(डॉ. जोयॅ वाष़यिल भारतीय प्रशासनिक
सेवा के एक कुशल अधिकारी व संवेदनशील कवि हैं। उन्होंने हाल ही में दिल्ली आई. आई. टी. से डॉक्टरेट की उपाधि हासिल की
है। उनकी कविताएँ बाइबिल के आध्यात्मिक विचारों को लौकिक परिस्थितियों के साथ
जोड़कर यथार्थ से प्रेरित आधुनिक वैचारिकता का सृजन करती हैं। यहाँ प्रस्तुत है, बाइबिल में प्रतिपादित जीवन की
उत्पत्ति के प्रसंग से जोड़कर लिखी गई उनकी ‘वेलिच्चम उन्डावट्टे’ शीर्षक
कविता का अनुवाद)
रोशनी होने दो!
इस
निश्चल समय के अँधरे में
दूर
तक पसरे पड़े
शून्यता
भरते महामौन की
म्लानता
तेजी से फैल जाने पर,
वन्ध्यता
से घिरे इस अँधेरे में
चेतना-जन्य
पीड़ा के जागने पर,
आज
ये शब्द आग प्रज्ज्वलित कर रहे हैं, ईश्वर!
“रोशनी होने दो!”
बिजलियों
से भरे आकाश में
जुगनुओं
के छा जाने पर,
नक्षत्रों
के चूल्हों में से
भयानक
आग धधककर फैल जाने पर,
जीवक
के प्रसव की असह्य वेदना में डूबे
इस
भूमि के हृदय में
समय
उठकर खड़ा हो गया है,
कैवल्यामृत
पाने का साधन बन गए हैं
पवित्र
उपदेश।
शब्दों
से प्रज्ज्वलित आग की लपटों में ही
आकर
पैदा होता है नवजीवन।
भूमि,
जल व वायु के साथ मिलकर
आकाश
द्वारा रची गई इस वेदी पर
आकर
टकराने वाली महाशक्तियों से
एक-एक
करके भिड़ती हुई,
मस्तिष्क
में विचारों को संस्लेषित करती
मनुष्य
- मनीषा की प्रसिद्धि बढ़ी,
समय
के प्रवाह में भूमि पर
देवता
बन गया नवजीवन।
कर्म-पथ
के वर्णाभ रथ पर
रश्मि
- सारथी बना है आवेशपूर्ण नवजीवन।
एवरेस्ट
के पवित्र माथे पर
विजय
की स्वर्ण पताका फहराने वाले,
आकाश
की झील में
जल
- क्रीड़ाओं में रमे रहने वाले,
घोर
अगाधता में भी
अक्षय
आदिमनाद खोजने वाले,
विद्युज्ज्वालाओं
में भी पृथ्वी को
सूर्य
- प्रभा से सुसज्जित करने वाले,
मनुष्य
के कदम
क्यों
भटक जाते हैं कहीं-कहीं
इतने
उज्ज्वल होने के बावजूद?
ताल
- स्वर की उष्मलता से भरे संगीत में
क्यों
टूट जाती है लय?
कमलिनी
- दल से मनोहर चित्र
- पटल पर
क्यों
उभर आती है बेतरतीब सी रेखाएँ?
क्या
रक्त
- नदियों में समाए उन्माद का
कोलाहल
सुना नहीं?
गिरते
ही फूट पड़ने वाला एक बाल - रोदन
भंग
कर देता है वीणा - निनाद भी ।
लोभ
व करुणा
- क्रन्दन ही
मिलता
बस जीवन
- पथ में।
जीवन
के तन्तु
- सेतुओं पर लटककर
रो
रहे हैं हज़ारों सर्वहाराजन।
लहलहाती
घास की पत्तियों के संग
नक्षत्र
कर रहे हैं मन्दहास।
गहन
अँधेरे की विशालता में
फँसी
हुई हैं आज भी चेतनाएँ।
कहाँ
है रोशनी,
हृदय
में हर तरफ सौर - प्रभा फैलाने वाली?
वनान्तर
के तरु-समूहों में
नख
- शिख उज्ज्वल आभा बिखेरने वाली?
कहाँ
है रोशनी,
अँधरे
में हर तरफ चाँद की शीतलता प्रवाहित करने वाली?
सुष्मित
चाँदनी बन, मधुर उपदेश बन,
हृदय
की कांति रूपी प्रेम की कोमलता भर उठेगी
जीवन
में आर्द्रतापूरित रोमांच जगाने के लिए।
रोशनी
होने दो,
फिर
से रोशनी होने दो!
कल
स्पष्ट होने जा रहे कर्म - पथ में
दूर
तक प्रकाश फैले!
कल
की उषा में
अनश्वरता
- बोध की ज्योति
हृदय
में जगमगा उठे!
देश
जाग उठे,
संस्कृति
की बहुवर्ण पताका फहराने के लिए!
मनुष्य
के हृदय में सदा - सर्वदा ही
एक
नूतन आलोक प्रसारित करने के लिए!
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