आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

Saturday, August 30, 2014

माँ मेरे शब्दों की आत्मा में रहती हैं


मैंने परिवार के हर रिश्ते को
अपने शब्दों के बीच संजोया है
लेकिन माँ के लिए आज तक 
कभी कोई कविता नहीं लिखी
मुझे हमेशा यही लगता है कि
माँ मेरे शब्दों की आत्मा में रहती हैं
उन्हें मेरे शब्दों की शक्ल अख़्तियार करने की कोई जरूरत नहीं

माँ मेरे भीतर का आकाश है
माँ मेरे भीतर की ज़मीन है
माँ मेरे भीतर का पानी है
माँ मेरे अंतस की भावना है
माँ मेरी आँखों में सजा सपना है
माँ मेरी बोली में घुली मृदुलता है
माँ मेरी संवेदनाओं की तरलता है
माँ मेरे जीवन की जिजीविषा है

यह सच है 
कि माँ थी तो जीवन में बहुत कुछ था
उनका प्यार, उनकी मनुहार, 
उनका गुस्सा, उनकी मार,
घर में उनकी खुदमुख़्तियारी,
बाहर उनकी लाचारी,
उनकी सीख, उनका विश्वास,
उनका चेहरा, कभी मुस्कराता, कभी उदास

आज माँ नहीं हैं तो भी 
बहुत कुछ है जीवन में उनसे मिला
हर संकट में, हर कष्ट में, पहन लेता हूँ
हिम्मत का वही पुराना कुर्ता मैं
जो बचपन में हर बार फट जाने पर 
उनके ही हाथों से जाता था सिला

पिता अगर मेरे लिए सुषेन वैद्य थे
तो माँ संजीवनी बूटी थीं


पिता के दिए गुणसूत्रों ने
भले ही मुझे मेरी पहचान दी हो
पर माँ तो जन्म के पहले से ही
मेरे शरीर के ख़ून में घुलकर बहती हैं
इसीलिए माँ मेरी कविताओं के शब्दों में नहीं
उनकी आत्मा में बसी रहती हैं।
******




1 comment:

  1. देवताले जी ने भी लिखा था *माँ पर नहीं लिख सकता कविता*...शब्द अक्सर अपर्याप्त लगने लगते हैं जब भावनाएं इतनी प्रबल हों

    ReplyDelete