(डॉ. नामवर सिंह
हिंदी - आलोचना के प्रकाश - स्तम्भ हैं. वे प्रगतिशील आंदोलन के अग्रणी विचारक व
प्रवक्ता रहे हैं. वे मार्क्सवादी विचारधारा के पोषक रहे हैं और उन्होंने निरंतर
आत्मावलोकन करते हुए मार्क्सवादी सिद्धांतों को विभिन्न संदर्भों में नए ढंग से
प्रतिपादित किया है. मार्क्सवादी चेतना के संदर्भ में उन्होंने भारतीय समाज की
विभिन्न समकालीन प्रवृत्तियों, परिवर्तनों, सरोकारों आदि की
समय-समय पर विवेचना की है. यहाँ प्रस्तुत है जन - कविता की परम्परा व वर्तमान
स्थिति पर मेरे द्वारा उनसे की गई बातचीत)
मैं: क्या जन - कविता का
कोई अलग स्वरूप है और उसका साहित्य की मुख्यधारा से अलग कोई स्थान है?
डॉ. नामवर सिंह: 'जन' शब्द पर विचार करने
से पहले हमें यह विचार करना चाहिए कि इससे पहले 'लोक' शब्द था. साहित्य की दो
मुख्य धाराएँ थीं - शिष्ट साहित्य और लोक साहित्य. लोक - साहित्य का गहरा संबंध
लोक - बोलियों से था. लोक - साहित्य की जो परिभाषा की जाती थी, उसका अर्थ यह होता
था कि लोक के द्वारा लिखा हुआ, लोक के बारे में
लिखा हुआ और लोक - भाषा में लिखा हुआ. बाद में 'जन' शब्द का प्रयोग हुआ. सारे
लोग 'जन' नहीं होते. इसीलिए
जन - संगठन बने. जन - नाट्य मंच बना. बाद में जनवादी लेखक संघ बना. तो ‘जन’ का
मतलब यह हुआ कि लोक में जो अधिक सचेतन हो. एक तरह की राजनीतिक चेतना से सम्पन्न हो.
उसमें राजनीतिक दृष्टि हो. चूँकि इसका प्रारम्भ मार्क्सवादी लोगों ने किया, इसलिए उसमें
सर्वहारा की समझ होनी आवश्यक थी. वर्ग - चेतना होनी चाहिए थी. इस प्रकार जन -
साहित्य और जन - नाट्य की लोक - साहित्य व लोक - मंच से अलग एक अवधारणा बनी. इसी
आधार पर जन - नाट्य मंच (इप्टा) की स्थापना हुई. 'जन' राजनीतिक चेतना से सम्पन्न
लोग हैं, गँवार नहीं हैं. 'जन' वह है जो वर्ग -
भेद एवं वर्ग - संघर्ष को जानता है,
समझता है. उसमें वर्ग - चेतना है. इस प्रकार हम कह सकते हैं कि जो शिष्ट साहित्य
है, उसके बरस्क
मार्क्सवादी विचारधारा के लोगों ने विशेष रूप से 'जन' शब्द का प्रयोग किया और उसे
विशेष अर्थ दिया. जन - नाट्य संघ ने नाटकों के साथ - साथ जन - गीत लिखे. उनकी बोली
भोजपुरी, मगही या मैथिली
होती थी या फिर बोल - चाल की मराठी या बंगला होती थी. जन - भाषा वही होती है, जो
बोल - चाल की भाषा की छौंक लिए हो,
साधु भाषा न हो. उसका अपना ही पद - विन्यास है, पूरा का पूरा व्याकरण है.
जब प्रगतिशील आंदोलन शुरू हुआ तो उन्होंने जन - नाट्य शैली पर अधिक जोर दिया.
इसमें जन - गीत होते थे. इनमें स्वर तो जनता के बीच प्रचलित गीतों का था लेकिन
भाषा राजनीतिक थी. इनमें वर्ग - संघर्ष होता था. इप्टा के नाटक खुले मंच पर खेले
जाते थे. वे छोटे - छोटे होते थे. उनमें जन - समस्याएँ होती थीं. उनमें किसान होते
थे, मज़दूर होते थे.
मज़दूरों में वे लोग थे जो अपनी ग्रामीण पृष्ठभूमि से आए थे. शहरों में काम करने
लगे थे. गाँव को भूले नहीं थे. जो शहरों में पले - बढ़े नहीं थे. जन - नाट्य मंच की
तरफ से उनकी कहानियाँ लिखी जाती थीं. गीत लिखे जाते थे.
मैं: जन - साहित्य को
अगर साहित्य की मुख्यधारा के संदर्भ में देखें तो इसकी परम्परा की शुरुआत कहाँ से
होती दिखती है?
डॉ. नामवर सिंह: पुराने समय में
इसका स्वरूप आल्हा में दिखाई पड़ता है. कबीर की रचनाओं में भी जन - कविता की झलक
है. मराठी में भी पवाड़े लिखे गए. लेकिन इसकी असली शुरुआत तभी हुई जब कम्युनिस्ट
पार्टी की स्थापना हुई. पुराने समय में जो अवधी, बृज, बुंदेलखंडी जैसी
लोक - बोलियाँ थीं, उन्हीं में लोक -
गीत रचे गए. ये लोक - गीत प्राय: भक्ति के होते थे, विरह के होते थे, प्रेम के होते थे
या फिर होली के होते थे. इन्हीं को जन - कवियों ने आधार बनाया और उनको राजनीतिक
रंग दे दिया. उनमें एक राजनीतिक मोड़ ला दिया या कहें कि उनमें चेतना का रंग मिला
दिया. इप्टा के हबीब तनबीर छत्तीसगढ़ से थे और वे जन - नाटक लिखा करते थे. उनके
नाटकों में लोक-बोलियों के गीतों पर आधारित जन-गीत होते थे. इप्टा के बैनर तले
हबीब तनबीर ने जो काम किया वह जन - लेखन की सबसे अच्छी मिसाल है. बाद में कई और
लोगों ने भी यही काम किया. मराठी में पवाड़े गाए गए. नुक्कड़ नाटकों का चलन बढ़ा.
कारख़ानों में काम करने वाले मज़दूरों के लिए जिन नाटकों का मंचन किया जाता था, उसके लिए बहुत
ज्यादा किसी ताम - झाम की जरूरत नहीं होती थी. बस एक परदा लगा दिया. दो आदमियों ने
एक चादर पकड़ ली, बस वही परदा हो
गया. इप्टा के लोगों को किसी थिएटर की जरूरत नहीं होती थी. कारख़ाने के गेट के बाहर
थोड़ी सी जगह में ही छुट्टी होने के समय छोटे से नाटक की प्रस्तुति हो जाती थी. इस
प्रकार एक तरह से मैं इसकी शुरुआत इप्टा से ही मानता हूँ.
मैं: साहित्य की
लोकप्रिय धारा में मंचीय कविताओं का प्रमुख स्थान है. क्या इस लोकप्रिय मंचीय
कविता का जन - कविता से कोई लगाव है?
डॉ. नामवर सिंह: मंचों से जुड़े हुए
कई जन - कवि हुए हैं. जैसे आल इंडिया रेडियो से जुड़े रहे अवधी के मशहूर कवि रमई
काका. उन्हीं की परम्परा में अवधी में वंशीधर शुक्ल व पढ़ीस जैसे अन्य कवि भी हुए
हैं. बृज भाषा में भी हुए हैं. भोजपुरी में बिदेसिया नाटक खेला जाता था. इप्टा आम
तौर पर इन तीनों बोलियों का इस्तेमाल किया करता था. भोजपुरी में तो भिखारी ठाकुर
ने बिदेसिया को राजनीतिक रूप देकर बहुत ही चर्चित बना दिया था. आम तौर पर
कम्युनिस्ट पार्टी ने किसानों के बीच उनके संघर्षों के लिए जो काम करना शुरू किया
था, उसके लिए इन लोक -
नाट्य-रूपों से जुड़ाव आवश्यक था. उन्होंने किसानों तथा मज़दूरों के बीच राजनीतिक
चेतना उत्पन्न करने के लिए इन पुराने लोक - नाट्य-रूपों का राजनीतीकरण किया.
मैं: मंचीय कविता के कुछ
कवि जैसे हरिवंश राय बच्चन, गोपाल दास नीरज, रमानाथ अवस्थी आदि
बहुत ही लोकप्रिय रहे हैं. क्या इनकी कविता को जन - कविता माना जा सकता है?
डॉ. नामवर सिंह: इन सब मंचीय कवियों
की भाषा खड़ी बोली थी. ये लोग स्वर से पढ़ते थे. ये लोग सुनाते नहीं थे, गाते थे. ये लोग जन
- कवि नहीं थे. ये शिष्ट कविता के लोग थे. इनके बरक्स लोक - बोलियों में लिखने और
गाकर सुनाने वाले लोग भी थे. उनकी कविताएँ भी अच्छी थीं. वे राजनीतिक चेतना की
कविताएँ लिख रहे थे. सिर्फ मिलन, विरह व प्यार की
कविताएँ नहीं लिख रहे थे. इन कविताओं का राजनीतिक मंचों पर इस्तेमाल किया जाता था.
इसकी शुरुआत आम तौर पर राष्ट्रीय आंदोलन के दौर में ही हो चुकी थी. जब हम देश की
स्वाधीनता के लिए विदेशी गुलामी के ख़िलाफ लड़ रहे थे, तब कांग्रेस के जमाने से ही
यह शुरू हो गया था. कम्युनिस्ट पार्टी ने किसानों व मज़दूरों के सरोकारों पर ज्यादा
जोर दिया और यही बात उनके आंदोलन की अंतर्वस्तु बनी.
मैं: साहित्य की आलोचना
में जन - कविता को एक तरह से हाशिए पर ही रखा गया तथा उसका समुचित मूल्यांकन नहीं
किया. इसका क्या कारण है?
डॉ. नामवर सिंह: जब प्रगतिशील
आंदोलन शुरू हुआ तब नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल
और निराला जी ने इस पर काफी काम किया. उनकी कविताएँ भी सशक्त थीं. 'राम की शक्ति पूजा' लिखने वाले निराला
शिष्ट कवि थे. लेकिन बाद में उनकी खड़ी बोली सरल होती गई. उसमें काफी बदलाव आया.
सुमित्रानंदन पंत ने अपनी 'ग्राम्या' में गाँव की बोली
का प्रयोग किया. जब हमारी राजनीतिक चेतना में बदलाव आया और साहित्य जनोन्मुख हुआ
तो उसका असर खड़ी बोली में कविता लिखने वाले निराला और पंत जैसे लोगों पर भी पड़ा.
पंत जी जब इलाहाबाद छोड़कर कालाकाँकर में रहने लगे थे तो उनमें और भी बदलाव आया. यह
हमारे स्वाधीनता - संग्राम का ही विस्तार था. जैसे - जैसे इसका जनाधार बढ़ता गया और
किसानों आदि पर इसका असर हुआ, वैसे - वैसे किसान
- सभाओं के बीच बोलियों के साहित्य की पैठ बढ़ती गई. स्वाधीनता - संग्राम के आखिरी
दौर में हम इसकी छाप स्पष्ट तौर पर देख सकते हैं. ऐसा नहीं है कि जन - साहित्य पर
आलोचकों का ध्यान नहीं गया. डॉ. रामविलास शर्मा ने इस पर काफी लिखा है. उन्होंने
इसके लिए 'भदेस' शब्द का प्रयोग
किया. उन्होंने भदेस की तरफ निरंतर हमारा ध्यान खींचा. उन्होंने कहा कि वे भदेस को
बुरे अर्थ में नहीं लेते और वह उन्हें आकृष्ट करता है. शिष्ट लोग भले ही इसको भदेस
कहें लेकिन भदेस का भी अपना एक विशिष्ट सौन्दर्य है. भदेस को हम गर्हित न समझें, उसकी भी अपनी शोभा
है. जैसे गाँव वालों के लिबास की भी अपनी एक सुंदरता होती है. रामविलास जी ने भदेस
को हिक़ारत की दृष्टि से नहीं देखा बल्कि उसे एक सामान्य स्वभाव की तरह से लिया.
मैं: जब बात नारों, पोस्टरों या
स्लोगनों की आती है तो जन - कविता ही सहारा बनती है. लेकिन क्या कारण है कि उसे
साहित्य की मुख्यधारा में कभी नहीं माना गया?
डॉ. नामवर सिंह: हमारी एक पुरानी
परम्परा चली आ रही है. यह केवल हिंदी की ही समस्या नहीं है. अन्य भाषाओं की भी यही
समस्या है. शिष्ट भाषा का साहित्य ही केंद्रीय स्थान ले लेता है. देखा जाय तो खड़ी
बोली तो बहुत बाद में आई है. हिंदी का सर्वश्रेष्ठ साहित्य तो अवधी और बृज में ही
लिखा गया है. बाद में जब खड़ी बोली आई तो लोक - बोलियाँ हाशिए पर चली गईं और मुख्यधारा
में खड़ी बोली आ गई. लेकिन इससे लोक - बोलियों का महत्व कम नहीं हो जाता. उनमें आज
भी साहित्य लिखा जा रहा है. लेकिन आज अगर हम यह सोचें कि कोई व्यक्ति अवधी में
रामचरित मानस जैसी कोई रचना करेगा तो यह असंभव है. आज वह खड़ी बोली में लिखेगा.
जमाना बदलता रहता है. उस समय संस्कृत के विरुद्ध एक समानांतर धारा चली थी. आज भी
वैसा ही है. जब तक उस तरह का भेद समाज में बना हुआ है तथा शहर और गाँव में अन्तर
बना हुआ है,
तब तक
शिष्ट और जन का यह भेद रहेगा. जब गाँव और शहर दोनों एक हो जाएँगे या उनके बीच की
दूरी न्यूनतम हो जाएगी, तभी जाकर भाषा एवं
बोलियों का और उनमें रचे जाने वाले साहित्य का यह अंतर मिटेगा. शहर और गाँव का यह
भेद शायद हर देश में है. जब रूस में समाजवाद आया तब भी वहाँ शहर के मासों की जो
रसद थी और जो गाँवों की थी उसमें अंतर था. जैसे - जैसे शिक्षा का प्रसार होगा, यह अंतर मिटेगा.
लेकिन तब भी यह कहना कठिन है कि भेद एकदम मिट जाएगा.
मैं: क्या आज जन - कविता
की धार कुंद हो रही है? क्या उसकी उपयोगिता
या प्रासंगिकता घट रही है?
डॉ. नामवर सिंह: जनांदोलन और जन -
संगठन कमजोर हुए हैं. खासकर आज जो अर्थनीति चली है, उसके चलते तरह - तरह के
राजनीतिक दल आ गए हैं, जिनको जन -
सरोकारों से कोई मतलब नहीं है. यह जो परिवर्तन आया है, उसमें एक तरह से पूंजी का
जो भूमंडलीकरण हुआ है तथा बाज़ार का जो वर्चस्व बढ़ा है, उसका असर हमारी भाषाओं और
साहित्य पर भी पड़ रहा है. अब कहानियों व उपन्यासों में गाँव के पात्र आते हैं तो
उनकी बोली का इस्तेमाल भले ही हो जाता है, लेकिन कुल मिलाकर उनका स्वर दूसरा ही
होता है. अब फणीश्वरनाथ रेणु या नागार्जुन जैसे लिखने वाले कम दिखाई पड़ते हैं. नई
पीढ़ी से आप पूछें तो वह इनके बारे में जानती भी नहीं. यह जो हमारी नई अर्थव्यवस्था
है, वही इस पर असर डाल
रही है. गाँवों को हम एक तरह से कस्बा बना रहे हैं, भले ही वे पूरी तरह शहर न
बन रहे हों. इसी के चलते ये जो परिवर्तन आ रहा है, उसका असर हमारी भाषा और
साहित्य पर भी पड़ रहा है.
मैं: नुक्कड़ नाटक और जन
- कविता के बीच क्या संबंध है? क्या दोनों अभिव्यक्ति
के एक ही जैसे फार्म हैं?
डॉ. नामवर सिंह: नुक्कड़ नाटक और जन
- कविता एक दूसरे के पूरक हैं. नुक्कड़ नाटकों में अक्सर जन - गीतों का प्रयोग होता
है. नुक्कड़ नाटकों की शुरुआत एक तरह से इप्टा ने की थी जो कम्युनिस्ट पार्टी से
जुड़ा था. हिंदी के अलावा मराठी में भी नुक्कड़ नाटकों का काफी प्रचलन हुआ. ये लोक -
गीतों पर आधारित लोक - नाट्यों का एक परिष्कृत रूप थे. अब यह परम्परा विलुप्त हो
रही है. अब राजनीतिक दल भी नुक्कड़ सभाएँ नहीं करते. अब तो पैसों का बोलबाला है. बस
बड़ी - बड़ी सभाएँ ही आयोजित की जाती हैं,
जिनमें हज़ारों की भीड़ जुटाई जाती है. पहले तो ज्यादातर कारख़ानों के गेट के बाहर ही
नुक्कड़ सभाएँ हो जाती थीं. वहाँ नुक्कड़ नाटक भी खेले जाते थे. मज़दूर जैसे ही छूटते
थे, इन्हें देखते थे.
गेट - मीटिंगें व गेट - नाटक आम तौर पर कारख़ानों के सामने ही हुआ करते थे. या फिर
शाम को किसी चौराहे पर खड़े होकर उनकी प्रस्तुति होती थी और आने - जाने वाले लोग
उन्हें देखते थे. अब तो कम्युनिस्ट पार्टी भी गेट - मीटिंगें या गेट - थिएटर नहीं
करती है.
मैं: समय - समय पर अनेक
खड़ी बोली की कविताओं में जन - कविताओं जैसी वाग्मिता दिखाई पड़ती है. मसलन दुष्यन्त
व अदम गोंडवी जैसे कवियों की हिंदी ग़जलें. इन्हें आप किस दृष्टि से देखते हैं?
डॉ. नामवर सिंह: दुष्यंत का साहित्य
शिष्ट साहित्य है. उनका लगाव जन - कविओं की तरह सामाजिक सरोकारों से तो था, लेकिन वे लोक बोली
की ओर नहीं गए. अदम गोंडवी सीधे - सीधे लोक से जुड़े थे. वही अंदाज़ है उनका. वही
भाषा है. कहीं - कहीं खुरदरापन भी है,
लेकिन बहुत ही सहज भाषा है उनकी. अत: गोंडवी की कविता जन - कविता के बहुत नज़दीक
है.
डॉ. नामवर सिंह: जन - कविता का
भविष्य है, इसमें मुझे कोई भी शक नहीं. अभी हमारे यहाँ इतना शहरीकरण नहीं हो गया
है कि गाँव की सभ्यता और संस्कृति का पूरी तरह आधुनिकीकरण हो जाय. गाँव और शहर का
जो अन्तर है, वह जब तक बना रहेगा, तब तक भाषाओं में भी अन्तर रहेगा. लोगों के
स्वभाव, मिज़ाज़, बोल - चाल, कपड़ा - लत्ता पहनने आदि से संबन्धित गाँव और शहर के बीच
का यह अंतर या भेद जब तक रहेगा, तब तक जन - भाषा, जन - संस्कृति, और जन - साहित्य
बराबर बना रहेगा. आज भी त्योहारों व शादी - ब्याह आदि के समय इसका पता चल जाता है.
गाँव की औरतें जहाँ भी जुटती हैं, लोक - गीत गाती हैं. अभी उनकी दुनिया नहीं बदली
है. जब तक गाँव और शहर के बीच वेश - भूषा, रहन - सहन और खान - पान का ऐसा अन्तर
है, तब तक भाषा का अन्तर ख़त्म नहीं होगा. भाषाओं का इतिहास तो बहुत लंबा होता है.
इतना सब बदलने के बाद भी, शहरों में आ जाने के बाद भी, हम लोग अपनी बोली बोलते
हैं. मातृभाषा जो माँ के दूध के साथ सीखी जाती है, वह कभी ख़त्म नहीं हो सकती.
संस्कृत के काल में जैसे प्राकृतें थी, जो बहुत लम्बे समय तक प्रचलित रहीं. फिर
लोक - बोलियाँ आ गईं. बृज और अवधी वगैरह आ गईं. फिर खड़ी बोली आ गई. राजभाषा बनने
के बाद भी खड़ी बोली तथा गाँव की बोलियों के बीच का अन्तर अभी मिटा नहीं है. हम
लोगों के जीते - जी तो यह मिटनेवाला भी नहीं है. उसके बाद भी इसका मिटना मुश्किल
है. भाषाओं को मिटाना बहुत मुश्किल है. इसलिए जन - कविता रहेगी और इसे रहना भी
चाहिए, क्योंकि भाषा की जो सर्जनात्मकता है वह इसी में निहित है. इन्हीं लोक -
बोलियों ने खड़ी बोली की हिन्दी को वह ताक़त दी है जिसकी बदौलत वह उर्दू जैसी साफ -
सुथरी खड़ी बोली के बरक्स आगे बढ़ सकी है. अगर लोक - बोलियों का प्रभाव न होता तो
हिन्दी तो उर्दू हो गई होती. इन्हीं लोक - बोलियों ने ही हिन्दी को संस्कृतनिष्ठ
होने से बचाया है. इसलिए इन बोलियों का निकट भविष्य में या कह लें सुदूर भविष्य
में भी अस्तित्व मिट नहीं सकता. या हो सकता है कि एक ऐसा दौर आए, जिसमें इनका
उत्थान हो.
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