आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

Monday, June 30, 2014

भैंस के आगे (2013)

भैंस के आगे बीन बजे पर
भैंस खड़ी पगुराए,

भैंस के आगे लूट मची पर
भैंस आँख मिलाए,

भैंस बड़ी ही खाल की मोटी
मार सभी सह जाए,

भैंस बड़े चिकने घट जैसी
चिन्ता नहीं समाए,

भैंस पहन ले सदरी - कुर्ता
कोट - पैंट घबराए,

भैंस नियम - कानून रचे तो
जल में देश समाए,

भैंस अकेली चाल निराली
गली - सड़क थम जाए,

भैंसों का जब झुंड चले तो

जग सारा जमुहाए।

ख़तरा (2014)

ख़तरा जैसे - जैसे बढ़ता जा रहा है
आस - पास का शोरगुल भी बढ़ता जा रहा है
आवाज़ें ठीक से सुनाई नहीं देतीं
शब्दों के अर्थ अस्पष्ट होते जा रहे हैं
बस कुछ चीखों की आवाज़ - सी उभरती है नेपथ्य से

धरती के भीतर ही भीतर खौल रहा लावा
करुणा की नदी के बीच
मनोरंजन के लिए स्थापित
संगीतमय फव्वारे से फूटकर
फिज़ा को बदल देने की तैयारी में है
इस बदलाव के वक़्त गूँजने वाला संगीत
कैसा होगा,
यह सोचने की
अभी कोई जरूरत नहीं महसूस हो रही

स्पष्ट है कि यह एक ऐसा ख़तरा है
जो कई और ख़तरों को जन्म देने की तैयारी में है
और हमें उन सारे ख़तरों से जूझने के लिए
इस बढ़ते जा रहे शोरगुल को शान्त को देने वाली

किसी असरदार आवाज़ के बुलन्द होने की प्रतीक्षा है।

उम्मीदों का हत्यारा (2014)

(1)

पानी से निकल भागने को तत्पर गैस
जैसे तन जाती है बबूले की शक्ल में
फिर अपने ही दबाव से उसे फोड़कर
मिल जाती है खुली हवा में
वैसे ही
मैं भी निकल भागना चाहता हूँ
फाइलों की द्रवीय सतह के भीतर से
तोड़कर लाल फीतों का बंधन
फाड़कर बबूले - सी तनी हुई
झूठी शानो - शौक़त की झिल्ली
और विलीन हो जाना चाहता हूँ
बाहरी दुनिया के खून - पसीने की गंध में
मुझे लगने लगा है कि
लोगों की उम्मीदों के हत्यारों की खोज़ करने
और उन्हें सज़ा दिलाने का काम
वहीं से किया जा सकता है बेहतर ढंग से।

(2)
                            
चौराहों पर बार - बार मुनादी हो रही है कि
लोगों की उम्मीदों का हत्यारा
अभी-अभी एक खूबसूरत योजना हाथों में थामे
चुपके से किसी मासूम के पेट में गुप्ती का वार कर
यहीं पास के ही किसी
सुरक्षित भवन के भीतर घुस गया है
हर तरफ से पकड़ो - पकड़ो मारो - मारो का शोरगुल उठने लगा है
मुझे अपने दफ़्तर के खुशबूदार कमरे में उबकाई आने लगी है
मुझे अभी इसी वक्त इस सुरक्षित जगह से बाहर निकलकर
सड़क पर घायल पड़ी
किसी बच गई उम्मीद की देह पर
मरहम लगाने के लिए निकल पड़ना चाहिए
भले ही वह हत्यारा मुझे ही विद्रोही मानकर
किसी सलीब पर कीले गड़वाकर लटकवा दे
या बाहर आक्रोश में डूबे लोग
मुझे ही अपनी उम्मीदों का हत्यारा समझकर मारने लगें
और असली हत्यारा
किसी लाल या नीली बत्ती वाली गाड़ी में बैठकर
शाम के धुँधलके में चुपके से
उस भवन से बचकर बाहर निकल जाए।

विस्थापन (2014)

त्रिज्या छोटी हो या बड़ी
परिधि पर परिक्रमा करते हर बिन्दु की
प्रवृत्ति एक जैसी होती है
और परिणति भी एक जैसी

परिधि पर ही संचरित होते रहना
प्राय: नीरसता से भरा होता है
एक तरह से देखा जाय तो
बिन्दु की जड़ता का प्रतीक भी

परिधि से बाहर की ओर का विस्थापन
उन्मुक्त कर देता है
बिन्दु की ऊर्जा और गति को

परिधि से केन्द्र की तरफ का विचलन
बिन्दु के गतिहीन हो जाने
और विलय का प्रतीक होता है

किसी केन्द्र के आकर्षण में
परिधि पर ही जमे रहना
त्रिज्या की लम्बाई के आधार पर
बिन्दु को निरन्तर कुंठा या आह्लाद से भरता रहता है
इसीलिए किसी भी अवस्था में
परिधि से बाहर या भीतर की ओर
विचलित होने का प्रयास ही
करता रहता है बिन्दु

बिन्दु का परिधि से परे हटना
उसके अपने स्थापित आकर्षण - केन्द्र से मुक्त हो जाने
तथा नए आकर्षण - केन्द्र की तलाश में
जुट जाने की सूचना होता है
भले ही वह ऐसे किसी
आकर्षण - केन्द्र के परिक्रमा - पथ तक पहुँच पाए
या उस तक पहुँचने के प्रयास में
अपने वज़ूद को ही कहीं खो बैठे

किसी आकर्षण - केन्द्र के
अपनी परिधि पर स्थित बिन्दु के
नजदीक आने का अर्थ
कभी उसका विस्थापित होना न होकर
अधिक शक्तिशाली और आकर्षक हो जाना ही होता है
और उस बिन्दु का शक्तिहीन होकर
केन्द्र के समक्ष आत्मसमर्पण कर देना भी

किसी आकर्षण - केन्द्र की परिधि के
भीतर और बाहर, दोनों तरफ
विरले ही होते हैं ऐसे बिन्दु
जो बोसॉन कणों की भाँति
कभी भी टूट या जुड़ सकते हैं
कहीं भी किसी दूसरे बिन्दु से
उसे ऊर्जा और गति से भरते हुए
और आकर्षण - केद्रों की स्थापित त्रिज्याओं व परिधियों के
अस्तित्व को झुठला देने वाली उन्मुक्तता से भरे

एक रहस्यमयी आकर्षण का संचार करते हुए।

हौंसला (2014)

जैसे ही मैंने पंख फैलाना सीखा
मन में हौंसला जगा
उड़कर आकाश के उस पार तक जाने का

मुझे पता नहीं था कि
हवाओं के साथ दुरभिसंधि कर
वहाँ भी बिछा रखा होगा एक जाल
किसी शिकारी बहेलिए ने

मैं हवाओं के उस पार तक न जा सका
और शिकारी के जाल में फँसकर लाचार हो गया।

मैं हवाओं की दगाबाज़ी से नाराज़ था
मैं शिकारी के जाल में फँस जाने से आहत था
मैं उसे काटकर बाहर निकलने को उद्यत था

मैंने अभी - अभी पंख फैलाना सीखा था,

मैं जी भरकर खुले आकाश में उड़ना चाह रहा था।

Monday, June 16, 2014

बेटी की याद (1988)

बेटी की याद

आ जा, प्यारी गुड़िया, आ जा, पापा तुझे बुलाते हैं,
आँखों से यादों के आँसू झर - झर झरते जाते हैं।

कहाँ गयी वह सुभग सलोनी छोटी सी गुड़िया मेरी,
कभी हँसाती, कभी रुलाती, बातें करती बहुतेरी।

कभी दौड़ती 'उषा' बनकर, कभी रूठ भी जाती थी,
कभी क्रुद्ध बदला लेने को चांटा एक जमाती थी।

आफिस से घर पहुँचूँ जब भी दौड़ लिपटती थी मुझसे,
'पापा आए', 'पापा आए', घर को भरती कलरव से।

बिछुड़ गए दिन सुख के सारे गुड़िया तेरे जाते ही,
अब तो यादें औ' आँसू ही मिलते हैं घर आते ही।

'डैडी' की तुतली बोली का भ्रम होता जब भी घर में,
फूट - फूट जी भर रोता हूँ बियाबान सूने घर में।

वह नकली छोटी गुड़िया तुम जिसे रोज नहलाती थी,
तोड़ - तोड़ कर हाथ - पैर सब अपने संग सुलाती थी।

रखी हुई है यहीं मेज पर प्रतिपल मुझे चिढ़ाती है,
और तुम्हारी छतरी वाली फोटो खूब रुलाती है।

'टा - टा' करके चली गयी तुम मेरी बगिया सूनी कर,
निठुर देश के एकाकीपन की पीड़ा को दूनी कर।

बच्चों का वह पार्क तुम्हारे बिन सूना ही रहता है,
और न कोई अब खिड़की से 'ख्याति-ख्याति' कहता है।

मेरी गुड़िया कब आयेगी, मेरी गोद समायेगी?

अपनी कोमल अँगुलियों से मेरे नैन सुखायेगी?

Tuesday, June 3, 2014

बहरेपन और स्वार्थ से भरी चुप्पी को अलविदा (2013)

अभी - अभी किसी आदिवासी गाँव के मेले से लौटा हूँ
महुआ की शराब की ताज़ा गंध अपने नथुनों में समेटे हुए
सम्भ्रांत लोक की सारी खीझ उतारकर

अभी - अभी सनसनाता हुआ निकल गया है
आक्रोश से भरा कोई तीर
मेरे एक बाजू को लगभग छूता हुआ

अभी-अभी मेरे बगल से गुज़री है एक जलती हुई गोली
हालातों से विक्षुब्द्ध किसी इनसान की बंदूक से निकलकर

अभी-अभी लगने लगा है कि बेकार ही बीता इतना जीवन
किसी सरकस या नौटंकी के बीच चलने वाले मसखरी का आस्वादन - सा करते हुए

अभी-अभी लगने लगा है कि इससे तो बहुत अच्छा रहता
यदि कुछ कर गुजरने की आवारग़ी के साथ गुजारा गया होता जीवन
हिक़ारत की नज़र से देखे जाने वाले एक खालिश गँवारपन के साथ

तमाम ओहदों, शानो - शौक़त से किसी को क्या मिलता है भला
जो कुछ मिलता वह बस खुद को ही मिलता है और खुद को ही फलता है

यह तो बस वैसे ही होता है
जैसे कि बड़ी तगड़ी रोशनी के साथ
कोई पुच्छल तारा उगता है आकाश में
अँधेरे को मिटाने की उम्मीदें जगाता
और फिर किसी झूठी शेखी की तरह ग़ायब हो जाता है जलता हुआ
सुबह लोगों की नींद खुलने के पहले ही

खैर आज तक जो हुआ सो हुआ,
अब तो बस यही चिंता है कि कैसे उबरा जाय उस त्रासदी से
जिसने नाकारा बना दिया है जीवन को पूरी तरह से

अब तो बस चौराहे पर मुनादी करने के लिए ही हैं
त्याग, तपस्या और प्रतिरोध
अब तो बस दिखावे के लिए ही उमड़ती है सहानुभूति
सड़क के किनारे भीख माँगने को मजबूर
झारखंड अथवा दंडकारण्य से आए किसी घुमंतू परिवार के
सड़क पर छोड़ दिए गए एक लावारिस बच्चे के प्रति

अब तो विचारधारा, जज़्बातों व सैद्धांतिक चोंचलेबाज़ी की ऐसी - तैसी
अब तो आचार - संहिता, अनचाहे बहरेपन और स्वार्थ से भरी चुप्पी को अलविदा

अब तो बस अपनी टुकड़ी से भटक गए
किसी अकेले सिपाही की तरह
दुश्मनों से घिर जाने पर
अकेले ही भिड़ना है मोर्चे पर 
लेकिन उसके पहले अभी तो यह भी शिनाख़्त करनी है कि
वास्तव में ये जो घेरे हुए हैं, वे दुश्मन के ही सिपाही हैं
या फिर वेष बदल कर
साथ के ही कुछ लोग आ गए हैं घेराबंदी करने

आज शायद और कुछ भी करने से पहले
यह जरूरी हो गया है कि
जंगल में राजा बने बैठे रंगे सियारों की पहचान कर ली जाय.

बूटों की आवाज़ (2012)

बूटों की आवाज़
उभरती हैं कहीं
मस्तिष्क के नेपथ्य में
भर जाता है भय
दिमाग के कोने - कोने में
विचारों के कुचल दिए जाने का ……

बूटों की आवाज़
थप  थप  थप
चढ़ती - सी लगती है छाती पर
हृदय की धुक  धुक थम जाने का ख़तरा
आसन्न लगने लगता है ……

बूटों की आवाज़
गूँजती है रह - रहकर
ऊँचे भवनों के गलियारों में
गली - कूचों की नाड़ियों की धुप  धुप
धीमी पड़ने लगती है अपने आप ……

बूटों की आवाज़
जाग उठती है फिर से
ढह चुके राजप्रासादों के खंडहरों में
फड़फड़ाकर उड़ जाते हैं कबूतर
बछ - खुचा आसरा भी लुट जाने की आशंका में ……

बूटों की आवाज़
भरने लगी है जंगलों की नीरवता में भी
शिकारी आखेट पर आमादा हैं
सिंह - शावक भूखे - प्यासे ही
बचाव के लिए अड़े हैं नंगे पाँव
किन्तु उनकी धीमी पद - चाप
दबकर रह जाती है
बूटों की भारी - भरकम आवाज़ के सामने ……

बूटों की आवाज़
धीरे - धीरे
विकल्पहीनता की ओर ले जा रही है
इसीलिए यह प्रतिध्वनित होने लगी है अब
वन - प्रांतरों  से लेकर गली - कूंचों तक से ……

ठक  ठक  ठक ……
शायद बूटों से भी भयानक कोई आवाज़
हर तरफ गूँजने वाली है अब
नर - कंकालों के पाँवों के
कठोर भूमि पर टकराने से।