आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

Saturday, May 16, 2015

विद्वान आलोचक

वामन रूपी विद्वान आलोचक ने
अपने मगज़ में जमा सारी पीक
मुँह के भीतर इकट्ठा की
और
प्रतिकार मुद्रा में
अपनी ज़मीन त्यागकर
पातालवासी बनने को तैयार न होने वाले
हवा में लटकाए गए
बलि सरीखे कवि के पुतले के शीश की ओर
जोर से खखारकर थूका
और खुद ही सिर से पांव तक अपनी पीक में नहा गया।

छोटे - से कवि की सदाशयता को 
पाखंड का दर्ज़ा देकर
उसे उजागर करने की अहंकारपूर्ण वाचालता में
दु:शासन ही नहीं,
लूती भी बनने को तैयार उस विद्वान आलोचक ने
कवि की
जाति, पेशे आदि को निशाना बनाते हुए
उसके क़त्लेआम की मुनादी कर दी
और एक इंटरनेट ब्लॉग पर
अपनी सारी भड़ास उड़ेलते हुए
उसकी बातों को 'लफ़्फ़ाज़ सदाशयता' का तमग़ा पहनाकर
साहित्यिक सौहार्द्र की कब्र पर श्वानमुद्रा में मूत दिया।

'गुड़ की बासी जलेबीनुमा भिनभिनाती भाषा' के विरोधी उस विद्वान को
'मीठी चासनी में डूबी रसगुल्लाई भाषा' तो अच्छी लगनी नहीं थी
इसीलिए अकवि मान लिए गए उस कवि ने
अपनी सारी सदाशयता का त्याग करते हुए
मिर्च के तड़के जैसी पड़पड़ाती हुई भाषा में उन्हें जबाब दिया, -

"काव्य - रचना तज देने की
नेक सलाह देने के लिए धन्यवाद,
लेकिन इसे तज कैसे दिया जाय आदरणीय!
यह कलम ही तो है जिसने आज तक
किसी भी तानाशाह, हाक़िम, हक़ीम या आलोचक की नहीं सुनी
चाहे वह आपकी हो या मेरी
इसलिए लिखना तो तज नहीं पाऊँगा
चाहे वह कितना भी घटिया हो आपकी दृष्टि में
और सोच पर लगाम लगाने
का काम तो मैं कर ही नहीं सकता
और न इसका फ़रमान निकालने का आपका कोई हक़ समझता
हूँ
(भले ही बतौर आलोचक
आप दूसरों की सोच पर ताला जड़ना
अपना मौलिक अधिकार मानते हों!)
सो हे महाबली!
अब त्यागकर अपनी सारी हिचकिचाहट
लिख ही डालिए एक विष्ठाभिषिक्त सीरीज़
मुझ जैसे तमाम छुटभैये कवियों की बदमगज़ी के ख़िलाफ़
साहित्य - कोश की श्रीवृद्धि के लिए!
"

आत्ममुग्ध आलोचक इतराते हुए बोला, -
"नहीं बच पाए हैं आज तक
मेरी वाणी और कलम के प्रकोप से
बड़े - बड़े नामी कवि और लेखक तक
फिर तेरे जैसे तीसरे दर्ज़े के कवि की क्या बिसात
कि मेरी ठेठ, रंगारंग आलोचकीय उपमाओं की निन्दा करे!"

सदाशयी कवि का धैर्य जबाब दे गया
वह विद्वान आलोचक के प्रति विद्रोह का बिगुल बजाते हुए बोला, -
"आप जैसे भाषा - सम्पन्न महानुभावों ने ही
साहित्य की ठोस ज़मीन को
अपनी राजनीति से कांड़ - कांड़कर
कुश्ती का अखाड़ा बना दिया है,
आप जैसे साहित्य के महावाचालों को
सच का आईना दिखाने का साहस विरले ही कर सकते हैं
और मेरे जैसे छुटभैये ने वह कर दिखाया
इसीलिए आपको इतने ज्यादा चुन्ने लग रहे हैं
मेरा लेखन तो आदतन जारी रहेगा ही,
भले ही वह आपको तीसरे दर्ज़े का लगे
या औसत से नीचे अथवा सबसे घटिया दर्ज़े का,
क्योंकि वह मेरी अपनी ज़मीन है,
आप जैसे साहित्य के किसी ज़मीदार की नहीं।"

कहने की जरूरत नहीं कि
इसके बाद से उस विद्वान आलोचक ने
अपने अगले साहित्यिक - निन्दा प्रस्ताव को

फिलहाल लिफ़ाफ़ाबन्द कर रखा है। 

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