आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

Monday, November 15, 2010

पत्ता भर छाँव

चिलचिलाती धूप है यह
आत्माहुतियों से सेवित
अग्नि-दाहों से उपजा
जमाने भर का संचित ताप समेटे।

सामने बस पत्ता भर छांव है
सुलगते चूल्हे पर
धूमाक्रमित आँख से टपकी
आँसू की एक बूँद जैसी
निश्फल आश्वासन देती।

मेरे भष्मावशेषों को
समेटने तक के लिए भी
जरूरत भर की शीतलता न दे पाएगी
आसमान से उतारी गई
सुख की पत्ता भर छाँव यह।

Friday, November 12, 2010

पुनश्च

पुनश्च रोता हूँ
प्राप्त दुखों के लिए,
उससे भी ज्यादा
अप्राप्य सुखों के लिए।

पुनश्च हँसता-मुसकराता हूँ
प्राप्त खुशियों के लिए,
प्राप्य सुखानुभूतियों के लिए,
लेकिन शायद ही कभी खुश होता हूँ
अब तक अप्राप्त दुःखों के लिए।

अनवरत जारी रहना है
सुख-दुःख का आना-जाना
बदराए दिन में
धूप-छांव की भाँति,
यह बात अच्छी तरह जानते हुए भी
कैसी विडंबना है कि
पुनश्च जारी रहता है निरन्तर
हमारा रोना-हँसना-मुसकराना,
साथ में यह भी कि
प्राप्त व प्राप्य सारे सुखों की खुशी
पल भर में ही भुलाकर
लंबे समय तक उद्यत रहता हूँ रोने को
किसी एक छोटे से दुख के लिए।

पुनश्च,
यही लगता है मुझे कि
समझ नहीं पाया शायद ठीक से
जीवन का गणित अनोखा अभी तक
दो और दो चार का जोड़ लगाते-लगाते।

Tuesday, November 9, 2010

बित्ता भर धूप

संचित यह ठिठुरन है
मौसम भर की
कंपकंपाती तन-मन।

धूप है बस बित्ता भर,
दोनों हाथ समेटने पर भी
मुट्ठी तक न गरमाए।

कैसे कटे जीवन अब?

सक्षम है धूप यह
ओस की बूँद को सुखाने की तरह
बस प्राणों को उड़ा कर ले जाने में ही।