‘मनुस्मृति’ ग्रंथ आर्यो की धार्मिक व सामाजिक
जीवन-शैली के सिद्धांत प्रतिपादित करता है। चूँकि यह सिद्धांत मनु द्वारा वर्णित
बताये गये हैं, अत: मोटे तौर पर इन्हें ही मनुवाद की संज्ञा दी जाती है। यह साफ
पता नहीं है कि ‘मनुस्मृति’ किस मनु
द्वारा रची गयी अथवा इसे किस काल में संकलित किया गया। स्वयंभुव मनु द्वारा ‘मनुस्मृति’ में एक लाख श्लोकों में सारे नियम
बताये जाने की बात भले ही चर्चित हो किन्तु न इसका कोई प्रमाण मिलता है और न ही
इतने श्लोक कहीं मिलते हैं। इसके पहले अध्याय में सृष्टि तथा जीवों की उत्पत्ति
का वर्णन है। यहीं पर चतुर्वर्णों की उत्पत्ति का भी वर्णन है। तदुपरान्त काल
की गणना का प्रावधान है। बाद में कर्मों का वर्णन है। चारों वर्णों के अलग-अलग
कर्म विस्तार से बताये गये हैं। प्रथम अध्याय एक आमुख के रूप में है, जिसमें आगे
के अध्यायों की विषय-वस्तु का विन्यास भी बताया गया है। यहाँ पर साफ-साफ कहा
गया है कि प्रथम व द्वितीय अध्याय में संसार की उत्पत्ति, संस्कारों की विधि,
व्रतचर्या और स्नान की विधि वर्णित है।
इसके बाद विवाह, विवाह के लक्षण, महायज्ञ का विधान और नित्य श्राद्ध की
विधियाँ बतायी गयी हैं। तदुपरान्त जीविका
के लक्षण, ग्रहस्थों के व्रतों के नियम, भक्ष्य, अभक्ष्य, शौच और द्रव्यों की
शुद्धि के नियम हैं। इसके बाद क्रम से स्त्रियों
के धर्म, तपस्या, मोक्ष, सन्यास, राजाओं के सम्पूर्ण धर्म तथा राजकार्यों से
संबंधित सिद्धांत प्रतिपादित हैं। आगे साक्षियों से पूछताछ करने की विधि, स्त्री-पुरुष
के धर्म, उत्तराधिकारी के नियम तथा कठिनाईयों के शोधन का वर्णन है। इसी के बाद
वैश्य-शूद्रों के कर्म, वर्णसंकर जातियों की उत्पत्ति, आपद धर्म, चारों वर्णों
के लिए प्रायश्चित की विधि, कर्मों के द्वारा उत्पन्न तीन श्रेणी की
शरीर-प्राप्ति, मुक्ति-साधन, कर्मो के गुण-दोष की परीक्षा की विधि, देश-धर्म,
जातियों के धर्म, कुल-धम्र तथा पाखंडियो के धर्म का भी वर्णन है। इस प्रकार कुल
मिलाकर ‘मनुस्मृति’ हिन्दुओं के कर्मकाण्ड
की समग्र पुस्तक है।
‘मनुस्मृति’ में बताये गए नियमों में सभी जगह
वर्ण-व्यवस्था का उल्लेख है और अधिकांश नियम अलग-अलग वर्णों के लिए अलग-अलग रूप
में प्रतिपादित किये गए हैं। चूँकि वर्णों के आधार पर अलग-अलग व्यक्तियों के लिए
अलग-अलग सिद्धांत या नियम तय किया जाना वर्णवाद है, अत: हमें यह मानना ही पड़ेगा कि
‘मनुस्मृति’ के नियम व व्यवस्थाएँ
समाज में वर्णवाद की स्थापना के लिए ही बनाए गए हैं। यदि ‘मनुस्मृति’ पूरी निष्पत्ति को मनुवाद की
संज्ञा दी जाए तो हम यह कह सकते हैं कि वर्णवाद मनुवाद का एक अविभाज्य हिस्सा
है। यदि वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर खरे उतरने वाले तथा सामाजिक व धार्मिक जीवन-शैली
को एक मंगलकारी आयाम देने वाले मनुस्मृति के कतिपय सामान्य सिद्धांतों के आधार पर
कोई मनुवाद को श्रेष्ठ बताने की कवायद भी
करे तो भी आज के युग में इसमें वर्णवाद के समावेश के कारण समाज द्वारा इसे स्वीकार
किया जाना असंभव है। समस्या यह है कि सनातनधर्मी हिन्दू समाज मनुवाद की तमाम बोगस
व कुसित धारणाओं को अच्छी तरह जानते-समझते हुए भी, उसकी जकड़न से बाहर नहीं निकल पा
रहा है।
मनुवाद
के समर्थक बार-बार एक ही बात कहते हैं कि ‘मनुस्मृति’ में वर्णों
का विभाजन कर्म के आधार पर किया गया है, जन्म के आधार पर नहीं। कतिपय सनातनधर्मी
समाजशास्त्री वर्णव्यवस्था के लाभ गिनाते समय यह भी कहते हैं कि इससे यह सुनिश्चित
किया गया था कि समाज में हर प्रकार का कर्म करने वाले लोग आवश्यकतानुसार हमेशा
बने रहें और कर्मों को करने का ज्ञान पीढ़ी दर पीढ़ी उन्हें उत्तराधिकार के रुप
में मिलता रहे। मसलन बढ़ई का का काम हर
पीढ़ी में आदमी बचपन से ही सीखे और करे, जिससे कि उसके शिल्प व तकनीक में भी उत्तरोत्तर
विकास होता रहे। मनुस्मृति के प्रथम अध्याय के 28वें श्लोक में कहा गया है - ‘यं तु कर्मणि यस्मिन्स न्ययुड़्क्त प्रथमं प्रभु:। स तदेव स्वयं भेजे
सृज्यमान: पुन: पुन: (पहले ब्रहमा ने जिस जीव को जिस कार्य में नियुक्त किया, वह
बारम्बार उत्पन्न होकर भी अपने पूर्व कर्मों को करने लगा)। यह कर्म-विधान तो
उत्तम था किन्तु अलग-अलग वर्ण के लोगों की अलग-अलग तरह से उत्पत्ति, फिर उनके
अलग-अलग धर्म व कर्म गिनाकर उनके ऊँचे-नीचे स्थान निर्धारित कर जिस वर्ण-विधान की
रचना मनुस्मृति में की गई उसमें न ही कोई धार्मिक अच्छाई नजर आती है और न ही कोई
सामाजिक या आर्थिक अच्छाई। कर्मों को वर्ण से जोड़कर और वर्णों को ऊँचा-नीचा
बनाकर समाज का जो ऊर्ध्वाकार विभाजन किया गया, उससे कर्म-योग का सिद्धांत स्वयं ही
भोथरा हो गया और कर्मों की भी ऊँची-नीची श्रेणियाँ बन गईं। जब कर्म का निरूपण जन्मना
होने लगा तो वर्ण भी जन्मना ही तय होने लगा। इस प्रकार समाज में जन्म पर आधारित ऊँची-नीची
जातियाँ बन गईं और यही जाति-प्रथा आज हिन्दु धर्म के एक अभिशप्त अंश के रूप में
हमारे सामने है। सारी व्यवस्था को देखकर ऐसा साफ प्रतीत होता है, जैसे यह सब कुछ
नियम रचने वालों ने एक षडयंत्र के तहत किया हो। समाज में यदि जन्म पर आधारित कर्म
का विधान होता भी, किन्तु कर्मों से सम्बद्ध कर ऊँचे-नीचे वर्ण या जातियों की व्यवस्था
न की जाती और लोगों के लिए ज्ञान या कौशल के आधार पर यथेच्छा कर्म-परिवर्तन करने
की भी एक सुस्पष्ट व्यवस्था होती तो शायद हिन्दू-सूमाज का आज स्वरुप ही कुछ
और होता। संभवत: कतिपय स्वार्थी नीति-नियंताओं ने ऊँच-नीच पर आधारित इस वर्ण-व्यवस्था
की रचना की जिसके आगे समाज को लाभ पहुँचाने की क्षमता रखने वाले मनुस्मृति के कतिपय
अन्य नियम व सिद्धांत भी प्रभावहीन व अग्राह्य हो गए। चूँकि वर्ण-व्यवस्था में
सबसे ऊँचा दर्जा ब्राह्मणों को दिया गया, इसलिए मनुवाद को अगर ब्राह्मणवाद कहा जाय
तो भी गलत नहीं होगा। ब्राह्मणवाद के अतिरेक ने ही प्राचीन काल में अधिकांश
भारतीयों को बौद्ध या जैन धर्म की ओर मुड़ने पर मजबूर कर दिया था। आज भी यदि
वर्णवाद किसी कोने में सिर उठाता है तो उसे ब्राह्मणों की प्रतिक्रियावादी सोच का
परिणाम ही माना जाता है।
यहाँ ‘मनुस्मृति’ के सामान्य सिद्धांतों को प्रतिपादित
करने वाले श्लोकों के बीच-बीच में बिखरी वर्णवादी व्यवस्थाओं का एक सूक्ष्मावलोकन
किया जाना उचित प्रतीत होता है। प्रथम अध्याय के 31वें श्लोक में जीव की उत्पत्ति
के वर्णन में संसार के विकास के लिए ब्रह्मा द्वारा ब्राह्मण की उत्पत्ति मुख
से, क्षत्रिय की बाहु से, वैश्य की जंघा से तथा शूद्र की चरण से की गयी बतायी गयी
है। प्रथम अध्याय के ही 87वें श्लोक में पुन: कहा गया है कि ब्रह्मा ने सम्पूर्ण
विश्व के रक्षार्थ मुख, बाहु, जंघा और पांव से उत्पन्न होने वाले जीवों के लिए
अलग-अलग कर्मों की कल्पना की। आगे 91वें श्लोक में ‘एकमेव
तु शूद्रस्य प्रभु: कर्म समादिशत्। एतेषामेव वर्षानां शुश्रूषामनसूयया’ कहकर शूद्रों के लिए सेवा करने का ही एकमात्र कर्म प्रतिपादित किया है।
अब यदि इसे एक वर्ग को नीचा दिखाकर उसे पीढ़ी दर पीढ़ी सेवा भाव में ही लिप्त
रखने का षडयंत्र न माना जाए तो क्या माना जाए। यह ‘अहं ब्रह्मास्मि’ अथवा ‘यत्पिन्डे तत् ब्रहमाण्डे’ जैसी औपनिषदीय अवधारणाओं से कितनी विपरीत सोच थी। आगे 93वें श्लोक में
ब्राहमण को उत्तमांग (मुख) से उत्पन्न बताकर उसे श्रेष्ठ बताते हुए 110वें श्लोक
तक केवल ब्राह्मण के कर्म तथा आचार का ही प्रतिपादन किया गया है, जिससे यह आभास भी
हो जाता है कि यदि वर्ण-व्यवस्था की परिकल्पना स्वार्थवश की गयी थी तो निश्चित
है कि यह एक ब्राहमणवादी सोच का ही परिणाम थी और ब्राहमणों को ही लाभ पहुँचाने के
उद्देश्य से रची गयी थी। चूँकि सामाजिक कूटनीति और किसी संगठित विरोध को न पनपने
देने की दृष्टि से ‘मनुस्मृति’ के
प्रणेता ब्राह्मणों के लिए यह आवश्यक रहा होगा कि वे बाहुबली क्षत्रियों तथा
धनबली वैश्यों को कुछ हद तक अपने साथ रखें, इसीलिए इन नियमों के अधीन उनके लिए द्विजत्व
का दर्जा पाने का मार्ग भी खुला रखा गया होगा। धीरे-धीरे विभिन्न वर्णों के
प्रतिपादित कर्मों के आधार ही उनके गुण अथवा स्वभाव भी निर्धारित कर दिए गए। यहाँ
तक भगवत गीता में श्रीकृष्ण से भी 'परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्'
जैसी बात कहलवा दी गई।
‘मनुस्मृति’ में ऊँच-नीच का जो ताना-बाना बुना गया
है वह काफी सुदृढ़ तथा सुगठित है। यदि ऐसा न होता तो शायद इसे समझ पाने तथा इसके
विरुद्ध आवाज उठाने में इतना समय भी न लगता। यह प्राचीन सामाजिक व्यवस्था का एक
ऐसा विधान रहा होगा जिसके विपरीत सोचना भी महापाप माना गया होगा, तभी तो सम्पूर्ण
दर्शन-शास्त्र या आध्यात्मिक साहित्य में इसका कोई विशेष उल्लेख नहीं है। ‘मनुस्मृति’ के प्रथम अध्याय में वर्णों की उत्पत्ति
तथा उनके कर्मों के उल्लेख के पश्चात् नामकरण-संस्कार के वर्णन में कहा गया है
कि ब्राह्मण का नाम मंगलवाचक, क्षत्रिय का बलवाचक, वैश्य का धन-धान्य सूचक तथा
शूद्र का निन्दा से युक्त नाम रखना चाहिए (31वां श्लोक-द्वितीय अध्याय)। यही
नहीं उपनाम रखने के बारे में भी कहा गया कि ब्राह्मण का शर्मा जैसा, क्षत्रियों का
रक्षा-सूचक, वैश्यों का पुष्टि-सूचक तथा शुद्र के उपनाम दास आदि होने चाहिए
(32वां श्लोक-द्वितीय अध्याय)। यानी अपने नाम से ही शूद्र व्यक्ति एक दैन्यता या
सेवा-भावना के बोध से बँध जाए। कौन कितना मान्य होता है इसका उल्लेख करते समय दस
वर्ष के ब्राहमण को सौ वर्ष के क्षत्रिय के बराबर मान्य बताया गया तथा धन, बंधु, अवस्था,
कर्म और विद्या नामक पाँच गुणों के आधार पर पुरुषों की मान्यता का निर्धारण किये
जाने के नियम से शूद्रों को बाहर रखा गया। शूद्र का स्थान जन्मना नियत माना गया।
वह ब्राहमणों की भाँति ज्ञान, क्षत्रियों की भाँति बल या वैश्यों की भाँति
धन-धान्य अर्जित करके बड़प्पन नहीं पा सकता था (155वां श्लोक-द्वितीय अध्याय)।
तीनों द्विज वर्णों के लिए वेदपाठ अनिवार्य बताया गया। जो द्विज वेद न पढ़े उसके लिए वंश सहित शूद्रव्य
प्राप्त करने की बात कही गयी। वेदारम्भ के पहले भी द्विज को शूद्र के समान माना
गया (168 व 172 श्लोक-द्वितीय अध्याय)। इससे यह बात भी तय ही हो जाती है कि आज
जब अधिकांश द्विज न वेदारम्भ करते हैं और न वेदों का अध्ययन तो वे मनुवाद के
आधार पर अपने वंश सहित शूद्र के समान ही हैं। फिर वे ‘मनुस्मृति’ के किस सिद्धान्त के आधार पर अपने श्रेष्ठ होने का दावा करते हैं। अत: आज
समाज में ब्राह्मणवादी अथवा वर्णवादी सोच का बरकरार रहना वैसा ही है कि रस्सी तो
जल जाये पर ऐंठन न जाए। शूद्र यदि वेदपाठी हो जाता तो भी शूद्र ही बना रहता। उसके
स्थान में न कोई परिवर्तन होना प्रतिपादित था और न ही ऐसा होना मान्य था। उसके
लिए द्विजत्व प्राप्त करना संभव न था। वैश्य या क्षत्रिय के लिए भी ब्राह्मणत्व
को प्राप्त करना संभव न था। तात्पर्य यह है कि मनुवाद के तहत नीचे गिरना तो संभव
था पर ऊपर उठना निषिद्ध था। सनातन धर्म के इन तथाकथित ठेकेदारों ने अपनी श्रेष्ठता
जन्म-जन्मांतर बनाये रखने के लिए एक ऐसे मजबूत मकड़जाल की रचना की थी, जिसके तमाम
फंदों से निकल पाने के बाद भी शिकार को अन्तत: जाल के केन्द्र में बैठी मकड़ी का
ही ग्रास बनना था।
‘मनुस्मृति’ के आठवें अध्याय में राज-धर्म का वर्णन
करते समय ब्राहमणवाद का असली चेहरा तब पूरी तरह से बेनकाब हो जाता है, जब कहा जाता
है कि केवल जाति के नाम पर जीने वाला और केवल नाम-भाव से ब्राह्मण कहलाने वाला
ब्राह्मण भी राजा की ओर से धर्म-प्रवक्ता हो सकता है, परन्तु शूद्र कभी नहीं हो
सकता। आगे कहा गया है कि जिस राजा के यहाँ
शूद्र न्यायकर्ता होता है, उस राजा का देश पंक में धँसी हुई गौ की भाँति क्लेश
पाता है तथा जिस देश में शूद्र अधिक हों और जो नास्तिकों से आक्रांत हो तथा जहाँ
एक भी ब्राह्मण न हो, वह सारा देश शीघ्र की दुर्भिक्ष और रोगी की पीड़ा से ग्रस्त
होकर नष्ट हो जाता है (20-22वां श्लोक आठवां अध्याय)। वर्ण-विभेद का ऐसा ही एक अन्य
उदाहरण तब सामने आता है, जब दंड-व्यवस्था की बात कही जाती है। ब्राह्मण को कटु
वचन कहने वाले क्षत्रिय को एक सौ पण व वैश्य को दो सौ पण का अर्थ-दण्ड तथा शूद्र
को प्राण-दंड देने की व्यवस्था की गई है। उल्टे तौर पर यदि ब्राह्मण क्षत्रिय
को कठोर बात कहे तो पचास पण, वैश्य को कहे तो पचीस पण और शूद्र को कहे तो केवल
बारह पण के अर्थ-दण्ड की व्यवस्था है। शूद्र यदि क्षत्रिय या वैश्य को कटु वचन
कहे तो उसकी जीभ काट लेने का दण्ड देने का प्रावधान किया गया है (267-270वां श्लोक-आठवां
अध्याय)। शूद्र यदि द्विजातियों से झगड़ा करे तो उसका अंग-भंग करने के विविध
प्रकार के दण्डों का विधान है। ब्राह्मणादि वर्ण के साथ आसन पर बैठने का प्रयत्न
करने वाले नीच वर्ग के व्यक्ति की कमर में चिन्ह का दाग करके राजा द्वारा उसे
देश निकाला दिये जाने का नियम प्रतिपादित है। शूद्र द्वारा ब्राहमण का अपमान किये
जाने की दशा में उसका अंग-भंग किये जाने के विशेष दण्डों का भी प्रावधान है
(282-283वां श्लोक-आठवां)। वर्ण-भेद पर आधारित मत्स्य न्याय का इससे बड़ा
उदाहरण अन्यत्र कहाँ मिल सकता है। निश्चित रुप से यह नियम अन्य वर्णों को विशेष
रुप से शूद्रों को ब्राहमणों से भयभीत रखने के लिए बनाये गए हैं। यदि ऐसा न होता
तो अन्तर्वर्ण अपराधों से परे अन्य अपराधों के मामलों में शूद्रों पर कम दण्ड
तथा क्रमश: वैश्यों, क्षत्रियों या ब्राहमणों पर अधिक दण्ड का प्रावधान न होता।
उदाहरण के तौर पर चोरी के अपराध में शूद्र को चोरी के माल का आठ गुना, क्षत्रिय को
बत्तीस गुणा, ब्राहमण को चौसठ गुना से लेकर एक सौ अट्ठारह गुना तक दण्ड देने का
नियम रखा गया। आठवें अध्याय के 359वें श्लोक से लेकर 387वें श्लोक तक में पर-स्त्री
गमन तथा व्यभिचार के संबंध में जो दण्ड के प्रावधान रखे गए, उनमें भी इसी प्रकार
का वर्ण-विभेद दिखायी पड़ता है तथा इनमें जहाँ ब्राहमण के विरुद्ध सजा को अर्थदण्ड
तक ही सीमित रखा गया है, वहीं अन्य वर्णों के विरुद्ध अंगभंग के दण्ड से लेकर
कतिपय मामलों में शूद्रों को प्राणदण्ड तक देने की व्यवस्था की गई है, विशेष
रुप से ब्राह्मण स्त्रियों के साथ किये गए अपराधों के मामलों में। दण्ड की
पूर्ति के मामले में भी विभेद विद्यमान हैं। यदि क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र
अर्थ-दण्ड भरने में असमर्थ हों तो उनसे कार्य लेकर दण्ड पूरा किये जाने किन्तु
ब्राह्मण से कभी भी सेवा न कराये जाने की बात कही गयी है ( 229वां श्लोक-नवां अध्याय)।
उपरोक्त
विश्लेषण से स्पष्ट है कि जहाँ एक ओर ‘मनुस्मृति’ में
जीवन-शैली के बहुउपयोगी विधान की रचना की गई और धर्म तथा कर्म की गति समझाते हुए
विभिन्न संस्कारों, संबंधों, क्रियाओं आदि के सम्पादन के नियम बनाये गए, वहीं
दूसरी ओर कर्मों को वर्णो से जोड़कर, वर्णों के बीच ऊँच-नीच स्थापित कर तथा
विभेदकारी दण्ड विधान की रचना कर कतिपय निहित स्वार्थों की पूर्ति का जाल भी रचा
गया। समय-समय पर अनेक संत-महात्माओं ने इस ब्राह्मणवादी वर्ण-व्यवस्था के जाल
को जान-समझा तथा मानव-समाज को इससे मुक्ति दिलाने की कोशिश भी की। ब्राह्मण ‘मनुस्मृति’ में वर्णित धर्म को ही मानव धर्म व
सनातन-धर्म का असली रुप बताते रहे। शूद्र को केवल जूठा अन्न, पुराना वस्त्र,
सारहीन अन्न, पुराना ओढ़ना और बिछौना देने की बात कहकर उसे पराश्रित बनाये रखने
में ही उनका हित था। शूद्र को पातक-विहीन व संस्कार-विहीन घोषित करके धर्म-कार्य
में उसके किसी भी अधिकार का निषेध करना ब्राहमणों के उच्च स्थान को सुरक्षित
रखने के लिए आवश्यक था। हालाँकि, ‘मनुस्मृति’ में शूद्र को धर्म-कार्य करने से मना कहीं नहीं किया गया और उसे भी ब्रह्मचर्यपूर्वक
शुभ व शास्त्रोक्त कर्म करने की सलाह दी गयी (125-126वां श्लोक-दसवां अध्याय
तथा 223वां श्लोक-द्वितीय अध्याय)। ‘दास्यायैव द्वि सृष्टो
सौ ब्राहमणस्य स्वयंभुवा’ कहकर यह स्पष्ट किया गया कि
ब्रह्मा ने शूद्र को ब्राहमण की सेवा के लिए ही बनाया है। ब्राह्मण की सेवा करना
शूद्र का विशिष्ट कर्म कहा गया और इसके अलावा उसके अन्य समस्त कर्म निष्फल
बताये गए। ‘ब्राह्मणाद्याश्रयों नित्यमुत्कृष्टां जातिमश्नुते’ कहकर यह लालच भी दिया गया कि ब्राहमण के आश्रित रहने वाला शूद्र अगले जन्म
में उत्कृष्ट जाति को प्राप्त करेगा। शूद्र को धन-संचय में समर्थ होते हुए भी
धन का संग्रह न करने की सलाह दी गयी और उसका स्पष्ट कारण भी बताया गया कि धन को
पाकर शूद्र ब्राहमण को ही सतायेगा (129वां श्लोक-दसवां अध्याय)। वर्ण-विभेद की
ब्राह्मणीय-व्यवस्था में गैर-ब्राह्मण द्विज वर्णों को वैकल्पिक लाभ देने की व्यवस्था
भी संभवत: स्वार्थवश ही सृजित की गई। ब्राहमण को सभी प्रकार के अपवित्र कार्यों
में संलग्न रहने पर भी पूजनीय व देवतुल्य बताया गया। क्षत्रिय को ब्राह्मण से
उत्पन्न बताया गया (320वां श्लोक-नवां अध्याय)। इस प्रकार क्षत्रिय की ब्राह्मण
की बाहु से सृष्टि होने की परिकल्पना का खंडन मनुस्मृति में ही कर दिया गया है।
क्षत्रिय तथा ब्राह्मण को एक-दूसरे का अनुपूरक बताते हुए, ‘नाब्रह्म
क्षत्रमृघ्नोति नाक्षत्रं ब्रह्म वर्धते। ब्रह्म क्षत्रं च संपृक्तमिह चामुत्र
वर्धते’ (बिना ब्राह्मण के क्षत्रिय की वृद्धि नहीं होती और
क्षत्रिय के बिना ब्राह्मण की उन्नति नहीं होती। यदि ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों
परस्पर मिले रहें तो यहाँ और परलोक, दोनों जगहों में दोनों की वृद्धि होती है) कहकर
एक कूटनीति भी दर्शायी गई। एक तरफ ब्राह्मण अपने कर्म से जीवन-यापन न कर सके तो
उसके लिए क्षत्रिय या वैश्य का कर्म ग्राह्य बताया गया। दूसरी तरफ आपत्तिकाल में
भी क्षत्रिय को जीविका के लिए ब्राह्मण की वृत्ति का अवलम्बन निषिद्ध बताया गया। यहाँ
ब्राह्मण वर्ग की जीविका के मार्ग के पूर्ण संरक्षण का उद्देश्य स्पष्ट है। आगे
यह भी कहा गया कि यदि वैश्य अपनी वृत्ति से जीवन-निर्वाह न कर सके तो शूद्र वृत्ति
से जीविका का निर्वाह करे और शक्तिशाली हो जाने पर उसे छोड़ दे। उत्तम वृत्ति से
जीवन-निर्वाह करने वाली अधम जाति को राजा द्वारा निर्धन करके देश से शीघ्र निकाल
देने का नियम बनाया गया। शूद्र की वृत्ति का उल्लेख करते समय कहा गया कि यदि ब्राह्मण
की सेवा करते हुए शूद्र का जीवन-निर्वाह न हो तो क्षत्रिय की सेवा करे और यदि उससे
भी पेट न भरे तो वह धनिक वैश्य की सेवा कर जीवन-निर्वाह करे। शूद्र को ब्राह्मण
की सेवा करने से स्वर्ग प्राप्त होने की निष्पति भी की गई।
26
जनवरी, 1950 को भारत का नया संविधान लागू होने के उपरान्त देश की राजनीति में
वर्णवाद तथा मनुवाद के नाम पर होने वाली सारी चर्चाएँ समाप्त हो जानी चाहिए थीं
और प्रत्येक नागरिक द्वारा संविधान की व्यवस्थाओं को अपने निजी जीवन की
आचार-संहिता के रुप में ग्रहण कर लेना चाहिए था। पर दुर्भाग्य से ऐसा हुआ नहीं।
समानता के सिद्धांतों के बीच असमानता के बीज बोये जाते रहे। हिन्दुओं के संस्कारों
में वर्ण-विभेद आज भी उसी रूप में विद्यमान दिखायी देता है जैसा सदियों पहले था।
कर्मों के विभेद में अन्तर अवश्य आया है। शिक्षा व वृत्ति के अवसरों की समानता
की संवैधानिक व्यवस्था ने शूद्रों के लिए शासन करने तथा व्यापार व कृषि करने के
अवसर सृजित किये हैं। आरक्षण की व्यवस्था ने भी द्विजों के लिए निर्धारित वृत्तियों
में शूद्रों की भागीदारी सुनिश्चित की है। लेकिन अस्पृश्यता की समस्या आज भी
विद्यमान है। विवाहादि मामलों में स्ववर्ण के बाहर के संबंध आज भी सामान्यत: स्वीकार्य
नहीं है। एक बात में फर्क अवश्य आया है कि वर्णवाद की संरचना समाज में ब्राहमणों
का वर्चस्व स्थापित करने के जिस उद्देश्य से की गयी थी वह उद्देश्य अब निरर्थक
हो गया है। आज अधिकांश ब्राह्मण वर्ग अपने कर्म से तथाकथित शूद्रत्व को प्राप्त
हो चुका है और उसने अपने आचरण को परिवर्तित करके सेवाभाव को उस सीमा तक आत्मसात
कर लिया है, जिस सीमा तक शायद मनुवाद के सिद्धांतों पर चलकर स्वयं शूद्र भी न
अपना सके थे। ब्राह्मण वर्ग के लिए आज वर्णवाद का उपयोग अन्तर्जातीय कलह उत्पन्न
कराकर अपना राजनीतिक उल्लू सीधा करने तक सीमित रह गया है।
दलितों
पर हो रहे अत्याचारों को रोकने तथा अस्पृश्यता के निवारण के उद्देश्य से
आधुनिक भारत में कड़े दण्ड-विधान की रचना की गयी है। यह दण्ड-विधान प्रकृति एवं
प्रभाव में मनुस्मृति के दण्ड-विधान के प्रतिलोम जैसा ही है। यह ब्राहमणवादी
वर्ण-विभेद को समाप्त करने के लिए प्रेरित नहीं करता। यह केवल वर्ण-विभेद के
प्रति समाज में भय पैदा करता है। इसका मुख्य उद्देश्य समाज-सुधार न होकर
राजनीतिक वोट-बैंक हासिल करना अधिक प्रतीत होता है। फलस्वरुप जातियों और वर्णों
के आधार पर हिन्दू समाज का तेजी से विघटन होता जा रहा है। इस विखंडित समाज के
सहारे किसी सम्पन्न व सुसंस्कृत अखण्ड भारत की कल्पना की जा सकती हो ऐसा
असंभव है। हो सकता है कि जिस प्रकार हम सदियों से एक क्रिया से परेशान होते रहे
हैं, आगे एक लंबे समय तक उसकी प्रतिक्रिया से परेशान होते रहें और फिर अन्त में
कोई सामाजिक समरसता स्थापित हो सके जो हमें हमारे वास्तविक गन्तव्य की ओर ले
जाए। आज हमारे बीच मनु तो बैठे नहीं हैं जो अपनी बात स्पष्ट कर सकें। मनु के
अनुयायी वे ऋषि-मुनि भी नहीं बैठे हैं, जिन्होंने मनु के नाम पर वर्णवाद को आगे
बढ़ाया। आज हमारे सामने केवल दिग्भ्रमित-कुंठित हिन्दू समाज बैठा है, जो लगातार
अपने सिर पर सामाजिक कटुता के मैले को ढोये चला जा रहा है और समस्याओं का ठीकरा
निरन्तर एक-दूसरे के सिर पर फोड़ते जा रहे हैं। यदि लोगों के भीतर आज भी वर्णवादी
मानसिकता के तत्व विद्यमान हैं, तो उसका निवारण आरोप-प्रत्यारोप लगाकर नहीं, साथ
मिल-जुलकर काम करके ही किया जा सकता है। यदि हमारे राजनीतिज्ञों ने सामाजिक सद्भाव
बनाये रखने की दिशा में तत्काल पहल न की और वर्णवाद तथा मनुवाद के नाम पर इसी प्रकार
राजनीतिक रोटियाँ सेंकी जाती रहीं तो फिर भारत का भविष्य अंधकारमय ही बना रहेगा,
इसमें कोई संदेह नहीं।
Very nice
ReplyDeleteVarn was not based on birth it was based on ability
ReplyDelete. If we do not increased our ability then I will be treated as sudra...