आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Sunday, July 17, 2011

सत्य बनाम झूठ

सत्य के पाँव नहीं होते कि
वह खुद चल कर आए हमारे सामने,
झूठ के हमेशा ही लगे होते हैं पंख
और वह उड़ कर पहुँच जाता है हर एक जगह।

सत्य प्रकट होता है
रंग-मंच के दृश्य की तरह
परदा उठाने पर ही,
किन्तु झूठ टंगा होता है
चौराहे की होर्डिन्गों पर
सरकारी विज्ञापनों की तरह।

कपड़े के फटे होने का सत्य
हमेशा ढाँके रखता है
ऊपर से लगाया गया पैबन्द,
हमारा चेहरा दिखने लगता है
कितना सुन्दर व चिकना
झुर्रियों को मेक-अप करके छिपा देने के बाद।

आज-कल सत्य को झूठ के आवरण में ढँककर
नज़रंदाज कर देना एक आम बात है,
लेकिन झूठ के सुनहरे मुलम्मे को उतारकर
सत्य के खुरदुरेपन के साथ जीने का साहस दिखाना बहुत ही दुर्लभ।

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