आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

Sunday, May 4, 2014

सुनो, सुनो, सुनो! (2013)

सुनो, सुनो, सुनो!

पैदा हुए उन्नीस बोरे धान
मन में सज गए हज़ारों अरमान
लेकिन निर्मम था मण्डी का विधान
ऊपर था खुला आसमान
नीचे फटी कथरी में किसान
रहा कई दिनों तक परेशान
फिर भी नहीं बेंच पाया धान
भूखे - प्यासे गयी जान
सुनो यह दु:ख - भरी दास्तान!
सुनो कि इस देश में कैसे मरता है किसान!

मेरे देश के हुक़्मरानो!
यहाँ के आला अफ़सरानो!
गाँवों और किसानों के नुमाइन्दो!
चावल के स्वाद पर इतराने वाले
छोटे - बड़े शहरों के वाशिन्दो!
सुनो, सुनो, सुनो!
ध्यान लगाकर सुनो!
चावल की चाँदी काटने वाले
व्यापारियों और निर्यातकों तुम भी सुनो!
इस कृषि - प्रधान देश का यह दु:खद आख्यान सुनो!
कि पिछले महीने ओडिशा के कालाहांडी जिले की
मुंडरगुडा मंडी के खुले शेड में
सरकारी खरीदी के इंतज़ार में
भूखे - प्यासे अपने धान के बोरों की रखवाली करने को मजबूर
कर्ली गाँव का नबी दुर्गा
कैसे मर गया बेमौत
सुनो, सुनो, सुनो!

लेकिन रुको और गौर से सुनो नेपथ्य की यह आवाज़ भी
कि नबी दुर्गा वास्तव में मरा नहीं मारा गया
सच को स्वीकारने की इच्छा है तो सुनो!
सुनो कि मंडी में पेय - जल की व्यवस्था के अभाव में
पीने का पाने खोजते - खोजते
मंडी के पड़ोस वाले घर तक पहुँचकर भी
वह प्यास से तड़पकर मर गया यह केवल आधा सच है
पूरा सच तो यही है कि बड़ी बेदर्दी से उसे मार डाला
हमारी गैर - संवेदनशील व्यवस्था ने
मेरी और आप सबकी निर्मम निस्संगता ने।  

यह देश की किसी मंडी के आढ़तियों और व्यापारियों द्वारा
मंडी के संचालकों के साथ साठ - गाँठ कर
किसानों के अरमानों का ख़ून किए जाने का
कोई इकलौता ज़ुर्म नहीं था

यह धान के बोरों को
बारिश व चोरों के कहर से बचाने की
देश के किसी अकेले किसान की जद्दोज़हद नहीं थी

यह सार्वजनिक वितरण - प्रणाली के तहत
बाँटने के लिए दिए जाने वाले सस्ते धान्य के
गरीबों के पेट तक पहुँचने के पहले ही
उसे हड़पकर फिर से फर्ज़ी किसानों के नाम
मंडी की आवक में दर्ज़ करा देने की कालाबाज़ारी में लिप्त
गल्ला खरीदने वाली सरकारी एजेन्सियों की नाकामी की
कोई अपवाद घटना नहीं थी

यह महानगरों में हज़ारों करोड़ रुपयों के पुल बनाने वाले इस देश में
बिना किसी शेड के संचालित कोई इकलौती मंडी नहीं थी
यह पेशाबघर, खान - पान और पेय - जल की सुविधाओं के बिना ही स्थापित
देश का कोई अकेला सरकारी सेवा - केन्द्र नहीं था
यह कोई अकेला वाकया नहीं था भारत का
जिसमें किसी सार्वजनिक जगह पर
अपने माल - असबाब की रखवाली करते-करते
भूख और प्यास से तड़पकर मर गया हो कोई इन्सान

नबी दुर्गा की मौत तो बस उसी तरह की लाचारी के माहौल में हुई
जिसमें इस देश में रोज़ बेमौत मरते हैं हज़ारों बदकिस्मत किसान।

उस दिन भूख - प्यास से न मरा होता तो
शायद सरकारी खरीदारों के निकम्मेपन के चलते
पानी बरसते ही धान के भीगकर सड़ जाने पर मर जाता नबी दुर्गा
या शायद तब,
जब खरीद के बाद उसके हाथ में थमा दिए जाते
उन्नीस के बजाय बस पन्द्रह बोरे धान के दाम
या फिर तब,
जब उसे एक हाथ से उन्नीस बोरे धान की कीमत का चेक देकर
दूसरे हाथ से वापस रखा लिया जाता
बीस फीसदी नकदी वापस निकाले जाने का चेक
यदि नबी दुर्गा न भी मरा होता मंडी में उस दिन
और उसके साथ बिना बिके ही वापस लौट आए होते उसके धान के बोरे
तो शायद पूरा परिवार ही पीने के लिए मजबूर हो गया होता
खेत में छिड़कने के लिए उधार में लाकर रखी गई कीटनाशिनी।

सुनो, सुनो, सुनो!
यह दु:ख-भरी दास्तान सुनो!

ओडिशा की ही नहीं,
झारखंड, आंध्र प्रदेश, बंगाल, असम, बिहार और उत्तर प्रदेश के
लाखों - लाख नबी दुर्गाओं की यह दु:ख - भरी दास्तान सुनो!

पानी से भरे खेतों में खड़ी दोपहरी
कतारों में कमर झुकाए धान की रोपाई करती औरतों के
गायन के पीछे छिपी कंठ की आर्द्रता को सुनो!

हमारा पेट भरने को आतुर दानों से लदी
हवा में सम्मोहक खुशबू घोलती
धान की झुकी हुई बालियों की विनम्र सरसराहट को सुनो!

काट - पीटकर सुखाए गए दानों को बोरों में भर-भरकर
ब्याही गई बेटी को विदा किए जाने के वक़्त से भी ज्यादा दु:खी मन से
मंडी में बेंचने के लिए ले जाते हुए किसानों के मन की व्यथा को सुनो!

धान के बिकने का इंतज़ार करती
बिस्तर से लगी किसान की बूढ़ी बीमार माँ की
प्रतीक्षा के अस्फुट स्वर को सुनो!

पैरों में चाँदी की नई पायलें पहनने को आतुर
किसान की पत्नी के मन में गूँजती रुन - झुन को सुनो!
महीनों से नया सलवार - सूट पहनने की आश लगाए बैठी
उसकी बेटी के दिल की हुलकार को सुनो!

चलो, अब पूरी संजीदगी से इन नबी दुर्गाओं से क्षमा माँगते हुए
और इस देश के किसी किसान को नबी दुर्गा न बनना पड़े
इसकी व्यवस्था सुनिश्चित कराने की लड़ाई लड़ने का संकल्प लेते हुए

इस दु:ख - भरी दास्तान को बार-बार सुनो!

ऊसर जमीन (2013)

(1)

धरती पर जिसको भी
जहाँ भी मिली कोई उर्वर जमीन
वहीं पर ही बो दी उसने
अपने - अपने स्वार्थ की फसल
कहाँ बोऊँ अब मैं
उगने को आतुर
लोगों की उम्मीदों के
बुआई से वंचित बीज?

एक ही रास्ता बचा है अब कि
फिर से उपजाऊ बनाया जाय
किसी बेकार पड़ी ऊसर जमीन को
और बो दिए जाएँ उसमें
समय की भूख मिटाने वाली
नई किस्म की फसलों के बीज।

(2)

यह जो हरा - भरा उपजाऊ खेत
आज ऊसर में तब्दील हो गया है,
जरूर सींचा होगा इसे साल दर साल
किसी गरीब मजदूर ने
खाली पेट अपने पसीने से
और इत्र से नहाया होगा रोज़
इसका निठल्ला जमींदार,
जरूर बरसों सोई होगी
रेशमी चादर बिछाकर घर की मालकिन
रोज़ शाम उस मजदूर की बीबी से
अपने बेकारी से थके नितंबों को दबवाती हुई,
जरूर लगा होगा इस खेत को उनका शाप
जो बरसों से इसे जोतते, बोते, सींचते, गोड़ते और काटते हुए भी
अपने किसान होने का दावा भी नहीं कर सकते
गल्ले के किसी सरकारी खरीद - केन्द्र पर।

(3)

फसल लहलहाने की आशा नहीं की जा सकती
यदि मिट्टी के सीने पर नमक की जकड़न हो
ऊपर से चाहे जितनी तरलता दी जाय उसे
और चाहे उसमें डाली जाय
कितने भी पोषक तत्वों से भरी खाद
सब कुछ व्यर्थ ही हो जाएगा।

उपाय तो एक ही है बस
चीरा जाय धरती का सीना
गलाया जाय बरसों का जमा नमक
और बहाकर दूर ले जाया जाय उसे नालियों के सहारे
जैसे गुरदे बहा देते हैं खींचकर
शरीर का सारा अपशिष्ट मूत्र की शक्ल में।

जरूरी है अब कि मुक्त किया जाय मिट्टी को
इस खारेपन की त्रासदी से
ताकि उम्मीद की जा सके कि
धरती पर फिर से लहलहा सकती है
समय की भूख मिटाने वाली
नई किस्म की मनचाही फसल।

(4)

समय का खारापन सिमट आने पर
मन का खेत भी हो जाता है ऊसर
और फिर नहीं लहलहाती उसमें
विचारों की कोई भी पोषक फसल।

(5)

मस्तिष्क में पैदा हुआ ऊसरपन भी
दूर किया जा सकता है
थोड़े से तेजाबी विचारों का घोल
धीरे - धीरे पेवस्त कर
जड़ता की अभेद्य परत में छिपी
सिकुड़ी - सूखी शिराओं में।

(6)

पृथ्वी की उत्पत्ति भले ही अभी भी एक रहस्य हो
किन्तु ऊसर की उत्पत्ति के बारे में कुछ भी रहस्यमय नहीं
धरती पर रेगिस्तान भले ही बनते हों जलवायु - परिवर्तनों से
लेकिन ऊसर जमीन तो पैदा होती है
उर्वर व सिंचित प्रदेशों में ही।

गहरा नाता होता है ऊसर भूमि का
अतीत में किए गए उसकी उर्वरता के दोहन से
गनीमत यही है कि
स्थायी नहीं होती धरती की यह अक्षमता
उपचारित किए जाने पर कभी भी बन सकती है

कोई भी ऊसर भूमि उपजाऊ।

लक्ष्मण - रेखाएँ (2013)

जो हमेशा अपनी हद में रहता है
वह प्रायः सुरक्षित बना रहता है
लेकिन इतिहास का पन्ना नहीं बन पाता कभी भी
जो हदें पार करने को तत्पर रहता है
उसी के लिए खींची जाती हैं लक्ष्मण - रेखाएँ
जो वर्जना को दरकिनार कर लाँघता है ये रेखाएँ
वही पाता है जगह प्रायः इतिहास के पन्नों पर।

इस देश में ऐसे महापुरुषों की कमी नहीं
जो नारियों को मानकर अबला
रोज़ खींचते हैं उनके चारों ओर लक्ष्मण - रेखाएँ
लेकिन फिर भी कुछ सीताएँ हैं कि मानती ही नहीं
वे युगों पुरानी त्रासदी को भूल
किसी भी वेश में आए रावण की परवाह किए बिना
लाँघती ही रहती हैं निर्भयता से
इन पुरुष-खचित इन रेखाओं को
और  दर्ज़ होती रहती हैं इतिहास के पन्नों में 
मीराबाई, अहिल्याबाई, लक्ष्मीबाई
या फिर यूसुफजाई मलाला और दामिनी (निर्भया) बनकर।

शिकारी (2013)

- अभी मिली है
एक अबोध बच्ची की क्षत - विक्षत लाश
मोहल्ले के नुक्कड़ पर रखे कचरे के डम्पर के पास,
अभी - अभी फेंकी गई है एक युवती की लहू - लुहान देह
किसी लम्बी - ऊँची दौड़ती हुई कार से सड़क के किनारे,
अभी - अभी तेजाब फेंककर जला दिया गया है
भरे बाज़ार के बीच एक सुन्दर लड़की के चेहरे को,
अभी - अभी अस्पताल ले जाया गया है एक नवागत बहू का
रसोई में सिर से पाँव तक झुलस गया शरीर,
अभी - अभी गन्ने के खेतों में देह की खाल छिलवाते हुए भागी है
दरिदों के चंगुल से बचकर एक अपहृत स्त्री,
अभी - अभी सरसों के खेत के बीच बेसुध पड़ी मिली है
अतिशय रक्त - स्राव से पीली पड़ी हरिजन - बस्ती की एक औरत,
अभी - अभी मानों हर संभव बर्बरता टूट पड़ी है
देश भर में नारी जाति के ऊपर,
क्या यह वही भारत देश है
जहाँ कुँवारी कन्याओं की पूजा कर
उन्हें जिमाया जाता है पर्व - त्योहारों पर
और स्त्री को संग लेकर बैठे बिना
पूरा नहीं होता कोई भी अनुष्ठान - यज्ञ?

काँपते नहीं तुम्हारे हाथ क्या?
लड़खड़ाते नहीं तुम्हारे पैर भी?
धिक्कारता नहीं विवेक भी किञ्चित?
यह कैसी कामांधता है?
जो सारे संस्कारों, सामाजिक मान्यताओं को ताख पर रखकर
विवश कर देती है तुम्हें करने को बलात्कार
वीभत्सता की पराकाष्ठा के साथ
नवयौवनाएँ ही नहीं
किशोरियाँ और मासूम बच्चियाँ तक बनती हैं तुम्हारा शिकार
इतनी निर्ममता और क्रूरता
कहाँ से आकर समा जाती है
तुम्हारी आँखों में शिकारी!

जरूर बह रहा होगा तुम्हारी धमनियों में
रक्त - शिराओं से पलटकर बहता गंदा ख़ून,
जरूर भरा होगा तुम्हारे मस्तिष्क में
अतीत में सँजोए गए तमाम कुत्सित विचारों का मलबा,
जरूर तुम्हारे फेफड़ों ने घोली होगी रक्त में वह प्राणवायु
जो समेटी होगी तुमने अपनी साँसों में
किसी विषाक्त फलों वाले वृक्ष के नीचे बैठ - बैठकर,
जरूर तुम्हारे गुर्दे बन्द कर चुके होंगे
देह में प्रवाहित हो रही मलिनता को उत्सर्जित करना,
जरूर तुम्हारे भीतर कहीं न कहीं संरक्षित होगी अभी भी
मनुष्य के विकास - क्रम की लम्बी परम्परा की
कोई न कोई आदिम प्रवृत्ति,
इसीलिए तुम उद्यत रहते हो हर वक्त
करने को ऐसा पशुवत आचरण
और नहीं बाँधना चाहते अपने पुंसत्व को
मानवीय मान्यताओं के अनुरूप
समाज में स्थापित किसी नियम - संयम से,
तुम्हारी भूखी देह और विकृत दिमाग के लिए
किसी भी उम्र की कैसी भी स्त्री की देह बस एक शिकार है
और तुम उसे एकान्त में देखते ही टूट पड़ते हो उस पर
नरभक्षी शेर से भी ज्यादा ख़तरनाक तरीके से।

कल तक वक्त भले तुम्हारे साथ रहा होगा शिकारी!
लेकिन वक्त हमेशा किसी के साथ नहीं रहता
आज हवाओं का रुख तुम्हारे ख़िलाफ़ है
अब गलत इरादे से बढ़े तुम्हारे हर हाथ को
हज़ारों तीखे दंश झेलने ही पड़ेंगे चारों तरफ से
अब तुम्हारे किसी भी बहके हुए कदम को
आतंक के पद - चिन्ह छोड़ने के लिए नहीं मिलेगा एक भी ठौर
अब पूरी निशानदेही होगी तुम्हारी चप्पे - चप्पे पर
और हर गली - कूचे में कड़ी निगरानी होगी तुम्हारी हिस्ट्री - शीटरों की तरह।

शिकारी, क्या मेरे भीतर ही छिपे हो तुम?
इसीलिए मेरे लिए तुम्हें अलग से पहचानना भी हो रहा है मुश्किल
और तुम्हारा ख़ात्मा करना लग रहा है
आत्महत्या करने जैसा ही कठिन?
लेकिन आजकल अँधेरे में खूब जलने लगी हैं मोमबत्तियाँ
तुम्हें अब किसी भी अँधेरे कोने में छिपने नहीं दिया जाएगा
शिकारी, अब तो तुम्हारी अरथी के बाँस भी कट चुके हैं

और तुम्हारी चिता की लकड़ियाँ भी इकट्ठा की जा चुकी हैं श्मशान में।