आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Saturday, May 3, 2014

व्यक्तित्वों का टकराव (1982)

कभी - कभी अनायास ही हम
बिगड़ैल घोड़े से बिदक जाते हैं
रास्ता चाहे जितना अच्छा हो
हम अपने ही पांवों पर फिसलने लगते हैं।
               
न जाने ऐसा क्यों होता है हमारे साथ
कि हम काटने लगते हैं
अपने ही हाथ - पांव
न जाने कौन भड़का देता है हमें इसके लिए?

हमारा अपना अन्तर्मन
न जाने क्यों नहीं बना रहता
पारदर्शी शीशे - सा
कि उसमें जो कुछ भी जैसा हो
वैसा ही दिखाई दे?

जाने - अनजाने
हमारा खुद का टेढ़ा - मेढ़ा व्यक्तित्व
न जाने क्यों सीधा करने के लिए
तोड़ा - मरोड़ा जाता है
चाहे इस तोड़ - मरोड़ से
वह और भी विकृत होता चला जाए
उसे नहीं रहने दिया जाता
वैसा ही,
जैसा वह होता है हमारे पास।

न जाने क्यों
अपने - अपने व्यक्तित्वों को सुरक्षित रखकर
नहीं जुड़ पाते हम आपस में,
आखिर कौन भड़काता रहता है
हमारे व्यक्तित्वों के टकराव?

जब हम घास खाने वाला खरगोश पालते हैं
दाना चुगने वाला कबूतर पसन्द करते हैं
कटखने कुत्ते को प्यार से दुलराते हैं
तो अपने बीच का ही एक आदमी
चाहे जिस रूप, रंग, प्रकृति का हो
आखिर क्यों नहीं जुड़ पाते हम उससे
वैसी ही आत्मीयता से
पूर्वाग्रहों को पीछे धकेल

व्यक्तित्वों की विषमता को दरकिनार कर?

2 comments:

  1. Yes...so true...."ahankaar", "agyaan" and "abhimaan" shayad hamari Buddhi air Man per Asia parda dalte hai ki hum jaanwaar se to pyar ker sakte hain aur insaan ko samajhna nahi chahe:)

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  2. बहुत अच्छी और सहज कविताये जिन्हे बार बार पढने का मन करे।
    इन कविताओं में सम्पेषण है जो हमारी कविता में विरल होता जा रहा है।

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