आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Monday, June 2, 2014

सुधियों के दंश (1983)

मधुमयी पीर ने छुआ मन को,
दंश सुधियों ने यूँ दिया तन को।

जब से दस्तक दिया सुगंधों ने,
रंग बिखरे कली के रंध्रों में,
बन के अनुभूति की सिहरन व्याकुल
कोई बसने लगा है छंदों में,

जब से मधुमास की आहट पाई,
होश मुझको एक भी छन को।

पास में एक हवा का झोका
जब से मस्ती का तार छेड़ गया,
वक़्त के साथ-साथ सर्द हुए
नग्न शोलों के तन उधेड़ गया,

टीस उठने लगी है नस-नस में,
जब से लौटा वसन्त मधुबन को।

भोर की अनछुई किरणों की तरह
जब से धरती का रूप निखरा है,
कदम-कदम पे मोहने वाला
रंगों का इंद्रजाल बिखरा है,

एटमी शक्ति सी उमड़ी पीड़ा,
तूल जब से मिली विखंडन को।

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