आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

Saturday, May 3, 2014

नव - निर्माण (1982)

वर्षों तक मैं अपने घर को
सजाता - संवारता रहा
दीवारों पर रंग किया
छत की दरारें ढँकीं
और उसे बार - बार
वर्षा, गरमी तथा ओले सहने योग्य बनाता रहा
किन्तु देखते ही देखते
एक दिन ऐसी आग लगी उसमें
कि तिनका - तिनका जल गया
दीवारें लाल हो उठीं
पूरा का पूरा घर सुलगा।

भरी - भरी आँखों से मैंने
आग बुझाने की कोशिश की
थके - थके पाँवों से
आंगन की राख बुहारता रहा
दीवारों की कालिख पोंछी
छत की दरारें बंद कीं
और फिर से अपनी दुनिया सँवारने के लिए
सारे घर को लीपा - पोता
मैंने समझा कि मेरा संसार शायद फिर से बस गया।

पर वास्‍तव में ऐसा था नहीं
अबकी बार
भूकंप का एक ही हल्‍का धक्‍का लगा
तो दीवारों समेत
सारा घर ही ध्वस्त हो गया
मैंने अपने को धिक्कारा - कोसा
कि मैं क्यों नहीं समझ पाया
जली हुई दीवारों की शक्तिहीनता को
मैंने क्यों नहीं पहचाना
भीतर ही भीतर से खोखले हो चुके
जले हुए घर की अस्तित्वहीनता को
होकर भी न होने के बराबर थी
घर की छत
जो एक ही धक्के में गिर गई
मैं व्यर्थ ही क्यों उसके नीचे
गुजारता रहा इतने दिन?

इस बार मैंने तय कर लिया
कि और गलतियाँ नहीं होंगी मुझसे
अब जहाँ - जहाँ दिखेंगी दरारें
वहाँ - वहाँ किसी को बसने नहीं दूँगा
जो कुछ भी, जहाँ भी, कमज़ोर होगा
वह सब एक ही झटके में मिटा दूँगा
अब जरा - सा भी विश्वास नहीं करूँगा
चारों तरफ से मिलने वाली झूठी आशाओं पर
अबकी बार अपने मजबूत हाथों से
ऐसा नव - निर्माण करूँगा
जिसमें फौलाद - सी दृढ़ता होगी

और श्रेष्ठता का पूर्ण विश्वास।

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