मलयालम में दलित-विमर्श की कविता के प्रमुख हस्ताक्षर रहे 67
वर्षीय कवि प्रोफे. डी. विनयचंद्रन का अभी हाल ही में 13 फरवरी, 2013 को निधन हो गया. छह
कविता-संग्रहों के अलावा,
उन्होंने दो उपन्यास व एक कहानी-संग्रह भी
लिखा. उन्होंने मृणालिनी साराभाई की कविताओं, विश्व-कविताओं, विश्व-कथाओं तथा अफ्रीकी जनजातीय
कहानियों का भी मलयालम में अनुवाद किया है. यहाँ श्रद्धांजलि-स्वरूप उनकी
बहुचर्चित कविता 'समस्त
केरलम् पी.ओ.' का
अनुवाद प्रस्तुत है:
समस्त केरलम् पी.ओ.
नदी
की जन्म-कुंडली
वर
बनने के लिए मिली होती तो
तुम
फिर से डुबकी लगा सको इस हेतु
मैं
भारत नदी बन जाता
चाँदनी
में जीवंत बनी बालू पर
निद्राविहीन
हो डमरू बजाने के लिए.
बारिश
में तुम कपूर-सी महकती
प्रतिवर्षा
हो.
नगाड़े, खेत व चरागाह
उल्लास
व अपमान की निमित्त कुम्माट्टी
(एक
मुखौटे धारण कर गाया जाने वाला समूह-गान)
आँगन
के दक्षिणी कोने से
सारी
जड़ों के साथ उखड़कर
तीर्थयात्रा
पर निकला इमली का पेड़ हो.
मूसलाधार
बारिश में भीगती
काम
में जुटी औरतों के बीच से
बल
खाकर गुजरती हवा हो.
धान
की नई पौध से पुन्ना (एक वृक्ष) में
फिर
पूमरुत (एक वृक्ष) में
नारियल
के नव-पल्ल्वों में
मंदिरों
में काम करती स्त्रियों के झुंड में
कुछ
परपंच कर दूर भागती
मुक्कुट्टी
(पुष्प-लता), त्रित्ताव (पुष्प-वृक्ष) बनी
कामवासना
हो.
प्राचीन
व नवीन
महाराजा-सी.
मेरी
आँखें
बिजली
कौंधने की भाँति उड़ जातीं तो
सह्य-वनों
से चिघ्घाड़ते हुए निकलते
हाथियों
के दलों को
दोस्ती
के लिए भेज देता.
भगवान
की पालकी के साथ
मंदिर
की परिक्रमा करने वाले
तिमिला
(विशेष वाद्य-यंत्र) की तान में
कमलिनी
के सरोवरों की हवाओं की सरसराहट में
मैं
सुन सकता हूँ तुम्हारी आवाज़.
वर
की प्रतीक्षा कर रहे विवाह-मंडप से
सरककर
उतरते नाग के स्वर की भाँति
तुम
पूरे इलाके में सरक आती हो,
शाम
के माथे पर
प्रात-कन्या
से उठ खड़े हुए गिरि-वक्ष पर
परशुराम
के चौंसठ मंदिरों में
तुम
भित्ति-चित्र बनाती हो.
पितृ-बलि व श्राद्ध के दिनों के पिंडों का
भोग लगाने हेतु आने वाले मृत जनों के
राह के प्रतीक-चिन्ह बनकर खड़े एक-एक ताड़ के पेड़ जैसा
खेत की मेड़ों पर तनकर खड़ा हूँ.
मंदिर-विहीन वेलिच्चप्पाड
(भयानक खड्ग-धारी देवी-भक्त)
बनकर भटकता फिरता,
ओणम के समय
तुम्बा (एक पुष्प-वृक्ष) के फूलों को पीलेपन से ढक देने वाली
सुबह की धूप बन रहा हूँ.
अष्टमी-रोहिणी (कृष्ण-जन्माष्टमी) में
झूमते हुए छींको से फिसलकर गिरने वाली हांडियाँ,
आरन्मूला की नौका-दौड़ के समय की
चीख-पुकार के बीच की नि:शब्दता.
ओणम के अट्ठाइसवें दिन
वीरभद्र को ताड़ी व मीठे केले समर्पित कर
अष्टमुडी झील की ओर खेयी जा रही नाव में बैठ
पान के पत्ते पर चाँदनी का चूना चुपड़
चबा-चबा कर थूक रहा हूँ.
मूकांबिका (सरस्वती का मंदिर) में
कुंकुम से लिखे जा रहे अक्षर-सुमन
(विजयादशमी पर बच्चों को कुंकुम से लिखाकर
विद्यारंभ कराया जाता है).
गुरुवायूर में पूर्व-जन्मों की
लेट-लेटकर की गई प्रदक्षिणाएँ.
तिरुविल्वमला (एक मंदिर) में
तुलावर्षा (शीतकालीन वर्षा) का तायंबका (वृंद-वाद्य)
कन्याकुमारी में त्रिकालरुद्र का राजयोग.
ओप्पना (मुस्लिम स्त्रियों का एक समूह नृत्य) का
तिरुवादिरा (हिंदू स्त्रियों का एक समूह नृत्य) की
कंठ-किलकारियों का
शीतल स्पर्श व अंगार जैसी श्रेष्ठता है तुममें.
विशु (नव-वर्ष का उत्सव) के पूजा-थाल में
सजाए गए खीरा-फल के
सोने के सिक्के के
अमलतास के फूलों के
प्रमुख पुस्तक के भी बीच में
तुम्हारी आत्मा डोलती है.
कुन्निक्कुरुवा* पर छाता तानते
विराट पुरुष.
ईश्वर की बराबरी वाले तुलाभार** के लिए
मलयालम के विशुद्ध हृदय के प्रतीक
द्विपद (दोहे जैसे छंद).
आज अभी वालयार की ढलान पारकर
सिर घुमाती आती हवा का विलाप
बंद हो चुकी पूजा वाले तहस-नहस मंदिरों
सूखे तीर्थों (स्नान-घाटों) वाले कमल के सरोवरों
लताओं व साँपों से विहीन हो चुके सरपक्कावों*** में
डेरा जमा चुके लोगों का शोरगुल हो
दीमकों की खाई हुई खड़ाऊ-से!
इतिहास के संज्ञान में आए बिना अदृश्य हो गई
विल्लुवंडी (एक विशेष प्रकार की पालकी),
पुलिकुडी (गर्भवती स्त्रियों को दिया जाने वाला पेय - हरीरा)
भस्मच्चट्टी (भस्म की टोकरी),
आवणपलका (कोड़े लगाने के लिए बाँधने वाला खंभा)
आदिम बलि की अशांति बनकर
स्वप्न में फैलकर झूमते
चेम्पडा (तालमय वाद्य) व तंकप्परा (तालमय गान) हो.
निरोध व नींद की गोलियों के
छिपे हुए उपहास में
पेस्ट व पैथाडिन बनकर आए वामन को देख
जान-बूझकर तुम
किंडी (टोंटी वाला लोटा) व तुलसी-दल
किरात न बन पाए कीर्तनों के संग
'माते! संतानों की रक्षा करो!'
पृथ्वी से यह प्रार्थना करके
पाताल की सीढ़ियाँ उतर गई हो क्या?
खुल रही सज्जा व झुक गए मुकुट वाले
ताल से भटके तेय्यम् (एक नृत्य-नाटक) हो.
तुम्हारी बाईं आँख
घर छोड़कर निकले सुद्धोधन पुत्र-सी है
दाईं आँख
घायल शरीर वाले द्रोणपुत्र-सी.
कौन है जो बोल रहा है,
यह सुनाई देने पर
क्रोध से उमड़कर आते अरब सागर में
मैं,
तुम और एषुतच्छन
सभी कूदकर विलीन हो सकते हैं.
छपे हुए पन्नों में
वार्षिक रिपोर्टों में
तुम्हारी ही तरह मेरे लिए भी
ग्रहण के निमित्त बन जाने पर
हम चंद्रमा को मंगल-सूत्र बना
पत्तियों से पत्तियों तक
तारों का हार सजा सकते हैं.
परिजनों द्वारा अंतिम क्रिया के बाद
अस्थियाँ खोजने पर
वट-वृक्ष की पत्तियों में ही आकाश है
ऐसा विचार कर सकता हूँ.
पैदा हुए बारहों बच्चे
(एक दलित स्त्री की पुरानी कथा के अनुसार)
एक साथ मिलें, उस दिन उन्हें
आमने-सामने देखने के लिए
मैं फिर सूखे चावलों से
रविवार के दिन पोंगाला पका सकता हूँ.
एकादशी की शाम तिरुवाट्टा (एक स्थान) के शिव को
मदार के फूलों की माला समर्पित कर
नारियल-नीर पी उपवास खोल सकते हैं.
मीनभरणी पर स्त्री-वेश धारणकर
मैं और तुम कोट्टम्कुलन्गरा मंदिर के द्वार पर
कुत्तुविलक्क (जमीन पर टिकाए जाने वाले दीप) थाम सकते हैं.
पूरम व भरणीप्पाट्ट (मंदिरों के त्योहार) की
आतिशबाजियाँ छोड़कर
कूडलमाणिक्यम् में जा
कूडियाट्टम् खेल सकते है.
घाटों व श्मशानों को बदल-बदलकर
चंदन की बट्टियाँ घिसकर
मंदिर की पुजारी माताओं व बूढ़े पुजारियों को
रहस्यमयी सुगंध दे सकते हैं.
क्या तुम एक सूफी का वेश धारण कर रही हो?
जिप्सियों के नाटक की सूत्रधार बन रही हो?
यह रहे कुल-देवताओं द्वारा सँभाले जाने वाले
भोजपत्र-लेख, कलम,
अडा (राइस-फ्लेक्स),
लाई,
धान की टोकरी, स्तम्भ-दीप,
केशों व नारियल की ताजा पत्तियों को मिलाकर सजाए गए पीले कलश,
मुत्तप्पन के मंदिर के लिए
धान की बालियों से बनाया गया बैल,
रथोत्सव के बाद यक्ष-किन्नरों के शीश के लिए बनाई गई
बेला-पुष्पों की नाव.
क्या बीच में तुम
इलाके में घूमने वाले सर्कस के तंबुओं में
जा छिपी हो?
कच्चा (लड़की को पहनाया जाने वाला शादी का वस्त्र),
पाँव दबाना, बुवाई व फावड़े चलाना भुलाकर
दामादों के वीसा, पासपोर्ट एक में सिल पतंग बनाकर उड़ा दिए हैं क्या?
रेलगाड़ी की प्रतीक्षा कर रहे लोगों के बीच
वानस्पतिक दवाओं की शीतल हवा
तिरुनाव (एक स्थान) में,
मैंनाओं व वानरों के लिए
लताओं के झूले.
बेशर्मी से स्वागत के पुष्प-थाल साजे
काशीतुम्बाओं (लिखने की पाटी साफ करने लिए मली जाने वाली
पत्तियों) में
रगड़ कर चमकने वाले
तुम्हें फिर कोई रोना आया है क्या?
तुम कभी अकेले बैठे हो क्या?
यह रहे मंदिर के द्वार पर मृण्पात्र व वीणा के साथ
मैं और मेरी पुल्लुवा (एक दलित जाति) स्त्री
फिर से जाग क्यों नहीं रहे तुम?
* केरल के मंदिरों के द्वार पर पात्र में भरकर रखे जाने वाले
घुंघची के गोलाकार लाल रंग के पवित्र बीज, जिनका एक सिरा काला होता है.
** मंदिर में तराजू पर बैठकर शरीर के वज़न के बराबर दान देने
की प्रक्रिया.
*** गाँव के पास नाग-देवताओं के वास के पारम्परिक लघु-वन.
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