‍चीस-तीस वर्षों में स्‍थिति दूसरी ही हो गयी है। विश्‍व व्‍यापार संगठन जैसी संस्‍था के गठन एवं विभिन्‍न प्रकार के अन्‍य सांगठनिक माध्‍यमों से पूरे विश्‍व में एक बाजारू अर्थ-तंत्र का विकास हो रहा है। भूमंडलीकरण के इस दौर में बाजार से बढ़कर कुछ नहीं। यहाँ कला एवं संस्‍कृति भी बाजारू जिंस की तरह देखी जाती हैं। इस दौर में स्‍थापित संस्‍कृतियों के सामने एक बड़ा संकट मुँह बाए खड़ा है। भारत की दीर्घकाल से अक्षुण्‍ण बनी सांस्‍कृतिक विरासत भी आज ख़तरे में है। किन्‍तु उम्‍मीद यही है, अपनी विशिष्‍टताओं के कारण भारतीय संस्‍कृति भूमंडलीकरण के इस दौर में भी अपने को नष्‍ट होने से बचा लेगी। हालाँकि इसके चलते कुछ और सांस्‍कृतिक संश्‍लेषण होगा तथा संकरता कुछ नए स्‍वरूप में सामने आएगी। आज जरूरत शायद इस बात की है कि हम सांस्‍कृतिक संकरण के बारे में न भय पालें, न भ्रम। हम इसे एक अनिवार्य प्रक्रिया मानें और अपनी अस्‍मिता को संभालने का प्रयास करें तथा बाजारू शक्‍तियों के साथ तादात्‍म्‍य स्‍थापित करते हुए सांस्‍कृतिक संकरण के दुष्‍प्रभावों से अपने को बचाए रखकर परम्‍परा व विरासत की पुख्‍ता नींव पर खड़ी, आधुनिक विचारों व व्‍यवहारों की दीवारों से सजी-धजी तथा आर्थिक मजबूती वाली छत से ढँकी अपनी इस प्रभावशाली एवं विशिष्‍ट पहचान वाली भारतीय संस्‍कृति को अक्षुण्ण बनाए रखने का प्रयास करें।