आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

Tuesday, July 19, 2011

फेसबुक की भित्तियों पर

सुबह-सुबह टाँग दिया है
मेरा नाम टैग करके
किसी मित्र ने
अपना एक पुराना चित्र,
देखते ही जिसे
संचरित हो उठा मेरा मन
उन्हीं अदृश्य तरंगों के हिंडोले पर बैठ कर
जो लाई थीं इस चित्र को
उस मित्र के स्मृति-कोश से सहसा निकाल कर
मेरे इस भित्ति-पटल तक
दूर अंतरिक्ष में परिक्रमा कर रहे
किसी संदेश-वाही उपगृह के माध्यम से।

अंतरिक्ष की इस लंबी यात्रा में
चुपके से समेट लेता है मेरा मन
चाँद का विविधतापूर्ण सौन्दर्य
सूर्य की शाश्वत ऊर्ज्ज्वसलता
और भी न जाने क्या-क्या कल्पनातीत
इस सौर-मंडल के पार से भी
मात्र कुछ नैनो-सेकंडों में ही
फिर से पहुँचने को आतुर हो वहाँ
उस मित्र के स्मृति-कोश को
इस सबसे अभिसिञ्चित करने
उस पुराने चित्र की टैगिंग के उद्गारों के वशीभूत होकर।

फ़ेसबुक की इन भित्तियों पर
जो कुछ भी साझा करता है कोई मित्र
वह बस हम दो मित्रों तक ही सीमित नही रहता,
वह तो प्रसारित और निनादित होता है
दिग्दिगान्तर में
समूचे ब्रह्मान्ड में
चमकते सूरज-चाँद-तारों की तरह
अपने चाहने वालों की
पूरी ज़मात को साक्षी बना कर,
जैसे उस मित्र का यह पुराना फोटो टँगा है
आज सारे के सारे मित्रों के सामने
मेरे भी नाम को अपने गले में लटकाए हुए।

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