आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Sunday, February 24, 2013

एक तारे से अपना आकाश बनातीं नरेश सक्सेना की कविताएँ (लेख)

नरेश सक्सेना हिन्दी के एक ऐसे कवि हैं जो पिछले लगभग चालीस वर्षों से पूरे देश में अपनी कविताओं के लिए जाने जाते हैं, काव्य-संग्रहों के कारण नहीं। उनकी कविताएँ जब चारों तरफ वर्षों तक अपनी धाक जमा लेती हैं, तब कहीं जाकर के संग्रह में समाहित होती हैं और उनके दोनों ही संग्रह ऐसी ही लोकप्रिय हो चुकी कविताओं का कालान्तर में किया गया संचयन भर हैं। कविताओं की सूरत और सीरत देखी जाय तो वर्ष 2001 में आए उनके पहले कविता-संग्रह समुद्र पर हो रही है बारिश की कविताओं और अभी हाल ही में भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित नए कविता-संग्रह सुनो चारुशीला की कविताओं में कोई बुनियादी अन्तर नहीं है। दोनों ही की कविताओं में एक ही जैसे सरोकारों, सामाजिक चेतनाओं, सर्वहारा की चिन्ताओं, मानवीय संवेदनाओं और कोमल भावनाओं का समावेश है। जहाँ पहले संग्रह में समुद्र पर हो रही है बारिश, मेज, सीमेन्ट, धातुएँ, कांक्रीटहिस्सा जैसी बहुश्रुत व बहुचर्चित कविताएँ थीं वहीं इस नए संग्रह में भी गिरना, सेतु, पानी क्या कर रहा है, आधा चाँद माँगता है पूरी रात तथा रंग जैसी सुपरिचित एवं अविस्मरणीय कविताएँ शामिल हैं। जो बात दोनों संग्रहों को एक-दूसरे से जोड़ती है या इन्हें एक-दूसरे का पूरक बना देती है, वह यह है कि दोनों में ही ईंटें हैं, शिशु है, नदी, पानी और वनस्पतियों से जुड़े प्रसंग हैं और बड़ी गहराई तक असर करने वाली मानवीयतावादी सोच है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि तिहत्तर वर्ष कि उम्र में भी नरेश सक्सेना लगातार बेमिसाल कविताओं का सृजन कर रहे हैं, और वह भी पूरी संजीदगी के साथ। 


            हर कवि का कविता लिखने के बारे में अपना एक नज़रिया होता है। लेकिन महान कवि वह होता है जो कविता के माध्यम से सरलतम शब्दों में मनुष्य को मनुष्य बने रहना सिखाता है और मनुष्य को, समाज को तथा अन्ततः समूचे विश्व को प्रेम, शान्ति एवं सुख से भर देने वाली राह दिखाता है। मैं नरेश सक्सेना को ऐसे ही महान कवियों की श्रेणी में रखना चाहूँगा। उन्होंने खुद सुनो चारुशीला के पूर्वकथन में कविता लिखने की अपनी सोच को उद्घाटित किया है, - कविता ऐसी जो पाठक को विचलित करे, भावबोध का परिष्कार करे और दृष्टि को बदल दे : मनुष्यता का ऐसा दस्तावेज़ जो अपने समय के अन्याय और क्रूरता को चुनौती देता हो। कविता ऐसी जो बुरे वक्त में काम आए, जो हिंसा को समझ और संवेदना में बदल दे। ऐसी कविता जो हमें बच्चों जैसा सरल और निश्छल बना दे, कौतूहल और प्रेम से भर दे। किन्तु क्या ऐसा संभव हो पाता है।नरेश सक्सेना को ऐसा संभव लगे न लगे, किन्तु उनकी कविताओं को पढ़ने वाले को यह अहसास जरूर हो जाता है कि उन्होंने ऐसा ही कुछ संभव कर दिखाया है। अब जब मैं यह कह रहा हूँ तो ऐसा नहीं है कि नरेश सक्सेना इस प्रशंसा से प्रसन्न होंगे। वे तो शंकालु होंगे कि इतनी प्रशंसा क्यों की जा रही है। प्रशंसा से विचलित न होना तथा कवि-कर्म को और परिष्कृत करते चले जाना उनका स्वभाव है। यही बात उन्हें औरों से अलग पायदान पर बिठा देती है। इसी के कारण ही वे उम्र के इस पड़ाव पर भी कुछ अभिनव, कुछ उदात्त, कुछ सर्वग्राह्य-सा हमें देने के लिए सन्नद्ध हैं। इस संग्रह की परसाई जी की बात कविता की अच्छी कविता पर सजा भी मिल सकती है/ सुनकर मैं सन्न रह गया …… आज जब सुन रहा हूँ वाह, वाह/ मित्र लोग ले रहे हैं हाथों हाथ/ सज़ा कैसी कोई सख़्त बात तक नहीं कहता/ तो शक होने लगता है/ परसाईजी की बात पर, नहीं अपनी कविताओं पर जैसी पंक्तियों से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि वे सिर्फ पेशे से ही इंजीनियर नहीं रहे हैं, वे कविताओं को गढ़ने के भी इंजीनियर हैं। एक ऐसा इंजीनियर जो अपनी किसी भी सुन्दर निर्मिति से संतुष्ट नहीं होता और पुनः कुछ ज्यादा सुन्दर-सा निर्मित करने में जुट जाता है।

            सुनो चारुशीला में नरेश सक्सेना की जिस कविता पर सबसे ज्यादा मुग्ध हुआ जा सकता है या जिससे मनुष्य जीने का सबसे ज्यादा सलीका सीख सकता है, वह है गिरना। यह कविता प्रारम्भ में समाज में व्याप्त होती जा रही अमानवीयता या पतन की ओर इशारा करती है। यह पतन हमारे भीतर से शुरू ही होता है और अनवरत जारी रहता है, - यही सोचकर गिरा मैं भीतर/ कि औसत कद का मैं/ साढ़े पाँच फीट से ज्यादा क्या गिरूँगा/ लेकिन ऊँचाई थी वह/ कि गिरना मेरा ख़त्म ही नहीं हो रहा। गिरने का यह प्रक्रिया हर तरफ है, इसलिए पूरा समाज ही अधःपतित होता जा रहा है, - हर कद और हर वजन के लोग/ यानी/ हम लोग और तुम लोग/ एक साथ/ एक गति से/ एक ही दिशा में गिरते नज़र आ रहे हैं।यह गिरना अनिष्टकारी है, अमानवीय है, निरर्थक है। यह पूरे समाज को विपरीत दिशा की ओर खींचे लिए जा रहा है। गिरना  कविता में आगे नरेश जी हमें  यह अहसास भी यह दिलाते हैं कि गिरने की प्रक्रिया तो नैसर्गिक है, इसलिए गिरने से तो बचा नहीं जा सकता। लेकिन गिरना तो उस तरह से चाहिए, जिसमें भविष्य के लिए कुछ अच्छाई हो, कुछ निश्छलता हो, कुछ मंगलकारी हो, कुछ आनन्दकारी हो, कुछ नयापन पैदा करने की ताकत हो। और यहीं पर आकर यह कविता एक अद्भुत मुकाम पर पहुँच जाती है, - गिरो जैसे गिरती है बर्फ़/ ऊँची चोटियों पर/ जहाँ से फूटती हैं मीठे पानी की नदियाँ/ गिरो प्यासे हलक में एक घूँट जल की तरह/ रीते पात्र में पानी की तरह गिरो/ उसे भरे जाने के संगीत से भरते हुए/ गिरो आँसू की एक बूँद की तरह/ किसी के दुख में/ गेंद की तरह गिरो खेलते बच्चों के बीच/ गिरो पतझर की पहली पत्ती की तरह/ एक कोंपल के लिए जगह खाली करते हुए/ गाते हुए ॠतुओं का गीत/ कि जहाँ पत्तियाँ नहीं झरतीं/ वहाँ वसन्त नहीं आता/ गिरो पहली ईंट की तरह नींव में/ किसी का घर बनाते हुए …… अँधेरे पर रोशनी की तरह गिरो/ गिरो गीली हवाओ पर धूप की तरह/ इन्द्रधनुष रचते हुए …… बारिश की तर गिरो, सूखी धरती पर/ पके हुए फल की तरह/ धरती को अपने बीज सौंपते हुए/ गिरो, गिरने के इतने सारे सकारात्मक परिवर्तनकारी तरीके एवं प्रभावात्मक बिम्ब एक साथ हमारे सामने खींचकर नरेश सक्सेना ने अपनी अद्भुत रचना-शक्ति का परिचय दिया है।

            गिरना कविता के अंत में नरेश सक्सेना गिरने की उस आकांक्षा की अभिव्यक्ति करते हैं जो सिर्फ एक क्रांतिदर्शी मन में उपज सकती है। वे चारों तरफ व्याप्त अधःपतन को रोकना चाहते हैं। इसके लिए उन्हें जड़वत खड़े रहना मंज़ूर नहीं। वे इस अधःपतन के शिकार लोगों के ऊपर गाज बनकर गिरना चाहते हैं, - खड़े क्या हो बिजूका से नरेश,/ इसके पहले कि गिर जाये समूचा वजूद/ एकबारगी/ तय करो अपना गिरना/ अपने गिरने की सही जगह और वक़्त/ और गिरो किसी दुश्मन पर/ गाज की तरह गिरो/ उल्कापात की तरह गिरो/ वज्रपात की तरह गिरो/ मैं कहता हूँ/ गिरो। नरेश सक्सेना का गिरने का यह आह्वान हमें भीतर तक झकझोर देने वाला तथा प्रतिरोध के लिए उत्प्रेरित करने वाला है।मैं पूरी ईमानदारी के साथ कहना चाहता हूँ कि गिरना नरेश सक्सेना की उन श्रेष्ठतम कविताओं में से एक है, जो हिन्दी के काव्य-साहित्य के इतिहास में अपना नाम स्थायी रूप से दर्ज करा चुकी हैं।

            विष्णु खरे ने समुद्र पर हो रही है बारिशकविता-संग्रह के ब्लर्ब में नरेश सक्सेना के बारे में लिखा था, - वे शायद हिन्दी के पहले कवि हैं, जिन्होंने अपने अर्जित वैज्ञानिक ज्ञान को मानवीय एवं प्रतिबद्ध सृजन-धर्म में ढाल लिया है और इस जटिल प्रक्रिया में उन्होंने न तो विज्ञान को सरलीकृत किया है और न कविता को गरिष्ठ बनाया है। उनके इस कथन को अक्षरशः सिद्ध करती हुई इस संग्रह की कविता है, - पानी क्या कर रहा है जिसमें नरेश सक्सेना ने बर्फ़ीले मौसम में पानी के सतह पर जमने और नीचे-नीचे तरल बने रहने की भौतिक प्रक्रिया को उसकी मछलियों को ज़िन्दा रखने की उदात्त कामना के साथ जोड़कर एक बड़ा ही भावपूर्ण उदाहरण सृजित किया है। नदी या झील के पानी का शीतीकरण सतह से शुरू होता है। इस अवस्था में ठंडा पानी नीचे की ओर जाता रहता है और गर्म पानी ऊपर आ-आकर ठंडा होता रहता है। पानी ऐसा क्यों करता है, इसके बारे भौतिक विज्ञानियों का मत सारी दुनिया जानती है। लेकिन पानी ऐसा मछलियों के प्राणों की रक्षार्थ करता है यह बात केवल नरेश सक्सेना जैसा भौतिक विज्ञान को जानने वाला कवि ही कह सकता है, - सतह का पानी ठंडा और भारी हो/ लगाता है डुबकी/ और नीचे से गर्म और हल्के पानी को/ ऊपर भेज देता है ठंड से जूझने …… पता नहीं पानी यह कैसे जान लेता है/ कि अगर वह और ठंडा हुआ/ तो मछलियाँ बच नहीं पाएँगी अगली अवस्था में अर्थात तापमान चार डिग्री सेल्सियस के नीचे जाने पर जब पानी जमने लगता है तो उसका व्यवहार बदल जाता है। जमा हुआ पानी बर्फ़ की सतह पर ही टिका रहता है और नीचे का पानी अपना बचावकर तरल ही बना रहता है। नरेश सक्सेना यहाँ भी यह पड़ताल करने में सक्षम होते हैं कि पानी का यह बरताव भी मछलियों को ज़िन्दा बचाए रखने के लिए ही होता है। सिर्फ ज़िन्दा ही नहीं, जमे हुए पानी के इस कवच के नीचे मछलियाँ जीवन के उल्लास को आस्वादित करती रहती हैं, - अचानक वह अब तक जो कर रहा था/ ठीक उसका उल्टा करने लगता है/ यानी कि और ठंडा होने पर भारी नहीं होता/ बल्कि हल्का होकर ऊपर ही तैरता रहता है …… इस तरह वह कवच बन जाता है मछलियों का/ अब पड़ती रहे ठंड/ नीचे गर्म पानी में मछलियाँ/ जीवन का उत्सव मनाती रहती हैं है न यह एक अद्भुत कविता! इसमें नरेश सक्सेना हमारे सामने मछलियों को जीवित व आनन्दित बनाए रखने के निमित्त पानी द्वारा निरन्तर किए जा रहे आत्मोत्सर्ग का यह अनोखा बिम्ब खींचकर हमें अनुभूतियों एवं संवेदनाओं के एक नए धरातल पर ले जाते हैं।

            नरेश सक्सेना की यह कविता यहीं नहीं रुकती। ठंड से पानी में छटपटाती मछलियों से आगे बढ़कर उनकी पीड़ा की अनुभूति किसानों की, माताओं की और पूरे समाज की पीड़ाओं की अनुभूति को अपने भीतर समेट लेती है। यहाँ पर आकर यह कविता हमें विचलित करने लगती है। चारों तरफ कुछ बच नहीं पा रहा है। कोई बचा भी नहीं रहा है। सब कुछ जड़ता का शिकार होता जा रहा है। निश्चेतना व निष्क्रियता के इस दौर में नरेश सक्सेना पानी के पास चलकर कुछ सीखने की सलाह देते हैं, - इस वक़्त/ कोई कुछ बचा नहीं पा रहा/ किसान बचा नहीं पा रहा अन्न को/ अपने हाथों से फसलों को आग लगाये दे रहा है/ माताएँ बचा नहीं पा रहीं बच्चे/ उन्हें गोद में ले/ कुओं में छलाँगे लगा रही हैं/ इसके पहले कि ठंडे होते ही चले जाएँ/ हम, चल कर देख लें/ कि इस वक़्त जब पड़ रही है कड़ाके की ठंड/ तब मछलियों के संकट की इस घड़ी में/ पानी क्या कर रहा है।इस प्रकार नरेश सक्सेना पानी के स्वभाव के बहाने हमारी संवेदना को बड़े ही प्रभावी ढंग से कुरेदते हैं, उसे जगाते हैं और हमारे भीतर सर्वहारा के लिए कुछ करने की प्रबल इच्छाशक्ति का संचार करते हैं। उन्होंने अपने पूर्वकथन में सच ही कहा है, - कविता निश्चित ही विज्ञान से ऊपर की चीज है, नीचे की नहीं। सदियों बाद तक गणितज्ञ और वैज्ञानिक कविताओं को सिद्ध करते रहते हैं। निश्चित ही भौतिक विज्ञानवेत्ता नरेश सक्सेना की पानी क्या कर रहा है जैसी कविताओं के रहस्य की पहचान करने में सदियों तक जुटे रहेंगे।

            बढ़ती हुई साम्प्रदायिकता से चिन्तित होना किसी भी सच्चे कवि के लिए स्वाभाविक है। नरेश सक्सेना के दोनों ही संग्रहों में इस चिन्ता को उजागर करने वाली कविताएँ हैं। गुजरात के मुस्लिम-विरोधी दंगों से जुड़ी दो कविताएँ हैं सुनो चारुशीला में। लेकिन इस दृष्टि से इस संग्रह की जो कविता सबसे ज्यादा ध्यान आकर्षित करती है, वह है रंग। यहाँ भी नरेश सक्सेना का वही कौशल दिखाई देता है प्रकृति में नित्यप्रति होने वाली सामान्य प्रक्रियाओं को बड़ी सहजता से उन्होंने अपना संदेश देने का माध्यम बना लिया है, - सुबह उठकर देखा तो आकाश/ लाल, पीले, सिन्दूरी और गेरुए रंगों से रंग गया था/ मज़ा आ गया, आकाश हिन्दू हो गया है/ पड़ोसी ने चिल्लाकर कहा/ अभी तो और मज़ा आएगामैंने कहा/ बारिश आने दीजिए/ सारी धरती मुसलमान हो जाएगी। आसमान और धरती के प्राकृतिक रंगों में साम्प्रदायिक भावना का इतना विस्तार अनुभूत करने वाला मनुष्य-समूह इस दुनिया को किस ओर ले जा रहा है, यह कविता हमें एकबारगी चौंकाकर यह सोचने के लिए मजबूर कर देती है।

            धार्मिक पोंगापन्थी को नरेश सक्सेना उसी ताकत से लताड़ते हैं, जिस ताकत से कभी कबीर ने बहरा हुआ खुदाय कहकर लताड़ा था। आज मंदिरों के जीर्णोद्धार के नाम पर उनकी एयरकन्डीशनिंग की जा रही है। सौन्दर्यीकरण के नाम पर देवी-देवताओं को तरह-तरह के वस्त्रों एवं स्वर्णाभूषणों से सज्जित करने में अरबों रुपए व्यय किए जा रहे हैं। ईश्वर की औकात कविता में नरेश सक्सेना इसी ईश्वरीय लाचारी एवं सामाजिक विडंबना की ओर इशारा करते हैं, - देवी-देवताओं को पहनाते हैं आभूषण/ और फिर उनके मन्दिरों का/ उद्धार करके इसे वातानुकूलित करवाते हैं/ इस तरह वे ईश्वर को उसकी औकात बताते हैं।ईशर की इसी औकात ने उसकी सता के महत्व को समाप्त कर दिया है। सच तो यही है कि मंदिरों के पंडे-पुजारी अपने सुख के लिए ही मंदिरों की ऐसी साज-सज्जा व एयरकन्डीशनिंग आदि करने में जुटे रहते हैं और ईश्वर बेचारा उन्हें निर्विघ्न यह सब करने देता है। ईश्वर के नाम पर मनुष्य अब ऐसा कुछ करता चला जा रहा है जो यह प्रमाणित कर देता है कि ईश्वर का कोई अस्तित्व है ही नहीं। ईश्वर शीर्षक कविता में नरेश सक्सेना ने बखूबी इस ईश्वरीय नाइन्साफी पर एक करारा प्रहार किया है, - वही जो लाता है बीमारी, महामारी, अकाल और मौत/ वही करवाता है हत्याएँ और बलात्कार/ उसी ने करवाये दंगे, नरसंहार और युद्ध/ घृणा की आग में उसी ने झोंक दी ये दुनिया …… दरअसल मुँह दिखाने के काबिल/ अब वो रहा ही कहाँ। साम्प्रदायिकता व अनैतिकता के प्रसार ने मनुष्य को इतना गिरा दिया है कि अब नरेश सक्सेना को यह लगता है कि मनुष्य को भूतों-प्रेतों से डर नहीं रहा, बल्कि अब तो प्रेतों को मनुष्यों से डर लगना चाहिए। मनुष्य-समाज की बढ़ती पैशाचिक प्रवृत्तियों के बारे में एक तीखी टिप्पणी करती है उनकी प्रेत-मुक्ति कविता, - पराकाष्ठा इसे पतन की/ कहें तो आप कह लें/ कि आज मेरा संकट/ सिर्फ़ प्रेत मुक्त होने का ही नहीं है/ प्रेत के मनुष्य मुक्त होने का भी है।

            नरेश सक्सेना कर्म और संघर्ष के प्रति समर्पित कवि हैं। वे बने-बनाए रास्तों पर चलने में यकीन नहीं करते। वे अपने हाथों से कुछ नया गढ़ना चाहते हैं। जब अजीब बात कविता में वे कहते हैं, - कहते हैं रास्ता भी एक जगह होता है/ जिस पर ज़िन्दगी गुज़ार देते हैं लोग/ और रास्ते पाँवों से ही निकलते हैं/ पाँव शायद इसीलिए पूजे जाते हैं/ हाथों को पूजने की कोई परम्परा नहीं/ हमारी संस्कृति में/ ये कितनी अजीब बात है तो वे अपनी इसी विचारधारा को कविता की इन बेहतरीन पंक्तियों में ढाल रहे होते होते हैं। यहाँ वे तमाम सांस्कृतिक परम्पराओं की निरर्थकता की ओर भी इशारा कर रहे होते है। वे पांवों को पूजने की परम्परा को रास्तों के निर्माण व विचारधारा की स्थापना से जोड़कर, उसकी एक अभिनव व्याख्या सामने रखते हैं और कर्मठता के प्रतीक, नवनिर्माण के निमित्त, जीवन-यापन के आश्रय बने हाथों की प्रतिष्ठा पाँवों से कम होने की विडंबना की ओर भी हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं। हाथों की इसी महत्ता व कर्म की इसी प्रतिष्ठा को बड़े ही संवेदनापूर्ण ढंग से प्रतिपादित करती है उनकी भाषा से बाहर कविता। इस कविता में अभावग्रस्त, भूखे आदमी के लिए भाषा की निरर्थकता या कविता के निष्प्रभावी बने रहने की वर्तमान विडम्बना की ओर इशारा करते हुए वे यह संदेश देते हैं कि आज केवल भाषा और कविता के सहारे इस अभाव को दूर नहीं किया जा सकेगा और इसके लिए आगे आकर कुछ करने से ही कोई रास्ता निकलेगा, - भूख से बेहोश होते आदमी की चेतना में/ शब्द नहीं/ अन्न के दाने होते होंगे/ अन्न का स्वाद होता होगा/ अन्न की ख़ुशबू होती होगी/ बेहतर हो/ कुछ दिनों के लिए हम लौट चलें/ उस समय में/ जब मनुष्यों के पास भाषा नहीं थी/ और हर बात/ कहके नहीं, करके दिखानी होती थी।

           नरेश सक्सेना की पूरी काव्य-यात्रा में संघर्षशीलता के प्रतीक के रूप में ईंटें हमेशा उनके साथ रही हैं। समुद्र पर हो रही है बारिश में भी ईंटें शीर्षक कविता थी जो एक लम्बे समय से  हिन्दी की सर्वाधिक चर्चित कविताओं में से एक है। उसमें उन्होंने, ईंटों के चट्टे की छाया में/ तीन ईंटें थीं एक मजदूरनी का चूल्हा/ दो उसके बच्चे की खुड्डी बनी थीं/ एक उसके थके हुए सिर के नीचे लगी थी/ बाद में जो लगने से बच गईं/ उनको तो करने थे और बड़े काम/ बक्सों-आलमारियों को बचाना था/ टूटे हुए पायों को थामना था/ ऊँची जगहों तक पहुँचने के लिए/ बच्चों का कद/ ईंटों को ही बढ़ाना था जैसी पंक्तियाँ रचकर ईंटों की निर्माण-शक्ति एवं जीवन-संघर्ष में उनकी भागीदारी का एक हृदय-स्पर्शी चित्र खींचा था। सुनो चारुशीला की ईंटें-2 कविता भी संघर्ष से ईंटों के इस जुड़ाव को और ज्यादा गहराई से प्रतिपादित करती है। यहाँ भी ईंटें मनुष्य की संघर्षशीलता का प्रतिनिधित्व करती हैं। भिन्न-भिन्न प्रकार की ईंटों के निर्माण की प्रक्रिया व उनके अलग-अलग प्रकार के उपयोगों को आधार बनाकर जिस तरह से नरेश सक्सेना ने मनुष्य-समूह को संघर्ष की तैयारी के लिए एक रास्ता सुझाया है वह चकित कर देने वाला एवं प्रभावशाली है। यह संघर्ष के कठोर एवं तपाने वाले मार्ग की ओर किसी को भी सहजता से प्रवृत्त करने के लिए प्रेरित करने वाला है, - ताप की अधिकता से हो जातीं जो नीली और सख़्त/ नींव में जाती हैं वे ही/ ज़रूरत से कम मिलती है आँच जिन्हें/ वे रह जाती हैं पीली और कच्ची/ उन्हें पिसकर बनना होता है सुर्खी (ईंटों को ईंटों से जोड़ने के काम में लगती हैं वे)/ जिन्हें मिलती है आग जरूरत के मुताबिक/ वे हो जाती हैं लाल, कहलाती हैं अव्वल/ और सबसे ज्यादा क़ीमती ऐसी तपी-तपायी ईंटें महाविनाश को भी अतिजीवित करते हुए हमें उसके बाद भी घटित-अघटित की जानकारी देने के लिए बची रहेंगी। उस समय जो भी उम्मीद बाकी बचेगी, वह भी ऐसी ईंटों के रूप में ही बचेगी, - हम तो होंगे नहीं/ पता नहीं पृथ्वी पर जीवन भी होगा या नहीं/ शायद आणविक राख से सनी हुई/ ईंटें ही कहेंगी कथा/ और ईंटें ही सुनेंगी

           किसी भी क्रांति का स्रोत विभिन्न प्रकार की लयों के सम्मिलन में निहित होता है अर्थात विचारों के समन्वय व समेकित विस्फोट पर आधारित होता है, यह बात नरेश सक्सेना ने बखूबी समझी है और उन्होंने इसे अपनी सेतु शीर्षक कविता में इसे बड़े ही अनूठे ढंग से अभिव्यक्त किया है, - शनैः शनैः लय के सम्मोहन में डूब/ सेतु का अन्तर्मन होता है आन्दोलित/ झूमता है सेतु दो स्तम्भों के मध्य और/ यदि उसकी मुक्त दोलन गति मेल खा गयी/ सैनिकों की लय से/ तब तो जैसे सुध-बुध खो, केन्द्र से/ उसके विचलन की सीमाएँ टूटना हो जाती है शुरू/ लय से उन्मत्त/ सेतु की काया करती है नृत्त/ लेफ़्ट राइट, लेफ़्ट राइट, ऊपर नीचे, ऊपर नीचे/ अचानक सहह पर उभरती है हल्की-सी रेख/ और वह भी शुरू करती है मार्च/ लगातार होती हुई गहरी और केन्द्रोन्मुख …… धम्म … धम्म … धम्म … धम्म … धम … धड़ाम/ लय की इस ताक़त को मेरे शत-शत प्रणाम यहाँ सैनिकों के कदमों की समेकित लय से सेतु की लय का मेल हो जाने पर उस विखंडन और क्रांति का जन्म होता है, जिसमें सेतु की रेती, लोहा, चूना, मिट्टी आदि सभी अंश एकाएक शिल्प एवं तकनीकी के बंधन से मुक्त होकर स्वतंत्र दिशा में छूटते हुए एक नवसृजन की ओर बढ़ चलते हैं। निश्चित ही यह कविता एक साथ कई संदेश प्रसारित करती चलती है। सेना जरूरी है, उसके कदमों की लय जरूरी है, लय का सम्मोहनकारी होना जरूरी है, स्वयं की दोलन गति का उस लय से मेल खाना भी जरूरी है, फिर विचलन की सीमाएँ तोड़कर स्वयं अपनी सुध-बुध खोते हुए उस लय के साथ नृत्त करना भी जरूरी है, विखंडन की उभरती हुई रेख का केन्द्रोन्मुख होना भी जरूरी है, तभी हो सकती है एक संपूर्ण क्रांति और वास्तविक मुक्ति। इस कविता के बारे में स्वयं नरेश सक्सेना अपने पूर्वकथन में कहते हैं, यह मात्र लय के भौतिक आघातों की ताकत की बात नहीं है, यह लय के साथ-साथ लय के संगीत यानी दो लयों के एक लय में विलीन होकर अपनी मुक्ति का द्वार खटखटाने का प्रसंग है

           जब वक़्त का तकाजा कुछ कर गुजरने का हो तब सिर्फ बातों में समय बरबाद करना नरेश सक्सेना को गंवारा नहीं। ऐसे में वे कर्मठता को कविता से ज्यादा जरूरी मानते हैं। वे चाहते हैं कि व्यक्ति का अपने कर्म पर स्वयं-नियंत्रण हो और वह अपने विवेक से अपने कर्मों की दिशा का निर्धारण करे। घड़ियाँ कविता की इन पंक्तियों के पीछे उनकी यही अवधारणा दिखती है, - हर घड़ी में एक घुंडी होती है/ जिसे घुमाकर उसका वक़्त/ आगे-पीछे किया जा सकता है/ फ़ौरन पता करिए/ कि आपकी घुंडी किसके हाथों में है/ कविताओं में वक़्त बरबाद मत करिए/ मेरी शक्ल क्या देख रहे हैं,/ अपनी घड़ी देखिए जनाब!जहाँ निष्क्रियता है, वहीं बदहाली है, बेचारगी है। वहाँ सारी सुन्दरता, सारा ऐश्वर्य निरर्थक है तथा शीघ्र प्रभाहीन हो जाने वाला है। इतिहास कविता की इन पंक्तियों में उनके शब्द उनकी सामान्य भाषा से काफी अलग हटकर, बड़ी बेबाकी से उभरे हैं, - कम्पनी की मॉडल के स्तनों पर लगती है फफूँद/ चेहरे पर भिनकती हैं मक्खियाँ।यह दुर्गति इसीलिए है कि कम्पनी की मॉडल का यह सौन्दर्य सिर्फ दिखावटी और बाज़ारू है तथा यह किसी काम का नहीं है।

           सर्वहारा का संघर्ष भी नरेश सक्सेना की कविताओं के केन्द्र में है। इस संदर्भ में भी उनकी कविताओं में अनूठे बिम्ब हैं जो सर्वहारा के शोषण व अत्याचार की ओर बड़े मार्मिक अंदाज़ में हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं और हमें उनके प्रति संवेदना से भर देते हैं व संघर्ष के लिए प्रेरित करते हैं। चीड़ लदे ट्रक पर कविता की, है हत्यारों की भीड़, लदे ट्रक पर/ कितनी चिड़ियों के नीड़/ लदे ट्रक पर!जैसी पंक्तियाँ पेड़ों का विनाश करने वालों को हत्यारों की संज्ञा देती है, क्योंकि वे पेड़ ही नहीं काटते, चिड़ियों का आशियाना भी उजाड़ते हैं। चिड़ियाँ यहाँ सर्वहारा का प्रतीक बन बैठी है। आधा चाँद माँगता है पूरी रात शीर्षक कविता में वे आर्थिक एवं सामाजिक विषमता की शिकार एवं अभावग्रस्त आधी से ज्यादा दुनिया की दशा का दिल को छू लेने वाला वर्णन करते हैं, - आधी पृथ्वी की पूरी रात/ आधी पृथ्वी के हिस्से में आता है/ पूरा सूर्य/ आधे से अधिक/ बहुत अधिक मेरी दुनिया के करोड़ों-करोड़ लोग/ आधे वस्त्रों से ढाँकते हुए पूरा तन/ आधी चादर में फैलाते पूरे पाँव/ आधे भोजन से खींचते पूरी ताक़त/ आधी इच्छा से जीते पूरा जीवन/ आधे इलाज की देते पूरी फीस/ पूरी मृत्यु/ पाते आधी उम्र में।विषमता की त्रासदी को कितने प्रभावशाली ढंग से सामने रखा है नरेश सक्सेना ने इस कविता में। जीवन की विडंबना को पूरी व्यापकता के साथ समेटे हुए है यह कविता। आधी उम्र में ही पूरी मृत्यु पाते हुए आधे से ज्यादा सर्वहारा इनसानों से भरी यह धरती पूर्णस्य पूर्णमिदं गाते रहने के बावजूद वास्तव में कितनी अधूरी है। लेकिन नरेश सक्सेना इस स्थिति से हताश नहीं हैं। वे पूर्णता की प्राप्ति के लिए संघर्ष करने का आह्वान करते हैं। वे सर्वहारा के अधिकारों के लिए आवाज़ उठाते हुए वे बड़ी ताक़त के साथ इसी कविता में कहते हैं, - आधी उम्र, बची आधी उम्र नहीं/ बीती आधी उम्र का बचा पूरा भोजन/ पूरा स्वाद/ पूरी दवा/ पूरी नींद/ पूरा चैन/ पूरा जीवन/ पूरे जीवन का पूरा हिसाब हमें चाहिए …… हम मनुष्य, हम - / आधे चौथाई या उससे भी कम, लेकिन पूरे होने की इच्छा से भरे हम मनुष्य। यहाँ दया की याचना नहीं है, पूरे के पूरे हक को प्राप्त करने की लड़ाई है। बची हूई आधी उम्र के लिए ही हक नहीं माँगा जा रहा, पिछले अभावों की प्रतिपूर्ति की माँग भी की जा रही है यहाँ। यह माँग समस्त मनुष्य-जाति की है, एक-एक आदमी की पूर्णता की है। समष्टि की चिन्ता का यही भाव नरेश सक्सेना को श्रेष्ठतम कवियों की श्रेणी में लाकर खड़ा कर देता है।

            शोषण और अन्याय की त्रासदी का बोध उसका दंश झेल रहे लोगों के बीच जाकर ही होता है। खुशनुमा माहौल में या दूरदराज़ से उसका सही अहसास नहीं हो सकता। इसी की ओर इशारा करने वाली उनकी कविता है, अंतरिक्ष से देखने पर। इसमें, अंतरिक्ष से देखने पर/ पृथ्वी एक चमकदार तारे की तरह दिखाई देती है/ तो फिर पृथ्वी का अंधकार और अत्याचार/ भी शामिल हो जाता होगा उस चमक में जैसी पंक्तियाँ इस विडंबना को बड़े ही प्रभावी ढंग से सामने रखती हैं। यहाँ एक अद्भुत बिम्ब के सहारे प्रगति एवं विकास के चमकदार चेहरे के पीछे छिपी खुरदरी सचाई को बड़ी सहजता से उजागर किया गया है। इस कविता में, याद आता है कि इंडिया शाइनिंग दिखा था जिन्हें/ उन्होंने अपने किसी अंतरिक्ष से ही देखा होगा उसेजैसी व्यंग्य-भरी पंक्तियाँ भी हैं, जो समकालीन भारतीय राजनीति में व्याप्त यथार्थ को झुठलाने वाली प्रवृत्ति की आलोचना करती हैं। नरेश सक्सेना चाहते हैं कि अंतरिक्ष से झूठा सच देखने का यह सिलसिला रुक जाय। वे नज़दीक जाकर यथार्थ को देखने-परखने की सलाह देते हैं। वे चाहते हैं कि लोगों में दुनिया की डरावनी लगने व विचलित कर देने वाली तमाम सच्ची तस्वीरों को देखने की प्रवृत्ति पैदा हो। वे आईना-सा दिखाते हुए ऐसी कुछ बातों को एक-एक कर हमारे सामने रखते हैं। वे बताते हैं जब सच्चाई दिखाई देने लगेगी, तभी हम यह जान पाएँगे कि यहाँ जब भी किसी के चेहरे की रौनक बढ़ती है तो किसी न किसी का हक छीनकर ही बढ़ती है। उनकी कविता साफ-साफ कहती है, - यह भी दिखे कि कुछ चेहरों पर जैसे-जैसे बढ़ती है रोशनी/ वैसे-वैसे बढ़ रहा है/ बाकी बचे चेहरों पर अन्धकार शोषित स्वयं अपनी पीड़ा को व्यक्त नहीं कर पाता। शोषक के चेहरे की चमक या उसके क्रिया-कलापों को देखने से ही हमें शोषण की दास्तान का अवबोध होता है। फूल कुछ नहीं बताएँगे शीर्षक कविता में नरेश सक्सेना ने बड़ी कोमलता व सरसता के साथ शोषक व शोषित के इस अन्तर्संबन्ध को अभिव्यक्त किया है, - कितने फूलों से बनती है क्यारी/ कितनी क्यारियों से एक बगीचा/ और कितने बगीचों से बनती है/ एक शीशी इत्र की/ यह बताएँगे फूलों के व्यापारी/ फूल कुछ नहीं बताएँगे। फूलों की पीड़ा समझने के लिए हमें फूलों के व्यापारियों की हरकतों पर नज़र रखनी होगी, यह संदेश देकर उन्होंने निश्चित ही हमें चीजों को जानने-समझने का एक नया रास्ता सुझाया है।

            नरेश सक्सेना की कविताओं में मनुष्य के विकास की चिन्ता सर्वोपरि है। मनुष्य का विकास तभी संभव है जब उसमें मानवीय चेतना का विकास हो। जब वे मुझे मेरे भीतर छुपी रोशनी दिखाओ शीर्षक कविता में, - दिखाओ मुझे मेरे भीतर छुपी हुई रोशनी/ सूरज जितनी नहीं/ चाँद जितनी नहीं/ सिर्फ एक बल्ब जितनी रोशनी! जैसी बात कहते हैं तो उनका यह दृष्टिकोण भी स्पष्ट हो जाता है कि सीधे-सीधे इस चेतना की सम्पूर्णता को हासिल कर लेना हर किसी के लिए संभव नहीं है, अस्तु, इसके एक छोटे से अंश को आत्मसात कर लेना भी एक बड़ी बात होगी। अतः किसी तरह उतना तो संभव हो। यह चेतना भी एक अंतश्चेतना के रूप में होनी चाहिए, बाहरी दिखावे वाली नहीं। दरवाज़ा कविता में जब वे कवि विनोदकुमार शुक्ल के लिए लिखते हैं, - दरवाज़ा होना तो कब्र से बाहर आने का/ ऐसी कब्र जिसमें किसी को/ ज़िन्दा ही दफ़ना दिया गया हो/ दरवाज़ा होना तो शब्दों का नहीं/ अर्थों का होना …… दरवाज़ा होना तो किसी ऐसे घर का/ जिस पर पड़ने वाली थपकियों से ही/ समझ लेते हों घर के लोग/ कि कौन आया है, परिचित या अपरिचित/ और बिना डरे कहते हों हर बार/ खुला है चले आइए तो वे इसी अंतश्चेतना की महत्ता का उल्लेख कर रहे होते हैं। यही कारण है कि वे शब्दों से ज्यादा महत्वपूर्ण उनके अर्थों को मानते हैं और मनुष्य को अर्थपूर्ण होने का संदेश देते हैं। वे मनुष्य को अपने भीतर परिचित या अपरिचित आगंतुकों को थपकी से ही पहचान लेने वाले दरवाज़े जैसा विवेक उत्पन्न करने का संदेश देते हैं, अर्थात, नीर-क्षीर विवेकी इन्सान बनने की प्रेरणा।  मनुष्य को ऐसा होना चाहिए कि वह गलत विचारों को दूर से भाँप ले और उन्हें पास भी न फटकने दे तथा उत्तम विचारों को सहजता से अपने में समा जाने दे।

           अंतश्चेतना का अभाव मनुष्य-समाज को जड़ बना रहा है। यह जड़ता नरेश सक्सेना के लिए गहरी चिन्ता का विषय है। पहाड़ों के माथे पर बर्फ़ बनकर जमा हुआ, यह कौन से समुद्रों का जल है जो पत्थर बनकर पहाड़ों के साथ रहना चाहता है जैसे लम्बे-चौड़े व अजीबोगरीब शीर्षक वाली अपनी एक आकर्षक कविता में उन्होंने इसी जड़ता की ओर इशारा किया है। चेतना-विहीन मनुष्य आज किसी भी विश्वास के योग्य नहीं बचा है इसकी अभिव्यक्ति इस कविता में देखिए, बारिश शुरू हो गई है, सर, निकल चलिए साथी इंजीनियरों ने कहा,/ बारिश के मौसम में पहाड़ी नदियों का भरोसा नही किया जा सकता/ मनुष्य का भरोसा किस मौसम में किया जा सकता है/ यह उनसे पूछना बेकार था।  चेतना का अभाव मनुष्य को अहंकारी बना देता है। उसकी वैचारिक स्थिरता को समाप्त कर देता। वह अपने प्रस्थान-बिन्दु को भूल जाता है और ऊँची उड़ती उस पतंग जैसा हो जाता है जो बस लगातार हवा में तैरती रहती है और कभी वापस जमीन पर नहीं उतर पाती है। इस प्रवृत्ति की बड़ी अच्छी अभिव्यक्ति की है नरेश सक्सेना ने सीढ़ियाँ कभी ख़त्म नहीं होती कविता में, - सीढ़ियाँ चढ़ते हुए/ जो उतरना भूल जाते हैं/ वे घर नहीं लौट पाते।

दिवंगत पत्नी विजय के लिए लिखी गई तथा संग्रह का शीर्षक बनी कविता सुनो चारुशीला में उनका यह मानवीय-दर्शन चरम पर है, - सुनो चारुशीला! एक रंग और एक रंग मिलकर एक ही रंग होता है/ एक बादल और एक बादल मिलकर एक ही बादल होता है/ एक नदी और एक नदी मिलकर एक ही नदी होती है कहकर वे मनुष्य और मनुष्य के बीच की अंतश्चेतना की एकरूपता व उसके सहजता से एक-दूसरे में संविलीन हो जाने की प्रवृत्ति की ओर संकेत करते हैं। यदि दो मनुष्यों की अंतश्चेतनाओं का सम्मिलन नहीं हो सकता तो फिर कहीं कुछ भी संविलीन नहीं हो सकता। विभिन्न मनुष्यों की चेतनाओं के संविलीन होने से ही एक विशाल मानव-चेतना का जन्म होता है, जिसके सहारे यह दुनिया टिकी रहती है। दो अंतश्चेतनाओं का सम्मिलन ही पूरी सृष्टि में व्याप्त अन्तर्मिलन का कारण बनता है, - क्या कोई बता सकता है/ कि तुम्हारे बिन मेरी एक वसन्त ॠतु कितने फूलों से बन सकती है/ और अगर तुम हो तो क्या मैं बना नहीं सकता/ एक तारे से अपना आकाश।

           स्पष्ट है नरेश सक्सेना किसी बहिरंग चेतना से ज्यादा जन-जन के हित की बात सोचने वाली आत्म-चेतना के कवि हैं। वे नैसर्गिक छवियों, प्राकृतिक घटनाओं, वैज्ञानिक उपपत्तियों आदि के पीछे छिपी मानवीय चेतना का अनुसंधान करते हैं और फिर एक अद्भुत सर्जनात्मक सहजता व कौशल के साथ वे अपने निष्कर्षों को कविताओं की शक्ल में ढाल देते हैं। इसी कारण उनके अधिकांश बिम्ब बड़े ही नैसर्गिक, दैनंदिन जीवन के वातावरण से जुड़े, तथा वैज्ञानिक सिद्धान्तों पर आधारित होते हैं। वे भले ही वर्तमान राजनीति के आख्यानों व आंदोलनों, समाज के पिछड़े व दलित तबकों, स्त्रियों व हाशिये के समाज के लोगों से जुड़े तमाम महत्वपूर्ण मसलों को अपनी कविताओं के माध्यम से सीधे-सीधे न छूते हों, किन्तु अपनी रचनाओं के आन्तरिक प्रवाह में वे इन सारी चिन्ताओं एवं सरोकारों को समेटे हुए नज़र आते हैं। समाज की समस्त विषमताओं व अन्यायकारी प्रवृत्तियों को वे बड़ी मार्मिकता व कोमलता के साथ प्राकृतिक बिम्बों के माध्यम से हमारे सामने उजागर करते हैं और हमारे भीतर एक अद्भुत संवेदना व सकारात्मक चेतना का संचार करते हैं।
  
           अंत में मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचता हूँ कि पेशे तो नरेश सक्सेना इंजीनियर हैं ही, वे निश्चित रूप से विचारों के भी इंजीनियर हैं। उनकी चिन्ताएँ विश्वव्यापी हैं। वे समूची मानव-जाति के सरोकारों की चिन्ता करने वाले कवि हैं। उनके विचारों का फलक व्यापक है। उनकी भाषा सरल व अनूठी है।  वे कविताओं को अपनी काव्य-साधना की भट्ठी में ईंटों की तरह पकाते रहते हैं और जब वे उसमें से पककर बाहर निकलती हैं तो अव्वल ईंटों की तरह ही पक्की व मज़बूत तथा सबसे ज्यादा कीमती होती हैं। कभी-कभी मुझे लगता है कि वे विचारों के इंजीनियर भले ही हों, लेकिन शब्दों को गढ़ने के मामले में वे उस मिस्त्री की तरह हैं जो सूत लटकाकर, एक-एक ईंट को उलट-पलटकर तथा तराश-तराशकर ही गारे पर बैठाता है, ताकि दीवार एक निश्चित आकार ले और कहीं भी कुछ विसंगत या बेडौल न हो। ज़ाहिर है कि उनकी कविताओं में एक इंजीनियर जैसी संरचनागत व भावगत कुशलता के साथ-साथ एक सधे हुए व उत्तम निर्माण की धुन वाले मिस्त्री की कर्मठता के योगदान की भी स्पष्ट छाप दिखाई देती है। मोहि कहाँ विश्राममें विश्वास रखने वाले नरेश सक्सेना अपनी कविताओं की निर्मिति की प्रक्रिया को तो विराम देने से रहे और यह निश्चित ही है कि वे सुनो चारुशीला के आगे भी हमारे लिए अभी बहुत कुछ रचने वाले हैं।
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