आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

Saturday, July 25, 2015

व्यवस्था-सुधार और सिविल सेवक (लेख)


गत वर्ष अन्‍ना हजारे के जनलोकपाल बिल के लिए किए गए आंदोलन के बाद भारत के नागरिक संगठनों तथा आम नागरिकों के बीच सरकारी संस्थाओं एवं सिविल सेवकों की जवाबदेही तथा उनके कामकाज के तौर-तरीकों के बारे में धारणा काफी तेजी से बदली है और आज जनसाधारण सरकारी तंत्र एवं सिविल सेवकों से तत्‍परता एवं जवाबदेही के  साथ समुचित रूप से सेवाएं प्रदान किए जाने तथा विकास के कार्यक्रम चलाए जाने की अपेक्षा करने लगा है। अभी हाल ही में दिल्‍ली में एक लड़की के साथ हुई बलात्‍कार की घटना एवं उसकी जघन्‍य हत्‍या के बाद पूरे देश में जिस प्रकार का जनाक्रोश पैदा हुआ और उसकी जिस प्रकार से शहरों से लेकर ग्रामीण इलाकों तक अभिव्‍यक्‍ति हुई, वह अपने आप में आँखें  खोल देने वाला है। इस स्‍वत:स्‍फूर्त एवं एक तरह से नेतृत्‍वविहीन जनांदोलन का मुख्‍य मुद्दा यही था कि हमारी पुलिस-व्‍यवस्‍था तथा नियम-निर्माणकर्ता एवं उसके परिचालन की प्रणाली किस प्रकार से जवाबदेही के साथ काम करे और समाज में व्‍याप्‍त अन्‍याय व अत्‍याचार को नियंत्रित करने के लिए किस प्रकार से कड़े कदम उठाए जांय।

            इस प्रकार के बदलते परिदृश्य में यह स्‍पष्‍ट है कि अब सिविल सेवकों को जवाबदेही के प्रचलित संवैधानिक अथवा अन्य सरकारी मंचों के अतिरिक्‍त जन-सामान्‍य अथवा सिविल-समूह के प्रति भी जवाबदेह होना पड़ेगा और उनकी अपेक्षाओं के प्रति सजग रहकर अपना कामकाज करना पड़ेगा। वैसे इस तरह की जवाबदेही की नितांत आवश्‍यकता भी थी क्‍योंकि सिविल सेवकों से जिस प्रकार की तत्‍परता एवं ईमानदारी से काम करने की उम्‍मीदें थी वे उनके केवल सरकारी तंत्र के भीतर बनी व्यवस्था के प्रति ही जवाबदेह होने से पूरी नहीं हो रही थीं और उसमें वांछित बदलाव आने तभी संभव थे, जब उन पर समाज एवं मीडिया का पर्याप्‍त दबाव हो अथवा कह लें तो जब उनकी कोई अप्रत्‍यक्ष निगरानी हो। केरल जैसा राज्‍य इस बात का उत्‍तम उदाहरण है, जहाँ सरकारी सेवकों व संस्थाओं पर विभागीय अधिकारियों अथवा मंत्रियों से ज्‍यादा दबाव रहता है,  मीडिया तथा आम जनता का जो सिविल सेवकों को समय पर सेवाएं प्रदान करने तथा साफ-सुथरे ढंग से व खुलेपन के साथ काम करने के लिए प्रेरित करती है, या कह लें तो मजबूर करती है। ऐसा नहीं है कि इस प्रकार के दबाव से अथवा गैर-सरकारी निगरानी से वहाँ भ्रष्‍टाचार समाप्‍त हो गया है लेकिन यह अवश्‍य है कि उसमें कमी जरूर आई है और यदि वहाँ भ्रष्‍टाचार के साझीदार लोगों का काम सरकारी कार्यालयों में प्रलोभन के सहारे जल्दी से हो जाता है तो इस प्रकार की सामाजिक जवाबदेही के चलते आम लोगों का काम भी बिना कुछ लिए-दिए ही सरकारी कार्यालयों में देर-सबेर से ही सही, हो ही जाता है।
            सामान्‍य तौर पर किसी भी सरकारी-तंत्र में जवाबदेही की अपनी एक व्‍यवस्‍था होती है तथा भ्रष्‍टाचार आदि को मिटाने के लिए उसका अपना एक निगरानी-तंत्र भी होता है। लेकिन तमाम स्‍तरों पर मिलीभगत के चलते यह तंत्र कई दफा निष्प्रभावी हो जाता है अथवा गैर-जवाबदेही को ही प्रोत्साहित करने लगता है। नीचे के स्तर से सरकारी सेवकों तथा विभागों के प्रशासनिक एवं राजनीतिक मुखियाओं के बीच साठगांठ से होने वाले भ्रष्‍टाचार के तमाम उदाहरण इस देश के विभिन्‍न राज्‍यों तथा केन्‍द्रीय प्रतिष्‍ठानों में हमारे सामने आते ही रहते हैं। स्‍पष्‍ट है कि जन लोकपाल जैसी निष्‍पक्ष निगरानी व्‍यवस्‍था स्‍थापित हो जाने पर इस तरह की प्रवृत्‍तियों पर कुछ अंकुश तो लगेगा ही। किन्‍तु इससे भ्रष्‍टाचार समाप्‍त हो जाएगा या व्यवस्था में पूरी तरह से जवाबदेही आ जाएगी ऐसा विश्‍वास कम ही है। लेकिन इसके विपरीत एक जागरूक जनसमूह के सामने सरकारी तंत्र निश्‍चित रूप से ज्‍यादा जिम्‍मेदारी, तत्‍परता तथा ईमानदारी के साथ काम करेगा ऐसा मेरा मानना है। ऐसे निष्‍पक्ष व सतर्क नागरिक-समूह व्यवस्था के ऊपर काफी साकारात्‍मक दबाव बना सकते हैं और आज जब ऐसा होता दिखाई दे रहा है तो यह काफी आशाएँ जगाता है। हालाँकि इस तरह के आंदोलन अभी राष्‍ट्रीय स्‍तर पर कुछ बड़े मुद्दों को लेकर ही खड़े हुए हैं, जिनका प्रभाव कुछ विशेष बातों तक ही सीमित रहेगा। पूरे सरकारी तंत्र को चुस्‍त-दुरुस्‍त तथा जवाबदेही के साथ काम करने का माहौल बनाने के लिए सिविल सोसायटी तथा मीडिया में जिस प्रकार की जागरूकता की दरकार है वह अभी आना बाकी है। जब हर एक सरकारी कार्यालय के स्तर पर उससे जुड़े जन-समाज में ऐसी जागरूकता आ जाएगी, तब उच्‍च स्‍तरों पर बैठे भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी एवं अन्‍य सेवाओं से जुड़े विभागाध्‍यक्ष तथा मंत्रीगण भी समाज के प्रति अपनी जिम्‍मेदारियों व जवाबदेही को अनदेखा नहीं कर पाएंगें और तब पूरा का पूरा सरकारी-तंत्र किसी राजनीतिक पार्टी विशेष अथवा सत्‍तारूढ़ दल विशेष के प्रति प्रतिबद्धता दिखाने के बजाय आम जनता के सरोकारों के प्रति प्रतिबद्धता दिखाते हुए काम करना शुरू कर देगा।

            निश्‍चित ही अब वह समय आ गया है जब सरकारी सेवकों और विशेष रूप से भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों को बदलती परिस्‍थितियों एवं देश के आमजनों के बीच गवर्नेंस के तौर-तरीकों के बारे में आ रही जागरूकता के मद्देनजर अपना चाल-चलन बदलना होगा और नीति-निर्धारण की प्रक्रिया में भी पारदर्शिता लानी होगी। एक समय था जब यह माना जा रहा था कि सिविल सेवकों पर जनता के नुमाइंदों की निगरानी होने से सरकारी तंत्र की सेवाएं तथा नीतियाँ जनाकांक्षाओं के अनुरूप चलती रहेंगी। इसी के चलते देश में संविधान संशोधन हुए तथा नगर निगमों व नगर पालिकाओं तथा ग्राम पंचायतों आदि के कर्तव्‍यों एवं अधिकारों को बढ़ाने के लिए व्‍यापक प्रावधान किए गए। साथ ही यह भी सुनिश्‍चित किया गया कि इन संस्‍थाओं में निर्बाध रूप से समय-समय पर चुनाव आदि होते रहें ताकि इन पर सदैव जनप्रतिनिधियों का स्‍पष्‍ट नियंत्रण रहे और सिविल सेवक तथा इनके अधिकारीगण इन अधिकारों का मनमाने ढंग से उपयोग न कर सकें। इसके अलावा जनपद व ब्लाक आदि के स्‍तर पर तमाम ऐसी समितियों के माध्‍यम से जिनमें स्‍थानीय संसद सदस्‍य व विधायक आदि शामिल किए गए, यह कोशिश की गई कि विकास के कार्यक्रमों के संचालन में भी सिविल सेवकों की जनता के नुमाइंदों के प्रति जवाबदेही बनी रहे तथा जो भी योजनाएं बने या लागू हों उनमें जनप्रतिनिधियों की भी भागीदारी हो। विधायिका तथा न्‍यायपालिका के प्रति जवाबदेही की पूर्व-स्थापित संवैधानिक व्यवस्था से एक कदम आगे बढ़कर इन सभी व्‍यवस्‍थाओं से यहीं उम्‍मीद की गई थी कि सिविल सेवकों का समूह जनप्रतिनिधियों के साथ मिल-जुलकर देश के विकास में वखूबी अपनी भागीदारी और जिम्‍मेदारी निभाएगा तथा ईमानदारी के साथ अपना काम करेगा।

लेकिन आज जो परिदृश्‍य है उसमें इस प्रकार की व्‍यवस्‍थाएं जनसामान्‍य की अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतर रहीं। शायद इसीलिए आज सारे जन-समूह आक्रोशित होकर जगह-जगह व्‍यवस्‍था परिवर्तन की मांग उठाने लगे हैं। हालाँकि मेरे विचार में भारतीय व्‍यवस्‍था आजादी के बाद से लेकर आज तक एक सतत विकास की प्रक्रिया के दौर से गुजरी है एवं काफी सोच-समझ के बाद ही मौजूदा स्वरूप में पहुँची है और इसमें किसी आमूल-चूल परिवर्तन से ज्‍यादा जरूरी यह है कि इस व्‍यवस्‍था में जवाबदेही का कुछ नया तंत्र विकसित हो और इसका कामकाज सुधरे। एक तरफ तो इस तरह की नई जवाबदेही की प्रणाली का विकास जनलोकपाल अधिनियम, सेवा गारंटी अधिनियम, जन शिकायत निवारण अधिनियम आदि कानूनों के बनने से स्‍थापित होगी ही, वहीं दूसरी तरफ जिस प्रकार की जागरूकता आज सामान्‍य जन-समूह के बीच उभरती दिखाई दे रही है उससे सिविल सेवकों में इन सब कानूनी व्यवस्थाओं से भी ज्यादा सक्षम रूप से जवाबदेही आएगी। हालाँकि इसके लिए सिविल सेवकों को सामान्‍य जनसमूह की भावनाओं का आदर करते हुए और लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था का जो वास्‍तविक उद्देश्‍य है इसको पहचानते हुए अपने कार्य-व्यवहार में समुचित परिवर्तन लाना होगा और तदनुसार जिम्मेदारी के साथ अपना कामकाज करना होगा।
            स्‍वतंत्रता-प्राप्‍ति के बाद 10 अक्‍तूबर, 1949 को भारत की संविधान सभा में बोलते हुए सरदार वल्‍लभ भाई पटेल ने कहा था कि यदि आप एक कुशल अखिल भारतीय सेवा चाहते हैं तो मेरी आपको सलाह है कि आप उन्‍हें मुंह खोलने का मौका दें। यदि आप मुखिया हैं तो आपकी यह जिम्‍मेदारी होगी कि आप अपने सचिव, मुख्‍य सचिव या अपने अधीनस्‍थ कार्य करने वाले अन्‍य सेवाओं के सदस्‍यों को, बिना भय या पक्षपात के, अपना मन्‍तव्‍य व्‍यक्‍त करने की अनुमति दें। लेकिन मैं पाता हूँ कि अनेक प्रान्तों में सेवाओं को गठित करके उनसे कहा जा रहा है, नहीं, आप सेवक है, आपको सिर्फ हमारे आदेशों का अनुपालन करना है। यदि आप एक ऐसी अच्‍छी अखिल भारतीय सेवा नहीं रखेंगे जो अपने विचारों को स्‍वतंत्र रूप से व्‍यक्‍त कर सकें तथा जिसको यह भरोसा हो कि वह सुरक्षित है और आप अपने वायदों पर कायम नहीं रहेंगे तो यह संघ समाप्‍त हो जाएगा और आप भारत को अखण्‍ड नहीं रख सकेंगे। सरदार पटेल के इस वक्‍तव्‍य के अनुरूप सिविल सेवकों को विशेष रूप से भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों को निष्‍पक्ष व मुखर होकर अपना कामकाज करना चाहिए। लेकिन इस प्रकार के दायित्‍व-निर्वहन का अर्थ यह नहीं निकाला जा सकता कि वे स्‍वेच्‍छाचारी हों और जैसा चाहें वैसा करें। निश्‍चित  रूप से उन्‍हें जनसामान्‍य की अपेक्षाओं के प्रति सजग रहकर तथा सरकारी-व्यवस्था एवं सामान्‍य जनों की निगरानी के अधीन रहकर ही अपना काम-काज जवाबदेही के साथ करना होगा तभी इस देश का भला होगा।

जब सरदार वल्‍लभ भाई पटेल ने ऐसा कहा था कि तो उन्‍होंने उसी के साथ यह भी कहा था, - जब देश में स्‍थिरता आ जाएगी और यह मजबूत हो जाएगा, तब आप जैसा भी परिवर्तन करना चाहेंगे, उसके लिए सेवा के लोगों को तैयार करना मुश्‍किल नहीं होगा। जब रजवाड़ों को उनके राज्‍य सौंपने के लिए मना लिया गया तो सेवा के लोगों के साथ क्‍या दिक्‍कत होगी? वे अपने लोग हैं, उनके बच्‍चे भी हमारे साथ काम करेंगे। उन्‍होंने रात-दिन देश के लिए परिश्रम किया है। यह वे लोग हैं जो आत्‍म सम्‍मान, इज्‍जत व शोहरत की चिंता करते हैं और हमारे स्‍नेह के हकदार हैं। ऐसे विरले लोग होंगे जो दुश्मन की तरह माने जाने के बावजूद देश की सेवा करना चाहेंगे। आज जब चारों तरफ से व्‍यवस्‍था परिवर्तन की बात उठ रही हैं तो सरदार वल्‍लभ भाई पटेल की ये बातें बहुत ही समीचीन हो जाती है। जो लोग व्‍यवस्‍था-परिवर्तन की लड़ाई लड़ रहे हैं, उनको यह समझना होगा कि भले ही सिविल सेवक पूरी अपेक्षा के अनुरूप जनता की सेवा न कर रहे हों तथा देश के विकास में अपना पूरा योगदान नहीं दे रहे हों फिर भी बहुत कुछ ऐसा है जो वे जनता व देश के लिए कर रहे हैं। ये न तो इस देश में बाहर से आए हैं, न ही इस देश अथवा इसके आम नागरिकों के प्रति विद्वेष रखते हैं और न ही ये देशद्रोही हैं। अतः आज सिविल सेवाओं की उपस्‍थिति को संज्ञान में लेते हुए तथा उनके योगदान को स्वीकारते हुए आज सिविल-समूह तथा मीडिया को उनपर बेहतर जिम्‍मेदारी व जवाबदेही के साथ काम करने का दबाव बनाना होगा और स्थापित व्‍यवस्‍था को उखाड़ फेंकने के बजाय उसे सुधारने का लक्ष्‍य सामने रखकर काम करना होगा। इसी के साथ ही सिविल सेवा के सदस्‍यों को भी सिविल समूहों के साथ हाथ मिलाकर देश की व्‍यवस्‍था सुधारने तथा प्रशासनिक व राजनीतिक दोनों स्‍तरों पर एक सजग एवं कुशल तथा जवाबदेह सरकारी-तंत्र स्‍थापित करने की मुहिम में भागीदारी करनी होगी।   

अंग्रेज़ी के आगे सिसकती भारतीय भाषाएँ (लेख)



दुनिया में शायद ही भारत जैसा कोई देश होगा जिसकी अपनी एक भाषा संवैधानिक तौर पर देश की राजभाषा घोषित हो और विभिन्न प्रांतीय भाषाएँ राज्यों की राजभाषाओं के तौर पर प्रावधानित हों, लेकिन उसका सामान्य सरकारी काम-काज किसी विदेशी भाषा में होता हो. वह भी ऐसी भाषा जिसको जानने वाली जनता देश में 15-20 प्रतिशत से ज्यादा न हो. राज्यों की अपनी राजभाषाओं का भी कमोवेश यही हाल है, किंतु मातृ-भाषा के प्रति प्रेम का स्तर भिन्न होने से वहाँ स्थितियाँ थोड़ी-सी बेहतर है. एक बहुभाषी देश में विभिन्न भाषाओं की अस्मिता की लड़ाई में सारी की सारी भाषाओं की कैसी छीछालेदर होती है, उसका उत्तम उदाहरण है भारत में हिंदी व विभिन्न राज्यों की राजभाषाओं की स्थिति. अंग्रेज़ी दिन पर दिन भारतीय भाषाओं पर हावी होती जा रही है. सरकारी काम-काज में ही नहीं, व्यावसायिक, व्यापारिक व सामाजिक गतिविधियों में भी. ‌नई पीढ़ी को अब अंग्रेज़ी में ही अपना भविष्य नज़र आता है. कोई भी प्रदेश हो, कोई भी मातृभाषा हो, सारे माँ-बाप अपने बच्चों को अंग्रेज़ी मीडियम में ही पढ़ाना-लिखाना चाहते हैं. यह अच्छी बात है कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 350 के तहत भारत के प्रत्येक नागरिक को अपनी किसी भी व्यथा या शिकायत के निवारण के लिए संघ या राज्य के किसी भी अधिकारी अथवा प्राधिकारी को संबंधित भाषा में प्रत्यावेदन देने का अधिकार प्राप्त है. लेकिन क्या उसे यह संवैधानिक अधिकार भी नहीं मिलना चाहिए कि उसे अपने प्रत्यावेदन का जवाब या अन्य सरकारी जानकारियाँ भी उसी भाषा में ही मिलें?

            स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद जब वर्ष 1963 में राजभाषा अधिनियम के माध्यम से अंग्रेज़ी को पूरी तरह से हटाने का प्रावधान किया गया तब तमिलनाडु में जबर्दस्त हिंदी-विरोधी आंदोलन छिड़ गया. बाद में तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी द्वारा उक्त अधिनियम में संशोधन करके अंग्रेज़ी को भी भारत की राजभाषा बनाए रखने का आश्वासन देने पर ही मामला शांत हुआ. बाद में राजभाषा अधिनियम में संशोधन करके अंग्रेज़ी को स्थायी रूप से भारत की राजभाषा बना दिया. तब से लेकर आज तक हम यह नहीं सोच पा रहे हैं कि अंग्रेज़ी से छुटकारा पाने के लिए हम हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं को एक साथ पोषित करते हुए तथा एक-दूसरे से जोड़ते हुए कैसे आगे बढ़ें. वर्ष 1968 में संसद के दोनों सदनों ने एक संकल्प भी पारित किया था जिसमें कहा गया था कि हिंदी के साथ-साथ अन्य भारतीय भाषाओं के समन्वित विकास हेतु भारत सरकार द्वारा राज्य सरकारों के सहयोग से एक कार्यक्रम तैयार किया जाएगा और उसे कार्यान्वित किया जाएगा ताकि ये भाषाएँ शीघ्र समृद्ध हों और आधुनिक ज्ञान के संचार का प्रभावी माध्यम बनें. संसदीय सभा ने यह भी संकल्प लिया था कि हिंदी भाषी क्षेत्रों में हिंदी तथा अंग्रेजी के अतिरिक्त एक आधुनिक भारतीय भाषा केदक्षिण भारत की भाषाओं में से किसी एक को तरजीह देते हुएऔर अहिंदी भाषी क्षेत्रों में प्रादेशिक भाषाओं एवं अंग्रेज़ी के साथ साथ हिंदी के अध्ययन के लिए त्रिभाषा सूत्र के अनुसार प्रबन्ध किया जाना चाहिए. लेकिन यह त्रिभाषा नीति हमारे देश के स्कूलों में त्रिशंकु की भाँति अधर में ही लटकी रह गई और भूमंडलीकरण के इस दौर में अब तो अधिकांश पब्लिक स्कूलों में तीसरी भाषा का स्थान भी यूरोपीय भाषाएँ ले रही हैं.

            संसद के संकल्प के मुताबिक हिंदी तथा भारतीय भाषाओं के समेकित विकास के लिए इतना लंबा समय बीत जाने के बाद भी अभी तक कोई प्रभावी कदम नहीं उठाया गया है. सरकारी भाषा प्रतिष्ठानों के माध्यम से विभिन्न भारतीय भाषाओं के बीच साहित्यिक अनुवाद का काम तो भले ही कुछ हद तक हो रहा हो किंतु भारतीय भाषाओं को समृद्ध बनाने तथा उन्हें आधुनिक ज्ञान के संचार के प्रभावी माध्यम के रूप में स्थापित करने का काम तो कतई नहीं हो रहा. राजभाषा अधिनियम की व्यवस्थाओं के जरिए तो भारतीय भाषाएँ ज्ञान के संचार का माध्यम बन नहीं जाएगी क्योंकि इस अधिनियम के अंतर्गत तो सिर्फ सरकारी काम-काज में हिंदी के उपयोग को बढ़ावा देने का काम ही हो रहा है. इसमें हिंदी अथवा किसी भी राज्य की राजभाषा में ज्ञान की सामग्री जुटाने के कोई उपाय नहीं हैं. आज हमारे अपने ही बीच से पढ़-लिखकर निकले वैज्ञानिक, समाज-शास्त्री, अर्थशास्त्री, कानूनविद्, चिकित्सा-विज्ञान के विशेषज्ञ व अन्य विद्वान अपने शोध के परिणाम एवं अपने अनुभव से सीखा गया समस्त ज्ञान सिर्फ और सिर्फ अंग्रेज़ी में ही सामने रखना चाहते हैं, अंग्रेज़ी की ही पत्रिकाओं में छपाना चाहते हैं, अंग्रेज़ी में दिए गए वक्तव्यों के माध्यम से ही प्रसारित करना चाहते हैं, तो फिर हिंदी, बांग्ला, मराठी, तमिल, मलयालम जैसी विभिन्न एवं अपेक्षाकृत समृद्ध भारतीय भाषाओं में आधुनिक ज्ञान का वह स्रोत स्थापित कैसे होगा, जिसके लिए संसद ने साढ़े चार दशक पहले यह संकल्प लिया. यह शायद अभद्रता होगी यदि मैं कहूँ कि लानत है इस देश के उन सारे ज्ञानवान महापुरुषों पर जो अपनी मातृभाषा का ककहरा पढ़कर ही विद्वता के तमाम शिखरों पर चढ़े हैं, पर वे अपने अर्जित ज्ञान की एक बूँद भी अपनी मातृभाषा में आने वाली पीढ़ी को नहीं देना चाहते और अंग्रेज़ी में छपकर या बोलकर दुनिया भर में मान्यता, शोहरत व स्थान पाने के अपने स्वार्थपूर्ण प्रयासों में व्यस्त हैं. यदि देश-विदेश में अपने ज्ञान का सिक्का जमा चुके सभी भारतीय विद्वान यह तय कर लें कि वे अपने-अपने विषयों में अपनी खोजों व निष्कर्षों का एक छोटा-सा हिस्सा आगे से अपनी मातृभाषा में प्रसारित करेंगे तो मुझे पूरा विश्वास है कि धीरे-धीरे हमारी विभिन्न भारतीय भाषाओं में ज्ञानार्जन की एक बहुत अच्छी मौलिक सामग्री तैयार हो जाएगी तथा भविष्य में हमारे बच्चों को ज्ञान की खोज में मजबूरी में अंग्रेज़ी भाषा में लिखी पुस्तकें नहीं खंगालनी पड़ेंगीं और वे आगे से इंटरनेट पर किसी भी विषय की सामग्री अंग्रेज़ी में खोजना बंद कर देंगें.      

            हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं को ज्ञान की भाषाएँ बनाने के लिए मेरा सुझाव है कि किसी कानून अथवा प्रशासनिक व्यवस्था के तहत सरकार को तुरंत यह अनिवार्य कर देना चाहिए कि देश में जितने भी केंद्रीय अथवा राज्य सरकारों के कानूनों के तहत स्थापित विश्वविद्यालय, यू.जी.सी. से संबद्ध विश्वविद्यालय अथवा डीम्ड विश्वविद्यालय हैं वे जिन भी विषयों में शोध-कार्य (डॉक्टरेट) कराते हैं, उनमें अनिवार्य रूप से हिंदी अथवा संबंधित राज्य की राजभाषा में एक शोध-पत्रिका प्रकाशित करना शुरू करें जिनमें संबंधित विषय के विशेषज्ञों व शोध-छात्रों के मौलिक शोध-पत्र छपें. साथ ही यह भी अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए कि ऐसी संस्थाओं के जो भी प्रोफेसर या एशोसिएट प्रोफेसर (रीडर) स्तर के शिक्षक होंगे वे अपने शोध-कार्य के परिणामों व निष्कर्षों से संबंधित मौलिक शोध-पत्र प्रकाशित करते समय उनका कम से कम दस प्रतिशत भारतीय भाषा की ऐसी किसी न किसी शोध-पत्रिका में प्रकाशित करेंगे. इसी प्रकार से केंद्र तथा राज्य सरकारों की सभी शोध-संस्थाओं के लिए यह अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए कि वे जो भी शोध-पत्रिकाएँ प्रकाशित करती हैं उनका पचास प्रतिशत हिंदी अथवा संबंधित राज्य की भाषा में ही छापें तथा ऐसी संस्थाओं के वैज्ञानिक अथवा विशेषज्ञ एंव शोध-छात्र अपने शोध-कार्य के परिणामों व निष्कर्षों से संबंधित मौलिक शोध-पत्र प्रकाशित करते समय उनका कम से कम दस प्रतिशत भारतीय भाषा की ऐसी किसी न किसी शोध-पत्रिका में अवश्य प्रकाशित करें. मैं मानता हूँ कि कानून के जोर-दबाव के माध्यम से इस प्रकार के भाषायी अभियान का चलाया जाना कोई अच्छी बात नहीं है किंतु मुझे यह भी यकीन है यदि इस देश की भाषाओं को एक दिन अंग्रेज़ी के प्रभाव में नेस्तनाबूद होने से बचाना है और संसद के संकल्प के मुताबिक उन्हें समृद्ध एवं आधुनिक ज्ञान के संचार का प्रभावी माध्यम बनाना है तो इस प्रकार की व्यस्थाएँ करनी जरूरी होंगी. क्या इस देश की भाषाओं को आने वाली पीढ़ी के लिए ज्ञान का स्रोत बनाने वाले ऐसे किसी समेकित अभियान को चलाए जाने की इच्छा-शक्ति इस देश में कभी जागृत होगी?   

मुक्ति

माना कि मुक्ति बहुत जरूरी है
लेकिन उससे भी जरूरी है यह समझना कि
कभी - कभी निर्मुक्ति की इच्छा भी होती है
मुक्ति की कामना से ज्यादा प्रबल
क्या मिट्टी भी कभी चाहती है पाना 
धरती के बन्धन से मुक्ति?

माना कि पहाड़ से खिसककर 
चट्टान को मिल जाती है मुक्ति
फिर धीरे - धीरे चिटककर अवमुक्त होता है उसका कण - कण
और मिल जाता है मिट्टी में 
कभी भी मुक्त न होने के लिए
या बह जाता है दूर नदी की धार में
उपजाऊ खेतों अथवा समुद्री डेल्टाओं तक
लेकिन साथ नहीं छोड़ता कभी भी धरती का

मिट्टी के कण
आँधियों में आसमान तक उड़कर भी
चुपचाप उतर आते हैं नीचे
धरती के सीने से चिपक जाने के लिए
मिट्टी नहीं चाहती पाना धरती से मुक्ति 
क्योंकि उसी पर लिखा हुआ है 
उसके कण - कण की मुक्ति का इतिहास

लेकिन धरती के भीतर दबा लावा 
हमेशा मचलता रहता है मुक्ति पाने के लिए
और मौका मिलते ही 
उसका सीना फाड़कर निकलता है आक्रोश के साथ
क्योंकि वह जहाँ अवस्थित है,
वहाँ जरा - सा भी मुक्तिबोध नहीं होता उसको

तो लब्बोलुबाब यही है कि
असली मुक्ति वह नहीं होती 
कि हाथ - पैर खुले हैं आपके
और आप स्वतंत्र हैं मनचाहे तरीके से
उठने, बैठने, चलने, फिरने, खाने, पीने के
केवल देह - मुक्ति से कुछ नहीं होता!


असली मुक्ति होती है
सोच की, विचारों की,
संघर्ष की, चेतना की,
बन्धन नकारने की
और बन्धन चुनने की भी!

कैसे मानूँ (नवगीत)

कैसे मानूँ, हो भगवान?

कितनी हिंसा, ख़ून-खराबा
डरे हुए हैं काशी - काबा,
पहरे में हैं मंदिर - मस्जिद
चर्चों में भी शोर - शराबा,
कैसे करूँ तुम्हारा ध्यान?

कितनी लिप्सा, धरती लुटती
ज़हर हवा में, साँसें घुटतीं,
कितनी नंगी - भूखी देहें
घर के बाहर - भीतर कुटतीं,
लूँ गरीब की लाठी मान?

आतंकित करते हैं आस्तिक
लगा घूरने सबको स्वास्तिक,
काँटे उगे आम की फुनगी
मन हो गया नीम - सा नास्तिक,
ठोक - बजाने की ली ठान।

ढोल सुहाने हैं अतीत के
रस्सी जली ऐंठ में जीते,
भ्रामक विज्ञापन में निष्ठा
सारतत्व सब मन से रीते,
क्यों न करूँ नव पथ-संधान?

पुनरावाहन

बागी होना कोशिकाओं का स्वभाव नहीं होता
लेकिन जब वे उतर आती हैं बगावत पर
और बढ़ने लगती हैं अनियंत्रित रूप से
शरीर के किसी एक छोटे से हिस्से में
तब ध्वस्त हो जाता है जीवन का समूचा संविधान
यह बात सभी को मालूम है कि
इस बगावत से नहीं मिलता कभी
किसी को भी जीने का कोई विकल्प

नदी के अमृत - प्रवाह को विषैला बना देता है
सारा कचरा समेटकर उसमें धंस जाने वाला 
एक पतला - सा गंदा नाला
धीरे - धीरे नाला नदी का कैंसर बन जाता है
जिसकी विषाक्तता में दम तोड़ने लगता है
उस नदी के जल पर आश्रित पूरा का पूरा शहर

हवा में प्राणवायु बढ़ाती है हरियाली 
किन्तु जब लोग बौद्धिक विपन्नता में डूबकर
हरियाली मिटाकर बढ़ाने लगते हैं अपनी सम्पन्नता
तब हवा में बढ़ जाती है ज़हरीली कार्बन डॉक्साइड
जो जानलेवा बन जाती है पूरे जीव - जगत के लिए
संभवत: मनुष्य से बड़ा आत्महंता
कोई नहीं इस पूरी सृष्टि में

मनुष्य के कृत्यों पर पछताऊँ, रोऊँ, सिर पीटूँ, क्या करूँ?
सृष्टि की नियति पर विमर्श करूँ, झख मारूँ, किसे कोसूँ?
खोखले संकल्प के साथ किसे पुकारूँ, कौन से मंत्र जपूँ?
पृथ्वी को चिता पर लिटाकर किसकी मुक्ति का गीत गाऊँ?

लेकिन कवि हूँ, 
यूँ ही हारकर तो नहीं बैठ सकता?

मुझे पृथ्वी को बचाने के लिए 
लोक - संघर्ष की तैयारी करनी है
और उससे भी पहले सुविधा - भोगी वृत्ति का दमन कर
आत्म - संघर्ष के मोर्चे पर विजय का वरण करना है
इसलिए हे पृथ्वी, हे आकाश, हे वरुण, हे वायु, हे अग्नि!
पुरावाहन करता हूँ तुम्हारा!
आज मुझे कुछ और नहीं, वे शब्द दे दो!
जिनमें सृष्टि को मानव - जनित कैंसर से बचाने की

अचूक प्रतिरोधक शक्ति हो!

Sunday, July 5, 2015

भारतीय गाँवों की बदहाली का आख्यान (पुस्तक चर्चा)

हिन्दी उपन्यासों के लिए 2014 एक अच्छा साल रहा। इस साल भारत के वर्तमान सामाजिक - राजनीतिक परिदृश्य पर केन्द्रित तीन उल्लेखनीय उपन्यास सामने आए। अखिलेश का 'निर्वासन', रणेन्द्र का 'गायब होता देश' तथा हरे प्रकाश उपाध्याय का 'बखेड़ापुर'। तीनों ही उपन्यास प्रकाशन के बाद से लगातार चर्चा में बने रहे हैं। इनमें, भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित एवं उनके नवलेखन पुरस्कार से सम्मानित हरे प्रकाश का उपन्यास 'बखेड़ापुर' आकार में सबसे छोटा, किन्तु कई दृष्टियों से एक विशिष्ट उपन्यास है। बिहार के लगभग डेढ़ - दो दशक पहले के सामाजिक व राजनीतिक हालात इस छोटे से उपन्यास में उसी खूबी व ध्यान खींचने वाले तरीके से सामने आए हैं, जैसे फणीश्वर नाथ रेणु की कहानियों या उपन्यासों में होता था। इस उपन्यास को पढ़ते समय बरबस ही अरविन्द अडिगा के बुकर पुरस्कार से सम्मानित अंग्रेज़ी उपन्यास 'द व्हाइट टाइगर' में वर्णित अँधेरे में डूबे बिहार के ग्रामीण अंचल की याद ताजा हो आती है। इस उपन्यास के केन्द्र में कोई पात्र विशेष न होकर बखेड़ापुर नाम का एक समूचा गाँव है, जो आज भी जातिवाद, ऊँच - नीच, पाखंड, सामंती प्रवृत्ति, कुव्यवस्था, भ्रष्टाचार व शोषण तथा वर्ग - संघर्ष की राजनीति के मकड़जाल में जकड़े किसी निरीह जन्तु की तरह कराह रहा है और पिछड़ेपन, उजड्डपन व रूढ़िवादिता से ऊपर नहीं उठ पा रहा। 'बखेड़ापुर' अपने कथानक, भाषा - शैली व विषयवस्तु की दृष्टि से निश्चित ही साहित्य - जगत में एक दीर्घजीवी बखेड़ा खड़ा करने की क्षमता रखता है, और वह शुरुआत से ही ऐसा करता दिख भी रहा है।

            पूरी तरह से बखेड़ापुर नामक एक काल्पनिक गाँव के परिदृश्य पर ही केन्द्रित इस उपन्यास का कथानक बीच - बीच में अपने पात्रों के माध्यम से पटना तथा दिल्ली जैसे राजनीति के शीर्ष - केन्द्रों के हालातों को भी स्पर्श करते हुए हमें इस बात का अहसास भी करा देता है कि गाँव ही नहीं ऊपर के स्तर तक भी इस देश की राजनीति कितनी स्वार्थपूर्ण, कुटिल, निर्मम तथा लिजलिजी व पिलपिली है। उपन्यास में जब स्त्री - स्वातंत्र्य की वक़ालत करने वाली 'दो टांगों के बीच' जैसी कहानी लिखकर प्रकाशित कराने से चर्चा में आईं तथा आकर्षक सौन्दर्य एवं लोहिया के स्त्री विमर्श पर की गईं टिप्पणियों के सहारे विधान पार्षद नरोत्तम से नजदीकी बढ़ाते हुए मुख्यमंत्री की करीबी तथा पार्टी की उच्च पदाधिकारी बनीं गाँव की अध्यापिका संगीता मैडम के विधायकी का चुनाव जीतने पर आयोजित की गई दारू और मुर्गे की पार्टी से टुन्न होकर बाहर निकलने पर गाँव के पुराने सखा सुदामा व धीरू चीखते हुए गाते हैं 'सैंया तूड़ दीह किल्लीचल दिल्ली जिला ओहीजे हिल्ली’ और पास से गुजरता हुआ एक आदमी कहता है - "लगता है बखेड़ापुर वाले हैं …" तथा दूसरा पूछता है - "कहाँ है बखेड़ापुर?", तब यह स्पष्ट हो जाता है कि हरे प्रकाश का बखेड़ापुर कोई गाँव विशेष न होकर इस देश के तमाम पिछड़े व अँधेरे के गर्त्त में डूबे गाँवों का प्रतीक है। संक्षेप में कहा जाय तो हरेप्रकाश का यह उपन्यास भारत के तमाम साधारण गाँवों की सामाजिक - राजनीतिक एवं आर्थिक बदहाली का ही आख्यान है।

            बखेड़ापुर पिछड़ेपन व रूढ़िवादिता से ग्रस्त है। गाँव के सबसे बड़े लबरा लोटन बाबा हैं जो जाति से चौबे हैं। उनके पिता भूलेटन बाबा बड़े ही छिछोरे थे। हमेशा रोज़ टोले में किसी न किसी के घर में घुसे रहते थे। उनकी पत्नी भी बिगड़ैल थी। चरवाहों से पैर दबवाती थी। जब उनकी बेटी बिनब्याही माँ बन गई तो उन्होंने आत्महत्या कर ली।  बेटी भी 'कुजात' घोषित कर दी गई। गाँव वालों से भोज - भात बंद हो गया। डायन के रूप में जानी जाने वाली उनकी विधवा लोटन बहू के बारे में लोग मानते हैं कि वह भूत - प्रेतों को अपने वश में रखती है। सुदामा का चाचा भैरव उसके साथ शारीरिक संबन्ध रखता है और भूत झरवाने के बहाने उसके पास जाता रहता है। एक दिन जब बचपन में सुदामा उसे लोटन बहू के साथ सहवास करते देख लेता है तो डर जाता है। उपन्यास में सुदामा के बचपन के दृश्यों के माध्यम से गाँव में व्याप्त लड़के - लड़कियों के बीच के नैसर्गिक लगाव, यौनिक आकर्षण, प्रचलित अफवाहों, भूत - प्रेत की मान्यताओं आदि का यथार्थपूर्ण चित्रण किया है। इसी प्रकार गाँव में झाड़ - फूँक करने वाला एक पात्र है घुरिया ओझा। वह गाँव में लोटन बहू की काट है। जब गाँव के पचमा मास्साब की बहू के बच्चा नहीं होता है, तो वह उसी की ओझाई का सहारा लेते हैं। बहू झाड़ - फूँक के बहाने चंद दिन उसके साथ बंद कमरे में बैठते - बैठते गर्भवती हो जाती है, लेकिन पूछे जाने पर वह असलियत छिपाकर ओझा की चमत्कारिक शक्ति की तारीफ़ करती है। सर्वहारा की लड़ाई लड़ने वाले तथा उच्च वर्ग के अन्याय व शोषण का विरोध करने वाले युवा दलित नेता रूप चौधरी का पिता बुधन तेली गाँव के बड़े लोगों की मनुहार के सहारे ही जीता आया है। वह परंपरा के विरुद्ध नहीं जाना चाहता। जब रूप चौधरी गाँव की बलात्कार - पीड़िता परवतिया को शरण देने के लिए अपने घर ले आता है तब बुधन - एह बबुआनन के गाँव में गुजार लिए बबुआ, भैया कह के जिनिगी, आ तुम तो जवानिए में जाति - धरम नासने लगा रे पातकी, नीच … जय बजरंग बली … जय काली माई … जय डिहवार बाबा … । कहकर घर त्याग देता है। इक्कीसवीं सदी की विश्वव्यापी वैज्ञानिक व आधुनिक सोच इस देश के बखेड़ापुरों को तनिक भी नहीं छू पाई है, यह विचलित कर देने वाली बात है। 

            हरे प्रकाश का बखेड़ापुर पिछड़ेपन व कुचाल का जीता - जागता बिम्ब है। उपन्यास में इस मर्म को बखूबी उभारा गया है कि गाँव पिछड़ा क्यों है और उसका विकास क्यों नहीं हो रहा। कथानक में इसका सूत्रपात गाँव के विद्यालय से होता है। वहाँ के माध्यमिक विद्यालय में पढ़ाने वाले पचमा मास्साब बखेड़ापुर के ही रहने वाले हैं। वे पढ़ाई के बीच खेती करने का समय भी निकाल लेते हैं। वे धूर्त ही नहीं, मूर्ख भी हैं। वे अपने बेटे की शादी में दहेज में रेलगाड़ी देने की मांग कर बैठते हैं। लड़की वालों से मोल - तोल करके ज्यादा दहेज़ झटकने के लिए अपने लड़के को अंग्रेज़ी रटवाते हैं। झूठ बोलकर उसे अंग्रेज़ी में बीए ऑनर्स पास बताया जाता है, लेकिन लड़की के मामा की चालाकी से भेद खुल जाता है। विद्यालय के उगना मास्साब कड़क व मेहनती होते हैं, इसलिए उनका ट्रांसफर करा दिया जाता है। वहाँ के हेड सर बीमार रहते हैं। वे बच्चों से स्कूल में मालिश करवाते हैं। जब लड़के शरारत करने पर उतर आते हैं तो वे उनसे डरकर केवल लड़कियों से ही मालिश करवाना शुरू कर देते हैं। वे विद्यालय में तैनात हुई नई शिक्षिका संगीता मैडम से ऊट - पटांग बातें करते रहते हैं। संगीता मैडम की शिक्षा विभाग के जिला कार्यालय में ही तैनात अपने पति अमित बाबू से नहीं बनती। कारण है पति का रजनी से विवाहेतर संबन्ध। वे कॉलेज़ के समय के अपने दोस्त डॉ अखिलेश बाबू के साथ लिव - इन रिलेशनशिप के लिए तैयार होकर ही शहर छोड़कर गाँव में नौकरी करने आई हैं। डॉ अखिलेश की तैनाती गाँव के पास के ही एक सरकारी अस्पताल में हैं। संगीता के लिए स्कूल से निकलते हुए अथवा बीच में ही जाकर उनसे मिलना आसान है। प्रधानाचार्य की निस्संगता के कारण विद्यालय में शौचालय की व्यवस्था तक नहीं हो पाई है। लड़कियों को शौच या पेशाब के लिए पास के खेतों में अथवा गाँव में किसी के घर जाना पड़ता है। एक दिन पेट खराब होने पर संगीता मैडम भी यह दुर्गति झेलती हैं। जब वे स्कूल में टॉयलेट न होने की बात उठाती हैं तो हेड सर गाँव के बाहर की गड़ही का सहारा लेने की बात पर बल देते हैं। उनका मानना है कि विभाग से फंड अनुमोदित कराकर काम कराए जाने पर दलाल शिकायत कर - करके परेशान करेंगे, इसलिए यही उचित है कि विद्यालय में कोई काम ही न कराया जाय। जहाँ इस तरह का विद्यालय हो, वहाँ के छात्रों तथा उस गाँव के भविष्य के बारे में क्या उम्मीद की जा सकती है! 'बखेड़ापुर' पूरी तरह से नाउम्मीदियों से घिरे एक गाँव का जीता - जागता पोर्ट्रेट है।   

            'बखेड़ापुर' में हरे प्रकाश ने देश के गाँवों की आज की दुर्दशा का बड़ा ही सटीक चित्रण किया है। वहाँ किस्मत से एक अस्पताल तो है लेकिन बुरी दशा में है। वहाँ डॉक्टर तो दूर, कम्पाउन्डर के भी दर्शन दुर्लभ हैं। जिसने उसके लिए अपना भवन लीज पर दिया है, उसे सरकार से कभी किराया भी नहीं मिलता। गाँव में सरकारी योजना के चलते वैद्युतीकरण तो हो गया है, लेकिन बिल न भरे जाने के कारण लोगों की बिजली कट चुकी है। गाँव के बच्चे अँधेरे का बहाना बनाकर पढ़ते नहीं बैठते। लोगों ने बिजली के तारों को काट - काटकर अरगनियाँ बना ली है। खंभों को उखाड़कर उन पर दालान छा लिए हैं। फिर भी हर बात के लिए वे सरकार की ही ऐसी - तैसी करते हैं। गाँव में अमूमन प्रयोग की जाने वाली भद्दी भाषा का प्रयोग करते हुए हरे प्रकाश ने इस आलोचना को यथार्थ स्वरूप दिया है - सिंचाई के अभाव में खेत में जब फसल सूखने लगती है तो लोग सरकार की मइया चोदने की बात कर सन्तोष कर लेते हैं। लोगों को गाली देने में ही अपनी आज़ादी का लुत्फ़ मिलता है। बखेड़ापुर के लोगों के जीवन का अपना फलसफा है - मां चुदाए दुनिया, हम बजाएँ हरमुनिया। मन्त्री घोटाला कर रहे हैं तो करें। इस गाँव के लोग कहेंगे कि मन्त्री घोटाला नहीं करेगा तो आपके खेत में हल जोतेगा। अफसर से मिलने जाने पर बात नहीं सुनता या मिलता ही नहीं तो इस गाँव के लोग, इस पर कहेंगे कि आप ही का मुँह हुआ है अफसर से मिलने का।' उपन्यास में गाँव के शैक्षिक व व्यावसायिक स्तर का भी बड़ा ही सटीक विवरण दिया है हरे प्रकाश ने। गाँव के दो - ढाई सौ घरों में मुश्किल से पाँच लोग एमए व अठारह लोग बीए हैंकेवल बीस लोग नौकरी पेशा हैं। उनमें से भी अधिकांश सिपाही या मास्टर हैं। गाँव में एक निजी स्कूल भी है। वहाँ एक नया - नया डेयरी फार्म भी खुला है, जिसकी दूध की खरीद से गाँव वाले खुश हैं। गाँव के ज्यादातर लोगों की गाय - भैंस पालने में रुचि है तथा वहाँ के लड़कों की चरवाही में। हरे प्रकाश ने पचमा मास्साब के मुँह से इस गाँव की तुलना शहर से कराते हुए गाँव की व्यथा को स्पष्ट रूप से कहलवाया हैं - आदमी जैसे जंगल में रह रहा है। कीचड़ में जांगर खटाते - खटाते कीचड़ में समा जाना ही जीवन है। कहीं किसी को कोई सुख - आराम नहीं। शहर में सब लोग मउज मार रहा है। ऊँहा अस्पताल, बिजली, एक से एक स्कूल, पार्क … का नहीं है … गाँव में जिसको दू पइसा होता है, ऊ शहर भाग जाता है" सच में यही तो आज के भारतीय गाँव का यथार्थ है।

            बखेड़ापुर का सामाजिक परिदृश्य पारम्परिक रूप से भयावह है। गाँव जातीय आधार पर दो टोलों में बँटा हुआ हैं। दक्षिणी हिस्से में रेज अथवा नान्ह टोल और पूर्वी हिस्से में बड़ टोल। गाँव में आज भी बड़ टोल के ज़मींदारों का आतंक है, जो मुख्यत: भूमिहार या राजपूत हैं। रेज टोल में केवल दलितों व पिछड़ों के घर हैं। उनका हर तरह से शोषण होता है। ऐसे में गाँव के दक्षिण टोले के तेली परिवार में पैदा हुआ रूप चौधरी एक दलित नेता के रूप में उभरता है। रूप चौधरी सी पी आई (एम एल) का कार्यकर्ता बन जाता है। वह स्कूल के शिक्षकों की अराजकता की ख़िलाफ़त करता है और उनके विरुद्ध जिला विद्यालय निरीक्षक से शिकायत करके औचक निरीक्षण करवा देता है। बड़ टोल के ज्वाला सिंह का ज़मींदार परिवार उसके ख़िलाफ़ हो जाता हैं। गाँव के लोग उन्हें मलिकार कहते थे। रूप चौधरी का पिता बुधन तेली उनके प्रति कृतज्ञ बना रहता है और रूप चौधरी को मलिकार के कोप से बचाता रहता है। मलिकारों के अन्याय व अत्याचार के चलते वहाँ अन्य प्रो - दलित अथवा वामपंथी संगठनों की गतिविधियाँ भी बढ़ती हैं। आईपीएफ नेता राम बलम राम रेज टोले में मीटिंग करता है। वह खेतिहर मजदूरों की मजदूरी बढ़ाने के लिए शिकायतें करता है। हरे प्रकाश ने गाँव के खेतिहर मजदूरों की दुर्दशा को बिना लाग - लपेट के जोरदार शब्दों में रेखांकित किया है। एक मजदूर कहता है, - "बहुत राजपूत भुमिहार लोगों को तो अपना खेते नहीं मालूम है जी। हम जोतते - कोड़ते, उपजाते हैं और वे लोग खाकर सिरिफ झाड़ा फिरते हैं।" उनकी जनानियाँ दिन - दहाड़े बेइज्जत होती हैं। उपन्यास में कटनी के समय भूअर सुसाध की सोलह साल की बेटी परवतिया को प्यास लगने पर रमेश काका द्वारा पानी पिलाते हुए छेड़छाड़ करने तथा परवतिया के दांत से काटकर बच निकलने का बड़ा ही मार्मिक चित्र प्रस्तुत किया है हरे प्रकाश ने। गाँव में खेतिहर मजदूरों के साथ बिना मतलब मार - पीट होती है। उन्हें राह चलते गालियाँ मिलती हैं। टाइम पर मजूरी नहीं मिलती। उन पर तरह - तरह के ज़ुल्म होते हैं। रामबलम उन्हें इन अनीतियों के विरुद्ध एक होकर लड़ने के लिए प्रेरित करता है। रूप चौधरी गाना गाकर उनका उत्साह बढ़ाता है। बड़ टोली इस मीटिंग की ख़बर से झुँझला उठती है।       

            भारत के गाँवों में गरीब परिवार नारकीय पीड़ा भोग - भोगकर जीते हैं। जब बखेड़ापुर का गरीब दलित भूअर दुसाध गंभीर रूप से बीमार हो जाता है और उसकी पत्नी लछमीनिया रोने लगती है तब इलाज़ के लिए उसकी बेटी परवतिया गाँव के ही डॉ देवनारायण सिंह को बुलाने जाती है। डॉक्टर के वहाँ जाने से मना करने पर उनकी पत्नी सहृदयता दिखाते हुए बोलती है, - जाके देख काहे नहीं लेते हैं, गरीब को। बेचारा सीरियस होगा। रो रही है बेचारी तो बड़का डगडर बन रहे हैं, ऐसा गजब आदमी होता है?इस पर डॉ देवनारायण सिंह परवतिया के साथ चल तो पड़ते हैं, किन्तु रास्ते में उससे बदतमीज़ी करते हैं। इसी बीच भूअर की हालत और खराब हो जाने के बावजूद डॉ देवनारायण सुई लगाकर अपने पैसे वसूल कर चले जाते हैं। भूअर की हालत और खराब होने पर धुरिया ओझा को बुलाया जाता है, लेकिन वह भूअर को बचा नहीं पाता। उसकी मौत पर पचमा मास्साब अपनी भड़ास निकालते हुए कहता है, - "अदम गोंडवी सहीए लिखे हैं - 'काजू प्लेट में, भिसकी गिलास मेंउतरा है रामराज विधायक निवास में।" भूअर की मौत के बाद उसकी पत्नी व बेटी की दुर्दशा का हरे प्रकाश ने बड़ा ही मार्मिक चित्रण किया है, - तो भूख और दुख झेलते हुए इज्जत बचाकर इस गाँव में परवतिया और लछमीनिया को वैसे ही जीना है, जैसे बत्तीस दाँतों के बीच जीभ रहती है, जैसे पिंजड़े में मैना रहती है, जैसे जाल में मछली रहती है …। लेकिन गाँव की मैंनाएँ बाजों के पंजे से बच कहाँ पाती हैं? हरे प्रकाश ने गाँव के दरिन्दों द्वारा एक बारिश वाली रात में उनके साथ हुए बलात्कार का बड़ा ही हृदय - विदारक वर्णन किया है, - रोती रही लछमीनिया और परवतिया और दोनों दरिन्दे मांस पर जैसे बाज टूटते हैं, चूहे पर जैसे बिल्ली टूटती है, टूटे और जुटे रहे। बाहर हहराकर बारिश होती रही। बिजली चमकती और गरजती रही। निगोड़ी रात बेशरमी खामोश बनी रही। आँधी चलती रही।

            बलात्कार की शिकार लछमीनिया की मौत 'बखेड़ापुर' की राजनीति में उबाल ला देती है। राजबलम राम गाँव में लाल झंडा लेकर आता है और बदला लेने का ऐलान करता है। वह लछमीनिया की लाश को गाँव में घुमाता हैरूप चौधरी परवतिया को अस्पताल ले जाता है। उसकी इन गतिविधियों से ठाकुरों में गुस्सा फैल जाता है। दरोगा व बीडीओ तत्काल कार्रवाई किए जाने का आश्वासन देते हैं। डॉ अखिलेश परवतिया का फ्री इलाज़ करते हैं। स्थानीय विधायक खखोरन चन्द्र यादव (के सी यादव) लछमीनिया के अंतिम संस्कार के लिए पैसा उपलब्ध कराता क्योंकि उसे मंत्री बनने की उम्मीद है। वह परवतिया को पचास हज़ार का मुआवज़ा तथा नौकरी दिलाने का वायदा करता है। लेकिन परवतिया इन सारे प्रलोभनों को ठुकराकर रूप चौधरी के साथ रहने लगती है। वह पार्टी की गतिविधियों में सक्रिय भागीदारी करती है और 'भू - सामन्तों' के ख़िलाफ़ लड़ाई में शामिल हो जाती है। वे ज़मीनों पर कब्ज़ा करने का अभियान चलाते हैं। सवर्ण भी संगठित होने लगते हैं। गाँव में महावीर सेना का प्रसार होता है। ख़ूनी संघर्ष होने लगता है। परवतिया भी बंदूक चलाना सीख जाती है। हरे प्रकाश गाँव के वर्ग - संघर्ष के परिदृश्य को जीवंतता प्रदान करने के लिए रड़ टोली की मीटिंग में रूप चौधरी के मुँह से - 'कहिये से घेरले बिया कारी ई बदरिया, जाग भइयाफार जुलुम के अन्हरिया, जाग भइया … ' जैसा एक क्रांति - गीत गवाते हैं। यही नहीं, वे उपन्यास के इस हिस्से को प्रभावोत्तेजक बनाने के लिए इसके प्रारम्भ में बखूबी अष्टभुजा शुक्ल की कविता के उद्धरण - 'चारों कोनों में/ आग लगी है/ भहर - भहर जल रहा है घर' को भी उधृत करते हैं।

            हरे प्रकाश 'बखेड़ापुर' में भारतीय राजनीति के उस विद्रूप को बखूबी चित्रित करते हैं, जिसमें समय के साथ - साथ सारे आदर्श, सारी शुचिता, सारे सदुद्देश्य धराशायी हो गए हैं, और बचा हुआ है, बस राजनीति का एक स्वार्थी, भ्रष्ट, लिजलिजा - सा, लोगों को आपस में बाँटकर लड़ाने वाला, बेवकूफ़ बनाने वाला, चूसने वाला क्रूर चेहरा। इसी राजनीति की विडंबनापूर्ण परिणति है कि जब प्रदेश में एक जेपी मूवमेन्ट से निकला, बेबाक व सर्वहारा किस्म का नेता मुख्यमंत्री बनता है तो राज्य में राजनीतिक हिंसा व लूटपाट - चोरी बेतहासा बढ़ जाती है। उसकी सरकार बहरी व अहंकारी होने के कारण प्रदेश में अपहरण और छीना - झपटी का कारोबार स्थापित हो जाता है। जगह - जगह नरसंहार होने लगते हैं। हरे प्रकाश उपन्यास में बिहार के गाँवों में व्याप्त हो चुके वर्ग- संघर्ष एवं  महावीर सेना व कम्युनिस्टों के बीच के संघर्ष की स्थिति पर भी विस्तार से प्रकाश डालते हैं। केन्द्रीय रिजर्व बलों की तैनाती के बावजूद कम्युनिस्टों दलों के कार्यकर्ता व महावीर सेना के जवान गुप्त रूप से गाँवों में घूमते और वसूली, अपहरण, हत्या आदि की घटनाएँ करते रहते हैं। रूप चौधरी के माध्यम से संगठन में आने पर शुरू में छुई - मुई बनी रहने वाली परवतिया जल्द ही पारवती बनकर सीपीआई माले की महिला स्क्वायड की कमांडर बन जाती है। रूप चौधरी उसका एरिया कमांडर बन जाता है। गाँव में डॉ देवनारायण पर हमला होता है। लोग अपने हक़ों के लिए लड़ना शुरू कर देते हैं। हथियारबन्द हो रहे नान्ह लोगों की बगावत से ज़मींदार डरने लगते हैं। लेकिन वे अपने को सामंतवादी नहीं मानते। हरे प्रकाश ने उनके औचित्य को इस प्रकार अभिव्यक्त किया है, - महावीर सेना के लोग अपने समर्थकों को भड़काते, भटियारा है सब कि कमनिस्ट है … आरे दू बीघा खेत नहीं त्रिपुरारी पंडित के, तो ऊ कैसे सामन्त हो गए? उनके बेटा को भी नहीं छोड़ा सब नीच। दौड़ा के गोली मार दिया। वह तो हम लोग के सेना में भी नहीं था … कॉलेज में पढ़ता था। ई सब सफाया करने में लगा है धरती से बड़ जाति के, सामन्त - फामन्त कुछ नहीं।

उपन्यास में वामपंथी संगठनों की कमज़ोरियों को भी हरे प्रकाश ने व्यंग्यपूर्ण संवादों के माध्यम से बखूबी दर्ज़ किया है। गाँव में आया हुआ निर्मोही बालम का पत्रकार भतीजा अजय सिंह कहता है, - ई सरवा सब अपने में एक नहीं है - विनोद मिश्रा गुट, पार्टी युनिटी, नन्दी - राणा गुट, सतनारायण गुट, रेड्डी गुट, … तरह के गुट … । ऐसी ही गुटबाज़ी सवर्णों के बीच भी चलती है, जिसकी तस्दीक़ निर्मोही बालम के जबाब से होती है, - आ हम लोग एक हैं क्या … बाभन गुट, भुईंहार गुट, रजपूत गुट, लाला गुट, … कौनो के मुँह उधर हैं, कौनो के उधर … तबे नू नान्ह सब चढ़ा आ रहा है। एही में कौनो उस सबको माल - पता भी दे रहा है, ना त ऊ सब के पास भूँजल भाँग नहीं है, कहाँ से हथियार खरीदता, आ का लड़ता। हरे प्रकाश धीरू की सोच को अभिव्यक्त करने के माध्यम से इन संगठनों की गतिविधियों के प्रभाव की विवेचना इन शब्दों में करते हैं, - धीरू का मानना था, लोगों में हथियारों की होड़ पैदा करने के लिए कम्युनिस्ट पार्टियाँ भी जिम्मेदार हैं। वे वर्ग - शत्रुओं से लड़ने की जगह कमोवेश एक ही तरह की समस्याओं और आर्थिक स्थितियों में घिरे लोगों को आपस में ही लड़ा रही हैं। जिन गाँवों में कम्युनिस्ट पार्टियों ने इस तरह का युद्ध छेड़ा है, वहाँ खेती - किसानी का काम बन्द हो गया है। किसान - मजदूर दोनों छटपटा रहे हैं। लोग आँख मूँदकर गाँवों से शहरों की ओर दौड़ रहे हैं, भाग रहे हैं। लगता है कि कम्युनिस्ट आन्दोलन चलाने वाले खुदे कन्फ्यूज हैं। इसीलिए उनके भीतर ही आपसी वैचारिक और सांगठनिक टूट - फूट चल रही है।

‘बखेड़ापुर’ को पढ़ते समय यह बात सबसे ज्यादा आकर्षित करती है कि हरे प्रकाश ने इस उपन्यास का हर अध्याय किसी न किसी कवि या लेखक की रचना के उद्धरण से शुरू किया है। इनमें नागार्जुन, अरुण कमल, मंगलेश डबराल, राजेश जोशी, विष्णु खरे, चन्द्रकान्त देवताले, अष्टभुजा शुक्ल, आर चेतनक्रान्ति, हेमन्त शेष, वसन्त सकरगाए जैसे सिद्धहस्त व नवोदित दोनों ही तरह के कवियों की रचनाओं के अंश शामिल हैं। भले ही हरे ने ऐसा एक कवि होने के कारण उपन्यास लिखते समय अपनी विधा के प्रति आत्मिक लगाव को व्यक्त करने अथवा उपन्यास के कथ्य में एक अतिरिक्त आकर्षण पैदा करने के लिए किया हो, किन्तु इससे यह उपन्यास अपनी लघुता के बावजूद अत्यधिक भावपूर्ण एवं वज़नदार हो गया है। 'बखेड़ापुर' की दूसरी सबसे बड़ी विशिष्टता इसकी भाषा है। हरे प्रकाश ने इसमें जगह - जगह बिहार में प्रचलित देशज व ग्रामीण शब्द - रूपों का भरपूर प्रयोग किया है, जैसे 'लव' की जगह 'लभ'। इससे उपन्यास अधिक यथार्थपरक लगने लगता है। उपन्यास में जगह - जगह भद्दे व गालियों के बोधक शब्द भी प्रयोग में आए हैं, जैसे 'लंडूरे'। हरे प्रकाश उस समय एक अनूठा एवं ठेठ ग्रामीण बिम्ब खींचकर हमें चकित कर देते हैं, जब वे पचमा मास्साब के मुँह से संगीता मैडम के समक्ष स्त्री - पुरुष संबन्धों की व्याख्या इन शब्दों में करवाते हैं, - औरत - मर्द को बराबरी का हक़ होना चाहिए। वह जमाना थोड़े है कि औरत को गाय बनाकर जहाँ चाहिएगा, बाँध के दुहिएगा और खुद सांड़ की तरह जिस खेत में मन करेगा मुँह घुसा दीजिएगा … । निश्चित ही 'बखेड़ापुर' की भाषा हिन्दी उपन्यास के इतिहास में अपना एक विशिष्ट योगदान देने वाली मानी जाएगी। 

किन्तु कहीं - कहीं हरे प्रकाश की भाषा स्वाभाविक एवं प्रचलित साहित्यिक शिष्टता को पार करती हुई भी लगती है। मसलन, गाँव के पचमा मास्साब की सोच प्रकट करते समय हरे आजकल फ्री में तो कोई हगता भी नहीं जैसा ठेठ देशी डायलॉग सामने लाते हैं तथा जब शादी के लिए लड़की वाले उनके लड़के को देखने आते हैं और उसके अंग्रेज़ी के ज्ञान का परीक्षण करने लगते हैं तो वह "बिना ट्रांसलेशन किए तुम्हारी लौंडिया देगी नहीं क्या? सार कहीं के गेयान हग रहे हैं" जैसी बात कहकर भुनभुनाता है। ललन बाबा की लंतरानी पेश करते समय हरे प्रकाश फिर ऐसी ही भाषा का इस्तेमाल करते हैं, - "प्रमोद और वीरेन्द्र एक - दूसरे की जान के प्यासे हो गए। वे जहाँ मिलते, बड़े तेवर में मिलते और एक - दूसरे को जान से मार देने की धमकी देते। लगता ही नहीं कि पहले ये दोनों एक ही गाँड़ से हगते थे।" दीर्घ काल के बाद मिलने वाले बालसखा सुदामा और धीरू के बीच नशे की हालत में हुए संवाद की कैफ़ियत बताने के लिए भी हरे प्रकाश - दोनों अपनी - अपनी जानकारी और याद के अनुसार बताने लगे कि कौन किसके साथ फँसी, कौन किसके नीचे लेटी और कौन कहाँ ब्याहने के बाद अब भी अपने किस प्रेमी को देती है' जैसी पुरुष मित्रों के बीच छिछोरी व हल्की बातें करने के लिए सामान्यत: इस्तेमाल की जाने वाली अश्लीलतापूर्ण भाषा का उपयोग करते हैं। ‘सरकार की मइया चोदने’ तथा ‘मां चुदाए दुनिया’ जैसे वाक्यांशों के प्रयोग का उल्लेख ऊपर हुआ ही है। प्रश्न यह उठता है कि भले ही ऐसी भाषा देश - काल की दृष्टि से यथार्थ को सामने लाने के लिए उन्हें बहुत उपयोगी लगी हो, लेकिन क्या इसका इस्तेमाल किसी साहित्यिक रचना में किया जाना चाहिए? मेरे विचार में नहीं। लेखक को यह हमेशा ध्यान में रखना चाहिए कि साहित्य समाज का दर्पण ही नहीं है, उसे राह दिखाने का माध्यम भी है। साहित्य समाज के घिनौने चेहरे को उजागर करने वाला ही नहीं, उसके चेहरे को साफ़ - सुथरा एवं आकर्षक बनाने वाला साधन भी है।     

कुल मिलाकर मैं यह तो नहीं कहना चाहूँगा कि हरेप्रकाश का यह उपन्यास भारतीय गाँवों की आज की स्थिति को सम्यक रूप से दरशाने वाला एक मुकम्मल उपन्यास है, किन्तु यह धारणा निश्चित ही व्यक्त करना चाहूँगा कि इस उपन्यास में गाँव की सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक स्थिति को जिस ढंग से भी और सीमा तक भी छुआ गया है, वह बड़ा ही यथार्थपरक है, बिना किसी लाग - लपेट के कहा गया और सच्चाई की बदशक्ल सूरत को सामने लाने वाला है। हरेप्रकाश चाहते तो गाँवों के जनजीवन से जुड़े अन्य तमाम पहलुओं को भी इस उपन्यास के दायरे में ला सकते थे। मसलन, आज गाँवों में जिस तरह से प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दुरुपयोग एवं विनाश हो रहा है, गाँवों के वनों, तालाबों, पंचायती परिसम्पत्तियों को लूटा जा रहा है, गलियारों, नदी, नालों आदि पर कब्ज़ा करके उन्हें ख़त्म किया जा रहा है, वहाँ की जमीनों से मिट्टी, बालू, पत्थरों, खनिजों आदि का अवैध उत्खनन किया जा रहा है, शहरीकरण व व्यावसायिक भूमंडलीकरण के प्रभाव के कारण जिस तरह से वहाँ की पारम्परिक कलाएँ, हस्तकौशल, रीति - रिवाज़, पर्व - त्योहार व अन्य सांस्कृतिक विशिष्टताएँ विलुप्त हो रही हैं अथवा बदल रही हैं, वह सब अत्यन्त भयावह है। यह गाँवों के भविष्य को ही नहीं, शहरों के अस्तित्व को भी ख़तरे में डाल देने वाला है। खेती पर जलवायु - परिवर्तन का दुष्प्रभाव किसानों की हालत को और भी दयनीय बना देने वाला है। सांप्रदायिकता व जनजातीय विद्वेष का नाग धीरे - धीरे और ज्यादा विषैला होता जा रहा है और इसके दंश के शिकार गाँवों को देश के अनेक राज्यों में देखा जा सकता है। हरेप्रकाश ने 'बखेड़ापुर' में भारतीय गाँवों की इन अद्यतन समस्याओं व विडंबनाओं की ओर निगाह नहीं डाली है, या कहा जाय कि उन्होंने अपने उपन्यास की कथा - वस्तु को गाँवों में व्याप्त जातीय एवं आर्थिक विषमताओं व उन पर आधारित वर्ग - संघर्षों, राजनीतिक विडंबनाओं तथा ग्रामीण समाज की रूढ़िवादिता एवं जड़ियलपन को उजागर करने तक ही सीमित रखा है। अपने इस सीमित दायरे में केन्द्रित रहकर हरे प्रकाश ने निश्चित ही अपनी देशज व उन्मुक्त भाषा, कलात्मक शैली, संवेदनापूर्ण चरित्र - चित्रण व सहज एवं चुटीली संवादात्मकता के माध्यम से आकार में छोटे किन्तु एक विशिष्ट प्रभाव पैदा करने वाले उल्लेखनीय उपन्यास की रचना की है। चूँकि वे युवा हैं और यह उनका पहला उपन्यास है, अत: हम यह अपेक्षा कर सकते हैं कि आगे उनकी कलम से हमें अनावश्यक सनसनीखेज़ भाषा से मुक्त विस्तृत फलक वाले अन्य महत्वपूर्ण उपन्यास भी प्राप्त हो सकते हैं।