आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Tuesday, January 26, 2016

जलवायु परिवर्तन पर पेरिस समझौता भारत के अनुकूल

संयुक्त राष्ट्र के यूनाइटेड नेशन्स फ्रेमवर्क कन्वेन्शन ऑन क्लाइमेट चेन्ज (यू. एन. एफ. सी. सी. सी.) ने पेरिस में विगत 12 दिसम्बर, 2015 को सदस्य देशों के बीच जलवायु परिवर्तन पर हुए समझौते को ऐतिहासिक बताया। इस सम्मेलन के बारे में विश्व भर के गैर - सरकारी संगठन व अन्य रुचि रखने वाले संगठन, एक लंबे समय से अपनी - अपनी माँगे सामने रखकर आंदोलनरत थे। सभी चाहते थे कि इस सम्मेलन का हश्र पहले जैसा न हो और इससे ग्लोबल वार्मिंग की गति को थामने के लिए आगे बढ़ने का कोई रास्ता जरूर निकले। भारत जैसे विकासशील देश चाहते थे कि यू. एन. एफ. सी. सी. सी. के मौलिक स्वरूप में कोई विशेष परिवर्तन न होने पाए तथा समझौते का फोकस केवल जलवायु परिवर्तन को रोकने पर ही न होकर उसके अनुकूलन के उपायों, संभावित ख़तरों का सामना करने एवं इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए वित्तीय व्यवस्था स्थापित करने तथा जरूरी तकनीक की खोज व प्रसार जैसे समग्र पहलुओं पर केन्द्रित होनी चाहिए। वे इस बात पर भी दृढ़ थे कि कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए विभिन्न देशों की जो भी जिम्मेदारियाँ तय हों, वे तुलनात्मक समानता के सिद्धान्त एवं देश विशेष की परिस्थितियों को संज्ञान में लेकर तय की जांय। वे यह भी चाहते थे कि विकसित देशों के लिए जो भी जिम्मेदारियाँ तय की जांय, वे कानूनी बाध्यता के तौर पर निर्धारित हों। ग्रुप - 77 के देश भी, चीन व विकासशील देशों के साथ मिलकर इस बात का दबाव बना रहे थे कि समझौता सम्पूर्णता में हो और उसमें हर देश के हित का ध्यान रहा जाय। दूसरी तरफ अमेरिका अपने मित्र देशों व यूरोपियन यूनियन आदि के साथ मिलकर शुरू से ही जिम्मेदारियों को समानता व विशिष्ट परिस्थितियों के आधार पर तय किए जाने व समझौते को अन्य सभी पहलुओं व फंडिंग आदि पर फोकस किए जाने का पुरजोर विरोध कर रहा था। ये देश यू. एन. एफ. सी. सी. सी. के स्वरूप को ही बदलने पर आमादा थे, जिससे विकासशील देशों पर शुरू से ही कार्बन उत्सर्जन कम करने का दबाव बना रहे। तमाम लंबी - लंबी बहसों और कूटनीतिक जद्दोज़ेहद के बाद आखिर में जिस समझौते पर सहमति बनी उसका अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक तौर पर स्वागत हुआ है।

वास्तव में जो समझौता हुआ है, उसमें भले ही स्पष्ट रूप से विभिन्न विकसित देशों के लिए कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए कानूनी बाध्यता वाले लक्ष्य तय नहीं किए गए हैं, किन्तु इस समझौते का स्वरूप बहुत व्यापक है तथा इसमें सभी तरह के देशों के हितों का ध्यान रखा गया है। सम्मेलन के परिणामों से अधिकांश गैर - सरकारी संगठन भी कमोवेश संतुष्ट हैं। भारत के केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री श्री प्रकाश जावड़ेकर ने सम्मेलन के पश्चात घोषित किया कि भारत के सभी सुझाव मान लिए गए हैं, अतः वह इस समझौते का स्वागत करता है। मुझे लगता है कि अमेरिका जिस तरह का विपरीत दबाव विकासशील देशों पर बनाए हुए था और भारत की छवि को तो वह पिछले एक - डेढ़ साल से लगभग अडंगेबाज़ वाली स्थापित करने में जुटा था, उसको देखते हुए यह समझौता भारत के लिए विजय की एक निशानी है। अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन केरी खुद अंत तक पेरिस सम्मेलन में मौजूद थे और सहयोगी मित्रों के साथ मिलकर लगातार अपनी चालें चल रहे थे। स्पष्ट है कि जो समझौता हुआ है, वे उससे बेहतर शायद वहाँ कुछ होने भी नहीं देते, और जो कुछ हुआ है, उसे उन्होंने निश्चित ही विश्व समुदाय के बड़े दबाव के कारण माना है। ऐसी सूचनाएँ हैं कि समझौते को अंजाम तक पहुँचाने में मेजबान देश फ्रांस के राष्ट्रपति ने परदे के पीछे से अहं भूमिका निभाई।

समझौते का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि यू. एन. एफ. सी. सी. सी. के सभी देश मिलकर पूर्वऔद्योगिक स्तर से ऊपर वैश्विक तापमान की वृद्धि 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे ही बनाए रखेंगे तथा कोशिश यह होगी कि यह वृद्धि 1 .5 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा न हो। वैश्विक तापमान का पूर्वऔद्योगिक स्तर अठारहवीं शताब्दी के संदर्भ में माना जाता है और यह अनुमान है कि 2008 तक उसमें 0.7 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि पहले ही हो चुकी है। समझौते के अनुसार जलवायु परिवर्तन का सामना सभी सदस्य देशों द्वारा मिल - जुलकर कुछ इस प्रकार से किया जाएगा कि कृषि - उत्पादन को ख़तरा न पैदा हो। यह भी तय हुआ है कि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने तथा जलवायु परिवर्तन प्रतिरोधी गतिविधियों के लिए वित्तीय - प्रवाह को स्थिर स्वरूप प्रदान किया जाएगा।

समझौते का अन्य अत्यन्त महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लक्ष्यों की प्राप्ति के कामों में सभी देश पूरी पारदर्शिता बरतेंगे। हर देश इस मामले में शीघ्र अपनी एक सर्वश्रेष्ठ योजना बनाएगा, जिसमें जल्दी से जल्दी उत्सर्जन के सर्वोच्च स्तर पहुँचने और फिर उसमें तेजी से कमी लाने तथा गैर - उत्सर्जन वाली तकनीक अपनाने की व्यवस्था होगी। विकासशील देशों को उत्सर्जन के सर्वोच्च स्तर तक पहुँचने के लिए अधिक समय मिलेगा। विकसित देशों द्वारा इसके लिए उन्हें आर्थिक एवं तकनीकी सहायता प्रदान की जाएगी। इस समझौते के क्रियान्वयन की हर पाँच साल में समीक्षा की जाएगी। पहली समीक्षा 2023 में होगी। ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लक्ष्य तुलनात्मक समानता के सिद्धांत तथा विभिन्न देशों की अलग - अलग परिस्थितियों (टिकाऊ विकास व गरीबी उन्मूलन की आवश्यकताओं के आधार पर) पर निर्धारित होंगे। सभी देश वर्ष 2050 के बाद ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को पूरी तरह से ख़त्म करने के लक्ष्य को ध्यान में रखकर काम करेंगे। लक्ष्य - निर्धारण की इस प्रकार की प्रक्रिया को ‘बॉटम अप’ प्रणाली की संज्ञा दी गई है, जिसमें कार्बन उत्सर्जन घटाने के लक्ष्य देश खुद तय करेंगे तथा बहुराष्ट्रीय स्तर पर कोई लक्ष्य - निर्धारण नहीं होगा। भारत जैसे विकासशील देशों के लिए यह बहुत ही महत्वपूर्ण निर्णय है। चूँकि यह निर्णय अमेरिकी रुख के एकदम विपरीत है, अत: देखना यह होगा कि पेरिस के बाद अमेरिका व उसके मित्र देश इस समझौते के अनुपालन को आगे बढ़ाने के लिए कितनी तत्परता दिखाते हैं, और सदस्य देश खुद पहल करते हुए कितनी जल्दी अपने राष्ट्रीय निर्धारित योगदानों की घोषणा करते हैं।

समझौते के अनुसार एक देश की ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन कमी का दूसरा देश उपयोग कर सकेगा। विकसित देश विकासशील देशों को आर्थिक सहायता भी प्रदान करेंगे। विकसित देश इसके लिए 2020 तक विभिन्न स्रोतों से 100 बिलियन डॉलर का  'जलवायु फंड' स्वरूपित करेंगे, जिसे बाद में और व्यापक बनाया जाएगा। विकासशील देशों को तकनीक के विकास व हस्तांतरण तथा क्षमता - निर्माण के लिए भी विकसित देशों से सहायता मिलेगी। भारत विशेष रूप से चाहता था कि समझौते के तहत बौद्धिक संपदा अधिकारों के नाम पर विकसित देशों द्वारा तकनीक के हस्तांरण में डाली जाने वाली रुकावटों को दूर करने की व्यवस्था हो तथा इसके लिए फंडिंग भी की जाय। यह खुशी की बात है कि समझौते में इसके लिए उचित व्यवस्था शामिल की गई है। अब समझौते पर सभी सदस्य देशों को 22 अप्रैल 2016 (विश्व पृथ्वी माता दिवस) से लेकर 21 अप्रैल 2017 के बीच हस्ताक्षर करने हैं। चूँकि समझौते के क्रियान्वयन की राह लंबी है, अत: उस पर चलते समय सुस्त हो जाने अथवा भटकने के ख़तरे भी काफी हैं। इसलिए यह देखना जरूरी होगा कि धरती को बचाने और मनुष्य के भविष्य को सुरक्षित बनाने के लिए इस महत्वपूर्ण समझौते पर विश्व के देशों द्वारा आगे कितनी सत्यनिष्ठा, पारदर्शिता व तत्परता के साथ कार्रवाई की जाती है।


(लेखक भारतीय प्रशासनिक सेवा के वरिष्ठ सरकारी अधिकारी हैं, किन्तु इस लेख में उनके निजी विचार हैं)

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