आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Wednesday, June 23, 2010

मेरी प्रिय शोलयार नदी

आतिरापल्ली के झरने के पास घूमकर जब नदी के किनारे बैठा तो एस एम एस के ड्राफ्ट बोक्स में ये शब्द अपने आप सुरक्षित हो गये:-





























सतत सम्मोहित करती
बहती है वनांतर में
मेरी प्रिय शोलयार नदी,
मानसूनी हवाओं सी सरसराती,
सौन्दर्य की प्रचुरता से निज
करती स्तब्ध स्वयं प्रकृति को
पहाड़ों से उतरती अनवरत हहराती,
टकराती निरन्तर शिलाओं के वक्ष से
फिर भी लजाती-सी
लगातार इठलाती,
ढाँपती निज चिर यौवन यहाँ-वहाँ
सदाबहार वन-लतिकाओं के सुरम्य वल्कल से
मेरे उर-प्रान्गण की सतत प्रवाहिनी,
भरती जाती है नित्य
मेरे इस शिथिल तन में
अपनी अनगिन धाराओं की अनन्त ऊर्जा,
जिनकी उथल-पुथल से उठती है
कल-कल-कल
अविरल,
निश्छल,
प्रतिपल करती विह्वल,
मन करता है
यूँ ही हो तरल धवल,
मैं भी इसके संग बहूँ विकल,
इसके प्रवाह में कुटी-पिसी,
आसक्त शिला-रज सा
लहरों में घुल-मिल कर,
उर के अन्तस में छिप-छिप कर।

2 comments:

  1. vaah...aakhir aapne bhi apanaa BLOG banaa hi liyaa, badhai.
    der aayad durust aayad. mere blog kee or bhi aayen aur anusaran bhi kar le. taki meree rachanaaye bhi apne aap tak pahunchati rahengee.

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  2. धन्यवाद गिरीश जी। आपका ब्लाग व्यापक और सुन्दर है। मैं उसे बार-बार पढूंगा।

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