आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Saturday, July 25, 2015

अंग्रेज़ी के आगे सिसकती भारतीय भाषाएँ (लेख)



दुनिया में शायद ही भारत जैसा कोई देश होगा जिसकी अपनी एक भाषा संवैधानिक तौर पर देश की राजभाषा घोषित हो और विभिन्न प्रांतीय भाषाएँ राज्यों की राजभाषाओं के तौर पर प्रावधानित हों, लेकिन उसका सामान्य सरकारी काम-काज किसी विदेशी भाषा में होता हो. वह भी ऐसी भाषा जिसको जानने वाली जनता देश में 15-20 प्रतिशत से ज्यादा न हो. राज्यों की अपनी राजभाषाओं का भी कमोवेश यही हाल है, किंतु मातृ-भाषा के प्रति प्रेम का स्तर भिन्न होने से वहाँ स्थितियाँ थोड़ी-सी बेहतर है. एक बहुभाषी देश में विभिन्न भाषाओं की अस्मिता की लड़ाई में सारी की सारी भाषाओं की कैसी छीछालेदर होती है, उसका उत्तम उदाहरण है भारत में हिंदी व विभिन्न राज्यों की राजभाषाओं की स्थिति. अंग्रेज़ी दिन पर दिन भारतीय भाषाओं पर हावी होती जा रही है. सरकारी काम-काज में ही नहीं, व्यावसायिक, व्यापारिक व सामाजिक गतिविधियों में भी. ‌नई पीढ़ी को अब अंग्रेज़ी में ही अपना भविष्य नज़र आता है. कोई भी प्रदेश हो, कोई भी मातृभाषा हो, सारे माँ-बाप अपने बच्चों को अंग्रेज़ी मीडियम में ही पढ़ाना-लिखाना चाहते हैं. यह अच्छी बात है कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 350 के तहत भारत के प्रत्येक नागरिक को अपनी किसी भी व्यथा या शिकायत के निवारण के लिए संघ या राज्य के किसी भी अधिकारी अथवा प्राधिकारी को संबंधित भाषा में प्रत्यावेदन देने का अधिकार प्राप्त है. लेकिन क्या उसे यह संवैधानिक अधिकार भी नहीं मिलना चाहिए कि उसे अपने प्रत्यावेदन का जवाब या अन्य सरकारी जानकारियाँ भी उसी भाषा में ही मिलें?

            स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद जब वर्ष 1963 में राजभाषा अधिनियम के माध्यम से अंग्रेज़ी को पूरी तरह से हटाने का प्रावधान किया गया तब तमिलनाडु में जबर्दस्त हिंदी-विरोधी आंदोलन छिड़ गया. बाद में तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जी द्वारा उक्त अधिनियम में संशोधन करके अंग्रेज़ी को भी भारत की राजभाषा बनाए रखने का आश्वासन देने पर ही मामला शांत हुआ. बाद में राजभाषा अधिनियम में संशोधन करके अंग्रेज़ी को स्थायी रूप से भारत की राजभाषा बना दिया. तब से लेकर आज तक हम यह नहीं सोच पा रहे हैं कि अंग्रेज़ी से छुटकारा पाने के लिए हम हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं को एक साथ पोषित करते हुए तथा एक-दूसरे से जोड़ते हुए कैसे आगे बढ़ें. वर्ष 1968 में संसद के दोनों सदनों ने एक संकल्प भी पारित किया था जिसमें कहा गया था कि हिंदी के साथ-साथ अन्य भारतीय भाषाओं के समन्वित विकास हेतु भारत सरकार द्वारा राज्य सरकारों के सहयोग से एक कार्यक्रम तैयार किया जाएगा और उसे कार्यान्वित किया जाएगा ताकि ये भाषाएँ शीघ्र समृद्ध हों और आधुनिक ज्ञान के संचार का प्रभावी माध्यम बनें. संसदीय सभा ने यह भी संकल्प लिया था कि हिंदी भाषी क्षेत्रों में हिंदी तथा अंग्रेजी के अतिरिक्त एक आधुनिक भारतीय भाषा केदक्षिण भारत की भाषाओं में से किसी एक को तरजीह देते हुएऔर अहिंदी भाषी क्षेत्रों में प्रादेशिक भाषाओं एवं अंग्रेज़ी के साथ साथ हिंदी के अध्ययन के लिए त्रिभाषा सूत्र के अनुसार प्रबन्ध किया जाना चाहिए. लेकिन यह त्रिभाषा नीति हमारे देश के स्कूलों में त्रिशंकु की भाँति अधर में ही लटकी रह गई और भूमंडलीकरण के इस दौर में अब तो अधिकांश पब्लिक स्कूलों में तीसरी भाषा का स्थान भी यूरोपीय भाषाएँ ले रही हैं.

            संसद के संकल्प के मुताबिक हिंदी तथा भारतीय भाषाओं के समेकित विकास के लिए इतना लंबा समय बीत जाने के बाद भी अभी तक कोई प्रभावी कदम नहीं उठाया गया है. सरकारी भाषा प्रतिष्ठानों के माध्यम से विभिन्न भारतीय भाषाओं के बीच साहित्यिक अनुवाद का काम तो भले ही कुछ हद तक हो रहा हो किंतु भारतीय भाषाओं को समृद्ध बनाने तथा उन्हें आधुनिक ज्ञान के संचार के प्रभावी माध्यम के रूप में स्थापित करने का काम तो कतई नहीं हो रहा. राजभाषा अधिनियम की व्यवस्थाओं के जरिए तो भारतीय भाषाएँ ज्ञान के संचार का माध्यम बन नहीं जाएगी क्योंकि इस अधिनियम के अंतर्गत तो सिर्फ सरकारी काम-काज में हिंदी के उपयोग को बढ़ावा देने का काम ही हो रहा है. इसमें हिंदी अथवा किसी भी राज्य की राजभाषा में ज्ञान की सामग्री जुटाने के कोई उपाय नहीं हैं. आज हमारे अपने ही बीच से पढ़-लिखकर निकले वैज्ञानिक, समाज-शास्त्री, अर्थशास्त्री, कानूनविद्, चिकित्सा-विज्ञान के विशेषज्ञ व अन्य विद्वान अपने शोध के परिणाम एवं अपने अनुभव से सीखा गया समस्त ज्ञान सिर्फ और सिर्फ अंग्रेज़ी में ही सामने रखना चाहते हैं, अंग्रेज़ी की ही पत्रिकाओं में छपाना चाहते हैं, अंग्रेज़ी में दिए गए वक्तव्यों के माध्यम से ही प्रसारित करना चाहते हैं, तो फिर हिंदी, बांग्ला, मराठी, तमिल, मलयालम जैसी विभिन्न एवं अपेक्षाकृत समृद्ध भारतीय भाषाओं में आधुनिक ज्ञान का वह स्रोत स्थापित कैसे होगा, जिसके लिए संसद ने साढ़े चार दशक पहले यह संकल्प लिया. यह शायद अभद्रता होगी यदि मैं कहूँ कि लानत है इस देश के उन सारे ज्ञानवान महापुरुषों पर जो अपनी मातृभाषा का ककहरा पढ़कर ही विद्वता के तमाम शिखरों पर चढ़े हैं, पर वे अपने अर्जित ज्ञान की एक बूँद भी अपनी मातृभाषा में आने वाली पीढ़ी को नहीं देना चाहते और अंग्रेज़ी में छपकर या बोलकर दुनिया भर में मान्यता, शोहरत व स्थान पाने के अपने स्वार्थपूर्ण प्रयासों में व्यस्त हैं. यदि देश-विदेश में अपने ज्ञान का सिक्का जमा चुके सभी भारतीय विद्वान यह तय कर लें कि वे अपने-अपने विषयों में अपनी खोजों व निष्कर्षों का एक छोटा-सा हिस्सा आगे से अपनी मातृभाषा में प्रसारित करेंगे तो मुझे पूरा विश्वास है कि धीरे-धीरे हमारी विभिन्न भारतीय भाषाओं में ज्ञानार्जन की एक बहुत अच्छी मौलिक सामग्री तैयार हो जाएगी तथा भविष्य में हमारे बच्चों को ज्ञान की खोज में मजबूरी में अंग्रेज़ी भाषा में लिखी पुस्तकें नहीं खंगालनी पड़ेंगीं और वे आगे से इंटरनेट पर किसी भी विषय की सामग्री अंग्रेज़ी में खोजना बंद कर देंगें.      

            हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं को ज्ञान की भाषाएँ बनाने के लिए मेरा सुझाव है कि किसी कानून अथवा प्रशासनिक व्यवस्था के तहत सरकार को तुरंत यह अनिवार्य कर देना चाहिए कि देश में जितने भी केंद्रीय अथवा राज्य सरकारों के कानूनों के तहत स्थापित विश्वविद्यालय, यू.जी.सी. से संबद्ध विश्वविद्यालय अथवा डीम्ड विश्वविद्यालय हैं वे जिन भी विषयों में शोध-कार्य (डॉक्टरेट) कराते हैं, उनमें अनिवार्य रूप से हिंदी अथवा संबंधित राज्य की राजभाषा में एक शोध-पत्रिका प्रकाशित करना शुरू करें जिनमें संबंधित विषय के विशेषज्ञों व शोध-छात्रों के मौलिक शोध-पत्र छपें. साथ ही यह भी अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए कि ऐसी संस्थाओं के जो भी प्रोफेसर या एशोसिएट प्रोफेसर (रीडर) स्तर के शिक्षक होंगे वे अपने शोध-कार्य के परिणामों व निष्कर्षों से संबंधित मौलिक शोध-पत्र प्रकाशित करते समय उनका कम से कम दस प्रतिशत भारतीय भाषा की ऐसी किसी न किसी शोध-पत्रिका में प्रकाशित करेंगे. इसी प्रकार से केंद्र तथा राज्य सरकारों की सभी शोध-संस्थाओं के लिए यह अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए कि वे जो भी शोध-पत्रिकाएँ प्रकाशित करती हैं उनका पचास प्रतिशत हिंदी अथवा संबंधित राज्य की भाषा में ही छापें तथा ऐसी संस्थाओं के वैज्ञानिक अथवा विशेषज्ञ एंव शोध-छात्र अपने शोध-कार्य के परिणामों व निष्कर्षों से संबंधित मौलिक शोध-पत्र प्रकाशित करते समय उनका कम से कम दस प्रतिशत भारतीय भाषा की ऐसी किसी न किसी शोध-पत्रिका में अवश्य प्रकाशित करें. मैं मानता हूँ कि कानून के जोर-दबाव के माध्यम से इस प्रकार के भाषायी अभियान का चलाया जाना कोई अच्छी बात नहीं है किंतु मुझे यह भी यकीन है यदि इस देश की भाषाओं को एक दिन अंग्रेज़ी के प्रभाव में नेस्तनाबूद होने से बचाना है और संसद के संकल्प के मुताबिक उन्हें समृद्ध एवं आधुनिक ज्ञान के संचार का प्रभावी माध्यम बनाना है तो इस प्रकार की व्यस्थाएँ करनी जरूरी होंगी. क्या इस देश की भाषाओं को आने वाली पीढ़ी के लिए ज्ञान का स्रोत बनाने वाले ऐसे किसी समेकित अभियान को चलाए जाने की इच्छा-शक्ति इस देश में कभी जागृत होगी?   

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