(चित्र : डॉ. अवधेश मिश्र)
बचपन में सीखी थी एक बात
घर की कमजोरी का भेद बाहर नहीं खोलना कभी भी बाहर
नहीं तो लतियाए जाओगे गली-गली,
यह भय बना ही रहना चाहिए दुश्मनों के मन में
कि घर में मौजूद है ऐसी कोई अदृश्य ताकत
जिसका मुकाबला नहीं कर सकते वे सब एकजुट होकर भी,
यह तरकीब वैसे ही काम आती है हमेशा
जैसे घर में कुत्ता हो या न हो
पर होशियार आदमी अपने गेट पर बोर्ड जरूर लटका देता है –
‘बिवेयर ऑफ डॉग्स’…
अरे! फौज के पास बंदूक, तोप, टैंक व मिजाइलें हों या न हों
बाहर तो यही संदेश जाना चाहिए कि
सब कुछ है उनके पास, और जमकर है,
यहाँ तक कि परमाणु-बमों बड़ा भंडार भी,
यह कैसी बुद्धि है जो सेना के एक सर्वोच्च कमांडर से
गोला-बारूद की कमी होने की चिट्ठियाँ लिखवाती है
और जवानों के बीच असुरक्षा और आत्महंता होने का भाव जगाती है,
घर वाले जब गृहस्वामी से कुछ जरूरत की चीजें माँगते हैं
तो चुपचाप घर के भीतर बात करते हैं,
चिट्ठियाँ थोड़े ही लिखते हैं?
और मुहल्ले भर में हल्ला थोड़े ही मचाते हैं अपने अभावों का?
नहीं तो, फिर तो वही होगा …
‘घर का भेदी लंका ढावे’ …
देश की सुरक्षा के प्रबंधकों को मालूम नहीं है क्या कि
जानवरों को फसल से दूर रखने का सबसे सरल उपाय करता है बेचारा गरीब किसान
अपने खेत के बीचोबीच खड़ा करके एक फटे-पुराने कपड़ों वाला बिजूका …
आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में
Saturday, March 31, 2012
Tuesday, March 6, 2012
अब की होली में
अब की होली में मुझ पर
वह रंग डालना साथी
जो तन से भले उतर जाए
पर मन से कभी न उतरे।
अब तक जो रंग पड़े हैं
वैसे तो खूब चढ़े हैं
पर पिचकारी हटते ही
वे जाने किधर उड़े हैं,
अबकी होली के रंग में
साथी कुछ ऐसा घोलो
काया हो जाए निराली
नस-नस में मस्ती लहरे।
वह रंग जो फर्क मिटा दे
जो सबको गले मिला दे
उम्मीदें नई सजाए
शोषण की जड़ें हिला दे,
जिसमें हो खून-पसीना
जिससे ठंडा हो सीना
उस रंग से ही नहलाना
जो पोर-पोर में छहरे।
वह रंग डालना साथी
जो तन से भले उतर जाए
पर मन से कभी न उतरे।
अब तक जो रंग पड़े हैं
वैसे तो खूब चढ़े हैं
पर पिचकारी हटते ही
वे जाने किधर उड़े हैं,
अबकी होली के रंग में
साथी कुछ ऐसा घोलो
काया हो जाए निराली
नस-नस में मस्ती लहरे।
वह रंग जो फर्क मिटा दे
जो सबको गले मिला दे
उम्मीदें नई सजाए
शोषण की जड़ें हिला दे,
जिसमें हो खून-पसीना
जिससे ठंडा हो सीना
उस रंग से ही नहलाना
जो पोर-पोर में छहरे।
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