आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Sunday, October 12, 2014

के. सुगताकुमारी की मलयालम कविता - उष्ण (गर्मी) अनुवाद

(केरल की कवयित्री श्रीमती सुगता कुमारी को वर्ष 2012 के 'सरस्वती सम्मान' से विभूषित से किया गया है. वे मनुष्य की कोमल भावनाओं की कोकिला होने के साथ-साथ पर्यावरण के मुद्दों पर निरन्तर संघर्ष करती रहने वाली जागरूक निर्भीक समाजसेवी महिला हैं. उन्हें वर्ष 1978 में मलयालम भाषा का साहित्य अकादमी पुरस्कार भी प्राप्त हो चुका है. सुगता कुमारी पर्यावरण को बचाने के लिए युवाओं से निरन्तर आगे आने का आह्वान करती रहती हैं. उनका मानना है कि विकास के नाम पर प्रकृति का विनाश रुकना चाहिए. वे आजीवन खेतों, बागों, तालाबों, नदियों, पहाड़ों को बचाने के लिए अग्रिम पंक्ति में खड़े होकर संघर्ष करती रही हैं. यहाँ प्रस्तुत है, उनकी प्रकृति - संरक्षण से जुड़ी एक ताजा कविता ‘चूड़’ का हिंदी - अनुवाद)

गर्मी

भीषण गर्मी है
सूख रहे कुएँ,
ताकती हुई आँखें भी
बछड़े के लिए टपकता दूध भी
लोरियों का वात्सल्य भी.

किसने सुखाए ये पानी के कुएँ
वन्य झील
किसने जला डाली यह
सुंदर धान के खेत की हरिताभा?

लॉरी में ठूँसकर चढ़ाए जा रहे
मवेशियों की भाँति
कौन इन पहाड़ों का कत्ल कर
लिए जा रहा है बाज़ार में?

किसने काटकर जला दिए
ये इलाके के हरित-स्वप्न?
किसने भोंककर फोड़ दी हैं
इस हरे - भरे टीले की आँखें?

किसने सुखाकर निगल ली है यह
माँ के द्वारा बच्चों के लिए खोदकर
सदियों से सँजोयी गई
एक हाथ पानी की महानिधि?

चारों तरफ परिभ्रांति के साथ ताकते
नारियल - वृक्षो!
बालू की धार - सी मृतप्राय
प्रिय नदियो!
झुलसाने वाली धूप में
जल रही पर्वत - श्रंखलाओ!
प्यास बुझाने वाले जल के लिए
वन से बाहर निकलते
मासूम सह्याद्रि - पुत्रो!
पालक्काड की भीषण गर्मी में
स्वयमेव खड़े - खड़े जल जाने वाले
नीलताड़ - द्रुमो!
तुम सभी इसके साक्षी हो!

माँ, तेरे स्तन का दूध ही तो
पीते हैं ये नित्य ही
तेरा ही रक्त, तेरा ही मांस,
तू हमारे लिए एक स्त्री - पीड़िता.

अपने सिरहाने माँ के प्रतीक्षा करते समय
मेरी थकी हुई - सी आँखें
आसमान की ओर एकटक ताकती रहती हैं
भयाकुल हो!

हे पवन! हे आकाश! हे समुद्र!
कजरारेपन से भरा
पीली बिंदिया - सा सजा

कोई मेघ कहीं दिखता है क्या

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