आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

Wednesday, July 23, 2014

थूक देने का समय

मनुष्य के चेहरे में छिपी
बदले की भावना की क्रूरता
पहचाननी है तो
किसी मिथकीय राक्षस का बिंब गढ़ने की कोई जरूरत नहीं
इसका सबसे उत्कृष्ट मॉडल
सजाया गया है तेल अवीव में ऊँचे सिंहासन पर
मानवाधिकारों के वैश्विक रखवालों द्वारा
गाज़ा की माताओं और बच्चों के ख़ून से अभिषेक करके
इस बात से तनिक भी शर्मिन्दा हुए बिना
कि वह शहर बस थोड़ी ही दूर पर स्थित है
शांति के मसीहा जीसस के जन्म - स्थान से

मासूमों के ख़ून से सींचकर
किसी भी ज़मीन पर नहीं की जा सकती गुलाब के फूलों की खेती
कहीं नहीं सजाए जा सकते अंगूर की लताओं के उद्यान
ख़ून से नहलायी गई धरती में
उपजती है बस घृणा की ही फसल
उसके भीतर दहकता है बस एक लावा
उसमें आँसुओं के सैलाब को घेर - सुखाकर बनाया जा सकता है
बस ढेर सारा नमक
और उस नमक को छिड़ककर ताजी की जा सकती है
बस किसी क़ौम के नए - पुराने घावों की टीस
भला ख़ून के पीने से बुझी है आज तक किसी की भी प्यास!

मुमकिन है कि
शांतिप्रिय कबूतरों के बसेरों में
छिपे हों कुछ आतंकी बाज भी
जिनके हमलों से लहूलुहान हुआ हो
क्रूरता का राज - सिंहासन भी
किन्तु बाज़ों से बदला लेने के गुस्से में
कबूतरों के बसेरों को ही तहस - नहस कर देना
अव्वल दर्ज़े की अमानवीयता है
इसकी सजा तो आने वाले समय का इतिहास ही तय करेगा
आज तो हमारे सामने बस रचा जा रहा है
बदले की मानसिकता का एक नया इतिहास
क्योंकि विश्व के सारे क्रूर चेहरे
बाज़ों का दोष कबूतरों के सिर पर मढ़ने की साज़िश में एकजुट हो गए हैं
वे हमलावर की निन्दा तक करने को तैयार नहीं
वह ताक़त से भरा और निर्द्वन्द्व है
उसकी क्रूरता की यही पहचान है कि
उसके माथे पर कबूतरों के ख़ून का तिलक लगा है।

यह प्रार्थना का समय है
नाज़ी - इतिहास को भूलकर
किसी सिनागॉग में बैठकर रोने का समय है
और यदि फिर भी मन न माने तो सारे ख़तरे उठाकर
यह दुनिया के क्रूर चेहरों पर
जोर से खखारकर थूक देने का समय है।

3 comments:

  1. सामयिक और परिपक्व रचना। यह थूक देने का ही समय है।

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  2. थूकना जरूरी है,एसों पर.

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  3. बहुत सुंदर सर

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