आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

Saturday, July 24, 2010

कैसे मान लूँ

"मान लो मित्र कि धरती गोल है।"

"कैसे मान लूँ?
जब कि मैं रोज इसकी सपाट सतह पर मीलों चलता हूँ
इसके समतल खेतों में उपजाता हूँ धान, गेहूँ,
मैं तो उसी को सच मानूँगा न
जो मुझे प्रत्यक्ष दिखता है
क्या सिद्ध कर सकते हो तुम यह बात कि धरती गोल है?"

"हाँ, वैज्ञानिकों ने तो इसे पूरी तरह से सिद्ध कर ही दिया है।"

"अच्छा चलो मान लिया।"

"यह भी मान लो मित्र कि
धरती घूमती है अपनी ही धुरी पर,"

"कैसे मान लूँ?
जब कभी नहीं दिखती यह मुझे हिलती-डुलती
क्या इसका भी कोई प्रमाण है तुम्हारे पास?"

"हाँ, कैसे होते हैं दिन व रात
इसका पता लगाते-लगाते
सिद्ध कर चुके हैं वैज्ञानिक इस बात को भी।"

"अच्छा चलो इसे भी मान लिया।"

"चलो, अब इसे भी सच मान लो मित्र कि
सूरज नहीं लगाता धरती के चारों तरफ चक्कर
बल्कि पृथ्वी ही करती है सूरज की परिक्रमा।"

"यह भी अजीब बात है
एकदम प्रत्यक्ष दिख रहे सत्य के विपरीत,
जब मैं रोज ही देखता हूँ
सूरज को पूरब में उदय होते और
शाम को पश्चिम में जाकर छिप जाते
तो कैसे मान लूँ कि
सच है तुम्हारा ऐसा कहना?"

"मगर ॠतु-परिवर्तन के अध्ययनों ने
सिद्ध ही कर दिया है मित्र कि
लगभग तीन सौ पैंसठ दिनों में
सूर्य के चारों तरफ एक चिपटी कक्षा में
पृथ्वी द्वारा एक चक्कर पू्रा किये जाने के दौरान ही बनता है
धरती पर षट-ॠतुओं का संयोग।"

"अच्छा चलो इसे भी स्वीकार किया।"

"चूँकि तुमने वह सब स्वीकार कर लिया है
जो वैज्ञानिक दृष्टि से सिद्ध हो चुका है अब तक,
अतः अब यह भी मान ही लो मित्र कि
ईश्वर का कोई अस्तित्व नहीं इस धरती पर
वह एक भीरु मन की परिकल्पना मात्र है।"

"क्या इसे भी सिद्ध कर चुके हैं हमारे वैज्ञानिक?
क्या नहीं रहा अब कुछ भी अज्ञात उनके लिये?
क्या उठा चुके हैं वे सारे रहस्यों पर से परदा?
क्या नहीं रही जरूरत अब और किसी गहरे अन्वेषण की इस बारे में?
अगर ऐसा हो चुका है तो बताओ मेरे दोस्त!
मैं तुम्हारी अन्य बातों की तरह
इस पर भी विश्वास कर लूँगा और
मान लूँगा यह बात कि ईश्वर का कोई अस्तित्व नहीं।"

"सच तो वैसे यही है मित्र कि
वैज्ञानिकों ने अभी तक
ईश्वर के अस्तित्व के बारे में
कोई भी पुष्टि नहीं की है।"

"तो फिर मित्र!
ऐसा कुछ सिद्ध हो जाने से पहले
मत छीनों उन लोगों से ईश्वर रूपी सहारे की लाठी
जिनके आँसू सुखाने और
जिनके सीने की आग बुझाने के लिये
विज्ञानी इन्सानों की इस बस्ती से
किसी भी तरह के सहारे की कोई उम्मीद नहीं।“

“मित्र ! जब तक यह सिद्ध न हो जाय कि
ईश्वर का कोई अस्तित्व नहीं
तब तक ऐसे ही संचालित होने दो
दुनिया का समस्त इन्सानी कार्य-व्यवहार,
आस्था और विश्वास की किसी डोर में बंधकर
आखिर तब तक बचे तो रहेंगे हम
इन्सानों को बस एक मशीन भर मानने से और
'ईश्वर अंश जीव अविनाशी' की धारणा के सहारे ही सही
तब तक भरते तो रहेंगे हम
इन्सानियत के खाली होते जा रहे कटोरे में
एक-दूसरे के प्रति कहीं कुछ भरोसा और सहानुभूति,
भले ईशत्व के सहारे अमरत्व पाने की अभिलाषा में ही सही।"

Wednesday, June 23, 2010

मेरी प्रिय शोलयार नदी

आतिरापल्ली के झरने के पास घूमकर जब नदी के किनारे बैठा तो एस एम एस के ड्राफ्ट बोक्स में ये शब्द अपने आप सुरक्षित हो गये:-





























सतत सम्मोहित करती
बहती है वनांतर में
मेरी प्रिय शोलयार नदी,
मानसूनी हवाओं सी सरसराती,
सौन्दर्य की प्रचुरता से निज
करती स्तब्ध स्वयं प्रकृति को
पहाड़ों से उतरती अनवरत हहराती,
टकराती निरन्तर शिलाओं के वक्ष से
फिर भी लजाती-सी
लगातार इठलाती,
ढाँपती निज चिर यौवन यहाँ-वहाँ
सदाबहार वन-लतिकाओं के सुरम्य वल्कल से
मेरे उर-प्रान्गण की सतत प्रवाहिनी,
भरती जाती है नित्य
मेरे इस शिथिल तन में
अपनी अनगिन धाराओं की अनन्त ऊर्जा,
जिनकी उथल-पुथल से उठती है
कल-कल-कल
अविरल,
निश्छल,
प्रतिपल करती विह्वल,
मन करता है
यूँ ही हो तरल धवल,
मैं भी इसके संग बहूँ विकल,
इसके प्रवाह में कुटी-पिसी,
आसक्त शिला-रज सा
लहरों में घुल-मिल कर,
उर के अन्तस में छिप-छिप कर।