आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Monday, July 18, 2011

सच्चा सुख-बोध

प्रकृति की सर्वोत्तम संरचना
होती है मनुष्य-देह,
मनुष्य-देह में सन्निहित होता है
सबसे निराला सा नैसर्गिक सौन्दर्य,
सौन्दर्य के प्रति ही जागता है
मन में आकर्षण सदा,
आकर्षण से ही उपजती है
अन्तस में अनुरक्ति,
अनुरक्ति से ही संभव होता है
एक सृजनोन्मुख संसर्ग,
ऐसे संसर्ग में ही निहित होता है
एक सच्चा सुख-बोध,
और ऐसे सच्चे सुख-बोध में ही
छिपी होती है जीवन की पूर्णता की अनुभूति।

बिना ऐसे सुख-बोध की प्राप्ति के
बस एक आंशिक अनुभूति सा ही होता है
अवशेष सब कुछ महसूसना।

दुनिया में कितने ही प्रेमी-जन
जीते हैं जीवन भर
प्रायः इसी आंशिक अनुभूति के ही सहारे
क्योंकि, प्रेमी से संसर्ग ही नहीं हो पाता उनका कभी
गहरी अनुरक्ति होने के बावजूद,
या फिर जी भर कर अनुरक्ति ही नहीं होती
तमाम आकर्षण होने के बावजूद,
अथवा प्रायः आकर्षण ही नहीं महसूस होता
देह में अप्रतिम सौन्दर्य होने के बावजूद
और कभी-कभी तो ऊपर वाला भी
हद ही कर देता है
जब एक देह तो होती है हमारे पास
दूसरों जैसी ही
किन्तु सौन्दर्य नहीं होता उसमें
किसी को अपनी ओर आकर्षित करने लायक।

बड़ा ही अटपटा सा रिश्ता होता है देह का
मन में महसूस की जाने वाली
सुख की अनुभूतियों के साथ,
कई दुर्गम द्वार पार करने के बाद ही
प्रवेश कर पाता है मनुष्य-मन
आनन्द-प्राप्ति के अनुष्ठानों का केन्द्र बने
उस गर्भ-गृह में
जहाँ पर होता है शाश्वत
नैसर्गिक सुख के दुर्लभ देवता का वास।

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