पीने को कितने तरल
पूरित गरल
मिलते पल-पल,
धरा पर विष-पान करना
आज है कितना सरल।
अमृत-मंथन
बहुत मुश्किल
देव-दानव जिएं हिल-मिल,
नहीं दिखती कोई मंजिल
वासुकि जाए जहाँ मिल
मंदराचल गला तिल-तिल।
कर रहे छक कर सभी विष-पान
चाहते होना सभी ज्यों नीलकंठी
मोहिनी साकी बनी विष बाँटती है,
अमृत पाने को नहीं संघर्ष कोई
विष्णु को आराम करने दो वहीं
उस क्षीरसागर मध्य ही।
No comments:
Post a Comment