आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

Tuesday, September 23, 2014

ख़तरे की आहट

मुझे बहुत ही अजीब लगता है
जब अचानक ही एक दिन कोई आदमी
मुझसे अपना सुर बदलकर बात करने लगता है

किसी का सुर बदल जाने पर
मुझे कुछ वैसा ही लगता है
कि जैसे सूखे मौसम में अचानक ही
हवा का रुख बदल जाने पर
फालतू में लगता है कि ज़ोरदार बारिश होगी
कभी लगता है कि तूफ़ान आएगा
कभी बर्फ़ीली हवा भी तासीर बदल जाने पर
चुभने लगती है शरीर में ठीक लू की तरह

किसी के भाँति - भाँति के सुर
मुझे तब तक नहीं डराते
जब तक मैं ठीक से भाँपता रहता हूँ
उनमें छिपा प्यार, नफ़रत, दोस्ती और घृणा
लेकिन मैं एकदम से घबरा जाता हूँ
जब नहीं फर्क़ कर पाता
किसी के शब्दों में छिपी हिंसा और हमदर्दी में
जब नहीं भेद कर पाता
उनके वक़्त के साथ बदल जाने वाले अर्थों को

मुझे अपने ही घर के संदर्भ में
बाहर के लोगों के साथ बोली जाने वाली
कूटनीतिक भाषा से बड़ा डर लगता है

मुझे उस वक़्त
एक बहुत बड़े ख़तरे की आहट सुनाई पड़ती है
जब हमेशा कड़क भाषा बोलने वाला कोई आदमी
अचानक ही एक दिन मीठे - मीठे सुरों में
अतीत की सारी भयावहता को भूल जाने का संदेश देता हुआ
मुझे मेरे ही सपनों का अर्थ समझाने की कोशिश करता है।

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