बारह वर्ष के केरल-प्रवास के बाद इस बार जब वापस
अपने गांव पहुँचा तो बाल्यकाल व किशोरावस्था का वह गांव ढूँढता ही रह गया,
जिसमें हम गुल्ली-डंडा, लोय, कबड्डी, लुका-छिपी खेलते, छुट्टियों में मीलों तक
बेर-मकोइया तलाशते, चौमासे में 'आल्हा' व फागुन में 'फाग' गाते, चने, मटर,
मूंगफली व शकरकंदी भूनते-खाते, दिन-रात मस्त रहा करते थे। हमारे गांव बदल रहे
हैं। उनका शहरीकरण हो रहा है। जैसे-जैसे गांव के गलियारे व मकान पक्के होते जा
रहे हैं, वैसे-वैसे गांव की संस्कृति, पारस्परिक मेल-व्यवहार व मस्ती के माहौल
कच्चे होते जा रहे हैं। मैं लोक-गीत सुनने व गाने दोनों का शौकीन था। अवध के
गांवों में साल-भर अलग-अलग मौसम व मौकों पर प्रचलित अलग-अलग तरह के लोक-गीत मेरे
मन-प्राण थे। इन लोकगीतों की बहार अब खोती-सी नजर आती है। अबकी होली में गांव
पहुँचा तो देखा फगुवारों का दल बहुत छोटा हो चला है। न गाने वाले रहे हैं, न बजाने
वाले। जहाँ पहले होली जलने के समय से लेकर अगले दिन दोपहर बाद तक लगातार ढोलक
गमकती थी, झांझ-मंजीरों की झनकारें गूँजती थी, वहाँ अब बड़ी इच्छा।-शक्ति जुटाकर
चंद घंटों के लिए भी एक दर्जन आदमी नहीं जुट पाते। अबकी बार तो मैंने सुना कि
'फाग' होता ही नहीं। आजकल तो बड़ी इच्छा-शक्ति जुटाकर चंद घंटों के लिए भी एक
दर्जन आदमी नहीं जुट पाते। अबकी बार तो मैंने घर पहुँचकर सुना कि 'फाग' होता ही
नहीं, यदि मेरे अस्सी वर्षीय बूढे़ पिताजी 'फाग' की मंडली से अपने वर्षों के
रिटायरमेंट को भंग करके युवकों को बुलाकर उनके साथ 'फाग' गाने न निकल पड़े होते।
परम्परा खोने की कचोट नवयुवकों से ज्यादा पुरानी पीढ़ी को है, यह बात उन्होंने
सिद्ध कर दी। दोपहर को जब मैं गांव पहुँचा तो 'फाग' खत्म होने वाला था। फगुवारों
के दल में एक नवजवान के कंधे का सहारा लेकर बूढ़े पिताजी गा रहे थे -
'बृज मां हरि होरी मचाई है।
इत ते आवत सुघर राधिका उत ते कुँवर कन्हाई।
हिलि-मिलि फागु परस्पर ख्यालैं, सोभा बरनि ना
जाई है।।'
गांव
में होली मिल-मिलाकर मैं अगले दिन ससुराल पहुँचा। अवध में ससुराल का विशेष महत्व
होता है। प्यार-दुलार, मान-सम्मान, हुँसी-मजाक सब मिलता है ससुराल में। ससुर जी
के पड़ोसी शिवपाल काका की आम की बौरों से लदी महमहायी बगिया में शाम का खाना था।
वहाँ पर सुखद-मिलन हुआ रसोइया बने एक अन्य पड़ोसी, सत्तर वर्षीय, गंगा बिशुन
वर्मा से। बातचीत में पता चला कि गंगा बिशुन अवधी लोक-गीतों के भंडार हैं। फिर क्या
था, मैंने गंगा बिशुन से रोटी-चावल के बजाय लोक-गीत परोसने की मांग की और उन्होंने
हर प्रकार के लोक-गीतों की ऐसी बानगी पेश की कि पूरी बगिया ही झूम उठी। अवध की
संस्कृति का पूरा पिटारा जैसे एकाएक खुल गया हो। ऐतिहासिक काल से चली आ रही परम्परायें-मान्यतायें
क्या यूँ ही खत्म हो जाएँगी। लगा कि जब तक गंगा बिशुन जैसे लोग हैं, तब तक तो
कतई नहीं।
ससुराल में था इसलिए बात 'बन्ना' से
शुरु हुई। कभी उसी गांव में पगड़ी बांधकर ब्याहने गया था, सो गंगा बिशुन का
'बन्ना' दिल को छू गया -
'पाप भये सब दूर जनक के,
रघुबर बनरा ब्याहन आये।
सिर सोहै रेशम की पगड़ी,
कलगी अजब-बहार राम के,
रघुबर बनरा ब्याहन आये।'
गंगा बिशुन बोले, "आगे क्या
सुनेंगे साहब?" मैंने विवाह
की स्मृतियों को आगे खींचने के उद्देश्य से 'बिहाव' सुनाने का आग्रह किया। अगले
ही क्षण हवा में गूँज उठा 'बिहाव'-गीत -
'लालन
कउनौ जुगुति ससुरारि
तो
हमसे बताव कि हमसे बताव।
जबही
गये न उनके गड्डे सुनौ हो मोरी माया,
माया,
सारे ने गलिया झरावा तो बड़ी ही जुगुति से।'
अवध
में शादी हो और 'गारी' न गाई जाय तो लगेगा ही नहीं कि शादी अवध में हो रही है। अब
तो एक ही रात की शादिया होती हैं। न भात
का समय, न व्यवहार का, न शिष्टाचार का और न ही सांस्कृतिक कार्यक्रमों
का समय होता है। जयमाल व द्वारचार के बाद ही आधे से ज्यादा बराती विदा हो जाते
हैं, 'गारी' सुनाई किसको जाएँ? पहले शादी के बाद, जब बाराती दोपहर का भात खाने
बैठते थे तो स्वादिष्ट खाने की सुगंध के साथ-साथ पर्दे के पीछे से औरते गालियों
की फुहारें भी छोड़ती रहती थीं। गंगा बिशुन ने एक 'गारी' की बानगी दी -
'तोरे
नयनन मुलुक बिगारा री, तोरे नयनन.....
कोर-कोर
तोरे सुरमा की बारी
बीच
मां नैन हजारा री, तोरे नयनन...
अगल-बगल
तोरे लंगोटा की पट्टी
बीच
मां नींबू हजारा री, तोरे नयनन...
ऐत-कैत
तोरे झाड़ी मकोइया
बीच
मां ठाकुर द्वारा री, तोरे नयनन...'
शादी
के समय पुरुष जब बारात में चले जाते हैं तो घर में औरतें भी मौज-मस्ती में पीछे
नहीं रहतीं। उनके रात के 'स्वांग' आधुनिक-समाज की फैंसी-ड्रेस शो, मास्करेडिंग,
मोनोएक्टिंग व मिमिक्री को भी काफी पीछे छोड़ देते हैं -
'नथुनिया हालै तो बड़ा मजा होय,
नदिया किनारे ससुर जी का डेरा
ससुर बप्पा रवावैं तो बड़ा मजा होय।
विवाह
के बाद पत्नी जब पति के घर आती है, तो गर्भवती होते ही, परिवार को खुशियों से भर
देती है। प्रसव-पीड़ा के कठिन समय में भी अवध की औरतें लोकगीत की लय नहीं भूलती।
गंगा बिशुन ने ऐसे ही एक लोक-गीत 'सरिया' की कुछ पंक्तियाँ सुनाई -
'नाइन का बोलाव, दरद मोरी कम्मर मां
पहिली दरद मोरे सर पर आई
सर
पर आई, मेरी जियरा जराई
ससुरा
का बोलाव, ससुइया का बोलाव
नाइन
का बोलाव, दरद मोरे कम्मर मां।'
घर
में नवजात-शिशु आते ही अवध का गांव मस्ती में झूम उठता है। जो पर्व-त्यौहार किसी
की मृत्यु के कारण अनिष्टसूचक बन जाते हैं और खड़ मानकर संबंधित परिवार द्वारा
नहीं मनाये जाते हैं, वे भी उस दिन परिवार में शिशु का जन्म होने पर बहाल हो जाते
हैं। बच्चे का जन्म हो और गांव की औरतें जुटकर 'सोहर' न गाएँ, यह हो ही नहीं
सकता -
'सासू
नदिया किनारे एक पीपर, मयन एक बौलै रे!
सासू मयन के बोल सुहावन, सुनन हम जइबै
हो!
बहुआ द्वारे बैठे ससुर तुम्हारे,
सुनन कइसे जइहौ रे!
सासू, कै ल्याबै लंबा घुंघटवा, सुनन
चली जइबे रे!'
जीवन
की यात्रा के साथ-साथ समय की यात्रा से भी जुडे हैं लोक-गीत। बरसात में जब सावन का
महीना आता ही पहले गांव-गांव दर्जनों झूले पड़ जाते थे और उस गांव की ही नहीं, इतर
गांवों की औरतें भी 'सावन' व 'कजरी' गाने के लिए जमा होती थीं। अब वह बात नहीं
रही। गंगा बिशुन 'सावन' सुनाते हुए झूम उठे-
'सुना
सखि सैयां जोगी होइगे हैं
हमहूँ
जोगिन होई जाबा। सुना..
जोगिया
बजावैं लाली, किमिरी,
जोगिनैं
गावैं मल्हारा। सुना...'
मैं
इन मनभावन अवधी लोक-गीतों में खोया बैठा था कि अचानक गंगा बिशुन बोले, भैया तुमहूँ
कुछु सुनाव। मैं अचकचा गया। फिर यह सोचकर कि संभवत: गंगा विशुन को 'नौटंकी' या
'आल्हा' का ज्यादा ज्ञान न हो, मैने उन्हें 'सत्य हरिश्चन्द्र' नौटंकी के
कुछ 'चौबोले' सुनाते हुए बताया कि कैसे बचपन में मैं दोस्तों के साथ दस-दस मील तक
'नौटंकी' देखने व 'आल्हा' सुनने चला जाता था। कई मौकों पर मैंने 'आल्हा' लिखा भी
है। गंगा बिशुन अवाक मेरा मुँह देख रहे थे। शायद सोच रहे हों कि इतना बड़ा अधिकारी
'आल्हा' क्या लिखेगा। किन्तु जब मैंने 'आल्हा' गाना शुरू किया तो वे झट से
मेरे सुर में सुर मिलाने लगे -
'कड़ा
के ऊपर छड़ा बिराजै, पायन पायजेब झनकार।
सजि
संजोगिनि ऐसी होइगै, जैसे उगिलि परी तरवारि।।'
अब
आम की उस बगिया में हम दोनों के समवेत स्वर गूंज रहे थे। आसमान में सुबह से जो
फागुन की बदली छाई थी वह जैसे अचानक गहरा गई थी। दूर अंधेरे में बिजली कौंधी और
बादल गरज उठे। ठंडी-ठंडी बूँदे पड़ना प्रारम्भ हो चुकी थी। भोजन भी पूरा हो चुका
था। अब वहाँ से चलने का समय था। मैने अवध के लोक-गीतों की पूरी थाली जींमकर कार
में बैठकर गंगा बिशुन से बिदा ली। होठ अभी भी स्वत: ही कम्पित हो रहे थे -
'लाल-लाल डोरा, कुसुम रंग बोरा, रघुबर
हाथ बंधायो।
तुलसी दास भजौ भगवाने, सिया बेहि घर
लायो।
हँसि पूछैं जनकपुर की नारि, नाथ कस गज
के फंद छुड़ायो।।'
Ram ram bhai sahab
ReplyDeleteAapka blog padha,mann pulkit hogaya
Hum bhi unnao se hain,main 24 varshiya kanyakubj brahman hoon aur ab Hyderabad mein rehta hoon.karib 100 150 saal purv hamare purvaj lucknow,kanpur,unnao, hardoi se yahan aaye they..aapke blog se mujhe bahut prerna mili hain..yadi aap awadhi lokgeeto ka collection karne mein meri madad kare toh ,main aapka ahsaanmand rahunga.main chahta hoon hamari sanskriti aage bade