आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

Wednesday, June 6, 2012

काव्य-जगत में पसरे वर्तमान सन्नाटे को दूर करती अशोक कुमार पांडेय की कविताएं ('कथादेश' के जून 2012 अंक में प्रकाशित अशोक कुमार पांडेय के कविता-संग्रह 'लगभग अनामंत्रित' पर मेरे द्वारा लिखी गई समीक्षा)


अभी हाल में अशोक कुमार पांडेय का कविता-संग्रह, ‘लगभग अनामंत्रित’ प्रकाशित होकर सामने आया (शिल्पायन, दिल्ली), तो लगा, जैसे आज के काव्य-जगत में पसरे वर्तमान सन्नाटे को दूर करने के लिए यही हैं इकीसवीं सदी की, पाठकों को सहज रूप से आमंत्रित करती, वे कविताएं, जिनका काफी समय से इन्तज़ार हो रहा था । आज जब हर तरफ से यह आवाज़ उठ रही है, कि कविता का धरातल खोखला हो चुका है, और इस विधा में अभिव्यक्ति का दायरा सीमित है, ऐसे में अशोक के इस कविता-संग्रह की कविताएं, कविता के मृतप्राय हो जाने की निष्पत्ति को पूरी ताक़त के साथ नकारती हुई हमारे सामने आई हैं। इन कविताओं में आज के सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य का बारीकी से किया गया विश्लेषण है, व्यवस्था के विद्रूप के प्रति क्षोभ है, भूमंडलीकरण व बाज़ारवाद के दुष्प्रभावों का नग्न चित्रांकन है तथा उसके कारण पैदा होने वाले भावी ख़तरों के प्रति आगाह करने वाला दृष्टिकोण है। अशोक की कविताओं में उपेक्षित व अलग-थलग पड़े मानव-समूहों के हक़ों की लड़ाई में मज़बूती से उनका पक्ष रखने की ललक है। वामपंथी विचार-धारा को तार्किकता के साथ परिपुष्ट करने में जुटे रहने वाले अशोक कुमार पांडेय ने अपनी सैद्धांतिक लड़ाई को इस संग्रह की कविताओं के माध्यम से दूर तक आगे ले जाने की इच्छाशक्ति व क्षमता प्रकट की है।

वैसे तो अशोक कुमार पांडेय की हर कविता अपना एक विशेष अंदाज़, अपनी एक खास शैली तथा किसी न किसी महत्वपूर्ण विषय-वस्तु को प्रस्तुत करती है, किन्तु इस संग्रह में कुछ ऐसी भी कविताएं हैं, जिन्हें पिछले दशक की सर्वश्रेष्ठ हिन्दी कविताओं का दर्ज़ा देकर उन्हें बार-बार उद्धृत किया जा सकता है। ऐसी कविताएं हमारा ध्यान बरबस अपनी ओर आकर्षित करती हैं और फिर अपने चमत्कारिक प्रभाव के साथ लगातार हमारे ज़ेहन में कौंधती रहती हैं। ‘गाँव में अफसर’ एक ऐसी ही कविता है। इस कविता की ‘समय का सवर्ण है अफसर/ ढाई कदमों में नाप लेता है/ गाँव का ब्रह्मांड’ जैसी पंक्तियाँ एक साथ ढेर सारे विम्ब हमारे सामने खड़े कर देती हैं। सवर्ण एवं शूद्र के भेद-भाव से त्रस्त मनुवादी सामाजिक व्यवस्था ने हमारी सामाजिक-आर्थिक क्षमताओं व संभावनाओं को हजारों सालों से पंगु बना रखा है। आज जब वह खाईं पटती दिखाई दे रही है, तो एक दूसरे किस्म का वर्गीकरण समाज को ऊँच-नीच से जकड़ता जा रहा है, विशेष कर ग्रामीण क्षेत्रों में। यह है, सरकारी अफसरों की बिरादरी का आम ग्रामीण-जनों पर बढ़ता रोब-दाब। ‘समय का सवर्ण है अफसर’ जैसी पंक्ति, इसी नए वर्ग-विभेद के बढ़ते प्रचलन की ओर इशारा करती है। कवि बड़ी खूबी से अगली पंक्तियों में ही ‘ढाई कदमों में नाप लेता है/ गाँव का ब्रह्मांड’ कह कर वामनावतार के मिथकीय आख्यान के संदर्भ को समेटते हुए ग्रामीण-समाज में अफसरों के स्थापित हो चुके वर्चस्व की ओर इशारा करता है। साथ ही यह भी इंगित करता है कि अफसरानों का काम-काज यथार्थ की ज़मीन पर नहीं टिका होता है। वह प्रतीकात्मक तथा अतिरंजना से भरा होता है। इस कविता में कवि आगे सरकारी तंत्र की निरर्थकता व निष्प्रभाविता को स्पष्ट करने के लिए बड़े ही सशक्त शब्दों में अफसरी मृग-मरीचिका का विम्ब खींचता है, ‘और फिर इस तरह जाता है गाँव से अफसर/ जैसे मरुस्थल की भयावह प्यास में/ आँखों से मायावी सागर…।’

अशोक कुमार पांडेय की कविताएं वर्तमान समय की भयावहता को बड़ी जीवंतता से प्रस्तुत करती हैं। भूमंडलीकरण व कार्पोरेट जगत के बढ़ते दुष्चक्र के बारे में उन्होंने पहले भी बहुत कुछ लिखा है। पिछले वर्ष ही उनकी पुस्तक ‘शोषण के अभयारण्य’ हमारे सामने आई थी, जिसमें भूमंडलीकरण से उत्पन्न हो रही आर्थिक व सामाजिक विसंगतियों पर उन्होंने काफी विस्तार से अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। इस संग्रह की ‘बाजार में जुलूस’ शीर्षक कविता में वे एक कदम आगे बढ़कर पाते हैं कि भूमंडलीकरण के फलस्वरूप तेजी से मज़बूत और व्यापक हुआ बाजार भले ही प्रकृति से सर्वग्रासी हो, किन्तु फिर भी वह सब कुछ ख़त्म नहीं कर सकता। उसके खिलाफ स्थानीय उपेक्षित समूह भी अपनी पहचान स्थापित कर प्रतिरोध में अपने पैर जमा सकते हैं, पर चला आ रहा है/ अपने जूतों की धूल से/ आसमान पर लिखता अपनी पहचान/ बाजार से बहिष्कृतों का एक विशाल जुलूस/ ऐन बाजार के सीने पर टैंक सा धड़धड़ाता/ देख रहा है भकुआया सा/ प्रकाश की गति से तेज हजार हाथियों के बल वाला बाजार।  यह उम्मीदें जगाने वाली कविता है, जो जूतों की धूल से आसमान पर अपनी पहचान लिखने की बात करती है। एक ऐसी पहचान, जो बाजारीकरण के मिटाए नहीं मिट सकती। वह तो बाजार के सीने पर चढ़कर अपनी जीत की छाप छोड़ने को सन्नद्ध है। अशोक का यह हौंसला और उनकी यह मुनादी ही उनकी कविता की ताक़त है। वे बाजारवाद के घातक परिणामों के प्रति सजग हैं और मनुष्य की आकांक्षाओं व उम्मीदों के उपभोक्तावादी प्रवृत्तियों में तब्दील हो जाने को सबसे बड़ा ख़तरा मानते हैं। ‘सबसे बुरे दिन’ शीर्षक कविता में, बड़े बुरे होंगे वे दिन/ जब रात की शक्ल होगी बिल्कुल देह जैसी/ और उम्मीद की चेकबुक जैसी/ विश्वास होगा किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी का विज्ञापन/ खुशी/ घर का कोई नया सामान/ और समझौते मजबूरी नहीं, बन जाएंगे आदत/ ……… लेकिन सबसे बुरे होंगे वे दिन/ जब आने लगेंगे इन दिनों के सपने!कहकर वे इसी ख़तरे की ओर इशारा करते हैं।

अशोक अपनी कविताओं के माध्यम से उस खेल का भंडाफोड़ करते हैं, जो इस वैश्विक व्यापार की आड़ में चल रहा है। कैसे संसाधनों का दोहन करने के लिए पहाड़ व जंगल निजी कार्पोरेट घरानों को सौंपे जा रहे हैं, कैसे हांसिए पर जीने वाले मानव-समूह विस्थापन की मार झेलते हुए अपने पारंपरिक जीवन-निर्वाह के सहारों से भी हाथ धो रहे हैं, कैसे जंगल के वाशिंदों को जमीन के अधिकार से वंचित रखा गया है तथा वन-संरक्षण के नाम पर कैसे वहाँ उनका अस्तित्व ही गैर-कानूनी हो गया है। कैसे विकास के नाम पर आदिवासी-समूहों को चालाकी के साथ अपने ही घर में पराया बना दिया गया है। इसी के सबब ‘इन दिनों मुश्किल में है मेरा देश’ शीर्षक कविता में वे कहते हैं, जितना अभी है, कभी जरूरी नहीं था विकास/ जितना अभी हैं कभी उतने भयावह नहीं थे जंगल/ जितने अभी हैं, कभी इतने दुर्गम नहीं थे पहाड़/ कभी इतना जरूरी नहीं था गिरिजनों का कायाकल्प।

विद्रोह व संघर्ष अशोक कुमार पांडेय की कविताओं का केन्द्रीय भाव है। वे विद्रोह की भावना के शाश्वत होने में यकीन रखते हैं। अन्याय का प्रतिरोध निरन्तर जारी रहता है। हर विद्रोह को वे इसी निरंतरता की एक कड़ी मानते हैं। विद्रोही हर काल-खंड में स्वतः पैदा होते हैं। पूर्ववर्तियों से प्रेरणा लेते हुए वे व्यवस्था से संघर्ष करते हैं और अपने प्राणों का उत्सर्ग करते हैं। ‘यह हमारा ही खून है’ शीर्षक कविता में वे अपने को इसी शहीदी परम्परा की एक कड़ी बताते हुए कहते हैं, हर बार धरती पर गिरा रक्त हमारा ही था/ हम ही थे रक्तबीज की तरह/ उगते हुए धरती से हर बार!  वे दिनो-दिन बढ़ते जा रहे अत्याचार व शोषण के प्रति बेचैन रहने वाले कवि हैं, लेकिन वे यह मानते हैं कि सच को दबा कर नहीं रखा जा सकता। ‘विष नहीं मार सकता था हमें’ शीर्षक कविता में वे इस बात का प्रभावशाली उल्लेख करते हैं, निकलता रहा विष/ और चटख…और गाढ़ा… और तेज/ तालियाँ बदलती गईं अट्टहासों में/ और सच खुलता गया प्याज की परतों की तरह…।’ यहाँ उनकी बचैनी और उनका आत्मविश्वास मुक्तिबोध से भी आगे बढ़कर हमें उद्वेलित करता दिखाई देता है। ‘विरुद्ध’ शीर्षक कविता में वे अन्याय के ख़िलाफ आदतन लड़ने वाले योद्धा के रूप में सामने आते हैं, लड़ रहे हैं कि नहीं बैठ सकते ख़ामोश/ लड़ रहे हैं कि और कुछ सीखा नहीं/ लड़ रहे हैं कि जी नहीं सकते लड़े बिन/ लड़ रहे हैं कि मिली है जीत लड़कर ही अभी तकअपने हक़ों की लड़ाई में वे किसी भी बात को दरकिनार नहीं करना चाहते, हर उस जगह थे हमारे स्वप्न/ जहाँ वर्जित था हमारा प्रवेश! (अरण्यरोदन नहीं है यह चीत्कारशीर्षक कविता से)

सत्ता-प्रतिष्ठान के दमनकारी स्वरूप को अशोक अच्छी तरह पहचानते हैं। कलम की ताक़त के दिनो-दिन निष्प्रभावी होते जाने की हक़ीकत भी वे पहचान रहे हैं। तभी तो ‘अरण्यरोदन नहीं है यह चीत्कारशीर्षक कविता में वे तल्ख़ी के साथ कहते हैं, हर तरफ एक परिचित शोर था/ अपराधी थे वे, जिनके हाथों में हथियार थे/ अप्रासंगिक थे वे, अब तक बची जिनकी कलमों में धार/ वे देशद्रोही, इस शांतिकाल में उठेगी जिनकी आवाज़/ कुच दिए जाएंगे वे सब जो इन सामूहिक स्वप्नों के खिलाफ  होंगे।’ शक्ति के सीमित होने का यह अहसास उन्हें खुद के बारे में भी होता है। इसीलिए ‘अर्जुन नहीं हूँ मैंशीर्षक कविता में वे सहजता से स्वीकार करते हैं, अर्जुन नहीं हूँ मैं/ भेद ही नहीं सका कभी/ चिड़िया की दाहिनी आँख ……।’ लेकिन फिर भी इस दमन से उत्पन्न निराशा में डूबकर वे किसी भी संघर्ष की उपादेयता को कमतर आंकने की भूल नहीं करते। तभी तो इस कविता में वे आगे कहते हैं, ‘और खुश हूँ अब भी/ कि कम से कम मेरी वजह से/ नहीं देना पड़ा/ किसी एकलव्य को अँगूठा…।’

भारत में वामपंथी आंदोलन की विफलता को भी वे महसूस करते हैं। जिस परिवर्तन को लक्ष्य बनाकर देश में क्म्युनिज़्म आगे बढ़ा, वह परिवर्तन भारत में कभी नहीं आया। ‘जो नहीं किया हमने’ शीर्षक कविता में  वे इसे सीधे-सीधे अभिव्यक्त करते हैं, लगता था साल-महीने नहीं दिन हैं बाकी कुछ और/ बदल ही जाने वाली थी दुनिया/ लाल किले पर बस फहराने ही वाला था लाल झंडा/ कि पता नहीं क्या हुआ/ दुनिया बदलने से पहले ही बदल गया सब कुछ…।’ इसी कविता में आगे, क्षमा करें आदरणीय/ अब आप इसे काले बालों की उद्दण्डता समझें/ या इतिहास की निर्ममता/ लेकिन जब याद किया जाएगा हमें/ तो सिर्फ उस बहुत कुछ के लिए/ जो नहीं किया हमने! कहकर अशोक इसका भी अहसास करा देते हैं कि हमारी निस्संगता और परिवर्तन की लड़ाई के प्रति हमारी उदासीनता ही हमें वांछित परिणामों से वंचित कर रही है। यहाँ पर वे दिनकर की, ‘जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध’ जैसी लोकप्रिय उक्ति की एक छाप छोड़ जाते हैं। उन्हें यह चुप्पी व तटस्थता निराशा भरी लगती है। तभी तो, ‘ काले कपोत’ शीर्षक कविता में, उड़ते-चुगते-चहचहाते-जीवन बिखेरते/ उजाले प्रतीकों का समय नहीं है यह/ हर तरफ बस/ निःशब्द-निस्पंद-निराश/ काले कपोत!कहकर वे समय के असली स्वरूप की पहचान करने के लिए एक नए सौन्दर्य-बोध की तलाश में जुटे कवि के रूप में सामने आते हैं।

अशोक की कुछ कविताएं हमें अपने अंतस्तल की हलचल से बाबस्ता कराती हुई, एक अनोखे रूप में सामने आती हैं। जैसे ऊपर से शांत पड़े सुप्त ज्वालामुखी के भीतर निरन्तर मचलते रहने वाले ख़ौफनाक लावे का ज़िक्र किया जा रहा हो। या फिर जैसे किसी गोताखोर को शीतल पानी से भरी पहाड़ी झील की पेंदी में फैले नुकीले पत्थरों की तीक्ष्णता का अहसास कराया जा रहा हो। ‘मौन शीर्षक कविता में, पानी सा रंगहीन नहीं होता मौन/ आवाज की तरह/ इसके भी होते हैं हजार रंग/ सिर झुकाए/ बही के पन्नों पर छपता अंगूठा/ एकलव्य ही नहीं होता हरदम ……’ , बुधिया में, यह दूसरी दुनिया है जनाब/ यहाँ नहीं होती सुविधा/ अठारह सालों तक/ नाबालिग बने रहने की तथा ‘ कहाँ होंगी जगन की अम्मा में’, आत्महत्या के आखिरी विकल्प के पहले/ होती हैं अनेक भयावह संभावनाएँ… इसी प्रकार की पंक्तियाँ हैं। समाज में व्याप्त छल-कपट को अशोक बखूबी अपनी अभिव्यक्ति का निशाना बनाते हैं। उनके कविता-संग्रह की अग्र-कविता ‘लगभग अनामंत्रित’ इसी पर केन्द्रित है।, जिसमें वे पहले हमें दिखता था घुटनों तक खून और वे गले तक प्रेम में डूबे थे/ प्रेम हमारे लिए वजह थी लड़ते रहने की/ और उनके लिए समझौतों की…… तथा बाद में, उन महफिलों में हम भी हुए आमंत्रित/ जहाँ बननी थीं योजनाएं हमारी हत्याओं की! कहकर विचारधाराओं और आचरणों के इसी द्वन्द्व की ओर इशारा करते हैं। ‘एक सैनिक की मौत’ शीर्षक कविता में, अजीब खेल है/ कि वजीरों की दोस्ती/ प्यादों की लाशों पर पनपती है/ और/ जंग तो जंग/ शांति भी लहू पीती है कहकर वे अन्यायियों की आपसी मिलीभगत तथा शोषण की निरंतरता का सच सामने रख देते हैं।

अशोक की कविताओं में रूमानियत का भी अपना एक अलग अंदाज़ है। ऐसी कविताओं में एक अलग तरह की ताज़गी महसूस होती है। इनमें एकदम नई तरह की अभिव्यक्ति है, यथार्थ की चट्टान पर प्रेम की मजबूती को ठोक-बजाकर परखती हुई सी। मैं चाहता हूँ शीर्षक कविता में, मैं चाहता हूँ/ एक दिन आओ तुम/ इस तरह/ कि जैसे यूँ ही आ जाती है/ ओस की बूँद/ किसी उदास पीले पत्ते पर/ और थिरकती रहती है देर तक …’ कहकर वे थके-हारे मन को एक उत्कट जिजीविषा से भर देते हैं। जैसे निराशा के कुहासे से ढँके आँगन में धीरे-धीरे उम्मीदों की रश्मियों की उजास भर रही हो। तुम्हें प्रेम करते हुए अहर्निश, मत करना विश्वास तथा पता नहीं कितना बची हो तुम मेरे भीतर! भी इस संग्रह की उल्लेखनीय प्रेम कविताएं हैं। बेटी से जुड़ी हुई, दे जाना चाहता हूँ तुम्हें…, सोती हुई बच्ची को देखकर तथा मैं धरती को एक नाम देना चाहता हूँ जैसी कविताएं की मार्मिकता भी निराली हैं। ‘किस्सा उस कम्बख़्त औरत का’ शीर्षक कविता में उनका अंदाज़-ए-बयां कुछ अजीब सी मस्ती जगा जाता है, साथ ही इसका अहसास भी कि जिन्दगी में सुख और दुःख का मिलना सब कुछ अपनी सोच व मनोदशा पर ही निर्भर करता है और कोई भी बाहरी बाधा उसमें रुकावट नहीं बन सकती। इस कविता की ‘मत पूछिए क्या-क्या किया हमने/ उसकी सूनी मेज पर टिका दिए सारे टट्टू/ उसकी कलम सुनहरा चाबुक हो गई/ जकड़ दिया उसको नियमों की रज्जु से/ वह अल्हड़ पुरवा हो गई/ उसके पाँवों से बाँध दीं घड़ी की सुइयाँ/ वह पहाड़ी नदी हो गई/ और क्या करते अब इससे ज्यादा!  जैसी पंक्तियाँ स्त्री-विमर्श की दृष्टि से अभिव्यक्ति का एक नूतन प्रयोग हैं और अपने आप में बेजोड़ हैं। माँ की डिग्रियाँ’ कविता में अशोक हमें उस भावातिरेक के संसार में ले जाते हैं, जो प्रायः हमारे भीतर पुरानी धरोहरों व अपने चहेतों को याद करके पैदा होता है। लेकिन यहाँ भी वे कविता को अर्थपूर्ण बनाने से नहीं चूकते। ‘पूछ तो नहीं सका/ पर प्रेम के एक भरपूर दशक के बाद/ इतना तो समझ सकता हूँ/ कि उस चटख पीली लेकिन उदास साड़ी के नीचे/ दब जाने के लिए नहीं थीं उस लड़की की डिग्रियाँ’ कहकर वे पारंपरिक मान्यताओं व पारिवारिक दबावों के चलते आज के उच्च शिक्षा प्राप्त भारतीय स्त्री-समाज की मेधा-शक्ति के निष्प्रयोज्य रह जाने की विडंबना की ओर इशारा करते हैं।

‘वे इसे सुख कहते हैं शीर्षक कविता मुझे रूमानियत की अभिव्यक्ति की दृष्टि से चौकाने वाली तथा सौन्दर्य-बोध की नूतनता के लिहाज़ से अद्वितीय लगी। मेहनत-मजदूरी व गरीबी की चक्की में पिस रहे दाम्पत्य-जीवन में सेक्स के सुख का दायरा भी कितना सीमित व दयनीय होता है, इस खुरदुरी सच्चाई का अहसास दिलाती अशोक की पंक्तियाँ, प्रेम की वह सबसे घनीभूत क्रीड़ा/ जिक्र तक जिसका दहका देता था/ रगों में दौड़ते लहू को ताजा बुरूंश सा/ चुभती है बुढ़ाई आँखों की मोतियाबिंद सी/ स्तनों के बीच गड़े चेहरे पर उग आते हैं नुकीले सींग/ और पीठ पर रेंगती उंगलियों में विषाक्त नाखून/ शक्कर मिलों के उच्छ्ष्ट सी गंधाती हैं साँसें/ खुली आँखों से टपकती है कुत्ते की लार सी दयनीय हिंसा/ और बंद पलकों में पलती है ऊब और हताशा में लिथड़ी वितृष्णा/ पहाड़ सा लगता है उत्तेजना और स्खलन का अन्तराल/ फिर लौटते हैं मध्ययुगीन घायल योद्धाओं से/ अपने-अपने सुरक्षा चक्रों में/ और नियंत्रण रेखा सा ठीक बीचोबीच/ सुला दिया जाता है शिशु ……’ हमें काव्यानुभूति के एक ऐसे धरातल पर ले जाकर खड़ा कर देती हैं, जहाँ शारीरिक संसर्ग के सुखद लम्हों की याद भी वितृष्णा से भर जाती है। कितना भयावह है यह सच! कितनी वंचना से भरा है यह जीवन! अशोक की कविताई का जादू इसी प्रकार की अभिव्यक्तियों में छिपा है जो हमें उनकी कविताओं में जगह-जगह बिखरा दिखाई देता है।

लगभग अनामंत्रित अशोक कुमार पांडेय का पहला कविता-संग्रह है। लेकिन उनकी कविता की यात्रा लगभग बीस वर्ष पुरानी है। ज़ाहिर है कि युवावस्था में ही, वे काव्य-रचना के उस मुक़ाम पर पहुँच गए हैं, जहाँ से उनसे आगे ढेर सारी सार्थक, विचारपूर्ण व साहित्य के नए प्रस्थान-बिन्दु तय करने वाली कविताओं की अपेक्षा की जा सकती है। उन्हें अलग-थलग पड़े, विस्थापन की मार झेल रहे तथा सत्ता-प्रतिष्ठान की दबंगई से बिल्लाए समाज के निःशक्त वर्ग की चिन्ता है। वे भूमंडलीकरण व पूंजीवादी व्यवस्था से उत्पन्न आर्थिक ध्रुवीकरण के दुष्परिणामों के बारे में पूरी तरह से सचेत है। उनके भीतर विद्रोह की चिन्गारी है। उनके शब्दों में परिवर्तन की पुकार है। इन्हीं सब कारणों से उनकी कविताएं एक नई उम्मीद जगाती हैं। वे अंधेरे में सहसा रोशनी की एक किरण बिखेर देने वाली लगती हैं। और सबसे बड़ी बात तो यह है कि अशोक की कविताएं किसी भी निराश मन में, मुट्ठियाँ भींचकर, तनकर खड़े होने की वैचारिक शक्ति भर देती हैं।

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Sunday, April 29, 2012

फुटबाल का खेल

मैदान में फुटबाल का खेल चल रहा था
पिछली प्रतियोगिता की विजेता टीम के अजब रंग-ढंग थे
उसके सारे खिलाड़ी हर समय कप्तान से अलग ही दिशा में दौड़ रहे थे
वे खेलते समय केले खाने के शौकीन लगते थे
उन्होंने खेलते समय केलों की सप्लाई बनाए रखने के लिए
मैदान की बाउंडरी के साथ-साथ अपने गुर्गे बैठा रखे थे
वे केले खा-खाकर गेंद के साथ आगे की ओर भागते समय
छिलके कप्तान की तरफ फेंकते जा रहे थे
कप्तान उन छिलकों पर फिसल-फिसलकर भागता हुआ हमेशा पीछे-पीछे ही दौड़ रहा था
ऐसे में गोल करना तो दूर, टीम का पूरे समय मैदान में डटे रहना ही मुश्किल था
कप्तान को टीम के प्रतियोगिता से बाहर हो जाने की चिन्ता सता रही थी
टीम-प्रबन्धन यह तय नहीं कर पा रहा था कि
टीम का प्रदर्शन सुधारने के लिए कप्तान को बदला जाय या खिलाड़ियों को,
दर्शकों के शोर-शराबे व आक्रोश के बीच
मैदान धीरे-धीरे आकार बदलकर भारत के नक़्शे में तब्दील होता जा रहा था और
प्रतियोगिता के परिणाम अब उस टीम से कहीं ज्यादा देश के लिए महत्वपूर्ण होते जा रहे थे।

Wednesday, April 4, 2012

रुलास

बहुत दिनों से रुलास भरी थी मन में
लेकिन देह की गर्मी रोके हुए थी
आँखों के आसमान में तैरते बादलों को बरसने से,

कल अचानक तुम्हारे सान्निध्य की शीतलता में
ये बरस ही पड़े बरबस ……
और अब ये बरसते ही जा रहे हैं लगातार ……
तुम्हारे चले जाने के बाद भी ……
उस सान्निध्य की स्निग्धता को महसूस कर-कर,

मुर्दे सी ठंडी पड़ गई है मेरी देह
इस लगातार हो रही मूसलाधार बारिश में ……
और मन में भरी रुलास है कि
चुकने का नाम ही नहीं ले रही अब तो ……

पता नहीं अब किस विद्युत-स्पर्श से
गर्मी का पुनर्संचार होगा इस शीतीकृत देह में ……

Saturday, March 31, 2012

बिजूका

(चित्र : डॉ. अवधेश मिश्र)


बचपन में सीखी थी एक बात
घर की कमजोरी का भेद बाहर नहीं खोलना कभी भी बाहर
नहीं तो लतियाए जाओगे गली-गली,
यह भय बना ही रहना चाहिए दुश्मनों के मन में
कि घर में मौजूद है ऐसी कोई अदृश्य ताकत
जिसका मुकाबला नहीं कर सकते वे सब एकजुट होकर भी,
यह तरकीब वैसे ही काम आती है हमेशा
जैसे घर में कुत्ता हो या न हो
पर होशियार आदमी अपने गेट पर बोर्ड जरूर लटका देता है –
‘बिवेयर ऑफ डॉग्स’…


अरे! फौज के पास बंदूक, तोप, टैंक व मिजाइलें हों या न हों
बाहर तो यही संदेश जाना चाहिए कि
सब कुछ है उनके पास, और जमकर है,
यहाँ तक कि परमाणु-बमों बड़ा भंडार भी,
यह कैसी बुद्धि है जो सेना के एक सर्वोच्च कमांडर से
गोला-बारूद की कमी होने की चिट्ठियाँ लिखवाती है
और जवानों के बीच असुरक्षा और आत्महंता होने का भाव जगाती है,
घर वाले जब गृहस्वामी से कुछ जरूरत की चीजें माँगते हैं
तो चुपचाप घर के भीतर बात करते हैं,
चिट्ठियाँ थोड़े ही लिखते हैं?
और मुहल्ले भर में हल्ला थोड़े ही मचाते हैं अपने अभावों का?
नहीं तो, फिर तो वही होगा …
‘घर का भेदी लंका ढावे’ …

देश की सुरक्षा के प्रबंधकों को मालूम नहीं है क्या कि
जानवरों को फसल से दूर रखने का सबसे सरल उपाय करता है बेचारा गरीब किसान
अपने खेत के बीचोबीच खड़ा करके एक फटे-पुराने कपड़ों वाला बिजूका …

Tuesday, March 6, 2012

अब की होली में

अब की होली में मुझ पर
वह रंग डालना साथी
जो तन से भले उतर जाए
पर मन से कभी न उतरे।

अब तक जो रंग पड़े हैं
वैसे तो खूब चढ़े हैं
पर पिचकारी हटते ही
वे जाने किधर उड़े हैं,

अबकी होली के रंग में
साथी कुछ ऐसा घोलो
काया हो जाए निराली
नस-नस में मस्ती लहरे।

वह रंग जो फर्क मिटा दे
जो सबको गले मिला दे
उम्मीदें नई सजाए
शोषण की जड़ें हिला दे,

जिसमें हो खून-पसीना
जिससे ठंडा हो सीना
उस रंग से ही नहलाना
जो पोर-पोर में छहरे।

Sunday, February 5, 2012

विकल्प

मुझे अच्छे लगे घर के सामने खिले रंगीन फूल
मेरे पास दो ही विकल्प थे इन फूलों का मजा लेने के,
पहला यह कि तोड़ लूँ उन्हें, वंचित कर औरों को उनसे
और सजा दूँ उन्हें अपने किसी प्रिय गुलदस्ते में
या लगा दूँ करीने से उन्हें अपनी प्रेयसी के शीश के जूड़े में
या फिर अर्पित कर दूँ उन्हें कहीं अपनी किसी आस्था के नाम,
दूसरा यह कि सजा दूँ ऐसे ही तमाम फूलों के सुवासित उपवन चारों तरफ
जिसमें अनुरक्त हो विचर सकें नित्य मेरी लालसाओं के प्यासे शलभ
और मिलता रहे औरों को भी इन फूलों के रस-रंग का मनचाहा सुख।

मैंने दुनिया की तमाम ऊँची दीवारों के भीतर
नित्य सजाए जा रहे गुलदस्तों और पुष्पालंकारों की ओर देखा,
मैंने दुनिया की तमाम जीवित व मृत नामचीन हस्तियों के गलों में
नित्य पहनाई जाने वाली मालाओं
और उनके हाथों में सौंपे जाने वाले पुष्प-गुच्छों की ओर देखा,
मैंने दुनिया में कारोबार के लिए नित्य इधर से उधर भेजे जा रहे
करोड़ों टन फूलों के शीतीकृत कंटेनरों की ओर देखा,
मैंने फूलों की क्यारियों में नित्य गुड़ाई-सिंचाई करते
दुनिया के करोड़ों मालियों के खुरदरे हाथों की ओर देखा,
मैंने मलयाली महाकवि अक्कित्तम की ‘चकनाचूर संसार’ कविता के
फूलों की ओर अपना काँपता हाथ पसारे मासूम बच्चे के विदलित होते सपनों को देखा,
और मैं किसी एक विकल्प को चुनने की किंकर्तव्यविमूढ़ता में हताश हो बैठ गया।

सहसा मेरे भीतर का कवि जागा
और मैं सारी दुनिया के लिए शब्दों के फूलों का वह उपवन सजाने में जुट गया
जो शायद मेरे लिए सबसे अच्छा विकल्प था,
मैंने इस उपवन को उजाड़ने वालों के खिलाफ प्रतिरोध के उपाय करते हुए
नुकीले काँटे भी उगा लिए हैं अब इन शब्द-सुमनों के चारों तरफ।

Sunday, January 15, 2012

अनहोनी

किसी अनहोनी की आशंका
हर तरह की होनी से अधिक बेचैन करती है।

होनी आती है अक्सर
अपने तयशुदा वक़्त पर
खुशियों का प्रतीक बनकर
हँसने-मुसकराने अथवा
ठहाके लगाने के तमाम अवसर पैदा करती हुई,
या फिर कभी-कभी
पीड़ा एवं अवसाद की चुभन बनकर
सीने पर दुःखों एवं तकलीफों के पहाड़ जमाती हुई।

अनहोनी के आने का
कोई वक़्त या ठिकाना नहीं होता
पहले से कुछ पता नहीं होता कि वह कब आएगी,
वह तो बस बिजली की तरह
कड़ककर आ गिरती है सिर पर अचानक
आस-पास सभी कुछ
तहस-नहस सा करती हुई पल भर में।

Sunday, December 25, 2011

दो आँसू संग बहाओ तो

यदि ख़ून न खौले, जाने दो,
दो आँसू संग बहाओ तो!

स्वारथ की बेल चढ़ी छप्पर
कौवों की पाँत डटी छत पर
निर्मम सी चील उड़े नभ पर
धरती का खौफ़ भरा मंज़र

लाशों की दुर्गति को छोड़ो,
ज़िन्दा की खैर मनाओ तो!
दो आँसू संग बहाओ तो!!

कितने दिन बीत गए डर-डर
हर पल ही जीते घुट-घुट कर
जिसको भी मान लिया रहबर
उसने ही घोंप दिया खंज़र

किस्मत ने बहुत कुरेदा है
कुछ शीतल लेप लगाओ तो!
दो आँसू संग बहाओ तो!!

मैंने विनती की जीवन भर
मुझको न मिला कोई ईश्वर
मुझको न मिला कोई यीशू
मुझको न मिला है पैगंबर

मैं कब से सूली पर लटका
प्राणों के पंख लगाओ तो!
दो आँसू संग बहाओ तो!!

Monday, November 14, 2011

तर्पण की इच्छा

किताबों में पढ़ता हूँ
बड़े-बड़े प्रजा-वत्सल, दान-वीर राजाओं के बारे में,
सब के सब चले गए,
उनकी वह प्रजा भी,
जमींदोज़ हो गए उनके राजप्रासाद भी,
अवशेष है अब उनका सारा ऐश्वर्य-बल
ऐसे किताबी अक्षरों में ही
समय-समय पर लिखे जाते हैं जो शायद
उनकी चिता-भस्मों के उन अंशों से,
संजोकर रखा है जिन्हें अभी तक किताबकारों ने
परंपराओं का बखान और विरासत का गुण-गान करने के लिए।

हमारे पुरखों की कहानियों में
अक्सर ढूँढ़े मिल जाते हैं
तब के तमाम राजा और रानी,
उनके तीन राजकुमार या कोई राजकुमारी
कभी कोई राजगुरु या राजवैद भी,
नहीं बनी थी शायद कोई स्याही उन दिनों
जिससे लिखी जाती उनके किसी प्रजा-जन की भी कहानी
बताती जो उनकी प्रजा के गुरुओं और वैद्यों का हाल भी,
नहीं थे उन दिनों शायद
प्रजा-जनों के बीच ऐसे कोई कथाकार भी,
जिनके बारे में हम कह सकते कि
उन्हीं की चिता-भस्म की मसि को संभाल रखा है
आज के दौर के तमाम जनवादी लेखकों ने।

पुरखों की किसी थाती की तरह नहीं मिलती हमें
अपने साहित्य के श्मशान में
ऐसे किसी भी प्राचीन कवि की चिता-गंध
जिसने राम-राज्य के दौरान अथवा
उसके पहले या बाद में ही महसूसा हो कभी (तुलसी को छोड़)
किसी भी प्रजा-जन का दैहिक-दैविक-भौतिक ताप।

लोक-तंत्र के इस युग में भी
प्रायः दिख जाते हैं
राजाओं जैसे आत्म-मुग्ध व आत्म-केन्द्रित कुछ जन-नेता
जिनके आचरण की झलक भर से
मिल जाती है बानगी इस बात की कि
क्या-क्या घटित होता रहा होगा
राजशाही के उस दौर में
प्रजा-जनों की उन अचर्चित बस्तियों में
जहाँ न तो कभी राज-कवि पहुँचते थे
न ही कभी ॠषि-कवि,
जहाँ न तो अख़बार होते थे, न पत्रकार,
और यदि रहे भी होंगे तो शायद
उनकी भी बोलती ऐसे ही बन्द रहती होगी
जैसे आज बन्द रहती है कहीं-कहीं
लोकतांत्रिक राजाओं की दौलत और दमन के सामने।

आज भी अवशेष है मेरे मन में
किसी सीधे-सच्चे जनानुरागी पुरातन कवि की
आत्म-शांति के लिए तर्पण करने की इच्छा,
यदि मिली चिता-रज कहीं किसी दिन
ऐसे किसी जन-कवि की तो
निश्चित अर्पित कर दूँगा मैं
शब्दों के दो-चार फूल उसकी समाधि पर
मान उसे ही पूर्वज अपना,
सीखूँगा उससे कविताई
लिखने को फिर नई कहानी
एक था राजा, एक थी रानी,
जिसने बात प्रजा की मानी,
भले मर गए राजा-रानी
मगर ख़त्म न हुई कहानी।

Monday, July 25, 2011

खुशबुओं का गायब हो जाना

हवा में फैली खुशबू
कभी भी चुकती नहीं
हमारे, तुम्हारे या अन्य कई लोगों द्वारा
उसे जी भर कर सूँघ लेने से।

हवा में समाहित बदबू भी
ख़त्म नहीं हो जाती
तमाम लोगों द्वारा उसे
जी मितलाते हुए पी लिए जाने से।

हवा से गायब हो जाती है खुशबू
जब सूख जाती है कहीं आस-पास
सुगंधित पुष्पों वाली वह लता,
जो होती है,
हवा में फैली इस खुशबू का उद्गम-स्रोत।

हमारे आस-पास की
दुर्गन्ध भी मिटती है तभी,
जब जला कर ख़ाक कर दिया जाता है
पास-पड़ोस का सारा का सारा
सड़ा-गला कूड़ा-कचड़ा, मरे जीव।

जीवन में कहीं कुछ सूख जाना
खुशबुओं का गायब हो जाना होता है
तथा कहीं कुछ सड़ना या मर जाना ही
ज़िन्दगी का बदबुओं से भर जाना।

Tuesday, July 19, 2011

फेसबुक की भित्तियों पर

सुबह-सुबह टाँग दिया है
मेरा नाम टैग करके
किसी मित्र ने
अपना एक पुराना चित्र,
देखते ही जिसे
संचरित हो उठा मेरा मन
उन्हीं अदृश्य तरंगों के हिंडोले पर बैठ कर
जो लाई थीं इस चित्र को
उस मित्र के स्मृति-कोश से सहसा निकाल कर
मेरे इस भित्ति-पटल तक
दूर अंतरिक्ष में परिक्रमा कर रहे
किसी संदेश-वाही उपगृह के माध्यम से।

अंतरिक्ष की इस लंबी यात्रा में
चुपके से समेट लेता है मेरा मन
चाँद का विविधतापूर्ण सौन्दर्य
सूर्य की शाश्वत ऊर्ज्ज्वसलता
और भी न जाने क्या-क्या कल्पनातीत
इस सौर-मंडल के पार से भी
मात्र कुछ नैनो-सेकंडों में ही
फिर से पहुँचने को आतुर हो वहाँ
उस मित्र के स्मृति-कोश को
इस सबसे अभिसिञ्चित करने
उस पुराने चित्र की टैगिंग के उद्गारों के वशीभूत होकर।

फ़ेसबुक की इन भित्तियों पर
जो कुछ भी साझा करता है कोई मित्र
वह बस हम दो मित्रों तक ही सीमित नही रहता,
वह तो प्रसारित और निनादित होता है
दिग्दिगान्तर में
समूचे ब्रह्मान्ड में
चमकते सूरज-चाँद-तारों की तरह
अपने चाहने वालों की
पूरी ज़मात को साक्षी बना कर,
जैसे उस मित्र का यह पुराना फोटो टँगा है
आज सारे के सारे मित्रों के सामने
मेरे भी नाम को अपने गले में लटकाए हुए।

संसार मिथ्या है

सुबह-सुबह टहलते समय
एक मित्र ने मुझसे पूछा,
“कहा जाता है,
यह संसार मिथ्या है,
यह एक ऐसे स्वप्न की तरह है
जो हमें प्रायः सच लगता है
इस बारे में आपका क्या विचार है?”

मैं कुछ उत्तर दे पाता
उसके पहले ही
साथ चल रहा दूसरा मित्र बोला,
“छोड़ो यार!
जाने दो इन फालतू बातों को!
सुबह-सुबह इनके लिए माथा क्यों खराब करना?”

मैं प्रश्न का उत्तर दिए बिना ही आगे बढ़ गया,
लेकिन प्रश्न तो जैसे
बरसात की चुप्पी में समाहित उमस सा
पीछा ही नहीं छोड़ रहा था मेरा।

मैंने अपने विचारों को हवा दी तो
थोडी सी राहत मिली चिपचिपी से,
संभावित उत्तरों के अरण्य में घुस कर
खोजने लगा मेरा मन
उस सदाबहार कल्प-तरु को
जिसकी सघन छाँव में बैठ कर
किया जा सके मेरे द्वारा
अपनी तमाम जिज्ञासाओं का समाधान,
लेकिन सरलता से कहाँ होना था ऐसा?
पूरा दिन ही लगा रहा मैं विचारों की उधेड़-बुन में।

मनुष्य के विचार डोलते ही रहते हैं
घड़ी के पेन्डुलम की तरह
तर्कों के संवेग से उत्प्रेरित होकर
कभी इधर तो कभी उधर,
समय के प्रवाह के साथ ही
बदलती रहती है
तर्कों की पृष्ठभूमि भी
और वैचारिक अन्वेषणों के परिणाम भी,
निरन्तर चलता रहता है यहाँ
सही को गलत ठहराना और गलत को सही,
ऐसा कम ही होता है यहाँ कि
सही को सही ही कहा जाय और गलत को गलत।

अगले दिन मेरा मन किया कि
दौड़ कर फिर पकड़ूँ उन मित्रों को
प्रातः-भ्रमण के समय
और चिल्ला-चिल्ला कर उनसे कहूँ,
“मनुष्य का मन होता ही ऐसा है कि
उसे जो कुछ सामने दिखता है
वह छलावा लगता है
और जो सामने नहीं दिखता
वही आकर्षक एवं हासिल किए जाने योग्य।

इसलिए,
अगर मन की बातों पर भरोसा करोगे
तो यह संसार मिथ्या ही लगेगा -
एक ऐसे स्वप्न की तरह
जो समय के तात्कालिक संदर्भ में
सचमुच घटित होता दिखाई देता है हमारे सामने,
किन्तु समय की अनन्त यात्रा के परिप्रेक्ष्य में
एकदम नश्वर लगता है -
नींद खुलते ही अचानक गायब हो जाने वाला,
लेकिन, अगर इन्द्रियों पर विश्वास करोगे
तो फिर यह सृष्टि ही लगेगी एकमात्र शाश्वत सत्य
और लगेगा कि मनुष्य ही है इसका सर्वश्रेष्ठ नियंता
गृह-गृहान्तरों तक अपनी शक्ति के प्रदर्शन में रमा हुआ।

आज अधिकांश लोगों का मानना है कि
जगत मिथ्या नहीं -
यह एक यथार्थ बन कर उपजा है
जटिल रासायनिक प्रक्रियाओं के माध्यम से,
और यह कैसे प्राप्त कर सकता है चिर-यौवन
इसी खोज-बीन में जुटी है आज अधिकांश दुनिया।”

Monday, July 18, 2011

अविस्मृत अहसास

ऐसा लगता है कि
कुछ नहीं बचा है
मुझमें तुम्हारे लिए
और कुछ भी अवशेष नहीं अब
तुम्हारे पास भी मेरे लिए,
फिर भी ऐसा क्या बचा है अभी भी
हम दोनों के बीच
जो बाहर से न दिखते हुए भी
भीतर ही भीतर आज भी
कचोटता है हम दोनों को।

शायद,
गरमी की इस चिलचिलाती धूप में भी
हमारे मन में अभी भी कहीं अटका है
पिछले सावन में बही पुरवाई के
किसी शीतल झोंके का
लरजता हुआ
कोई अविस्मृत सा मृदुल अहसास।

सच्चा सुख-बोध

प्रकृति की सर्वोत्तम संरचना
होती है मनुष्य-देह,
मनुष्य-देह में सन्निहित होता है
सबसे निराला सा नैसर्गिक सौन्दर्य,
सौन्दर्य के प्रति ही जागता है
मन में आकर्षण सदा,
आकर्षण से ही उपजती है
अन्तस में अनुरक्ति,
अनुरक्ति से ही संभव होता है
एक सृजनोन्मुख संसर्ग,
ऐसे संसर्ग में ही निहित होता है
एक सच्चा सुख-बोध,
और ऐसे सच्चे सुख-बोध में ही
छिपी होती है जीवन की पूर्णता की अनुभूति।

बिना ऐसे सुख-बोध की प्राप्ति के
बस एक आंशिक अनुभूति सा ही होता है
अवशेष सब कुछ महसूसना।

दुनिया में कितने ही प्रेमी-जन
जीते हैं जीवन भर
प्रायः इसी आंशिक अनुभूति के ही सहारे
क्योंकि, प्रेमी से संसर्ग ही नहीं हो पाता उनका कभी
गहरी अनुरक्ति होने के बावजूद,
या फिर जी भर कर अनुरक्ति ही नहीं होती
तमाम आकर्षण होने के बावजूद,
अथवा प्रायः आकर्षण ही नहीं महसूस होता
देह में अप्रतिम सौन्दर्य होने के बावजूद
और कभी-कभी तो ऊपर वाला भी
हद ही कर देता है
जब एक देह तो होती है हमारे पास
दूसरों जैसी ही
किन्तु सौन्दर्य नहीं होता उसमें
किसी को अपनी ओर आकर्षित करने लायक।

बड़ा ही अटपटा सा रिश्ता होता है देह का
मन में महसूस की जाने वाली
सुख की अनुभूतियों के साथ,
कई दुर्गम द्वार पार करने के बाद ही
प्रवेश कर पाता है मनुष्य-मन
आनन्द-प्राप्ति के अनुष्ठानों का केन्द्र बने
उस गर्भ-गृह में
जहाँ पर होता है शाश्वत
नैसर्गिक सुख के दुर्लभ देवता का वास।

Sunday, July 17, 2011

कामना

हवाएं यूं भी कभी चलेंगी
मेरी कामनाओं के अनुकूल
कभी सोचा ही न था।

सहलाती परितप्त तन को
बहलाती तृषित मन को
सरसराकर गुजरतीं बदन छूकर
उस आह्लादकारी मंथर गति से
जिसे अब तक कभी महसूसा न था।

लग रहा मुझको कि जैसे
देखकर मेरी प्रबल प्रतिबद्धता को
हो गई हैं ये हवाएं
स्वयं ही मेरे वशीकृत।

जी करे
कर दूँ सभी सांसें समर्पित
अब इन्हीं के नाम अपनी।

जी करे
भर लूँ इन्हीं को
श्वास-कोषों में संजो कर
ताज़गी ताउम्र पाने के लिए मैं।

जी करे
उड़ जाउँ इनके संग ही
अब उस क्षितिज तक
जहाँ नभ से टूट कर
टपका अभी था एक तारा
कामना की पूर्ति का बन कर सहारा।

इन्द्रधनुष

सतरंगी सपनों का स्वामी बन
उम्मीदों की किरणों के संग उदित हो
आकाश में आर्द्रता के उद्बुदों पर तन कर
हमें निराशा के पंक में डूबने से बचाता है
इन्द्रधनुष।

जीवन का गहरा अवसाद मिटा
धरती से अम्बर तक
जिजीविषा का एक अद्भुत सेतु सजाता है
इन्द्रधनुष !

टूटे छप्परों की सांसों और
सूखे दरख़्तों के पीछे से भी
कितने सुंदर अहसास जगाने वाला होता है,
इन्द्रधनुष !

विष-पान

पीने को कितने तरल
पूरित गरल
मिलते पल-पल,
धरा पर विष-पान करना
आज है कितना सरल।

अमृत-मंथन
बहुत मुश्किल
देव-दानव जिएं हिल-मिल,
नहीं दिखती कोई मंजिल
वासुकि जाए जहाँ मिल
मंदराचल गला तिल-तिल।

कर रहे छक कर सभी विष-पान
चाहते होना सभी ज्यों नीलकंठी
मोहिनी साकी बनी विष बाँटती है,
अमृत पाने को नहीं संघर्ष कोई
विष्णु को आराम करने दो वहीं
उस क्षीरसागर मध्य ही।

सत्य बनाम झूठ

सत्य के पाँव नहीं होते कि
वह खुद चल कर आए हमारे सामने,
झूठ के हमेशा ही लगे होते हैं पंख
और वह उड़ कर पहुँच जाता है हर एक जगह।

सत्य प्रकट होता है
रंग-मंच के दृश्य की तरह
परदा उठाने पर ही,
किन्तु झूठ टंगा होता है
चौराहे की होर्डिन्गों पर
सरकारी विज्ञापनों की तरह।

कपड़े के फटे होने का सत्य
हमेशा ढाँके रखता है
ऊपर से लगाया गया पैबन्द,
हमारा चेहरा दिखने लगता है
कितना सुन्दर व चिकना
झुर्रियों को मेक-अप करके छिपा देने के बाद।

आज-कल सत्य को झूठ के आवरण में ढँककर
नज़रंदाज कर देना एक आम बात है,
लेकिन झूठ के सुनहरे मुलम्मे को उतारकर
सत्य के खुरदुरेपन के साथ जीने का साहस दिखाना बहुत ही दुर्लभ।

Friday, July 8, 2011

अमलतास

अमलतास के फूल खिले हैं
सोने जैसे बिछे पड़े हैं,
सोने की झूमर सी लटकीं
अमलतास की डाली-डाली,
नख-शिख फैली स्वर्णिम आभा
खुशबू फैली गली-मोहल्ले।

सोने का सुख दुनिया लूटे
अमलतास वृक्षों के नीचे,
यही स्वर्ण आभूषण तुमको
देने की क्षमता है मेरी,
नहीं जौहरी की मालाएं।

प्रेयसि! अब तुम मिलना मुझको
अमलतास की ही बगिया में,
उसके फूलों की अंगिया में।

Saturday, May 21, 2011

आ ही गए (नवगीत)

आ ही गए, आखिरकार
जेठ में तप कर झुलसती देह पर
जल की शीतल फुहारें दँवारने
समुद्री क्षितिज से लपकते श्याम घन।

धुल ही गए, आखिरकार
धूल-धूसरित पेड़ों के तन
खिल उठे फिर से सब के मन
सोंधी मिट्टी की आर्द्रता से सनी
खुशबुओं के झोकों में।

आ ही गए, आखिरकार
कारे-कारे कजरारे
प्यारे-प्यारे मेघ सारे
विविध वेश धारे।

आ ही गए, आखिरकार
नारियल-तरु-शिखाओं पर
घुमड़-घुमड़ हहराते
झमाझम नीर बरसाते
धरती का ताप मिटाते
नदियों का सीना नहलाते
मछुआरों के मन में भय उपजाते
खेतों में उल्लास जगाते
माटी में दबे शुष्क बीजों में जीवन पनपाते
सृष्टि के कोने-कोने में
हरीतिमा का रास रचाते
जगत-पोषक श्याम घन
प्रणय-सुख के धाम घन।

Sunday, May 1, 2011

काबुलीवाला: मूल (मलयालम): ओ एन वी कुरुप्प: हिन्दी-अनुवाद: उमेश चौहान

ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित मलयालम के सुप्रसिद्ध कवि ओ एन वी कुरुप्प ने गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर का 150 वाँ जन्म-वर्ष मनाए जाने के अवसर पर उन्हें आदराञ्जलि अर्पित करने के उद्देश्य से पिछले वर्ष उनकी प्रख्यात कहानी ‘काबुलीवाला’ को स्मृति में रखते हुए एक नूतन दृष्टि-बोध वाली मलयालम कविता 'काबुलीवाला' लिखी जो ‘मलयाला मनोरमा’ पत्रिका के वार्षिक विशेषांक 2010 में छपी। प्रस्तुत है मेरे द्वारा हाल में किया गया उसका हिन्दी अनुवाद:-

काबुलीवाला

मूल (मलयालम): ओ एन वी कुरुप्प
हिन्दी-अनुवाद: उमेश चौहान

कल देखा मैंने काबुलीवाला को,
आया वह फिर से मेरी दहलीज पर
पहले वाली थैली नहीं कंधे पर
आँखें दोनों धंसी हुई
कपड़े सलवटों भरे
कितने ही वर्ष बीत चुके हैं लेकिन
चेहरे पर मुसकान बिखेरता,
“रहमान!”
उसे पहचान लिया यह जताया मैंने
आह्लादपूर्वक उसके नाम का उच्चारण करते हुये।

इस प्रकार भरी आँखें लिये काबुलीवाला
मेरे सामने खड़ा रहा,
क्या छलक रहा उसकी आँखों से?
नाम नहीं भूला मैं इसकी खुशी?
या हृदय में संजोए गए संचय को खोलकर दिखाने की व्यग्रता?
या शब्दों के मौन में विलीन हो जाने का दुःख?
या फिर शब्दों में न समा सकने वाली कोई अन्य बातें?
यह लो फिर से आकर खड़ा है
काबुलीवाला मेरे सामने।

“इसे याद कर कि
फिर कभी मिलना नहीं था,
मिलने की खुशी है, रहमान!
इतने दिनों तक कहाँ थे?
काबुल में थे?
या कि व्यापार करते हुए घूमते रहे
फिर से प्रवासी बने दूसरे देशों में?
मेरी छोटी बेटी की ही उम्र की
तुम्हारी भी है एक छोटी सी बच्ची,
पहले कभी तुम्हारा कहा यह याद है मुझे,
उस समय तुम्हारी आँखों का भर आना भी,
क्या हुआ, उसकी शादी हो गई क्या?”

“नव-पल्लवित अंगूर-लता सी
सौन्दर्यमयी नव-वधू बन
मेरी छोटी बेटी की तरह एक दिन
जन्म-गृह से उसके विदा होने के समय
किसी के द्वारा भी न देखे गए अपने आँसुओं को समेटे
क्या थोड़ी दूर तक पीछे जाकर तुम भी वापस लौट आए?
क्या बेटी को दूसरे के हाथों में सौंपने वाले
एक पिता की उत्कंठा तुमने भी जानी?
क्या हुआ, क्या सुखी है वह?
नाती-पोते भी हैं क्या तुम्हारे?
उनके साथ दोस्ती है क्या?
उन्हें किस्से-तमाशे सुनाते हो क्या?
तुम्हारे थैले में एक हाथी है, आदि-आदि?”

मेरी कुशल-क्षेम की बातें यूँ लंबी हो जाने के समय
क्यों एक अक्षर भी बोले बिना खड़ा है वह?
अत्यधिक डबडबाई उसकी आँखों में
तैर रहीं जलती हुई वेदनाएं,
फूट पड़ा वह व्यक्ति आक्रोश में भर,
“पटक कर मसल डाल उसे मैंने!
मेरी एकमात्र बच्ची को
भयानक भेड़िए की भाँति काट कर नोंच डालने वाले
उसकी छाती को भोंक कर मसल डाला मैंने!
उसी बीच मेरी झोपड़ी में आग लगा कर भाग गया कोई,
मैं रक्षा नहीं कर पाया बाबू जी!
वह जल कर भस्म हो गई!”
फूट-फूट कर रो पड़ा वह।

सर्वस्व खो चुके काबुल से
कितने मील दूर चल कर वह
फिर क्यों पहुँच गया है मेरे सामने?
इस प्रश्न का उत्तर पाए बिना
खड़े रहने पर सुनी मैंने
काबुलीवाला की स्नेह से सनी यह बात,
“बाबू जी! अपनी छोटी बेटी को जरा सा
देखने भर के लिए आज आया हूँ मैं!
नहीं है अब काबुल में मेरी बेटी!
भारत में……भारत में……!”
फूट-फूट कर रोता
मेरे पैरों के पास बैठ गया वह
गर्म आँसुओं से भरे मेघ जैसा।

“मानवता का दुःख समूचा
समाया है तुम्हारे संचय में
यह जानता हूँ मैं,
पूर्णिमा में जगमगाती बुद्ध की करुणा से भरे
किसी पद को ढूँढ़ता खड़ा हूँ मैं ……!”

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Thursday, April 7, 2011

सिरफिरा

सुबह का भूला
शाम तक घर लौट आए तो
भूला नहीं कहलाता
पर भटकता रहे वह
रात भर और आगे भी
तो गुमशुदा ही कहा जाएगा
ऐसे किसी भुलक्कड़ को।

लेकिन उसे तो बस
सिरफिरा ही कहा जाएगा
जो कुछ भी न भूलकर भी
नाटक करे सभी कुछ भूल जाने का
और विस्मृत कर सारे रिश्ते-नाते
दौड़ पड़े काटने को पगलाए कुत्ते सा
अपने पालने-पोसने वालों को ही।

गुमशुदा होने और सिरफिरा होने में
ज्यादा फर्क नहीं होता
बस एक भूला रहता है
अपने ही लोगों को और
दूसरा भूला होता है
खुद अपने आप को।

गुमशुदा मिलता नहीं आसानी से
लाख ढूँढ़ने और छपाने से इश्तेहार भी,
सिरफिरा करता है रोज-रोज जीना हराम
हमारे ही सिर पर सवार हो कर,
वह तो खुद ही छपवाता है अपना फोटो
रोज अख़बारों और क़िताबों में।
गुमशुदा अनदिखे भगवान जैसा लगता है,
सिरफिरा स्वयंभू शैतान जैसा दिखता है।

गुमशुदा की तलाश जारी रखना
हमारा फर्ज़ है मित्रो!
लेकिन भूलना नहीं कि
सिरफिरों को काबू में रखने के लिए भी
हमें ही तैयार करना है
एक मज़बूत सींकचों वाला पींजड़ा।

Wednesday, March 9, 2011

कहाँ

यह कलंक अब
कहाँ रखा जाए छिपा कर कि
हम आज भी मजबूर हैं
उग आने को
बज-बजाकर
सड़ी-गली काठ पर
जिस पर हर कुत्ता टांग उठाकर
शू-शू करता है हिकारत से
यह सिद्ध करता हुआ सा कि
हमारा नाम कुकुरमुत्ता ही होना चाहिए।

आजादी के इतने बरस बाद भी
नहीं सुनते हमारी कभी
डालियों पर इतराते रंगीन गुलाब
भले कितनी ही गालियाँ खा चुके हैं वे
निराला के शब्द-वाणों से बिंध-बिंधकर।

कहाँ उठाकर रखा जाए अब
यह जाहिलपन,
यह काहिली,
यह लाचारी,
यह उदासीनता,
यह प्रतिशोध की अमिट आकांक्षा,
प्रतिरोध करते-करते जब
हो चले हैं आदी हम
कुकुरमुत्ते की तरह ही जीने के।

Wednesday, February 9, 2011

वसन्त

हर साल आता है वसन्त
ॠतु-संधि के रोमांच को बढ़ाता
पेड़ों पर नई कोपलें सजाता
खेतों में पीली सरसों की चादरें लहराता
प्रणयी हृदयों को भरपूर गुदगुदाता
बाल-युवा-बृद्ध सब में
होली के रंगों में सराबोर होने की
उम्मीदें-आकांक्षाएं जगाता।

चलो, मुट्ठी में भर लें कस कर
इस बार सज कर सामने आए
इस सलोने वसन्त को
अगली गर्मी, वर्षा व शीत को भी
निरापद बनाए रखने के लिए।

चलो, आँखों में समेट लें जी भर कर
वृक्ष-लताओं की पोरों पर
उमंग से भर कर कुचकुचाये
इस रंगीले वसन्त को
भविष्य की शुष्कता, उजाड़पन व ठिठुरन में भी
थोड़ी सी जीवंतता बचाए रखने के लिए।

Sunday, December 5, 2010

गज़ल

बंदिशें ढेर थीं ज़माने की,
ख़्वाहिशें हद से गुज़र जाने की।

हमने डर-डर के किया इश्क़ तभी,
रह गए याद बन अफ़साने की।

जल रही आज भी वह शमां है,
लगा उम्मीद उस परवाने की।

मोड़ना था हवा का रुख मगर,
उड़े सुन बात आंधी आने की।

बहुत कमज़ोर थी हिम्मत शायद,
राह आसान थी मयख़ाने की।

इरादे थे न चुप्पी के मगर,
बन गए शान क्यों बुतख़ाने की॥

Monday, November 15, 2010

पत्ता भर छाँव

चिलचिलाती धूप है यह
आत्माहुतियों से सेवित
अग्नि-दाहों से उपजा
जमाने भर का संचित ताप समेटे।

सामने बस पत्ता भर छांव है
सुलगते चूल्हे पर
धूमाक्रमित आँख से टपकी
आँसू की एक बूँद जैसी
निश्फल आश्वासन देती।

मेरे भष्मावशेषों को
समेटने तक के लिए भी
जरूरत भर की शीतलता न दे पाएगी
आसमान से उतारी गई
सुख की पत्ता भर छाँव यह।

Friday, November 12, 2010

पुनश्च

पुनश्च रोता हूँ
प्राप्त दुखों के लिए,
उससे भी ज्यादा
अप्राप्य सुखों के लिए।

पुनश्च हँसता-मुसकराता हूँ
प्राप्त खुशियों के लिए,
प्राप्य सुखानुभूतियों के लिए,
लेकिन शायद ही कभी खुश होता हूँ
अब तक अप्राप्त दुःखों के लिए।

अनवरत जारी रहना है
सुख-दुःख का आना-जाना
बदराए दिन में
धूप-छांव की भाँति,
यह बात अच्छी तरह जानते हुए भी
कैसी विडंबना है कि
पुनश्च जारी रहता है निरन्तर
हमारा रोना-हँसना-मुसकराना,
साथ में यह भी कि
प्राप्त व प्राप्य सारे सुखों की खुशी
पल भर में ही भुलाकर
लंबे समय तक उद्यत रहता हूँ रोने को
किसी एक छोटे से दुख के लिए।

पुनश्च,
यही लगता है मुझे कि
समझ नहीं पाया शायद ठीक से
जीवन का गणित अनोखा अभी तक
दो और दो चार का जोड़ लगाते-लगाते।

Tuesday, November 9, 2010

बित्ता भर धूप

संचित यह ठिठुरन है
मौसम भर की
कंपकंपाती तन-मन।

धूप है बस बित्ता भर,
दोनों हाथ समेटने पर भी
मुट्ठी तक न गरमाए।

कैसे कटे जीवन अब?

सक्षम है धूप यह
ओस की बूँद को सुखाने की तरह
बस प्राणों को उड़ा कर ले जाने में ही।

Thursday, September 23, 2010

मच्छरों के बीच

क्या कहा जा सकता है
अगर आप आमादा हो जाएँ
रेलवे स्टेशन की खुली बेंच पर बैठकर
मच्छरों से देह को नोचवाते हुए कविता लिखने पर,

ज़ाहिर है यह कविता
वर्षों पुरानी किसी प्रेयसी की याद में
लिखी जाने वाली कोई प्रेम-कविता तो होगी नहीं,
अपने प्रियतम की वापसी के इन्तज़ार में
घर में पलक-पांवड़े बिछाए बैठी
किसी नव-व्याहता कामिनी के
ख़यालों से भी जुड़ी हुई नहीं होगी यह कविता,
यह प्रेमी-जनों की कल्पनाओं में रमे हुए
भविष्य के किसी सुनहरे सपने की कविता भी नहीं होगी,

ऐसे में लिखी जाने वाली कविता
या तो मच्छरों के अनियन्त्रित रक्त-शोषण से जुड़ी हुई होगी,
या फिर इस बात से कि इन मच्छरों से मुक्ति कैसे पाई जाय,
या फिर इस यथार्थ से जुड़ी होगी कि
मच्छर अगर हैं तो नोचेंगे ही,
फिर क्यों न इन मच्छरों की प्रकृति से तादात्म्य स्थापित कर
एक ही समय पर, समान रुचि से
अपनी देह को नोचवाते हुए तथा
दूसरों की देह के रक्त को चूसते हुए
जीने का कोई तरीका सीखा जाय?

जो भी हो
कुछ अलग अंदाज़ तो होगा ही
मच्छरों के बीच बैठकर
अपनी देह नोचवाते हुए लिखी गई किसी कविता का।

Sunday, August 22, 2010

विविधा

अल्हड़ता

बरसात में उफनाती
सौ-सौ बल खाती
तट-बंधों को लाँघ-लूँघ
स्वेच्छा से यहाँ-वहाँ बह जाती
प्रबल प्रवाह का प्रमाद समेटे
कभी आकर्षित, कभी अपकर्षित करती
लघुजीवी नदी होती है अल्हड़ता।

प्रेमासक्ति

सारी इन्द्रियां जब
महसूस करें एक ही बात,
मन के सारे विचार जब
केन्द्रित होने लगें एक ही बिन्दु पर,
शरीर की सारी क्रियायें
उत्प्रेरित हों जब एक ही आशा में,
और वह भी किसी एक क्षण,
किसी एक दिन नहीं,
शाश्वत हो किसी के प्रति ऐसा लगाव
तभी पूर्णता को प्राप्त होती है प्रेमासक्ति।

इन्द्रधनुष

सतरंगी सपनों का स्वामी
उम्मीदों की किरणों के संग उदित होता
आर्द्रता के उद्बुदों पर तन जाता
निराशा के पंक में डूबने से बचाता
धरती से अम्बर तक जिजीविषा का सेतु सजाता
टूते छप्परों की सांसों और सूखे दरख़्तों के पीछे से भी
कितने सुंदर अहसास जगाने वाला होता है,
इन्द्रधनुष ।

Monday, August 2, 2010

जाम लगा है

मूसलाधार बारिश में
बहुत लंबा जाम लगा है
हर सड़क पर दिल्ली की,
कार में बैठे-बैठे कुढ़ो मत यार!
खाते रहो चुपचाप मूँगफली,
सुनते रहो एफ एम रेडियो पर
भीगी-भीगी रातों के गाने,
फूँककर ढेर सारा पेट्रोल
चलते रहो बस चींटी की चाल,
कभी न कभी तो
पहुँच ही जाओगे अपने मुक़ाम पर।

आक्रोश में मत कोसो
इनको, उनको,
जाम में फसने की यह बिसात तो
हम सबने मिलकर ही बिछाई है।

जाम सिर्फ दिल्ली की सड़कों पर ही नहीं लगा है,
मुसीबतों के इस दौर में
भीतर ही भीतर घुमड़कर
बरसते आँसुओं के बीच
जाम तो सीने के उन गलियारों में भी लगा है,
जिनसे गुज़रकर ही फैलती है
इन्सानी रिश्तों-नातों की ख़ुशबू
इस पूरे शहर में।

आगे बढ़ने को आतुर है
बगलगीर की राह काटता हर कोई,
दूरदर्शन चैनल की तरह
रुकावट के लिये खेद
भी नहीं व्यक्त करता,
कैसे खुश होते हैं सब के सब
बढ़ते ही बस दो गज़ आगे
जैसे ही उनको लगता है
छूट चुके हैं पीछे ही, कुछ बड़े अभागे।

जाम लगा है सोच-समझ में,
जाम लगा है हाव-भाव में,
सड़कों तक ही सिमटी रहती
गलाकाट यह खींचा-तानी
तब तो कोई बात नहीं थी,
जकड़ चुकी है यह शरीर की
हर धमनी, हर एक स्नायु को,
फँसे विचारों के वाहन हैं,
जाम-ग्रस्त मन का हर कोना,
नस-नस में अब जाम लग रहा,
इस तनाव से कैसे उबरें?
कहाँ नियन्त्रण-कक्ष बनायें?

Saturday, July 24, 2010

कैसे मान लूँ

"मान लो मित्र कि धरती गोल है।"

"कैसे मान लूँ?
जब कि मैं रोज इसकी सपाट सतह पर मीलों चलता हूँ
इसके समतल खेतों में उपजाता हूँ धान, गेहूँ,
मैं तो उसी को सच मानूँगा न
जो मुझे प्रत्यक्ष दिखता है
क्या सिद्ध कर सकते हो तुम यह बात कि धरती गोल है?"

"हाँ, वैज्ञानिकों ने तो इसे पूरी तरह से सिद्ध कर ही दिया है।"

"अच्छा चलो मान लिया।"

"यह भी मान लो मित्र कि
धरती घूमती है अपनी ही धुरी पर,"

"कैसे मान लूँ?
जब कभी नहीं दिखती यह मुझे हिलती-डुलती
क्या इसका भी कोई प्रमाण है तुम्हारे पास?"

"हाँ, कैसे होते हैं दिन व रात
इसका पता लगाते-लगाते
सिद्ध कर चुके हैं वैज्ञानिक इस बात को भी।"

"अच्छा चलो इसे भी मान लिया।"

"चलो, अब इसे भी सच मान लो मित्र कि
सूरज नहीं लगाता धरती के चारों तरफ चक्कर
बल्कि पृथ्वी ही करती है सूरज की परिक्रमा।"

"यह भी अजीब बात है
एकदम प्रत्यक्ष दिख रहे सत्य के विपरीत,
जब मैं रोज ही देखता हूँ
सूरज को पूरब में उदय होते और
शाम को पश्चिम में जाकर छिप जाते
तो कैसे मान लूँ कि
सच है तुम्हारा ऐसा कहना?"

"मगर ॠतु-परिवर्तन के अध्ययनों ने
सिद्ध ही कर दिया है मित्र कि
लगभग तीन सौ पैंसठ दिनों में
सूर्य के चारों तरफ एक चिपटी कक्षा में
पृथ्वी द्वारा एक चक्कर पू्रा किये जाने के दौरान ही बनता है
धरती पर षट-ॠतुओं का संयोग।"

"अच्छा चलो इसे भी स्वीकार किया।"

"चूँकि तुमने वह सब स्वीकार कर लिया है
जो वैज्ञानिक दृष्टि से सिद्ध हो चुका है अब तक,
अतः अब यह भी मान ही लो मित्र कि
ईश्वर का कोई अस्तित्व नहीं इस धरती पर
वह एक भीरु मन की परिकल्पना मात्र है।"

"क्या इसे भी सिद्ध कर चुके हैं हमारे वैज्ञानिक?
क्या नहीं रहा अब कुछ भी अज्ञात उनके लिये?
क्या उठा चुके हैं वे सारे रहस्यों पर से परदा?
क्या नहीं रही जरूरत अब और किसी गहरे अन्वेषण की इस बारे में?
अगर ऐसा हो चुका है तो बताओ मेरे दोस्त!
मैं तुम्हारी अन्य बातों की तरह
इस पर भी विश्वास कर लूँगा और
मान लूँगा यह बात कि ईश्वर का कोई अस्तित्व नहीं।"

"सच तो वैसे यही है मित्र कि
वैज्ञानिकों ने अभी तक
ईश्वर के अस्तित्व के बारे में
कोई भी पुष्टि नहीं की है।"

"तो फिर मित्र!
ऐसा कुछ सिद्ध हो जाने से पहले
मत छीनों उन लोगों से ईश्वर रूपी सहारे की लाठी
जिनके आँसू सुखाने और
जिनके सीने की आग बुझाने के लिये
विज्ञानी इन्सानों की इस बस्ती से
किसी भी तरह के सहारे की कोई उम्मीद नहीं।“

“मित्र ! जब तक यह सिद्ध न हो जाय कि
ईश्वर का कोई अस्तित्व नहीं
तब तक ऐसे ही संचालित होने दो
दुनिया का समस्त इन्सानी कार्य-व्यवहार,
आस्था और विश्वास की किसी डोर में बंधकर
आखिर तब तक बचे तो रहेंगे हम
इन्सानों को बस एक मशीन भर मानने से और
'ईश्वर अंश जीव अविनाशी' की धारणा के सहारे ही सही
तब तक भरते तो रहेंगे हम
इन्सानियत के खाली होते जा रहे कटोरे में
एक-दूसरे के प्रति कहीं कुछ भरोसा और सहानुभूति,
भले ईशत्व के सहारे अमरत्व पाने की अभिलाषा में ही सही।"

Wednesday, June 23, 2010

मेरी प्रिय शोलयार नदी

आतिरापल्ली के झरने के पास घूमकर जब नदी के किनारे बैठा तो एस एम एस के ड्राफ्ट बोक्स में ये शब्द अपने आप सुरक्षित हो गये:-





























सतत सम्मोहित करती
बहती है वनांतर में
मेरी प्रिय शोलयार नदी,
मानसूनी हवाओं सी सरसराती,
सौन्दर्य की प्रचुरता से निज
करती स्तब्ध स्वयं प्रकृति को
पहाड़ों से उतरती अनवरत हहराती,
टकराती निरन्तर शिलाओं के वक्ष से
फिर भी लजाती-सी
लगातार इठलाती,
ढाँपती निज चिर यौवन यहाँ-वहाँ
सदाबहार वन-लतिकाओं के सुरम्य वल्कल से
मेरे उर-प्रान्गण की सतत प्रवाहिनी,
भरती जाती है नित्य
मेरे इस शिथिल तन में
अपनी अनगिन धाराओं की अनन्त ऊर्जा,
जिनकी उथल-पुथल से उठती है
कल-कल-कल
अविरल,
निश्छल,
प्रतिपल करती विह्वल,
मन करता है
यूँ ही हो तरल धवल,
मैं भी इसके संग बहूँ विकल,
इसके प्रवाह में कुटी-पिसी,
आसक्त शिला-रज सा
लहरों में घुल-मिल कर,
उर के अन्तस में छिप-छिप कर।