आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

Sunday, May 4, 2014

पिताजी (2010)

पिताजी अभी - अभी तो
बैठे थे यहीं तखत पर
प्रातःक्रियाओं से निवृत्त होकर
ध्यान - मुद्रा में
भूत और भविष्य दोनों को
वर्तमान में विलीन करते हुये
अपनी भौतिक अनुपस्थिति को सर्वथा झुठलाते हुये।

पिताजी अक्सर चले आते हैं
स्मृतियों से अटे पड़े दरवाजे पर
यूँ ही बरसों पुरानी बातें दुहराते हुये
कभी रंगों में सराबोर होली के फाग गाते
कभी दंड - बैठक पेल, मुद्गल भाँजते
कभी क्यारियों में फूलों की पौध लगाते
उन पर सुबह - शाम पानी दँवारते
कभी लाठी उठाकर बगीचे से आवारा जानवर भगाते
कभी हाथ में डंडा दबाकर खेतों के चक्कर लगाते
कभी गाँव के शैतान बच्चों को
अच्छी कबड्डी खेलने के गुर सिखाते
कभी देश - विदेश के अहम मसलों पर
बहस - महावसों के अंबार लगाते।

वैसे तो काम - काज करना
नियति में नहीं था पिताजी की,
हमारे लिये सपनों जैसे ही थे वे दिन
जब अम्मा की बीमारी के चलते
पिताजी ही सुलगाते थे चूल्हे की लकड़ियाँ
उबालते थे दाल और सेंकते थे रोटियाँ
लाते थे लादकर क़स्बे से
हमारे लिये थैले में सब्जियाँ व घरेलू सामान
मंगाकर उस साप्ताहिक बाजार से
जहाँ आत्मसम्मानवश
कदम भी नहीं रखा था उन्होंने कभी भी,
हमें दशहरे का रावण - दहन दिखाने के समय भी,
उनके थैले से निकली जलेबियाँ
खाकर खुश हो जाने वाले हम
खेल - कूदकर थक जाने पर
अक्सर लेट जाते थे जाकर
चारपाई पर लेटे पिताजी की तोंद को तकिया बनाकर,
वक़्त के थपेड़ों में
हमारी यादों की खिड़की से
अभी भी फिसला नहीं है बचपन और
पिताजी की वह मोहक मुस्कान।

मुझे हमेशा यही लगता है कि
पिताजी वहीं तो लेटे हैं
शाम के धुंधलके में
बिस्तर के कोने में दबे ट्रांजिस्टर पर
चल रहे कविता - पाठ का आस्वादन करते हुये
सो जाने की प्रतीक्षा में रजाई में पैर दुबकाते।

पिताजी आज भी कभी - कभी ढूँढे मिल जाते हैं
उन फटी - पुरानी बहुमूल्य किताबों के बीच
जिन्हें उन्होंने पढ़ - पढ़ कर
बरसों तक संभाल कर रखा था,
सनेही जी की 'सुकवि' पत्रिका के उन पुराने पन्नों के बीच
जिनमें छपे थे उनके समकालीन सरोकारों वाले छंद,
कविताई के शौक से भरे उन कागज़ों के बीच भी
जिन पर अक्सर अंकित करते रहते थे वे
अपनी अन्तरात्मा की भावनाएँ।

पिताजी की इच्छा - शक्ति व लगन का
सतत साक्षी बना दरवाजे का हैन्डपंप
जब भी चलाया जाता है हमारे द्वारा
'खट - खट - खट' कर पानी उड़ेलते हुये
वे आज भी नज़र आ जाते हैं
सामने खिली फूलों की क्यारियों में मंडराती
रंग - बिरंगी तितलियों के बीच
चबूतरे पर स्थापित शंकर जी की बटिया के ऊपर
अपनी सारी संचित तरलता अर्पित करते हुये।

3 comments:

  1. Sir pranam. Aaj Banthara se gujara to badhi shiddat se aap manas patal per cha gai. ....aur ab pita par yah rachana .... abhibhoot hun main.

    ReplyDelete
  2. Sir pranam. Aaj Banthara se gujara to badhi shiddat se aap manas patal per cha gai. ....aur ab pita par yah rachana .... abhibhoot hun main.

    ReplyDelete
    Replies
    1. Dhanyavad Ambarish! Pitaji ki sahaj smruti kara deti hai yah kavita mujhe ... Ummeed hai aap sab log saanand hain ...

      Delete