आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Tuesday, October 20, 2015

प्रेम के दोहे

कली - कली में प्रेम की नव सुगन्ध का वास।
भँवरों की उत्तेजना उन्हें न आए रास।।   

खुशबू मन को भा गई, उमड़ा प्रेम - प्रवाह।
ना भाई तो मसलकर फेंका चलती राह।।

प्रेम तुरंता आजकल चलते - फिरते होय।
'गुड माॅर्निंग' 'क्रश' का 'ब्रेकअप' 'गुड नाइट' संग होय।।

मन की माटी की नमी भीतर जब रिस जाय।
नेहांकुर उपजे, बढ़े, प्रेम - बीज मुसकाय।।  

जब बरसे, मन द्रवित हो, ज्योति बिखेरे रंग।
प्रेम - क्षितिज सजने लगे इन्द्रधनुष के संग।।

समय - समय पर बदलता प्रेम - नदी का रूप।
उफनाए  बरसात  में,  सूखे  पाकर  धूप।।

प्रेम - समुद्र विशालतम लहरें उठें अनंत।
इसे कर सके पार जो वो ही साँचा संत।।

प्रेम - विटप कुचियाय जब, मन आनन्द समाय।
जीवन का आतप मिटे, नित बसन्त मुसकाय।।

प्रेम विशुद्ध विकार है, दिव्य प्रेम का भाव।
जो इससे वंचित रहा, जीवन दिया गंवाय।।

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