आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

Sunday, January 17, 2016

मेरी नई पुस्तक 'हिन्दी साहित्य : कुछ ताक - झाँक' से 'स्वकथन' का अंश

इस पुस्तक में मेरे उन साहित्यिक लेखों का संग्रह है, जिन्हें मैंने मुख्यत: अपनी पिछली साहित्यिक लेखों की पुस्तक ‘सृजन, समाज और संस्कृति’ (साहित्य भंडार, इलाहाबाद - 2014) के पश्चात लिखा है। इनमें सुप्रसिद्ध कथाकार शिवमूर्ति की ताजा कहानी ‘कुच्ची का कानून’ पर लिखा गया लंबा लेख, कथाकार एवं उपन्यासकार अखिलेश के ताजा उपन्यास ‘निर्वासन’ पर लिखे गए दो लेख, युवा कवि एवं लेखक हरेप्रकाश उपाध्याय के पहले किन्तु चर्चित उपन्यास ‘बखेड़ापुर’ पर लिखा गया लेख, ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित वयोवृद्ध कवि केदारनाथ सिंह के नए कविता - संग्रह ‘सृष्टि पर पहरा’ के बारे में लिखे गए लंबे आलेख के अलावा स्वर्गीय मानबहादुर सिंह की कविताओं, युवा कवि अशोक कुमार पांडेय, कुमार अनुपम व उमाशंकर चौधरी के कविता - संग्रहों तथा राजनीति से जुड़े कवि उपेन्द्र चौहान के सद्य:प्रकाश्य कविता - संग्रह पर लिखे गए लेख भी शामिल हैं। इसके अलावा हिन्दी बाल - कविता साहित्य का अवलोकन करता एक लंबा लेख तथा कहानी की आलोचना की वर्तमान स्थिति से संबन्धित एक लघु लेख भी समायोजित है। ये सारे लेख मैंने बहैशियत एक पाठक लिखे हैं, क्योंकि आलोचना के क्षेत्र में उतरने का न मेरा कोई इरादा रहा है और न कोई अनुभव अथवा ज्ञान। आलोचना एक अलग तरह की दृष्टि की अपेक्षा रखती है, वह चीर - फाड़ में विश्वास रखती है, अच्छाइयों को कम, कमियों अथवा बुराइयों को ज्यादा उजागर करती है और साहित्य का अपने स्थापित सिद्धान्तों के आधार पर मूल्यांकन करती है। ऐसा मूल्यांकन करते समय आलोचक किसी भी कृति को पूर्ववर्ती साहित्य के साथ - साथ, अन्य भाषाओं तथा विदेशी साहित्य के श्रेष्ठ सृजन के परिप्रेक्ष्य में एक तुलनात्मक कसौटी पर कसता है और रचना के समसामयिक तथा ऐतिहासिक महत्व अथवा महत्वहीनता को रेखांकित करता है। इन लेखों को लिखते समय मेरा वह उद्देश्य नहीं रहा है। मेरा उद्देश्य किसी पाठक को रचना के उस पक्ष से परिचित कराना भर रहा है, जिसने मुझे आकर्षित किया है तथा रचना से जुड़ी उन बातों की चर्चा करना रहा है, जो हमें एक नई दिशा देती है या नया अवबोध कराती है। यहाँ प्रयास रचना के सबल व सार्थक अंशों को ‘एप्रीसिएट’ करने का रहा है, ताकि पाठक उनकी ओर आकर्षित हो सकें, न कि किताबों से बिदककर भागें, जैसा कि नामी - गरामी आलोचकों की आलोचना पढ़ने के बाद किसी भी बेहतरीन पुस्तक के बारे में हो सकता है।

शिवमूर्ति समकालीन हिन्दी साहित्य में स्त्री विमर्श के उत्कृष्ट कथाकार हैं। स्त्री का यौन - शोषण होना और प्रतिरोध किए जाने पर उसके ऊपर शारीरिक मानसिक अत्याचार किया जाना, यह हमारे पुरुष-प्रधान भारतीय समाज की सामान्य प्रवृत्ति है। वैदिक पौराणिक बातों का हवाला देकर अतीत में नारी की स्थिति भिन्न होने के कितने ही दावे किए जाएँ तथा नारी - मुक्ति के वर्तमान में गढ़े जा रहे नारों को कितना ही उछाला जाय, हमारे समाज की इस मानसिकता में कहीं कोई परिवर्तन आता नहीं दिखता। यहाँ नारी - समाज को नीचे झुकाने के लिए नित्य नैतिकता के नए पैमाने गढ़े जाते हैं, बहू - बेटियों के लि रोज एक नई आचरण - संहिता रची जाती है और पुरुषों से कहीं कोई प्रश्न पूछने वाला नहीं है। उनकी ‘तिरिया चरित्तर’ जैसी कहानी में हमने ग्रामीण स्त्रियों के संसार के उस यथार्थ को देखा है, जो हमें शर्मशार कर देता है। अपनी नई कहानी ‘कुच्ची का कानून’ में वे स्त्री के विद्रोह का आख्यान रचते हैं। इसीलिए मैंने विशेष रूप से इस कहानी को अपने आलेख के लिए चुना और उसे यहाँ सम्मिलित किया है।

इन दिनों अखिलेश के नए उपन्यास 'निर्वासन' की हर जगह चर्चा है। अखिलेश का उपन्यास 'निर्वासन' पढ़कर एक अरसे के बाद लगा कि कुछ लीक से हटकर और बहुत सार्थक पढ़ा। उनकी भाषा - शैली का तो मैं शुरू से कायल रहा हूँ। अखिलेश ने अपनी उपन्यासों एवं कहानियों के माध्यम से हिन्दी के साहित्य - लेखन में नए आयाम स्थापित किए हैं। उनकी कहानियों में दलित-विमर्श, स्त्री - विमर्श, सामाजिक विमर्श, मनोविश्लेषण व अन्य तमाम प्रकार की विशिष्ट एवं उल्लेखनीय प्रवृत्तियों के साथ - साथ राजनीतिक विमर्श का बड़ा ही सशक्त, प्रभावी व यथार्थपरक पक्ष है। उनका राजनीतिक विमर्श सहज, व्यंग्य व विनोद से पूर्ण आकर्षक भाषा के साथ मिलकर इतना विचारोत्तेजक एवं प्रभावकारी हो उठता है कि पाठक उसमें मनसा डूबकर संवेदना और उद्विग्नता से भर उठता है। अखिलेश इसी विचारोत्तेजक राजनीतिक विमर्श व अपनी विशिष्ट अभिव्यंजना शैली व भाषा के कारण अपने समकालीन कथाकारों से एकदम अलग और आकर्षक दिखते हैं। अखिलेश की कहानियों की पठनीयता व रोचकता उन्हें मुंशी प्रेमचन्द की विरासत को सँभालने वाला एक लोकप्रिय कथाकार बनाती है और उनका यथार्थ के मजबूत पायों पर खड़ा, पूरी सत्ता - व्यवस्था की कमियों को बेनकाब करता और देश की राजनीति के विद्रूपों को अलग - अलग कोणों से स्कैन करके हमारे सामने दिलेरी व बेरहमी से प्रस्तुत करता धारदार राजनीतिक विमर्श उन्हें कमलेश्वर या ऐसे ही अन्य श्रेष्ठ कथाकारों की पंक्ति में एक महत्वपूर्ण स्थान दिलाता है। ‘निर्वासन’ पर मैंने दो लंबे आलेख लिखे हैं, जो ‘बनासजन’ तथा ‘मंतव्य’ में प्रकाशित हुए हैं। इस पुस्तक में इन दोनों ही लेखों को संग्रहीत किया गया है।

ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित वयोवृद्ध कवि केदारनाथ सिंह मेरे सबसे पसंदीदा कवि हैं। अपनी कविताओं में वे एक ऐसी संवेदना, करुणा, विवेक व प्रतिरोध जगाने वाले कवि के रूप में नज़र आते हैं, जिसे आदमी का सड़क पार करना हमेशा अच्छा लगता है, क्योंकि उसमें एक उम्मीद - सी होती है कि दुनिया जो इस तरफ है शायद सड़क के उस तरफ उससे कुछ बेहतर हो। वे दीवारों पर आदमी की भूख के बारे में आग का बयान लिखते हैं और हमें विश्वास दिलाते हैं कि वे कविता नहीं कर रहे हैं, सिर्फ़ आग की ओर इशारा कर रहे हैं। वे प्रेमिका का हाथ अपने हाथ में लेते हुए सोचते हैं कि दुनिया को उसके हाथ की तरह नरम और सुन्दर होना चाहिए और वे गाँव में बिछुड़े अपनों से कुछ इस तरह से लिपटना और मिलना चाहते हैं कि बस वे ही मिलें और दिल्ली बीच में न आए। वे किसान के बेटे को यही सिखाते हैं कि वह रात को जब भी रोटी तोड़े, तो पहले सिर झुकाकर गेहूँ के पौधे को याद कर ले। वे इस शहर की लाखों - लाख चींटियों की मूक रुलाई का हिन्दी में अनुवाद करना चाहते हैं। वे पक्षियों की दुनिया में बया के कायल हैं क्योंकि ताजमहल बनाने की दुर्लभ तकनीक सिर्फ उसी के पास है। पृथ्वी पर होने वाली उलट - फेर के बारे में वे ईश्वर को बस इतना ध्यान रखने का संदेश देते हैं कि उसमें उनका छोटा - सा गाँव कहीं उजड़ न जाय और दलपतपुर - चट्टी की बुढ़िया की बकरी घर लौट आए। वे हमें इस बात को ध्यान से पढ़ने की ताक़ीद करते हैं कि रास्ते वे पंक्तियाँ है जिन्हें लिखकर हमारे पाँव भूल गए हैं। उन्हें यह उम्मीद है कि अपनी अस्मिता न खोकर वे यहीं किसी किवाड़ पर हाथ के निशान की तरह पड़े रहेंगे या किसी पुराने ताखे या सन्दूक की गन्ध में छिपे रहेंगे। उन्हें आज भी याद है कि जब वे गाँव से इस महानगर में आए थे तब उनके कुर्ते में छोटी - सी एक जेब भी थी, जिसमें मकई के लावा की गन्ध भरी थी और वह मिट जाने के पहले कई हफ़्तों तक उनके साथ - साथ रही थी। वे घर आने का न्योता देते हुए अपने झरोखे पर रखे भोजपुरी के उस शंख को सुनाने की बात करते हैं, जिसमें सातों समुद्र धीमे - धीमे बजते हैं। वे गर्व के साथ कहते हैं कि वे जहाँ भी हैं, वही पुरबिहा हैं, जो दुनिया के किसी भी हिस्से में गिरा खून अपने अँगौछे से पोंछने को तैयार रहता है।

केदारनाथ सिंह का नया कविता - संग्रह सृष्टि पर पहरापढ़कर मैं जितना प्रभावित हुआ, एक पाठक के तौर पर भी और एक कवि के रूप में भी, कि मैंने झट से उस पर एक लंबा लेख लिख डाला जो बाद में कल के लिए पत्रिका में छपा। उस आलेख को इस संग्रह में शामिल करने में मुझे बेहद खुशी हो रही है। मैंने 2014 में आम चुनाव के बाद नई सरकार के गठन के अवसर पर नए प्रधानमंत्री को अपनी शुभकामनाएँ अर्पित करते हुए इस संग्रह के शीर्षक से जुड़ी कविता ‘सृष्टि पर पहरा’ का उपयोग करते हुए फेसबुक पर विपक्ष के लिए जो टिप्पणी की थी वह इस प्रकार है -  “मैं 'शुष्क और झरनाठ' विपक्ष के चंद जीवंत प्रतिनिधियों से भी अपने कर्तव्यों का ठीक से निर्वाह करने का आह्वान करता हूँ। लोकतंत्र में विपक्ष की बड़ी भूमिका होती है। सत्ता का यह सामान्य चरित्र होता कि वह आत्मसम्मोहन का शिकार होकर पथभ्रष्ट हो जाती है। विपक्ष उसकी हर अति पर अंकुश लगाता है। विपक्ष के कमजोर होने पर सत्ता के पथ से विचलित होने के अवसर बढ़ जाते हैं। ऐसे में विपक्ष की जिम्मेवारी भी बढ़ जाती है। यदि सीमित शक्ति के बावजूद विपक्ष दुर्बल को बचाने और अपनी अस्मिता की रक्षा करने के लिए संघर्ष करता तो वह श्रेष्ठ हो जाता है। इन बातों को केदारनाथ सिंह की इस कविता से अधिक बेहतर तरीके से कैसे कहा जा सकता है - ‘सृष्टि पर पहरा/ जड़ों की डगमग खड़ाऊ पहने/ वह सामने खड़ा था/ सिवान का प्रहरी/ जैसे मुक्तिबोध का ब्रह्मराक्षस - / एक सूखता हुआ लम्बा झरनाठ वृक्ष/ जिसके शीर्ष पर हिल रहे थे/ तीन - चार पत्ते/ कितना भव्य था/ एक सूखते हुए वृक्ष की फुनगी पर/ महज़ तीन - चार पत्तों का हिलना/ उस विकट सुखाड़ में/ सृष्टि पर पहरा दे रहे थे/ तीन - चार पत्ते।  

आजकल आलोचकगण प्रायः यह रोना रोते हैं कि वर्तमान समय में लिखी जा रही अधिकांश कविताएँ कूड़ा हैं और उनमें आम पाठकों को आकर्षित करने की शक्ति नहीं हैं। किन्तु कोई यह नहीं बताता कि किस कवि की कौन सी कविताएँ कूड़ा हैं। क्या आज के आलोचकों में सच कहने की ताक़त नहीं है या फिर वे बिना कुछ पढ़े ही सामान्य टिप्पणियाँ करके अपनी काव्यालोचना के कर्तव्य की इतिश्री कर लेना चाहते हैं? मैंने एक बार फेसबुक पर अपने मित्रों से प्रश्न किया कि यदि आप लोगों में कोई कविताओं का अध्ययन - मनन करते हैं, तो क्या आप बता सकते हैं पिछले एक वर्ष में विभिन्न पत्र - पत्रिकाओं संग्रहों में आपके द्वारा पढ़ी गई कविताओं में से सबसे घटिया से बेहतर श्रेणी के क्रम में आप किस - किस कवि की कौन सी दस कविताओं को रखना चाहेंगे? मैंने कसम भी दिलाई कि सच्ची बात कहिएगा और यदि सच लगे तो मेरी किसी कविता का नाम सबसे पहले दर्ज़ करिएगा और जरूरी लगने पर दसों नाम मेरी ही कविताओं के शामिल कर लीजिएगा। लेकिन उस प्रश्न पर किसी भी साहित्यकार, विशेषकर आलोचना के कर्म से जुड़े किसी भी मित्र का कोई जबाब नहीं आया, क्योंकि आजकल लोग मुश्किल या खरे - खरे सवालों का सामना करने से बचते हैं।
              
            मेरा मानना है, कविता में लय अथवा गेयता होने की विशेषता ही उसे गद्य से अलग करती है। गद्य के श्रोता नहीं होते हैं, सिर्फ पाठक होते हैं। लेकिन कविता के मूलतः श्रोता होते हैं, पाठक नहीं। अच्छा है, कवि ग ण यह बात समझ लें और कविता - पाठ से या कवि - गोष्ठियों व सम्मेलनों से भागें नहीं, वरना उनकी पहचान ही खो जाएगी। वैसे कविता का मंच केवल विदूषकों के लिए छोड़ देना अपने को कवि मानने वालों को शोभा नहीं देता और लोग क्या सोचेंगे कि आज की कविता का स्तर वही है जो मंचों से सुनाई दे रहा है। गंभीर काव्य - मंचों की स्थापना को प्रोत्साहन देने के लिए मैं हमेशा मिथिलेश श्रीवास्तव, अशोक कुमार पांडे आदि मित्रों को बधाई देता रहा हूँ। जनसामान्य के बीच अपना असर छोड़ने के लिए कविता का प्रसार आवश्यक है। वैसे कविता तो हर काल में कवियों द्वारा लोगों के बीच ठेली या उछाली ही जाती रही है (दरबारी कविता को छोड़कर). पुराने धार्मिक स्त्रोतों या 'रामचरितमानस' जैसी रचनाओं आदि में तो अनिवार्य संस्तुतियाँ होती थीं कि जो उन्हें बार - बार पढ़ेगा तो क्या लाभ होगा। स्वयं कवियों के लिखित अनुरोध पर ही भक्ति - कविताओं के जाप या पारायण की परम्परा चली. दूसरी विचारधारा के लोग हमेशा प्रचार से बचते रहे और आमजन से अलग - थलग बने रहे। अतः मेरा तो मानना है कि जो कवि कविता तथा अपने विचारों को जितना उछाल पाए, उछाले, इसी में उसकी कविता सार्थक होगी।

आजकल यह भी देखने में आता है कि हमारे कुछ आलोचक सूरमा ऐसे हैं कि चाहे खुद न लिखें एक लाइन ढंग की लेकिन वे बड़े - बड़ों की लांग खोलने में देर नहीं लगाते। ऐसे सूरमाओं की वजह से ही आज का आलोचना साहित्य हिन्दी लेखकों - कवियों के लिए जापानी ‘ग्रैण्ड बाथ’ जैसा बना हुआ है, यानी हमाम में सब एक - दूसरे को नंगा करने में जुटे हैं। और इस नंगेपन को खुलेआम प्रदर्शित करने के लिए आजकल कुछेक साहित्यिक पत्रिकाएँ ही नहीं, ढेरों इंटरनेट ब्लॉग उपलब्ध हैं। यहाँ यह भी स्पष्ट कर दूँ कि यह मेरे जैसे एक छोटे किन्तु निष्पक्ष रचनाकार की आज के साहित्यिक परिवेश पर की गई एक साधारण - सी टिप्पणी है जो इस ख़तरे को उठाते हुए की जा रही है कि यह बात इन सूरमाओं को बुरी लग सकती है, और वे मेरी भी लंगोटी फाड़ने को उद्यत हो सकते हैं। वैसे ऐसे सूरमाओं के एक बड़े सेनापति मेरी लंगोटी फाड़ने की कोशिश पहले भी कर चुके हैं। वैसे भी वर्तमान हिन्दी साहित्य की दुनिया के खेल बड़े ही निराले हैं। यहाँ विचारों और सिद्धान्तों का भ्रमजाल बिछाकर आदर्श और यथार्थ की बीड़ी सुलगाने वाले बहुत से छद्म चरित्र मिल जाएँगे। यदि कोई साहित्य की इस दुनिया में बिना किसी खेमेबाज़ दंगली साहित्यकार या संपादक का सहारा लिए, सहज और सरल भाव के साथ प्रवेश करना चाहता है, तो उसको बिना किसी दयाभाव के तोड़ - मरोड़कर आलोचना के किसी अनजान कब्रगाह में दफ़्न कर दिया जाएगा।

मुझे बेहद खुशी हुई जब आज की छिद्रान्वेषी व स्तरहीन आलोचना के संदर्भ में मैंने पिछले वर्ष फेसबुक पर एक चर्चा चलायी, तो मुझे हिन्दी साहित्य के मौजूदा परिदृश्य के बारे में बहुत से रचनाकारों व आलोचकों की बड़ी ही सकारात्मक व बेबाक प्रतिक्रियाएँ मिली। मसलन, अनिल अनलहत्तु ने लिखा, - “हिन्दी साहित्य पढ़ाई में पिछड़े, जीवन में असफल, मीडियोकर लोगों का गिरोह है जो अपनी चालाकियों, धूर्तताओं और निर्लज्ज किस्म की दुरभिसंधियों द्वारा साहित्य की सत्ता में अपना दखल बनाए हुए है। वे चाहते हैं कि आप जैसे लोग खुद ही आत्मनिर्वासित हो जाएँ ताकि उन लोगों के लिए खुली और पूरी जगह मिल जाए। लेकिन रहना तो इसी संसार में है, अत: हम सब मिलकर इस गंदगी को साफ़ करें, मैदान न छोड़ें।” जाने – माने पत्रकार श्री अजय तिवारी ने अपनी टिप्पणी में कहा, - “बहुत दिनो से आपकी इस विषय पर बेबाक राय जानना चाहा रहा था कि क्या अच्छे साहित्यकार,पत्रकार और कलाकार के लिए अच्छा इंसान होना जरुरी नहीं है, क्या हम जिनको बड़ा समझते हैं, वो इस कसौटी पर खरा उतरते हैं? क्या वो जैसा अच्छा लिखते हैं वैसा ही उनका आचरण है? क्या उनकी कथनी और करनी एक समान है? क्या वो हकीकत में चरित्रवान हैं? या फिर फ़िल्मी अभिनेताओं की तरह से ही उनकी निजी जिंदगी की तरफ ध्यान नहीं देना चाहिए? मैं एक नामी साहित्यकार को जानता हूँ, जो महिलाओं को सशक्त बनाने पर खूब लिखते आ रहे हैं पर सालों से रोज़ शाम को शराब पीकर अपनी पत्नी को पीटते आ रहे हैं।” युवा कवि, उपन्यासकार व संपादक हरे प्रकाश उपाध्याय ने अपनी सीधी व तीखी टिप्पणी की, - “साहित्य जगत में बढ़ती अवसरवादिता का आपने सही विश्लेषण किया है।” सारी प्रतिक्रियाएँ पढ़ने के बाद मैंने हिन्दी साहित्य के एक नामी ब्लॉग पर उस प्रकरण में अपनी अंतिम प्रतिक्रिया इस प्रकार से दी, - “पहले मुझे यही लगता था कि साहित्य के अरण्य में सिर्फ़ भाषायी रूप से बर्बर हिंस्र पशुओं की ही चलती है, जहाँ वे किसी की एक भी पंक्ति पढ़े या कहे बिना उसके सरल शब्द भाव - संसार को किसी नरभक्षी की तरह चबा सकते हैं और गली के किसी नशेड़ी की तरह कोई भी गाली - गलौज भरी टिप्पणी करके किसी को भी अपमानित कर नीचा दिखा सकता है। मुझे यह भी लग रहा था कि साहित्य के लोकतंत्र की तिकड़में, राजनीति की तिकड़मों से भी ज्यादा लिजलिजी हो चली हैं। लेकिन इन प्रतिक्रिआओं को पढ़ने के बाद मुझे लगता है कि अभी भी तमाम संभावनाएँ ज़िन्दा हैं।”

वर्तमान साहित्य की चुनौतियों के बारे में मेरा मानना है कि हमारे बाह्य समाज में तेजी से बदलाव आ रहा है। समय के साथ वह बदलाव हमारी भाषा, शैली कथ्य में होना भी अनिवार्य है अन्यथा हमारा लेखन आउटडेटेड हो जाएगा। जहाँ तक मानवीय भाव चेतना वैचारिक चेतना का सवाल है, वह शाश्वत होती है। मुझे नहीं लगता कि उसमें कोई कमी हुई है। समय को पकड़ने लोगों से जुड़कर चलने के लिए लेखन के तरीके औजार बदलने जरूरी हैं। यदि तुलसी संस्कृत को छोड़कर अवधी में मानस रचते तो आज कहाँ होते? रचनाकार की जिम्मेदारी सिर्फ़ उत्तम रचना या विचार सामने रखना नहीं है। उसे ग्राह्य तरीके से प्रस्तुत करना भी जरूरी है। कुपठता के बारे में चिन्तित होने भर से कुछ नहीं होगा, लेखन को सुपाठ्य नई तकनीक से सहारे सुलभ्य बनाना ही होगा।

मुझे हिन्दी साहित्य से ज्यादा चिन्ता आज हिन्दी भाषा के लिए होती है। मेरे लिए सिविल सेवा परिक्षा में सी - सैट की का अंश हिन्दी में रखने से बड़ा प्रश्न यह है कि आज हमारे बच्चे भारत की अपनी मातृभाषाओं से प्यार कैसे करें? जिस भाषा में उन्हें ज्ञान अर्जित करने का मौलिक स्रोत या सामग्री नहीं मिलती, उस पर गर्व करें तो कैसे करें? सिर्फ़ बोलचाल या व्यापारिक - सामाजिक संपर्क की भाषा के रूप में अथवा सरकारी काम - काज की भाषा के रूप में बढ़ावा मिल जाने अथवा प्रतिष्ठा पा जाने से ही या कोई भी भारतीय भाषा श्रेष्ठ व नई पीढ़ी के लिए ग्राह्य नहीं बन जाएगी। भाषा की ग्राह्यता तथा आने वाली पीढ़ी के लिए उसकी उपयोगिता बढ़ाने के लिए हमें वर्ष 1968 में संसद के दोनों सदनों से पारित संकल्प के अनुरूप उन्हें आधुनिक ज्ञान के संचार का स्रोत बनाना पड़ेगा। यह तभी होगा जब विज्ञान, कला, संस्कृति, शिक्षा, व्यवसाय तथा वाणिज्य के क्षेत्र में इन भारतीय भाषाओं को प्रयोग में लाया जाएगा और इनमें इन सभी क्षेत्रों से जुड़ा लेखन होगा. जब यह स्थिति बनेगी कि किसी महत्वपूर्ण शोध के परिणाम किसी विद्वान ने केवल हिन्दी, तमिल में या मलयालम में प्रकाशित किए हैं, अंग्रेज़ी में नहीं, तभी उन्हें जानने, समझने और उपयोग में लाने के इच्छुक शोधार्थी छात्र, शिक्षक व अन्य विद्वान ऐसे लेखों को इन भारतीय भाषाओं के माध्यम से पढ़ने को उद्यत होंगे। यही इन भाषाओं की शेष्ठता को बढ़ाएगा, इनमें किया गया सरकारी काम - काज़ अथवा कार्य - व्यवहार में किया गया इनका इस्तेमाल नहीं। यह हमारी इच्छाशक्ति और सही नीतियों से ही संभव हो सकेगा।

आज यदि देश - विदेश में अपने ज्ञान का सिक्का जमा चुके सभी भारतीय विद्वान यह तय कर लें कि वे अपने - अपने विषयों में अपनी खोजों व निष्कर्षों का एक छोटा-सा हिस्सा आगे से अपनी मातृभाषा में प्रसारित करेंगे तो मुझे पूरा विश्वास है कि धीरे - धीरे हमारी विभिन्न भारतीय भाषाओं में ज्ञानार्जन की एक बहुत अच्छी मौलिक सामग्री तैयार हो जाएगी तथा भविष्य में हमारे बच्चों को ज्ञान की खोज में मजबूरी में अंग्रेज़ी भाषा में लिखी पुस्तकें नहीं खंगालनी पड़ेंगीं और वे आगे से इंटरनेट पर किसी भी विषय की सामग्री अंग्रेज़ी में खोजना बंद कर देंगें. हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं को ज्ञान की भाषाएँ बनाने के लिए एक न्यूनतम कार्य - योजना के रूप में मेरे निम्न सुझाव हैं:

(1)          किसी कानून अथवा प्रशासनिक व्यवस्था के तहत सरकार को तुरंत यह अनिवार्य कर देना चाहिए कि देश में जितने भी केंद्रीय अथवा राज्य सरकारों के कानूनों के तहत स्थापित विश्वविद्यालय, यू.जी.सी. से संबद्ध विश्वविद्यालय अथवा डीम्ड विश्वविद्यालय हैं वे जिन भी विषयों में शोध - कार्य (डॉक्टरेट) कराते हैं, उनमें अनिवार्य रूप से, जहाँ वे स्थित हैं, उस राज्य की राजभाषा में एक शोध - पत्रिका प्रकाशित करना शुरू करें जिनमें संबंधित विषय के विशेषज्ञों व शोध-छात्रों के मौलिक शोध - पत्र छपें. 

(2) यह भी अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए कि सभी विश्वविद्यालयों के जो भी प्रोफेसर या एशोसिएट प्रोफेसर (रीडर) स्तर तक के शिक्षक होंगे वे अपने शोध-कार्य के परिणामों व निष्कर्षों से संबंधित मौलिक शोध - पत्र प्रकाशित करते समय उनका कम से कम दस प्रतिशत, भारतीय भाषा की उपरोक्त रूप से प्रकाशित की जाने वाली किसी न किसी शोध-पत्रिका में प्रकाशित करेंगे. बाद में यह प्रतिशत बढ़ाया जा सकता है.

(3) केंद्र तथा राज्य सरकारों की सभी शोध - संस्थाओं के लिए यह अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए कि वे जो भी शोध - पत्रिकाएँ प्रकाशित करती हैं उनका पचास प्रतिशत हिंदी अथवा संबंधित राज्य की भाषा में ही छापें तथा ऐसी संस्थाओं के वैज्ञानिक अथवा विशेषज्ञ एंव शोध - छात्र अपने शोध - कार्य के परिणामों व निष्कर्षों से संबंधित मौलिक शोध - पत्र प्रकाशित करते समय उनका कम से कम दस प्रतिशत भारतीय भाषाओं की ऐसी किसी न किसी शोध-पत्रिका में अवश्य प्रकाशित करें. बाद में यह प्रतिशत बढ़ाया जा सकता है.

(4) विश्वविद्यालयों के प्रोफेसरों व एशोसिएट प्रोफेसरों एवं केंद्र तथा राज्य सरकारों की सभी शोध-संस्थाओं के वैज्ञानिकों को प्रोन्नति दिए जाने/ विशिष्ट पदों पर चयन की योग्यता के लिए भारतीय भाषाओं को दिए जाने वाले उपरोक्त योगदान को अनिवार्य बनाया जाय.

(5) इस तरह की सारी ज्ञान - दायिनी सामग्री को सरकार द्वारा प्रस्तावित- भाषापरियोजना के माध्यम से अन्य भारतीय भाषाओं में भी अनूदित करके एक सार्वजनिक पोर्टल के माध्यम से सभी देशवासियों को उपलब्ध कराया जाय.

मेरा मानना है कि कानून के जोर - दबाव के माध्यम से इस प्रकार के किसी भाषायी अभियान का चलाया जाना कोई अच्छी बात नहीं है किंतु मुझे यह भी यकीन है यदि इस देश की भाषाओं को एक दिन अंग्रेज़ी के प्रभाव में नेस्तनाबूद होने से बचाना है और संसद के संकल्प के मुताबिक उन्हें समृद्ध एवं आधुनिक ज्ञान के संचार का प्रभावी माध्यम बनाना है तो इस प्रकार की व्यस्थाएँ करनी जरूरी भी हैं। क्या इस देश की भाषाओं को आने वाली पीढ़ी के लिए ज्ञान का स्रोत बनाने वाले ऐसे किसी समेकित अभियान को चलाए जाने की इच्छाशक्ति इस देश में कभी जागृत होगी?

मेरा मानना है कि राजनीतिक जागृति पर केन्द्रित किए बिना साहित्य अधूरा है। लेकिन साहित्य इस पर ज्यादा ध्यान नहीं दे रहा। आज साहित्य में स्त्री विमर्श, दलित विमर्श व पारिवारिक अन्तर्संबन्धों आदि पर तो काफी फोकस है, किन्तु देश की राजनीतिक स्थिति व नए राजनीतिक मूल्यों की स्थापना की तरफ कम चिन्ता है। वैसे सोचने वाली बात है कि क्या भारत का भविष्य उज्ज्वल है, क्योंकि हम संघर्ष के नए - नए तरीकों की खोज़ कर रहे हैं, सड़कों की गति थामने की नई विधियाँ ईज़ाद कर रहे हैं, कानून - व्यवस्था क़ायम करने व अपराधों की रोकथाम के लिए पुलिसिंग के नए आयाम नियत कर रहे हैं, सबको एक सिरे से भ्रष्ट मानकर, आँखें बन्द कर भ्रष्टाचार के विरुद्ध झाड़ू चला रहे हैंकानूनी व प्रशासनिक सुधार, संवैधानिक परिवर्तन, चरित्र - निर्माण, आधुनिक चेतना, वैचारिक क्रांति, वैज्ञानिक सोच, आर्थिक समानता व उन्नति के उपायऐसी की तैसीधरना करो सब हो जाएगाक्यों दफ़्तर में बैठकर फाइलों में खटो? देश का भविष्य अराजक होने का आतंक पैदा करने मे निहित हैफौजियों के मसीहा बन जाओपुलिस के सिपाहियों की वरदी उतरवाकर उनसे धरना करवा लोकानून - व्यवस्था अपने आप सुधर जाएगीआम आदमी का नारा लगाओ, खास आदमी अपने आप दड़बों में दुबक जाएँगे या देश से बाहर भाग जाएँगेजय हो आम आदमी के भारत की! क्या आज का साहित्य देश की जनाकांक्षाओं को सही रूप में पहचान रहा है, और उन्हें विचार के केन्द्र में रखकर जन - लेखन (परिमार्जित अर्थों में) कर पा रहा है।

हमारे लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ की स्थिति भी चिताजनक हो रही है। प्रिट मीडिया कार्पोरेट के हाथों में जाकर लगभग निर्वीर्य हो गया है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया कार्पोरेट का टूल बनकर देश की राजनीति का एजेण्डा तय कर रहा है। यह वही मीडिया है जिसने एक समय पर अन्ना हजारे के आंदोलन को इतना जोर से ऊपर उछाला था कि जैसे अब देश में वह समग्र क्रांति आ जाएगी जिसे सत्तर के दशक में बहुत चाहकर भी बाबू जयप्रकाश जी नहीं ला पाए थे। इसी संदर्भ में मैंने एक बार फेसबुक पर यह टिप्पणी की थी, - “चिन्ता मत करो मीडिया वालों, अगर देश की व्यवस्था को चकनाचूर करके ही उसमें सुधार आना है, और ऐसा करने में ही सभी को मज़ा आना है तो वह दिन दूर नहीं, जब मीडिया - हाउसों पर भी धरना - प्रदर्शन होने लगेंगेतब क्या होगा उसकी आज़ादी काआखिर कुछ तो तौर - तरीके तय करने ही पड़ेंगे प्रोटेस्ट के, तेजी से आगे बढ़ने की इच्छा रखने वाले इस विशाल लोकतंत्र में, जहाँ लोकतंत्र के नाम के नाम पर लोकतंत्र ही ठेंगे पर रखा जाता है अक्सर … 'आम आदमी' के नाम पर यहाँ आसानी से आम आदमी को भी ठेंगे पर रखा जा सकता है।” एक अन्य बड़ी चिन्ता का विषय है, देश में हो रहा सांप्रदायिकता का उभार। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सांप्रदायिक दंगों की आँच अभी भी कम नहीं हुई है। जब दंगे हुए थे, तब मैंने लिखा था, - “राजनीति में सांप्रदायिकता का उभारजातीय उन्मादनिर्विवेक पंचायतेंप्रतिशोध की भावना का प्रसारअफवाहेंभड़काऊ भाषणघर - घर लाइसेंसी गैर - लाइसेंसी हथियारजुनूनदंगेलचर प्रशासनदंगों की राजनीतिसुलगता भविष्यजो भी कारण हों मुजफ्फरनगर की घटनाओं केजो हो रहा है वह नितान्त निंदनीयबेहद ख़ौफ़नाकचिन्ताजनक हैअभी तो बस शोक, सद्भाव, सद्बुद्धि और शांति की अपील ही कर सकता हूँ।” मेरा मानना है कि असहिष्णुता का उभार सरकारी अथवा अर्धसरकारी तमगे वापस करने अथवा उसके बारे में राजनीति करने से कम नहीं होगा। साहित्यिक बिरादरी को इसके लिए अपनी कलम को ही हथियार बनाकर समाज में स्वस्थ सोच का विस्तार करना होगा। 

भारतीय समाज प्राचीन काल से ही धार्मिक एवं सामाजिक सहजीविता व सहिष्णुता के सिद्धान्तों पर चलता रहा है। बाहरी दुनिया प्राचीन काल से ही बर्बर थी, असहिष्णु थी। क्या आज किसी ऐसी सत्ता की कल्पना की जा सकती है, जहाँ धर्म - परिवर्तन कराने की सज़ा के तौर पर शासक आपको दौड़ते हुए वाहनों के आगे फिंकवा दे, खूँखार ज़ानवरों का निवाला बनवा दे, तरह - तरह की शारीरिक वा मानसिक प्रताड़नाएँ दे. एक ज़माना था जब कैलीगुला तथा नीरो जैसे रोमान शहंशाह इसी तरह मौज़ मनाते थे. कैलीसिओ में मनोरंजन के लिए ग्लडिएटर लड़ाते थे. उन पर खूँखार ज़ानवर भी छोड़ दिए जाते थे. ज़ानवरों को बेरहमी से ज़िबह करने वाले भी थे. उफ्फ़ कितनी वितृष्णा भर उठती है मन में यह सब जानकर. यह ही ज़माना था जब भारत में चारों तरफ महाबीर और बुद्ध की प्रेम, अहिंसा शुचिता के आचरण के सिद्धांतों की धूम थी. महाभारत जैसे युद्ध की विभीषिका से बचने की भावना में पूरा भारतवर्ष राजनीतिक धार्मिक सहिष्णुता वा सहजीविता के चरम पर था. जब नीरो के लोग ईसाइयों का क़त्लेआम कर रहे थे तब भारत के सुदूर केरल में सेंट थॉमस का स्वागत हो रहा था. उत्तर भारत में शकों और हूणों की उपस्थिति को भी सहजता से लिया गया था. भारत के गणराज्य राजनीतिक व्यवस्था की श्रेष्ठता के चरम पर थे. कैलीगुला ने तो गणतंत्रीय व्यवस्था का मज़ाक उड़ाते हुए अपने घोड़े को ही सेनेट में नामित कर दिया था. भारत में तो नीरो से तीन सौ पहले ही यूनान से शाही प्रेम - विवाह के माध्यम से अद्भुत संबंध स्थापित हो चुका था. तब का भारत रोमा से पिछड़ा नहीं था, वह तो सामाजिक, राजनीतिक सांस्कृतिक दृष्टि से अपना एक विशिष्ट स्थान रखता था. वह रोमन सभ्यता से कितना आगे और श्रेष्ठता के किस पायदान पर था इसका अंदाज़ा आप खुद ही लगाइए! भारत आज भी वैसा ही है। जो यहाँ आया, वह बदल गया और यहीं का होकर रह गया। सता आती - जाती रही। भारत की यही खूबी रही है, यही इसकी संस्कृति है। हमें यहाँ इसी संस्कृति का पोषण करना है।

एक और अंतिम व अनिवार्य बात कि एक सरकारी अधिकारी होने के नाते मैं यह घोषित करता हूँ कि इस स्वकथन में अथवा इस पुस्तक में अभिव्यक्त किसी भी विचार अथवा अभिमत से सरकार का कोई संबन्ध नहीं है और यह सब मेरे निजी विचार एवं अभिमत हैं।

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