आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

Sunday, October 12, 2014

ओ. एन. वी. कुरुप्प के खंड - काव्य 'दिनान्तम' के कुछ अंश - अनुवाद

(वर्ष 2007 के भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कवि व गीतकार श्री ओ. एन. वी. कुरुप्प का वर्ष 2010 में प्रकाशित कविता - संग्रह दिनान्तम इधर काफी चर्चा में रहा है। उनके सैकड़ों गीत मलयालम फ़िल्मों के माध्यम से लोकप्रियता के शिखर को छू चुके हैं। अनेक पुरस्कारों से सम्मानित श्री कुरुप्प प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी रहे हैं। यहाँ प्रस्तुत है, उनकी इस ताजा काव्य - कृति के कुछ अंतिम अंशों का हिन्दी - अनुवाद)

1. दिनान्तम (खंड - 22)

मेरे गीत में
समुद्री नमक है
मैं जान रहा हूँ कि
भूमि का अश्रु - जल है यह।

मेरे गीत में
नारियल के सड़ रहे छिलकों से भरी
कायल* की गंध है क्या?
गल रही लाशों  की बदबू है क्या?

मेरे गीत में
तूफानी हवाओं की तरह फैलती हैं
मेरी बहनों के हृदय की वेदनाएँ,
जन्म - जन्मान्तर से
अत्याचार झेलने वाली स्त्रियों की आग को
धधकाने वाले शाप।

मेरे गीत में
काटे गए पेड़ के ठूँठ पर
बूँद - बूँद कर जमा हुआ उसका खून है।

मेरे गीत में
विषाक्त फलों को खाने से
स्वर - विहीन हो गईं गूँगी कोयलें हैं,
मृत नदी के शव के
टुकड़े - टुकड़े कर
अन्त्येष्टि कर देने वाली
जन्म - भूमि का संकट हैं,
माँ के पवित्र वचन हैं,
माँ के दूध का स्वाद है,
अन्न में अघुलित नमक के टुकड़े की तरह
अपनी ही सन्तानों के
परायों की भाँति आकर
सामने खड़े हो जाने पर
एक माँ के हृदय में उठने वाली पीड़ा है।

मेरे गीत में
मृतप्राय भूमि को देख
असंतृप्त बने रहने वाले
बच्चे की सिसकियाँ है,
सर्वहारा बनकर
भाग रहे मनुष्यों का
विस्फोट हेतु सुलग रहा
आक्रोश भी है!

(* खारे पानी की झील जिसे आम तौर पर बैकवाटर कहा जाता है)

2. दिनान्तम (खंड - 23)

अकेला बैठा हूँ यहाँ मैं
साथी सब चले गए
जन्म से ही अपने बने रहे
दो पाँव कम पड़ गए
आज एक तीसरा भी है मेरे पास -
सहारा लेकर चलने वाली एक छड़ी।

इस प्रकार तीन पाँवों पर
चलने वाला जन्तु बनकर
हर सीढ़ी श्रमपूर्वक चढ़ता हुआ
अकेला ही यहाँ आ पहुँचा हूँ मैं,
हवा के जरा से झोंके में
गिर जाने वाले पत्ते की तरह
काँपता हुआ,
इस पितृ - गृह के दालान तक पहुंचते - पहुँचते
किसी पुनर्जन्म देने वाली गुफा में
झुकते हुए घुसकर
कम से कम एक नया जन्म पाने जैसी
लालसा से भरा चलता जा रहा हूँ मैं।

खोयी हुई हरीतिमा
फिर से सजाता,
मानवता का झंडा लहराकर
खुशी मनाता,
वंचितों के दुःखों को
बीते हुए दिनों की कहानी बनाता,
निर्भय, स्वच्छंद,
मन में खुशियाँ जगाता,
विश्व - प्रेम रूपी
एकमात्र धर्म के
पल्लवित बोधि - वृक्ष की
छाँव फैलाता हुआ,
एक और संसार पैदा होने तक
डमरू बजाते हुए
अपना गायन जारी रखने की
कामना से भरा हूँ मैं।

3. दिनान्तम (खंड - 24)

दूर समुद्र आज
गर्जना बढ़ा रहा है;
अँधेरा चोंच फैलाए
चला आ रहा क्या?
वह दिन - रूपी सोने का अंडा
फोड़ने जा रहा है क्या?
पीत - द्रव फूटकर
बह रहा है क्या?
सत्य को न समझ पाने वाले
सूर्यास्त की लालिमा की भाँति ही
इसे देख, गुण - गान कर रहे हैं क्या?

लेकिन रोशनी की चाह से भरी
इस सुन्दर भूमि का चिर - स्वप्न
किसी के द्वारा तोड़ दिए जाने से बिखरे
उसके स्वर्णिम टुकड़े हैं वे
यह जान चुका हूँ मैं,
उन्हें एक साथ पिघलाकर जोड़ देने,
गरीबों द्वारा हमेशा देखे जाने वाले सपनों को
हकीक़त में बदल देने वाला एक दिन जरूर जाएगा!
चिन्गारियाँ भड़काती
लाखों वंचितों की
हृदय की भट्ठी को यह
आज और गर्माहट देगा ही!

दिशाओं को ओझल कर देने वाले
दिनान्त में
एकाकी नक्षत्र बनकर
मेरे स्वप्न प्रज्ज्वलित हो रहे हैं!

4. दिनान्तम (खंड - 25)

जीवन की पुस्तक
पूरी तरह प्रतिलिखित करना
मेरे लिए संभव नहीं,
इसे अधूरी ही छोड़ देता हूँ।

कौन सी पंक्तियाँ
गाकर रुकना चाहिए
यह समझे बिना
मैं जाने क्यों
प्रतीक्षा में खड़े-खड़े
निःशब्द कर दिए गए मनुष्यों की
हर तरफ से आने वाली
आवाज़ों को सुन रहा हूँ :

हम होंगे कामयाब,
होंगे कामयाब एक दिन!
हम अकेले नहीं!

हमीं हैं यह भूमि! …..

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