आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Wednesday, September 16, 2015

ऐलान कुर्दी का आखिरी बयान

समुद्र - तट की गीली रेत पर
खामोश लेटे मासूम ऐलान कुर्दी की तस्वीर
साफ़ - साफ़ बयां कर रही है कि
यह दुनिया कितनी तंगदिल है
और हद दर्ज़े की बेरहम भी।

गोया कि यह दुनिया अब
एक ख़ौफ़नाक आग बन चुकी है
जो रोटी पकाती नहीं, सिर्फ़ जलाती है
या कभी पिघलने वाली बर्फ़ बन चुकी है
जो इंसानियत को बचाती नहीं, जमा देती है।

यहाँ मजबूर हैं बच्चे - बूढ़े
देश और नागरिकता के नाम पर
समुद्र में डूबकर मरने के लिए
किसी को अहसास भी नहीं हो रहा
कि उन्हें शरण देने की मनाही कर
यह दुनिया पहले ही मर चुकी है
चुल्लू भर पानी में डूबकर।

ऐलान तो वैसे ही निकला होगा घर से
प्यार से माँ की उँगली थामे
जैसे बच्चे जाते हैं मेला घूमने
उसे नहीं पता रहा होगा कि
उसके माँ - बाप भाग रहे थे
अपनी और उसकी जान बचाने के लिए
छोड़कर अपना घर, शहर, देश, सर्वस्व।

ऐलान तो वैसे ही बिछड़ा होगा नाव पर
और फिसली होगी माँ की पकड़ से उसकी बाँह
जैसे बच्चे अक्सर बिछुड़ जाते हैं मेले में
काश, वह फिर से कहीं मिल जाता
मेले में भटके किसी बच्चे की तरह
और स्वार्थ में एक - दूसरे का घर जलाती यह दुनिया
बच जाती उस मासूम की हत्या के आरोप से।

अरे बेशरमो!
अरे बेरहमो!
अरे मासूमों के क़ातिलो!
अरे हैवानियत के कारोबारियो!
अरे लड़ने - लड़ाने के शौकीनो!
अरे लाशों के किलों पर फ़तह का परचम लहराने वालो!
तुम धरती पर चारों तरफ फैले ताजा ख़ून की चमक को देखो!
काला सागर में तैरती जली हुई बस्तियों की राख को देखो!
बमों से ज़मीदोज़ की गई ऐतिहासिक धरोहरों के गर्दो - गुब्बार को देखो!
देखो - देखो, तुम समय के चेहरे पर घोंपी गई संगीनों के घावों को गौर से देखो!

अरे बहरो!
तुम हवा में गूँज रही माताओं, बहनों, बच्चियों की सिसकियों को सुनो!
समुद्री रेत के कान में मुँह सटाकर
अपनी पीड़ा का हवाला दे रहे ऐलान कुर्दी के आखिरी बयान को सुनो!
यह अंतिम मौका है तुम्हारे लिए पश्चाताप करने का
इसलिए हतप्रभ दुनिया की इस चीखो - पुकार को तुम बड़े ही ध्यान से सुनो!

मुझे अभी भी पूरी उम्मीद है कि
युद्धोन्माद में भटकते हुए
तुम एक एक दिन
इस खूबसूरत दुनिया के किसी फूल की मुस्कान से डर जाओगे
और अपने ख़तरनाक हथियारों को

किसी दिन ईद के चाँद के बांकपन के हवाले कर दोगे!

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