आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Saturday, October 25, 2014

दुष्यन्त कुमार: परिवर्तन के लिए समर्पित कवि (लेख)

हिन्‍दी-साहित्‍य में ग़ज़ल की बात छिड़े और दुष्‍यन्‍त कुमार के नाम के बिना कोई बात पूरी हो, यह असम्‍भव है। उनकी ग़ज़लों की पंक्‍तियाँ बात-बात में यूँ उद्धरित होती हैं, जैसे उनके बिना कहने वाले की बात में कोई वजन भी न आता हो। तुलसीदास के बाद संभवत: वे सबसे ज्‍यादा उद्धरित किये जाने वाले हिन्‍दी कवि हैं। मुझे याद है कि कॉलेज के दिनों में हम जैसे छात्र-राजनीति में रूचि रखने वाले विद्यार्थी चुटीले वज़नदार भाषणों के लिए जब भी अपनी योजनाएँ बनाते थे तो सबसे पहले ‘साए में धूप’ लेकर बैठते थे। भाषणों के बीच-बीच में बात में वज़न लाने के लिए प्रयोग करने योग्‍य पंक्‍तियाँ दुष्‍यन्‍त की ग़ज़लों में से सहज ही निकल आती थीं और सुनने वाले उनके चमत्‍कारिक प्रभाव से कभी अछूते नहीं रह पाते थे।

            साधारण बोल-चाल की भाषा का इस्तेमाल, हिन्‍दी-उर्दू के शब्‍दों के स्‍वाभाविक मिश्रण का प्रयोग, बात कहने का चुटीला अंदाज, हर दृष्‍टि से दुष्‍यन्‍त अपनी ग़ज़लों के माध्‍यम से सीधे दिल और दिमाग पर छा जाते हैं। आपको जितनी गहराई में जाना है, उतना ही पैठते चले जाइये, आप उनके शब्‍दों की चमत्‍कारिक शक्‍ति से अधिकाधिक प्रभावित होते चले जायेंगे। स्‍वच्‍छ शीशे जैसी साफगोई, जमाने की पीड़ा, देश का दर्द, गरीबी की घुटन, समाज का विद्रूप सभी कुछ, पूरे यथार्थ रूप में उनके शब्‍द दिल को छू लेने वाले अंदाज में आपके सामने पंक्‍ति दर पंक्‍ति पेश करते चले जाते हैं। ‘कहाँ तो तय था चिरागाँ हरेक घर के लिए, कहाँ चिराग मयस्‍सर नहीं शहर के लिये’ कहकर हमारे, आर्थिक व सामाजिक-सांस्‍कृतिक विकास के खोखलेपन को उन्‍होंने नंगा करके सामने रख दिया। अज्ञानता व विचार-शून्‍यता हमें लाचार बनाती है। लाचार आदमी प्रतिरोध की शक्‍ति नहीं रखता। वह उठकर खड़े होने की हिम्‍मत नहीं करता। वह परिस्‍थितियों के सामने संघर्ष नहीं समर्पण करता है। हमारा भारतीय समाज इस प्रकार के समर्पण का प्रतीक रहा है। थोड़े समय के लिये नहीं, सदियों तक। इसे बताने के लिये ‘न हो कमीज़ तो पाँवों से पेट ढँक लेंगे, ये लोग कितने मुनासिब हैं, इस सफर के लिये’ से ज्‍यादा असरदार तरीका क्‍या हो सकता है!

            दुष्‍यन्‍त का सौन्‍दर्य-बोध आधुनिक एवं नायाब था। वे चिकने-चुपड़े सौन्‍दर्य के कायल नहीं थे। उन्हें ग़ज़लगों माना गया लेकिन वे सामान्यत: खूबसूरती और रोमान्स की बातें करने वाले लोकप्रिय ग़ज़लकारों से भिन्‍न थे। उन्‍होंने समाज की सड़न-गलन को देखा था। वे सच्‍चाई के पारखी थे। कल्‍पना में बहकर वे यथार्थ से दूर नहीं भागते थे। उन्होंने आम आदमी को सामने खड़ा करके उसकी जिन्‍दगी की बात की। ‘ये सारा ज़िस्‍म झुककर बोझ से दुहरा हुआ होगा, मैं सज़दे में नहीं था, आपको धोखा हुआ होगा’ जैसी बात कहकर वे एक मेहनतकश आम इंसान को बहुत ऊँचे पायदान पर खड़ा कर देते हैं। कर्म ही प्रधान है, कर्म ही साधना है, कामगार ही सच्‍चा पुजारी है, वह भले ही पूजा-पाठ न करे लेकिन उसके श्रम का हर क्षण पूजा-अर्चना का क्षण है। काम के बोझ से दुहरे हो गये शरीर वाले इंसान का बिम्‍बात्‍मक रूप खींचकर इस बात को जिस प्रकार से दुष्‍यन्‍त ने सामने रखा, वह निश्‍चित ही हमारे मस्‍तिष्‍क को झकझोर कर रख देता है और जब इसी सिलसिले में वे आगे कहते हैं ‘कई फाक़े बिताकर मर गया जो उसके बारे में, वो सब कहते हैं अब, ऐसा नहीं, ऐसा हुआ होगा’ तो हमारे समाज का असली चेहरा बेनकाब हो जाता है। फिर वह उसी अन्‍दाज में हमें गंभीरता से सोचने के लिए आगे एक और मुद्दा थमा देते हैं, ‘यहाँ तो सिर्फ गूंगे और बहरे लोग बसते हैं, ख़ुदा जाने यहाँ पर किस तरह जलसा हुआ होगा।’

            देश और समाज की हर समस्‍या पर दुष्‍यन्‍त की निगाह थी। वे उसे इंगित करने के साथ-साथ उस पर जरूरी ऐंगिल से करारी चोट करते थे। धर्मान्‍धता और धर्म के ठेकेदारों पर जब वह यह कहते हैं, ‘’गज़ब है सच को सच कहते नहीं वो, कुरानों-उपनिषद खोले हुए हैं’ तो वह कबीर जैसे क्रान्‍तिकारी सुधारकों की पंक्‍ति में उनके समकक्ष जाकर खड़े हो जाते हैं। वह समाज में छायी चुप्‍पी के प्रति हमेशा आशंकित दिखे। वे हमेशा इसे तोड़ने की प्रेरणा देते दिखाई पड़े। अन्‍याय व संकट के प्रति चुप रहने वाला समाज कभी प्रगति नहीं कर सकता। ऐसा समाज कभी आगे नहीं बढ़ सकता। वे इसे बखूबी जानते और कहते थे। उनकी यह पीड़ा उनकी ग़ज़लों में अक्सर छलककर सामने आई। कभी वे ‘इस शहर में वो कोई बारात हो या वारदात, अब किसी भी बात पर खुलती नहीं हैं खिड़कियाँ’ कहकर अफसोस जताते हैं, कभी उनकी ‘इस सिरे से उस सिरे तक सब शरीके-जुर्म हैं, आदमी या तो जमानत पर रिहा है या फरार’ कहकर इन हालात पर चुपचाप बैठकर ज़ुल्‍म सहती पूरी ज़मात को ही वे कटघरे में खड़ा कर देते हैं। देश की गरीबी की चिन्‍ता तो हम सभी को होती है। लेकिन देशवासियों की तंगहाली के बारे में दुष्‍यन्‍त का अंदाजे-बयाँ एकदम निराला था। पहले उन्होंने इस बदहाली पर यह कर चुटकी ली, ’इस कदर पाबंदी-ए-मजहब कि सदके आपके, जबसे आजादी मिली है मुल्‍क में रमजान है,’ फिर वह पूरी ताकत से इस फटेहाली पर आक्रमण करते हैं, ‘कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए, मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिन्‍दुस्‍तान है।’

            दुष्‍यन्‍त परिवर्तन चाहते थे। वे परम्‍परा के नाम पर समाज की दुर्गति नहीं चाहते थे। उनको आभास था कि हमारे रास्‍ते सही नहीं हैं और हम मंजिल तक पहुँचने में कामयाब नहीं होंगे। ‘आगे निकल गये हैं घिसटते हुए कदम, राहों में रह गये हैं निशाँ और भी खराब’ कहकर वे इसी ओर इशारा करते हैं। वे उस विरासत को पूरी तरह नकार देते हैं जो हमें सही रास्‍ता नहीं दिखा सकती। वे उनके पीछे भी नहीं चलना चाहते थे जो किसी तरह आगे निकलकर एक ग़लत मंजिल की तरफ बढ़ चले हों। वे हमेशा एक नये रास्‍ते, एक सही मंजिल की तलाश करते दिखाई पड़े, भले ही वह हमें एकदम से न मिले। ‘ये सोचकर कि दरख़्तों में छाँव होती है, यहाँ बबूल के साये में आके बैठ गये’ कहकर उन्होंने अपनी मंशा स्‍पष्‍ट कर दी थी। वे प्रयोग करने के लिए सदैव तैयार रहते थे। उनका मानना था कि कोशिश जारी रहे तो मंजिल की तलाश तो एक न एक दिन पूरी होगी ही। वे परिवर्तन की राह में आने वाली कठिनाइयों को भी समझते थे। तभी तो उन्होंने कहा, ‘कभी मचान पे चढ़ने की आरजू उभरी, कभी ये डर कि ये सीढ़ी फिसल न जाये कहीं।’ लेकिन वे यथास्‍थिति कभी नहीं चाहते थे। वे इसके लिए कतई तैयार नहीं कि जो आज तक होता चला आया है, आगे भी वैसा ही सूरते-हाल रहे। ‘तमाम रात तेरे मैकदे में मय पी है, तमाम उम्र नशे में निकल न जाये कहीं’ कहकर उन्होंने इस बारे में अपनी आशंका स्‍पष्‍ट कर दी थी।
                                  
            समाज में व्‍याप्‍त शोषण, लूट-खसोट व अन्‍याय के प्रति वे निरंतर सतर्क व मुखर रहे। आपाधापी भरे समाज में कमजोर व्‍यक्‍ति कैसे स्‍वार्थी तत्‍वों का शिकार बन जाता है, उसका कैसे शोषण होता है, इसको दुष्‍यन्‍त ने बड़ी सहजता से कहा, ‘तुमने इस तालाब में रोहू पकड़ने के लिये, छोटी-छोटी मछलियाँ चारा बनाकर फेंक दी।’ इसी बात को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने अपनी एक ग़ज़ल में सामाजिक विषमता का मार्मिक बिम्‍ब खींचा था, ‘हम ही खा लेते सुबह को भूख लगती है बहुत, तुमने बासी रोटियाँ नाहक उठाकर फेंक दीं।’ उनकी दृष्‍टि उन पर भी पड़ी जो इन सामाजिक विषमताओं को मिटाने का खोखला दावा करते घूमते हैं। वे ऐसे लोगों की असलियत जानते थे। वोट की राजनीति में स्‍वार्थ का जाल बहुत मजबूत होता है। यह स्‍वार्थ इन विषमताओं को मिटाने नहीं देता। खेमेबाजी से ही यहाँ सफलता मिलती है। बंटवारा मूलमंत्र है। सत्ता-केन्द्रों को सभी कुछ अपने-अपने हित में बांटना होता है और अपनी-अपनी सुविधानुसार उसके हिस्‍सों को अपने से जोड़ना होता है, वह भी यह अहसास दिलाकर कि समाज के उस हिस्‍से के वही सबसे बड़े हितैषी हैं। दुष्‍यन्‍त ने इसके प्रति अपनी नापसंदगी साफ-साफ जाहिर की थी, ‘आप दीवार गिराने के लिए आये थे, आप दीवार उठाने लगे ये तो हद है।’

            दुष्‍यन्‍त की ग़ज़लों में कहीं-कहीं बड़े ही चमत्‍कारपूर्ण प्रयोग व अनूठे बिम्‍ब दिखाई पड़ते हैं। ऐसे में उनकी बात का वज़न कई गुना बढ़ जाता है। ऐसी पंक्‍तियाँ बार-बार पढ़ने और गुनगुनाने का मन करता है। जब वे कहते हैं, ‘बच्‍चे छलांग मार के आगे निकल गये, रेले में फँस के बाप बिचारा बिछुड़ गया’ तो नई व पुरानी पीढ़ी के आज के अन्‍तर्द्वन्‍द्व अथवा प्रतिस्‍पर्धा की एक सजीव तस्‍वीर हमारे सामने खड़ी हो जाती है। जब वो कहते हैं, ‘दुख को बहुत सहेज के रखना पड़ा हमें, सुख तो किसी कपूर की टिकिया सा उड़ गया,’ तो वे हमारे लिए रहीम जैसे अविस्‍मरणीय कवि बन जाते हैं। दुष्यन्त के इसी तरह के अनेक ऐसे बिम्‍ब हैं, जिनका नयापन हमें अपनी ओर बेहद आकर्षित करता है। ‘इस तरह टूटे हुए चेहरे नहीं हैं, जिस तरह टूटे हुए ये आइने हैं’ पढ़ते समय न तो हम दुष्‍यन्‍त के अद्भुत काव्‍य-शिल्‍प के प्रति आश्‍चर्यचकित हुए बिना रह पाते हैं, और न ही चीजों को एक नये नज़रिये से देखने की जरूरत के प्रति प्रभावित हुए बिना। आगे जब वह कहते हैं, ‘जिस तरह चाहो बजाओ इस सभा में, हम नहीं हैं आदमी, हम झुनझुने हैं’ तो हम समाज में अपनी भूमिका के प्रति विचार करने के लिए बाध्‍य हुए बिना भी नहीं रह पाते। वास्‍तव में इस प्रकार के व्‍यंग्‍य ही हमें तत्‍काल प्रतिरोध एवं संघर्ष करने के लिए प्रेरित करते हैं।

            दुष्‍यन्‍त परिवर्तन की कामना रखने वाले क्रांतिदृष्‍टा कवि थे। संघर्ष एवं बदलाव की कोशिश उनकी कविताओं की मूल प्रवृत्‍ति है। वे सच्‍चाई से आँखें फेरकर बैठने वालों में से नहीं थे। ‘मैं बेपनाह अंधेरों को सुबह कैसे कहूँ, मैं इन नज़ारों का अंधा तमाशाबीन नहीं,’ कहकर उन्होंने अपना इरादा बखूबी स्‍पष्‍ट कर दिया था। वे ज़ुल्‍म व अन्‍याय के खिलाफ आवाज़ उठाने की अनेक प्रकार से वकालत करते रहे। वे अपनी ग़ज़लों को इसके लिए हथियार की तरह इस्‍तेमाल करते रहे। ‘मुझमें रहते हैं करोड़ों लोग चुप कैसे रहूँ, हर ग़ज़ल अब सल्‍तनत के नाम एक बयान है,’ जैसी बातें कहकर वे अपनी गजलों को देश की करोड़ों जनता की प्रतिनिधि आवाज़ बना देते थे। वे कदम-कदम पर अपनी गजलों के माध्‍यम से दबे-कुचले, गरीब लोगों की चुप्‍पी तोड़ने के लिए प्रेरित करते रहे। वे अपनी कविता को आन्‍दोलन का संवाहक मानते थे। ‘मेरी ज़ुबान से निकली तो सिर्फ नज़्म बनी, तुम्‍हारे हाथ में आयी तो एक मशाल हुई’ जैसी बातें कहकर उन्होंने हमेशा अपनी ग़ज़लों के माध्‍यम से इस परिवर्तनाकांक्षी आन्‍दोलन की अगुवाई की।

            सामाजिक दुर्व्‍यवस्‍था के प्रति आक्रोश दुष्‍यन्‍त की गजलों में सर्वत्र फूटता दिखाई पड़ता है। वे लगातार इस पर असरदार ढंग से चोट करते रहे। ‘दुकानदार तो मेले में लुट गये यारो! तमाशबीन दुकानें लगा के बैठ गये’ कहकर एक तरफ तो उन्होंने इस प्रकार की दुर्व्यवस्‍था पर व्‍यंग्‍य भरा प्रहार किया, वहीं दूसरी तरफ, ‘फिर धीरे-धीरे यहाँ का मौसम बदलने लगा है, वातावरण सो रहा था, अब आँख मलने लगा है’, जैसी बात कहकर परिवर्तन लाने वाले आन्‍दोलन के आगाज़ की सूचना भी दे दी। और फिर आगे बढ़कर वे, ‘हमको पता भी नहीं था, वो आग ठंडी पड़ी थी, जिस आग पर आज पानी सहसा उबलने लगा है,’ जैसी बातों के साथ क्रांति का बिगुल बजाते नज़र आए। उनका लक्ष्‍य कदम दर कदम इस आग को और तेज करना रहा। ‘मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही, हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिये,’ जैसी बातें कहकर वे सदैव अपनी मुहिम को आगे बढ़ाते रहे। उन्‍हें विश्‍वास था कि उनके भीतर सुलगती चिन्‍गारी, किसी न किसी दिन व्‍यापक शक्‍ल लेकर एक बड़ी क्रांति को मूर्त्त रूप दे देगी। इसी विश्‍वास को व्‍यक्‍त करती हैं उनकी समय के साथ हर ज़ुबान का नारा बन चुकी ये पंक्‍तियाँ, ‘हो गई है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए, इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए।’ ऐसी पंक्तियाँ निस्‍संदेह हमारी विचारोत्‍तेजना को उस शिखर तक पहुँचा देती है, जहाँ से परिवर्तन की ऊर्जा का प्रवाह अपरिहार्य रूप से होने लगता है। वे हर हाल में बदलाव चाहते थे। इससे ज्‍यादा बखूबी वे अपनी इस इच्‍छा को और कैसे व्‍यक्‍त करते, - ‘सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं, मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।’


            दुष्‍यन्‍त अपने संकल्‍प के प्रति समर्पित रहने वाले तथा मकसद पूरा करने के लिए लगातार प्रयत्‍न करते रहने में विश्‍वास रखने वाले कवि थे। उन्‍होंने हिन्‍दी-उर्दू की सीमाओं को तोड़कर, आम आदमी की बोल-चाल की मिश्रित भाषा में कविता की। उर्दू की प्रतिष्‍ठित गजल विधा को अपनाकर उन्‍होंने हिन्‍दी-कविता को एक नई विविधता व नई दृष्‍टि से ओत-प्रोत किया। वे अपनी पीढ़ी के हर जागरूक इन्‍सान, बूढ़े या नवजवान, की जुबान पर चढ़कर बोले। उनको जिसने भी सुना, वही उनके पीछे हो लिया। उनको जिसने भी पढ़ा, वही उनको उद्धरित करने में रम गया। उनकी ग़ज़लों की पंक्‍तियाँ हर मंच के वक्‍ताओं की ताकत बन गईं। परिवर्तन के लिए प्रयत्‍न करने के आवाहन के मामले में, ‘कैसे आकाश में सुराख नहीं हो सकता, एक पत्‍थर तो तबीयत से उछालो यारो’ जैसी बात कहकर उन्‍होंने कहन के मामले मे मील का एक नया पत्थर गढ़ दिया और अपनी कविता को वह ताकत और प्रतिष्‍ठा दी, जिसके सामने हर अभिव्यक्ति का हर संदेशवाहक, हर रचनाकार नतमस्‍तक हो गया। अपनी पैनी ग़ज़लों के माध्‍यम से हिन्‍दी-कविता में एक क्रांतिकारी दिलचस्‍पी पैदा करने वाले कवि दुष्‍यन्‍त कुमार का नाम हमारे बीच हमेशा अविस्‍मरणीय रहेगा।

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