आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

Monday, June 2, 2014

गठबन्धन - 2 (2009)

प्रजातंत्र की मजबूरी थी
सो बन गया गठबन्धन
किस रस्सी से बँधी गाँठ
किस बल से कसा बन्धन
इसमें कोई मिथकीय रहस्य न था
बस गठबन्धन की घोषित जरूरतों पर
एक अघोषित मतभेद जरूर था

यह गठबन्धन
हिन्दुस्तानी विवाह - व्यवस्था की तरह
सात जन्मों तक चलते रहने की
अब तक की अघटित परिकल्पना वाला
अथवा जब तक निभे
तभी तक चलने की  
पश्चिमी मान्यता वाला भी नहीं था
इसे तो अगले चुनाव तक भी नहीं
बस परिणाम आते ही
और ज्यादा कस जाना
या गाँठ से खुल जाना था
या फिर किसी 'लिव - इन' रिश्ते की तरह
परिणाम आने के बाद ही इसे बनना था
और अगले चुनाव के पहले ही
अलग - अलग हो जाना था

गठबन्धन के इसी मर्म को पहचानते हुए
कुछ ने तो परिणाम आने के पहले ही
डाल लिया है अपने कंधे पर
रस्सी का एक छोर
कमर में उसका एक मजबूत फंदा लगाकर
ताकि सरक पाए उनके कब्ज़े से
रस्सी का यह छोर कभी
और परिणाम आने पर
बँधवा सकें वे अपने को
किसी भी खूँटे से
लोकतंत्र की रक्षा के नाम पर

बलिहारी इन गठजोड़ों की
बेवकूफी हम करोड़ों की।

लोकतंत्र की नई पौध (2009)

लगता है भारत में अब
लोकतंत्र की नई पौध
ज़मीन पकड़ने लगी है
चलो सींचे इसे जरूरत भर
डालते रहें इसमें खाद - पानी
चुनाव - दर - चुनाव
ताकि भरपूर लहलहा उठे यह फसल
क्योंकि देश की जनता अब जागरूकता के साथ
अच्छी उपज वाली फसल की तलाश में है
भले ही वह अभी भी चुनती रहती है यहाँ - वहाँ
अपनी ही जाति - बिरादरी का नेता
और देती है बार - बार खंडित जनादेश भी।

लोकतंत्र की इस नई पौध के लिए
एक लंबा इंतज़ार किया है हमने
समय - समय पर अनेकों प्रयोग भी किए हैं
हम कभी नहीं भुला सकते
इस लोकतंत्र को मजबूत बनाने के लिए किया गया
नेहरू, लोहिया, इंदिरा और जे.पी. का योगदान
कुछ बचकाने और मनमाने प्रयोग भी किए हैं हमने
जिनका ज़िक्र यहाँ किया जाना इसलिए जरूरी नहीं
ताकि न मिले फिर से उन अनचाही बातों को कोई तूल
जिनके लिए बहुचर्चित रहे हैं
लोगों को बरगलाने वाले ऐसे तमाम प्रयोग।

किसी संकर किस्म की पौध नहीं है यह
जिसके लिए फसल - दर - फसल
खोजते फिरें हम मंहगे बीज
या फिर करते फिरें उनका आयात
यह पौध तो खालिस अपने ही खेतों की मिट्टी में उपजाई है हमने
अपने ही अवशिष्टों की कम्पोस्ट से
पोषित किया है इसे हमने
ताकि बना रहे इस पर हमारा
बौद्धिक और धार्मिक अधिकार
और अक्षुण्ण बनी रहे हमारी
अपनी ही बोई फसल काटने की संप्रभुता
चाहे कैसे भी हों हमारे लिए
इन फसलों की उपज के परिणाम!

मित्रो! चलो धन्यवाद दें!
चुनाव 2009 के समापन के इस अवसर पर
इस देश की मीडिया को
सामाजिक विचारकों को
चुनाव आयोग के वोटर - जागरण अभियान को
जिनकी मुहिम से ही आज
जमने लगी है यह पौध
और सबसे ज्यादा तो
देश के लाखों गाँवों में
दूर बैठी उस विशाल जनता को
जिसने हमेशा ही इन प्रयोगों में
चुपचाप अपनी सक्रिय भूमिका निभाई है।

चलो उनको भी दे दिया जाय
थोड़ा - सा धन्यवाद
जो बकौल दिनकर जी
अभी तक बैठे रहे हैं बेपरवाह
तटस्थता के अपराधी बने
किन्तु अब वे भी तैयार हो रहे हैं
लोकतंत्र की इस नई खेती में
अपना पसीना बहाने के लिए!

झंडा (2013)

एक के हाथ में धर्म की ध्वज़ा है
एक के हाथ में जाति का झंडा है
और अनेक वे भी हैं जो
किसी न किसी वर्ग, भाषा, बोली या संगठन के
झंडाबरदार बने घूम रहे हैं
इन्हीं के बीच एक वह भी है
जिसके पास फिलहाल कोई भी झंडा नहीं
आज ऐसे ही एक आदमी की आँखों में आँसू हैं
और ऐसे ही किसी एक की पीठ पर आज
बाकी सभी का डंडा है

मुझे पता नहीं कि
यह प्रजातंत्र का कोई नया फलसफा है
या फिर एक गरीब देश में
नोटों के बदले वोट बिकने की स्थिति होने की लाचारी
लगता तो यही है कि
यहाँ इस तरह की लाचारी का होना भी
इन्हीं सब झंडाबरदारों का एक नया हथकंडा है

मित्रो, अब इस देश को
इन लोगों से बचाने का
मुझे तो सूझता नहीं कोई फंडा है
अब तो इन्हीं के हाथों में उस मुरगी की गरदन है
जिसके पेट में पल रहा
हमारी खुशहाली का प्रतीक सोने का अंडा है।

सुधियों के दंश (1983)

मधुमयी पीर ने छुआ मन को,
दंश सुधियों ने यूँ दिया तन को।

जब से दस्तक दिया सुगंधों ने,
रंग बिखरे कली के रंध्रों में,
बन के अनुभूति की सिहरन व्याकुल
कोई बसने लगा है छंदों में,

जब से मधुमास की आहट पाई,
होश मुझको एक भी छन को।

पास में एक हवा का झोका
जब से मस्ती का तार छेड़ गया,
वक़्त के साथ-साथ सर्द हुए
नग्न शोलों के तन उधेड़ गया,

टीस उठने लगी है नस-नस में,
जब से लौटा वसन्त मधुबन को।

भोर की अनछुई किरणों की तरह
जब से धरती का रूप निखरा है,
कदम-कदम पे मोहने वाला
रंगों का इंद्रजाल बिखरा है,

एटमी शक्ति सी उमड़ी पीड़ा,
तूल जब से मिली विखंडन को।