आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

Sunday, October 21, 2012

यथार्थ का सत्यापन करती कहानियाँ (शिवमूर्ति की कहानियों पर केन्द्रित लेख)

(अक्टूबर 2012 के 'लमही' पत्रिका के शिवमूर्ति विशेषांक में प्रकाशित)
                                                                                          ·         उमेश चौहान       

शिवमूर्ति का कथा-संसार भले ही सीमित है, किन्तु उसमें जो भी स्त्री कथा-पात्र दिखाई पड़ते हैं, वे बड़े ही सजीव व मार्मिक रूप से हमारे ग्रामीण समाज के गरीब व दलित स्त्री-वर्ग की दयनीय स्थिति उजागर करते हैं। हालाँकि उनकी अधिकांश कहानियाँ आर्थिक उदारीकरण व मंडलीकरण के दौर के पहले के गाँवों के परिवेश से जुड़ी हैं, किन्तु आज भी इन गाँवों में बहुत कुछ बदला नहीं है। चाहे वह कसाईबाड़ा की शनिचरी, लीडराइन या परधानिन हो, तिरिया चरित्तर की विमली हो, अकाल-दंड की सुरजी हो, सिरी उपमा जोग की ममता हो, केशर-कस्तूरी की केशर हो या भरतनाट्यम की देहाती पत्नी, ये सभी ऐसे स्त्री कथा-पात्र हैं जो एक ऐसे समाज में रहते हैं, जहाँ उनके हिस्से में बस गरीबी है, अभाव है, भूख है, शोषण है, प्रेम की सीमित अभिव्यक्ति एवं वासना से प्रेरित छल-कपट है, रिश्तोँ की कड़वाहट है, आत्मसम्मान बचाने की लालसा है, प्रतिरोध है, पराजय है, सामाजिक पतन है। शिवमूर्ति के ये स्त्री कथा-पात्र हमें देश के हरएक प्रांत के गांवों में इतने जीवंत रूप में मिलते है कि हमें उनकी यथार्थपरक लेखकीय दृष्टि का कायल होना पडता है। यहाँ शिवमूर्ति की कुल जमा सात कहानियों, जिनसे मैं परिचित हूँ, के आधार पर उनके इन स्त्री कथा-पात्रों की स्थिति का एक विश्लेषण किया गया है, जो सैद्धांतिक या कहानी की आलोचना के स्थापित मानदंडों के अनुरूप न होकर, एक नितांत पाठकीय दृष्टिकोण पर आधारित है।

            शिवमूर्ति की कहानियों को पढ़ते समय उनके स्त्री कथा-पात्रों की मनोदशाओं को हम उनके साथ घटित हो रही घटनाओं के संदर्भ में जिस बेचैनी, उत्सुकता व संवेदना के साथ महसूस करते हैं, वह अद्भुत है। किसी भी अन्य कथाकार की कहानियाँ पढ़ते समय ऐसा इतनी ही गहराई से महसूस होता हो, मुझे नहीं लगता. प्रेमचंद्र की कहानियाँ पढ़ते समय भी नहीं। इसका मुख्य कारण जो मुझे लगता है, वह है, शिवमूर्ति द्वारा इन कथा-पात्रों के संवादों में खाँटी आम बोल-चाल की गँवई अवधी भाषा का इस्तेमाल। अवध क्षेत्र के गाँवों में बोली जाने वाली ठेठ अवधी में बातचीत करते उनके कथा-पात्र हमें एकदम से उस परिवेश में खींच ले जाते हैं, जहाँ के वे रहने वाले हैं। वे उसी तरह बिना किसी लाग-लपेट के अपनी बातें कहते हैं, जैसी प्रायः गाँवों में होती हैं, विशेष रूप से दलित व गरीब तबके के लोगों के टोलों-मुहल्लों में। इस भाषा में अभद्र गालियों, मुहावरों व आक्षेपों का नैसर्गिक व भरपूर इस्तेमाल होता है और शिवमूर्ति ने इसी भाषा को अपनाकर इन कथा-पात्रों को यथार्थ के एकदम करीब लाकर खड़ा कर दिया है। कलात्मक आलोचना की दृष्टि से देखा जाय तो शिवमूर्ति एक नया ही सौंदर्य-शास्त्र गढ़ते नजर आते हैं और वे अपने स्त्री कथा-पात्रों को उतने ही सुन्दर अथवा दीन-हीन रूप में हमारे सामने लाकर खड़ा कर देते हैं, जैसे वे वास्तविक जगत में होते हैं। इन कथा-पात्रों में बाल-विवाह की त्रासदी व कुपोषण तथा गरीबी की शिकार बहुएँ हैं, पत्नियाँ हैं, माँएँ  हैं, वृद्धाएँ हैं।

शारीरिक सौन्दर्य-वर्णन की दृष्टि से देखा जाय तो ऐसा जहाँ भी शिवमूर्ति ने किया है, गजब की शैली में किया है। कसाईबाड़ा कहानी में जब परधान दारोगा के घर से पंजीरी चाटता हुआ निकलता है तो सोचता है, मुँह में इतनी मिठास कहाँ से? पंजीरी की मिठास यह नहीं हो सकती। दरोगाइन अभी तक तगड़ी हैं। चालीस से ज्यादा की नहीं लगतीं। देह अतर गुलाब की तरह महक रही थी। परधानिन की देह से तो गन्ना मिल वाली तेज गंध निकलती है। तभी मैं सोचूँ कि उसे इतनी मक्खियाँ क्यों घेरे रहती हैं?’ तिरिया चरित्तर में जब जवान हो रही विमली डरेवरजी के सामने आती है तो डरेवरजी उसे ध्यान से देखते हैं चेहरे का तेज दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है, शरीर गदराता जा रहा है. कितनी चमकती है देह! अकाल-दंड कहानी में शिवमूर्ति जवान हो चुकी सुरजी का वर्णन यूँ करते हैं, सालों-साल अधपेट रूखे-सूखे भोजन के चलते देह की अतिरिक्त चिकनाई कब की गल चुकी है। शेष है तो प्रकृति से मिला गोरा रंग, पानीदार आँखें, बरबस खींच लेने वाला बोलता चेहरा। और चौबीस-पच्चीस की उम्र वाले शरीर की स्वतःस्फूर्त चमक। इसे इस दुर्दिन में कहाँ छिपाकर ले जाय वह। और इसी पर सिकरेटरी की नजर चढ़ गई है।  

            गरीबी व विपन्नता की शिकार स्त्रियों, विशेषकर वृद्धाओं के शारीरिक वर्णन के में तो शिवमूर्ति बेजोड़ हैं। अकाल-दंड कहानी में सुरजी की माँ का रूप-वर्णन देखिए, ‘तार-तार हुई मैली चीकट धोती में मक्खियों से घिरी बुढ़िया किसी प्रेत-योनि की अवतार लगती है। अशक्त चुचके लटकते चमड़े वाले हाथ-पाँव, लता जैसी लटकी सूखी छातियाँ। बदरंग बिखरे सन हुए बाल। पकी बरौनियों के अंदर से झाँकती दो बु्झी आँखें। जैसे नुची आँखों वाली बू्ढ़ी मरियल मुर्गी।’ इसी प्रकार उनकी हालिया कहानी ख्वाजा, ओ मेरे पीर! में वृद्ध हो चली मामी का वर्णन भी अद्भुत है, कमर झुक गई थी, शरीर जर्जर था, झुर्रियाँ लटक रही थीं। पहनी गई धोती बदरंग और अंशतः पारदर्शी हो गई थी। जैसे एक्स-रे प्लेट में हड्डियाँ झलकती हैं, उसी तरह टांगों का धुंधला अक्स झलक रहा था। लंबी सूखी लटकती छातियाँ पुराने ढीले पड़ गए ब्लाउज की निचली सीमा लांघकर थोड़ा बाहर निकल आई थीं। सिरी उपमा जोग कहानी में गाँव की बाल-व्याहिता देहाती पत्नी ममता का पति उसके तमाम प्रकार के त्याग व सहयोग से प्रतियोगी परीक्षा में सफल हो, बड़ा अफसर बनकर शहर चला जाता है और अपनी गाँव की पत्नी को उपेक्षित कर वहाँ एक शहरी लड़की से शादी करके रम जाता है। फिर जब वर्षों बाद अचानक उसका लड़का गाँव से आकर उसके  सामने खड़ा हो जाता है, तो उसे ममता की याद कुछ इस प्रकार से आती है, उनके दिमाग में पत्नी के टूटे दाँत वाला चेहरा घूम गया। दीनता की मूर्ति, अति परिश्रम-कुपोषण और पति की निष्ठुरता से कृश, सूखा शरीर, हाथ-पाँव सूजे हुए, मार से। बहुत गरीबी के दिन थे, जब उनका गौना हुआ था. इंटर पास किया था उस साल। यदि उस समय पति ने इंटर पास किया था तो पत्नी की उम्र निश्चित ही चौदह-पन्द्रह साल से ज्यादा की नहीं रही होगी। उस उम्र में ममता का यह हाल! लेकिन दीनता की शिकार यही ममता निरक्षर होते हुए भी आशा एवं आत्म-विश्वास की मूर्ति भी है। वह जल्दी ही माँ भी बन जाती है। पति को साहिबी वाली नौकरी दिलाने के लिए वह अनेकों प्रकार के त्याग करती है। जब पति का सेलेक्शन हो जाता है तो वह यही सोच-सोचकर खुश होती है कि जो गाँव की औरतें उसे यह कहकर ताना मारती थीं कि खुद धोएगी गोबर और भरतार को बनाएगी कप्तान, वे अब कुछ नहीं कहेंगी, उसकी तो पत बच गई।
           
केशर कस्तूरी कहानी का शहर में जा बसा अफसर जब अपने साढू के साथ बचपन में ही गाँव में ब्याह दी गई उनकी लड़की के घर पहुँचता है, तब जिस स्थिति में उसकी बूढ़ी सास को देखता है, उसका शिवमूर्ति द्वारा किया गया वर्णन किसी को भी विचलित कर देने वाला हो सकता है, सबसे आगे एक मटमैला हड्डहा बैल जाड़े से रोएँ फुलाए खड़ा था। उसके बाद पुआल का ऊँचा ढेर। ढेर की आड़ लेकर धूप सेंकती बैठी थी केशर की बूढ़ी, अशक्त और लगभग अंधी सास। बगल में एक चारपाई खड़ी थी। जमीन पर बिछे पुआल के एक सिरे पर डेढ़-दो हाथ लंबी, तेल और मैल से चीकट एक काली कथरी सूख रही थी। कथरी से बूढ़ी तक ढाई-तीन गज लंबे क्षेत्र में मक्खियाँ भिनक रही थीं। सांय-सांय करके हाँफती बूढ़ी, रह-रहकर खाँसती और बलगम का एक लोंदा बगल में लुढ़का देती। हर लोंदे पर मक्खियों का काला गोला जमा था।  शिवमूर्ति की भाषा व उनके अनोखे सौंदर्य-बोध की यही खूबी है कि वे बिना यह सोचे कि कहाँ क्या सड़ा हुआ दिखेगा, कहाँ क्या घिनाएगा, कहाँ क्या विचलित कर देगा, सब कुछ वैसे का वैसा ही हमारे सामने रख देते हैं, जैसा वह होता है। ऐसा यथार्थपरक सौंदर्य-बोध तथा चित्रण की ऐसी भाषायी सहजता अन्यत्र विरले ही दिखाई पड़ती है।

            यौनिकता, यौनाकर्षण, यौन-पिपासा, यौन-शोषण आदि के चित्रण की दृष्टि से शिवमूर्ति काफी बेबाक कथाकार हैं। वे कथा की आवश्यकतानुरूप बेझिझक इन प्रवृत्तियों को चित्रित करते हैं और जहाँ जो कहना होता है, उसे खुल्लमखुल्ला कहते हैं। भद्र-व्यवहार या आभिजात्यता के चक्कर में पड़कर वे मौन या अर्ध-मुखर नहीं बने रहते। यह बिंदासपन ही उनके कथा-प्रवाह को रोचक एवं प्रभावी बना देता है। भाषा की नैसर्गिकता इस रोचकता को और ज्यादा बढ़ा देती है। भरतनाट्यम कहानी में पत्नी की कामुकता की गिरफ्त में फँसे बेटे को उसका बाप, साला, शाम होते ही मेहरारू की टाँगों में घुस जाता है. चार साल में तीन पिल्लियाँ निकाल दीं. खबरदार! अगर चौथी बार मूस भी पैदा हो गया तो बिना खेत-बारी में हिस्सा दी अलग कर दूँगा कहकर लताड़ता है, किन्तु ओढ़ने तक की सुविधा न होने के कारण बेटा तब भी जाड़े भर घर के भीतर पत्नी के पास ही सोने को मजबूर है। यहाँ, लगातार तीन-तीन बच्चियों को जन्म देने के बाद भी पत्नी की शारीरिक भूख भले न कम हुई हो, पर मेरी भूख जरूर कम हो गई है। अब तो हफ्ते-दस दिन में एकाध घंटे का मौक़ा ही काफी है  कहकर शिवमूर्ति कितनी बेझिझकी के साथ उसकी यौनेच्छा की स्थिति का एक सहज विश्लेशण कर देते हैं। पत्नी की यौन-पिपासा के बारे में भाभी की व्यंग्योक्ति भी शिवमूर्ति कितनी बेबाकी से सामने लाते हैं, साँड़ बनाना चाहती है भतार को. तीन-तीन बेटियाँ बियाने के बाद भी गरमी कम नहीं हुई है, पलटन तैयार करने की कसम खाई है मायके से। इस हरजाई की कोख में लड़का फल सकता है भला!  लेकिन इस प्रकार के व्यंग्य-बाण सहने के बावजूद भी पति पाता है, पर मेरी पत्नी अब भी कभी-कभी मौक़ा पाकर, सबके लेट जाने के बाद रात में गरम दूध का गिलास मुझे दे जाती है. इसमें सहज-स्नेह कम और एक निहित स्वार्थ अधिक होता है, विचित्र स्वार्थ!  इसी कहानी में पत्नी की उत्कट यौन-पिपासा से पीड़ित पति के मन में पत्नी की नसबंदी के बारे में विद्यमान अज्ञानता के प्रति जो कुढ़न उत्पन्न होती है, उसे भी शिवमूर्ति कितनी बेबाकी से इन शब्दों में सामने लाते हैं, चौबीस साल की उम्र में ही तीन बच्चों का बाप हो गया हूँ, यह सोचकर ही रोना आ जाता है। दिल में आता है, मँड़हे में ही पूजा कर रहे बाप का शंख-घड़ियाल उठाकर गड़ही में फेंक दूँ। आखिर क्या अधिकार था उन्हें पाँच साल की उम्र में मेरी शादी करने का? कभी-कभार पत्नी के सामने अपनी नसबंदी की कराने का प्रस्ताव रखता हूँ तो वह इतनी गमगीन हो जाती है, जैसे मैं उसका गला काटने का प्रस्ताव रख रहा होऊँ। मेरी कमर के गिर्द लिपटी उसकी बाँहें सुन्न पड़ जाती हैं। उसकी नज़र में बधिया करना और आदमी की नसबंदी करना एक ही बात है। उसे कितनी बार समझा चुका हूँ कि दोनों में बहुत फर्क है। नसबंदी के बाद भी सब कुछ पहले जैसा ही होगा, सिर्फ बच्चे नहीं होंगे।  

भरतनाट्यम कहानी में ही शिवमूर्ति आगे इस बेरोजगार व परेशान पति तथा उसकी कामुक पत्नी के यौन-संबंधों के मनोवैज्ञानिक पक्ष का और भी खुलकर विश्लेषण करते हैं, ऐसे समय जबकि मैं मानसिक रूप से व्यग्र रहता, पत्नी से सहवास को भी व्याकुल रहता। पत्नी मेरी मुफ़लिसी से पूरी-पूरी असंतुष्ट थी, फिर भी बिना किसी खास एतराज के खुद को मेरे लिए प्रस्तुत करती रहती थी, लेकिन जब-जब मेरी नजर उसके फटे और मैले-कुचैले कपडों पर पड़ती, मैं अपराध-बोध से गड़ जाता। इस मानसिक वितृष्णा से उन दोनों को मुक्ति तभी मिलती है, जब पति को सरकारी क्लर्क की नौकरी मिल जाती है। इस मुक्ति की खुशी में पत्नी की कामुकता और भी ज्यादा मुखर हो उठती है, जिसका चित्रण शिवमूर्ति यूँ करते हैं, भाभी ने खाने के साथ दूध का गिलास देकर और पत्नी ने रात में सारे शरीर की मालिश करके और बीसों उँगलियाँ चटकाकर अपनी प्रसन्नता व्यक्त की। उस रात उसने मेरी कमर को इतने जोर से अपनी भुजाओं में कसकर दबाया था कि याद करने पर आज भी दर्द होने लगता है। नौकरी ज्वाइन करने के बाद जब पति दिल्ली रहकर घर लौटता है तो बिना यह जाने कि वह नौकरी गँवाकर लौटा है, पत्नी जिस कामुकतापूर्ण व्यवहार के साथ उससे मिलती है, उसका वर्णन शिवमूर्ति से ज्यादा अच्छी तरह शायद ही कोई कथाकार कर सकता है, रात में पत्नी ने नौ बजते-बजते ही काम समाप्त करके कोठरी में सेज सजा दी और दिलोजान से समर्पित हुई. चरम बिंदु पर पहुँचते-पहुँचते उसने किंचित लाज और मान-भरे स्वर में कहा, इस बार मुझे भी ले चलिए अपने साथ। कब तक यहाँ सड़ूँगी। आज तक मैंने कभी शहर नहीं देखा है। मैं रस-भंग नहीं करना चाहता था और चुम्बनों की बौछार से उसका मुँह बंद कर दिया। यह शिवमूर्ति की विशिष्ट शैली ही है, जो इस प्रकार की बातों को अश्लीलता का ठप्पा लगाकर खारिज कर दिए जाने से बचाए रखती है और कहानी को रोचकता के एक नायाब पायदान पर ले जाकर खड़ा कर देती है।

            शिवमूर्ति की हालिया कहानी ‘ख्वाजा, ओ मेरे पीर!’ में भी शादी के बाद से ही नियमित रूप से अलग रह रही मामी जिस प्रकार से केवल पुत्र-प्राप्ति के उद्देश्य को मन में रखकर रोज रात को खेत के मचान पर मामा से यौन-संबन्ध बनाने के लिए आती हैं, वह प्रसंग भी अद्भुत एवं रोचक है, ‘शाम को गाय-बैलों को चारा-पानी देकर, माँ-बाप को खिला-पिलाकर पहर रात बीते लाठी लेकर निकलतीं मामी। साँप-बिच्छू और सियार-भेड़ियों को धता बताती, आधी रात के पहले-पहले जा पहुँचती मामा के माचे पर। पहर-डेढ़ पहर का अभिसार और चौथे पहर मायके के लिए वापसी। अँधेरी रात हो या चाँदनी, जाड़े की ठिठुरन हो या बरसात के गरजते-बरसते बादल, मामी के लिए पति की सेज हमेशा डेढ़-दो घंटे की दूरी पर रही।’ मामी अपने मन का दर्द भांजे को खुलकर बताती हैं, “बिना मरद का परिवार बेसहारा होता है। मुझे सहारे की जरूरत थी। पति का सहारा नहीं मिला तो बेटे के सहारे की आस में अँधेरी-उजेरी रात में दो कोस बीहड़ पार करके उनके पास पहुँचती रही। अपनी पसंद के किसी भी आदमी से बेटा पाने की राह दुनिया ने रूँध न रखी होती तो मैं उतनी दूर दौड़कर क्यों जाती? …… उन्हें मुझसे प्रेम होता तो जिस राह से औरत जात होकर मैं आती-जाती रही, वह क्या उनके लिए अनजान थी?” और जब भांजा कहता है, “चाहिए तो यही था मामी लेकिन ऐसा हो सकता है कि लाजवश ऐसा न कर पाए हों” तो मामी कितनी स्वाभाविकता के साथ पूछती हैं, “अपने पराने के पास आते किस बात की लाज थी भैने?” बाद में भांजा अपनी पत्नी से जो प्रतिक्रिया देता है, वह काबिले-गौर है,“भाई, बच्चे पैदा होना तो यांत्रिक क्रिया है। बिना प्रेम के भी बच्चे पैदा हो सकते हैं। बलात्कार से भी बच्चे पैदा हो जाते हैं। प्रेम या चाहना तो अलग चीज हुई। मामी कह रही थीं कि जब औरत होकर रात के अँधेरे में मैं उनके पास जा सकती थी तो वे मर्द होकर क्यों न आते, अगर उन्हें मुझसे प्रेम होता।” यहाँ निश्चित ही शिवमूर्ति स्त्री-पुरुष संबन्धों की एक नई मीमांसा करते हुए नज़र आते हैं।

चैतू मल्लाह के माध्यम से इस कहानी में शिवमूर्ति मामा-मामी की प्रणय-कथा को एक नया मोड़ देते हैं। एक दिन मामी द्वारा निरन्तर की जा रही मनुहार के वशीभूत हो, मामा रात में उनके गाँव की तरफ जाते हैं, लेकिन काफी देरी से। मामी तब तक उनकी तरफ आने का दो-तिहाई रास्ता पार कर चुकी होती हैं। बीच में ही दोनों की भेंट होती है। मामा का आग्रह मानकर मामी वापस चल पड़ती हैं। मामा उनका पीछा करते हैं। यहीं सामने आती है, शिवमूर्ति की रोमांटिकता की एक उत्कृष्ट अभिव्यक्ति, “देर तक पियारी के किनारे दूर तक मामी के पैरों की ‘पयरी’ बजती रही। वे आगे-आगे, मामा पीछे-पीछे। पकड़ पाए तो मुख, वक्ष और नाभि से लेकर जांघों के मध्य तक चुम्बनों की झड़ी लगाकर देर तक डूबते-उतराते रहे। ‘पियारी’ के किनारे खादर में उगी ऊँची हरी कास की सेज ही उनका रंगमहल बन गई। अचानक भूरे बादलों के पहाड़ ने चाँद को ढक लिया। तेज हवा चलने लगी। जंगल हरहराने लगा। मामा ने अलसायी पड़ी मामी को कंधे पर लादा और माचे की ओर लपके। नीचे सिर किए लटकी मामी मामा की पीठ पर मुक्के मारती रहीं।” चैतू यह वृत्तान्त सुनाकर जब बूढ़े मंगरू से कहता है, काले मेघों से घिरा आसमान। धारोधार बरसता पानी। मक्के की फसल से घिरा माचा और रात का तीसरा पहर। ऐसा संजोग हर गृहस्थ के नसीब में कहाँ तो लगता है कि शिवमूर्ति इस कहानी के माध्यम से हमें रूमानियत के जिस पायदान पर ले जाकर सहजता से खड़ा कर देते हैं, वह उनके बिना हमारे नसीब में कभी संभव ही नहीं हो सकता था। बूढ़ा मंगरू जब चैतू के वृत्तान्त की सत्यता पर संदेह व्यक्त करता है तो शिवमूर्ति चैतू के मुँह से, चूतड़ में हल्दी लगी नहीं। औरत का दर्शन पाए नहीं। तुम क्या जानो? कहलाकर अपनी बिन्दास व मुँहफट भाषा से हमें आश्चर्य में डाल देते हैं। यह बिन्दास भाषा ही उनके कथा-पात्रों को यथार्थ की दुनिया का वाशिन्दा बना देती है और उनके कथा-वृत्त को स्वाभाविकता प्रदान करती है।
            ख्वाजा, ओ मेरे पीर! कहानी में ही उतराहा मामी से जुड़ा एक संदर्भ भी काफी रूमानी है। गाँव में उन्हें देखकर भांजा याद करता है, ननिहाल आने पर बचपन में यही मामी मुझसे ज्यादा मजाक करती थीं। रोक लेतीं। घुटनों के बल बैठ जातीं और मेरा गाल मीजते हुए कहतीं हमको भी पढ़ा दो भैने एक किताब। कब पढ़ाओगे? दिन में कि रात में? कहाँ पढ़ाओगे? उर्दे में कि अरहरी में? ऐसा करो, एक किताब उर्द (के खेत) में पढ़ा दो, एक अरहरी (के खेत) में। यहाँ एक गुदगुदाने वाली प्रच्छन्न अश्लीलता है! एकदम भली लगती हुई! यही तो शिवमूर्ति की भाषा-शैली की विशेषता है। रूमानियत की इसी प्रकार की एक वक्र एवं अत्यधिक आकर्षक अभिव्यक्ति का परिचय शिवमूर्ति तब कराते हैं जब मामी के घर से चलते वक्त रमेशर की दुलहिन द्वारा डाले गए रंग से सराबोर मामा वापसी के रास्ते में भाव-विह्वल हो फगुआ गाते हुए अचानक बोल उठते हैं, छिनरी ने पूरा भिगो दिया। ठंड लग रही है।

             शिवमूर्ति के स्त्री कथा-पात्र गरीबी एवं अभावों के बीच जीते हुए भी नारी अस्मिता की रक्षा के प्रति सजग हैं। कसाईबाड़ा कहानी में जब सामूहिक विवाह के कार्यक्रम में शनिचरी की बेटी की शादी होती है तो गरीब होते हुए भी वह किस खूबी से अपना दायित्व निभाती है, ‘खुला-खुली गहना-गुरिया देने का हुकुम नहीं था तो क्या, शनिचरी ने चोरी से बेटी के बक्से में अपने सारे गहने डाल दिए थे-तीन सेर चाँदी।’ तिरिया चरित्तर कहानी में जब डरेवरजी जवानी की दहलीज पर खड़ी गरीब विमली को पैकेट के भीतर छिपाकर अंदर पहनने की चीज भेंट करता हैं तो उसका स्वाभिमान जाग उठता है। विमली का बाल-विवाह हो चुका होता है। पति कोलकाता में मजदूरी करता है। गौना हुआ नहीं। जिसको देखो, वही उसकी जवानी को लूटना चाहता है। ऐसे में विमली सोचती है, कलकत्ते वाले उसके आदमी को क्या पता कि कितने जतन से सँभालकर रखा है विमली ने उसकी अमानत! पके आम के पेड़ की रखवाली जैसा कठिन काम! कितनी निगाहें हैं, पके आम के पेड़ पर! अपनी अस्मिता को बचाने के लिए बेचैन विमली की सोच का ऐसा रूपकीय प्रस्तुतीकरण सिर्फ शिवमूर्ति ही कर सकते हैं। केशर कस्तूरी कहानी की केशर भी निरन्तर गरीबी की त्रासदी भोगते रहने के बावजूद पिता व मौसा के घर आने पर उनके सामने सहनशीलता एवं स्वाभिमान से सराबोर दिखाई पड़ती है, दुःख तो काटने से ही कटेगा बप्पा! …… भागने से तो वह और पिछुआएगा। केशर गाती है, अपने करमवा माँ जरनि लिखाई लाए, का करिहै बाप महतारी जी-ई-ई। वह फिर अलापती है, मोछिया तोहार बप्पा हेठ न होइहै, पगड़ी केहू ना उतारी, जी-ई-ई। टुटही मँड़ैया मा जिनगी बितौबै, नाही जाबै आन की दुआरी जी-ई-ई। लोक-गीतों की ऐसी पंक्तियों के माध्यम से किसी भाव-प्रवण बात को चमत्कारिक प्रभाव से ओत-प्रोत कर देना तथा सीधे-सीधे सामान्य पाठकजनों के हृदय में उतार देना कथाकार शिवमूर्ति की विशेषता है। हिन्दी-कहानी के पाठक उनकी इस शाब्दिक एवं भावात्मक जादूगरी के कायल हैं।

            शिवमूर्ति की कहानियों के अधिकांश स्त्री कथा-पात्र गरीबी, बाल-विवाह के कारण उत्पन्न सामाजिक विषमताओं व पुरुष-समाज के बलात्कारी आचरण से त्रस्त हैं और वे यथावसर इस सबके प्रति विद्रोह करते नजर आते हैं। प्रतिरोध के बुलन्द स्वर उठाना और शारीरिक रूप से भी अन्याय के विरुद्ध लड़ना, इन कथा-पात्रों का सामान्य स्वभाव है। आर्थिक, सामाजिक, शारीरिक एवं मानसिक शोषण का प्रतिरोध करना ही शिवमूर्ति की कहानियों का मुख्य उद्देश्य अथवा केन्द्रीय भाव है। ऐसे प्रसंगों में उनकी भाषा भी गाँवों में प्रचलित अवधी की भाव-भरी, प्रियकर व कहीं-कहीं स्वाभाविक गाली-गलौज भरी शब्दावली से सनकर बड़ी ही चमत्कारिक हो उठती है। ‘कसाईबाड़ा’ कहानी की मुख्य कथा-पात्र शनिचरी एक अनपढ़, गरीब व शोषण की शिकार स्त्री है जिसकी बेटी रूपमती को ग्राम-प्रधान ने सामूहिक-विवाह कार्यक्रम के बहाने पैसे लेकर शहर के एक आदमी को वेश्या-वृत्ति कराने के लिए सौंप दिया है। शनिचरी को ग्राम-प्रधान का प्रतिद्वन्दी व पेशे से अध्यापक, गाँव का चालाक लीडरजी अपने लाभ के लिए भड़काकर उस ग्राम-प्रधान के दरवाजे पर अनशन के लिए बैठा देता है। ग्राम-प्रधान जैसे ही घर के बाहर आता है, शनिचरी इस संघर्ष में अकेले होते हुए भी परधान से बेखौफ़ भिड़ जाती है, निकलते ही शनिचरी उनका (परधान जी का) पैर पकड़कर गोहार लगाती है, “मोर बिटिया वापस कर दे बेईमनवा, मोर फूल ऐसी बिटिया गाय-बकरी की नाई बेंचि के तिजोरी भरै वाले! तोरे अंग-अंग से कोढ़ फूटि कै बदर-बदर चूई रे कोढ़िया …।” लीडर तो बस परधानी पर कब्जा जमाकर अपने एम. एल.. व मिनिस्टर बनने का सपना पूरा करने के लिए शनिचरी को मोहरा बनाता है, किन्तु गाँव का अपाहिज व अधपगला अधरंगी खुलकर शनिचरी के पक्ष में खड़ा होता है। वह अकेला ही गाँव में घूम-घूमकर परधान व लीडरजी की पोल खोल-खोलकर विरोध के स्वर बुलन्द करता रहता है। जब परधान दारोगा की शह पाकर शनिचरी को अनशन-स्थल से उठवा फेंकता है, तब अधरंगी परधान व उसके बेटे के पुतले बनाकर सारे गाँव में मुनादी करके शनिचरी से शाम को बबूल के एक ठूँठ पर उन दोनों को फाँसी दिला देता है। यहाँ शिवमूर्ति ने शनिचरी का जो रूप हमारे सामने प्रस्तुत किया है, वह एक आत्मविश्वास से भरी विद्रोही स्त्री का है, आने-जाने वाले रुककर देखते हैं तो शनिचरी हाथ की छड़ी पुतलों पर मारकर परिचय देती है, “ई खिरोधरा आ। ई परेमवा। ई खिरोधरा…।” शनिचरी इस संघर्ष में परधान के दमन का सीधा विरोध करती हुई उसे चुनौती देती है, ‘सहसा उठकर खड़ी होती है वह और आकर बिल्डिंग का दरवाजा फटफटाने लगती है, “अरे या रँड़वा, खोल केवड़वा।”

            ‘कसाईबाड़ा’ कहानी में अन्याय के विरुद्ध प्रतिरोध की यह प्रवृत्ति सिर्फ शनिचरी या अधरंगी तक ही सीमित नहीं है। परधान की अत्याचारी गतिविधियों के विरुद्ध परधानिन के विद्रोह का जो दृश्य शिवमूर्ति ने खींचा है, वह विभिन्न राम-कथाओं में लंकापति रावण को समझाने के लिए पत्नी मंदोदरी द्वारा किए गए शालीन प्रतिरोध से कहीं ज्यादा तीक्ष्ण व धारदार है, ‘हाथ झटककर परधानिन बड़बड़ाने लगती है, “ई गाँव लंका है। इहाँ लंकादहन होवेगा। रावन तू ही हो। लीडर बना है बिभीखन। तोहरे दूनों के चलते गाँव का सत्यानाश होवेगा। होई रहा है। बहिन-बिटिया बेंचो। हमहूँ का बेचि लेव। रुपया बटोरो। साथ लै जायेब, लेकिन अब हम एहि घरे मा ना रहब। आपन बेटवा लैके भीखकौरा माँगब, मुला …।” इसी प्रकार जब लीडरजी मुख्यमंत्री को निवेदन देने के बहाने से धोखे से अनपढ़ शनिचरी के दस्तखत कोरे स्टाम्प-पेपर पर कराकर उसकी ज़मीन हड़प लेता है और पत्नी से झूठा आश्वासन दिलवाकर परधान उसे धोखे से अनशन तुड़वाने के बहाने जहर पिलाकर मार देता है तब लीडरजी के घर में भी विद्रोह की ज्वाला भड़क उठती है। उनकी चालाकी भरी गतिविधियों से त्रस्त लीडराइन के यह तेवर देखिए, ‘तिनककर बैठ जाती हैं लीडराइन, “धोखेबाज, बेईमान। तुम्हारे ही पाप के कारण मेरी कोख नहीं फल रही है। मैं …।” फिर जब लीडरजी उसे समझाने व मनाने की कोशिश करता है तो लीडराइन का गुस्सा अपने चरम पर पहुँच जाता है, “तुम लोग कसाई हो। सारा गाँव कसाईबाड़ा है। मैं नहीं रहूँगी इस गाँव में।” निश्चित ही ‘कसाईबाड़ा’ कहानी शिवमूर्ति की एक बेहद प्रभावशाली कहानी है, जो हमारे ग्रामीण समाज में व्याप्त शोषण व अत्याचार, राजनीतिक मूल्य-च्युति, प्रशासनिक भ्रष्टाचार, प्रतिरोधी स्वरों के दमन तथा देश में नए संविधान के लागू होने के दशकों बाद आज भी कसाईबाड़े रूपी ऐसे तमाम गाँवों की स्थिति में कोई बदलाव न होने की विडंबना को पुरजोर ढंग से उद्घाटित करती है।

‘अकाल-दंड’ कहानी में राहत-सामग्री बँटवाने वाला इलाके का सिकरेटरी मेहनत-मंजूरी कर अपना व बूढ़ी माई का पेट पालने वाली निम्न जाति की युवती सुरजी की आकर्षक देह को भोगने के लिए पागल हो उठता है। वह उसकी इज्जत लूटने के लिए उतावला होकर एक रात सुरजी की झोपड़ी में घुस जाता है। वह सुरजी को प्रलोभन देता है कि उसका उद्धार कर देगा। सुरजी मुँहतोड़ जवाब देती है, “उद्धार जाकर अपनी माई-बहन का कर दाढ़ीजार। उन्हीं को पढ़ा अपना यह ‘परेमसागर’।” लेकिन सिकरेटरी वासना में अंधा है। वह उसे फिर लालच देता है। इस अवसर पर सुरजी की निर्भीकता व भय दोनों का जो सम्मिश्र-चित्रण शिवमूर्ति ने किया है, वह बहुत ही प्रभावशाली है, ‘सिकरेटरी की काली छाया आगे बढ़ते देख गुर्राती है सुरजी, “ख-आन … खबरदार जो आगे बढ़ा। वह दूसरे कोने की ओर पिछड़ती जा रही है, “मुँह झौंसि देब दहिजार के पूत।” सिकरेटरी फिर भी नहीं मानता। वह जोर-जबर्दस्ती पर उतर आता है। यहाँ पर शिवमूर्ति अपनी व्यंग्य-भरी धारदार भाषा में स्त्री-विद्रोह का जो रूप प्रस्तुत करते हैं, वह अद्भुत है, लात का पक्का धक्का पिछवाड़े लगता है तो औंधे मुँह जाकर बाँस के चौखट से टकराते हैं। आगे के दोनों दाँत – घोड़ा-दंत निकल भागे। बाप रे! उठकर खून थूकने तक की ताब नहीं। पड़े-पड़े भैंसे की तरह हाँफ रहे हैं। फिर गुर्राती है सुरजी, “भलमानसी चाहौ तो अब चुप्पै भाग जाव। नाही त अबही गोहार लगाय देब त तोहर भद्दरा (भद्रता) उतरि जाए।” ‘अकाल-दंड’ ही शिवमूर्ति की एकमात्र ऐसी कहानी है, जिसमें उनकी गरीबी, अत्याचार व शोषण की शिकार नायिका प्रतिरोध व संघर्ष करते-करते एक ऐसे मुकाम पर पहुँच जाती है, जहाँ वह रण-चंडी बनकर दुश्मन पर हमला कर देती है और अंततः आततायी को सजा देने में सफल होती है, भले ही एक अपराधिनी बनकर। जब सिकरेटरी गाँव के दबंग रंगी बाबू का इस्तेमाल करके सुरजी को अपने कैम्प तक बुलवाने में सफल हो जाता है, तब सुरजी के पास अपनी इज्जत बचाने का और कोई चारा नहीं बचता और वह साहस व संघर्ष के शीर्ष पायदान पर पहुँच जाती है। इस कहानी का यह अंतिम दृश्य पुरुष-अत्याचार के विरुद्ध होने वाले एक स्त्री-संघर्ष के जिस चरम गंतव्य तक हमें ले जाता है, वह बेमिसाल है, सिकरेटरी के तम्बू के अंदर-बाहर भीड़ जमा हो गई है। अंदर का दृश्य बड़ा भयानक है। सिकरेटरी बाबू पलंग पर नंग-धड़ंग पड़े छटपटा रहे हैं। सुरजी ने हँसिये से उनकी देह का नाजुक हिस्सा अलग कर दिया है और पिछवाड़े के रास्ते भागकर अँधेरे में गुम हो गई है।

            प्रतिरोध के स्त्री-स्वर शिवमूर्ति की अन्य कहानियों में भी तरह-तरह के प्रसंगों में बिखरे पड़े हैं। ये स्वर कहीं एक पत्नी के हैं, कहीं एक माँ के, कहीं एक बहू के, कहीं एक सामान्य अबला के। ‘भरतनाट्यम’ कहानी में तो शिवमूर्ति ने एक नाकारा व बेरोजगार बेटे के प्रति माँ के भीतर उपजे गुस्से को भी एक अलग ही तरह का नायाब सा खालिश ग्रामीण रूपक गढ़कर उभारा है। यहाँ बेटा गोबर से कंडे पाथती अपनी माँ की शारीरिक भाषा के माध्यम से ही उसके गुस्से की तीव्रता को महसूस कर लेता है, मुझे देखकर वे अपना हाथ गोबर पर और जोर-जोर से पटकने लगती हैं। लगता है, यह हाथ गोबर पर नहीं, मेरे गालों पर पड़ रहा है थप्प, थप्प! और मेरे चेहरे पर गोबर छोप उठा है।

‘तिरिया चरित्तर’ एक स्त्री-प्रधान कथा-पात्र वाली शिवमूर्ति की संभवतः सर्वाधिक चर्चित कहानी है। इसकी नायिका विमली का बाप अपाहिज है और माँ बूढ़ी तथा लाचार। बचपन में ब्याहे पति का अता-पता नहीं और उसकी तरफ से भी कोई खोज-खबर नहीं। भाई शादी करके जोरू का गुलाम बनकर अलग रह रहा है, इसलिए वह माँ-बाप की जिम्मेदारी सँभालने  के लिए सरपंच के घर में काम पर लग जाती है। लेकिन जब सरपंचाइन उसकी माँ को उधारी पर भी घर का चूल्हा जलाने के लिए पैसे देने से मना कर देती है, तो वह अगले ही दिन उसके यहाँ का काम छोड़ देती है। उसके विद्रोह के स्वर तीखे हैं, नहीं करना उसे ऐसी जगह गोबर-झाड़ू, जहाँ माँगने पर भीख भी नहीं मिल सकती।विमली मेहनत-मंजूरी की तरफ मुड़ती है। जिस काम को औरतें नहीं करती हैं, उसे करने की ठान लेती है। वह भट्ठे पर ईंटें ढोने का काम पकड़ लेती है। इससे गाँव की औरतों में खलबली मचनी स्वाभाविक है। उसका बाप भी उसे धिक्कारता है। लेकिन माई सहारा देती है। वह विमली को गाँव की जलनखोर औरतों की परवाह न करने के लिए प्रेरित करती है। वह जलनखोरों पर नमक छिड़कने के लिए पहली ही मजदूरी के पैसों से एक बोरा नमक खरीदकर लाने जैसी व्यंग्योक्ति करती है। शिवमूर्ति ने यहाँ विमली की माई के उद्गार बड़े ही तीखे ढंग से व्यक्त किए हैं, “जिसको अपने जले पर नमक छिड़कवाना हो, आकर छिड़कवा जाए … मेरी बिटिया जनम भर दूसरे की कुटौनी-पिसौनी, गोबर-सानी करे। फटा-उतारा पहिरे। तब इनकी छाती ठंडी रहेगी …… एक टूका रोटी के लिए दूसरे का लरिका सौंचाए …… भट्टे पर कौन बिगवा (भेड़िया) बैठा है। सबेरे से साँझ तक काम करो। फिर अपने घर। एहमा कौन बेइज्जती? ई गाँव के लोग केहू के चूल्हा की आग बरदास नहीं कर सकते। जैसे इनकी छाती पर जलती है। इन्हीं लोगन के चलते हमार सोना जैसन बेटवा हाथ से निकरि गवा। तू लूल तो भवै हो, अन्हरौ होई गए हौ का? कुछ सोचौ-समझौ।” पति और समाज दोनों को एक साथ लताड़ती विमली की माई का यह रूप तथा शिवमूर्ति की यह अवधी-सनी भाषा बहुत ही प्रभावशाली है।

            जवान हो रही विमली जब धीरे-धीरे काम-पिपासु लोगों की नीच हरकतों का शिकार होने लगती है, तो अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए उसके भीतर प्रतिरोध के स्वर भी मुखर होने लगते हैं। इसके लिए वह प्रायः व्यंग्य व विनोदपूर्ण ढंग से ही पेश आती है। भट्ठे पर साथ काम करने वाला बिल्लर जब एक दिन उसे घर छोड़ने के बहाने साथ आकर रास्ते में छेड़खानी करने पर आमादा हो जाता है, तो वह उसे बुरी तरह झिड़क देती है, ए बिलरू! बड़ी बदमाशी सूझती है हट! फिर भी जब बिल्लर नहीं मानता तो वह उसे नसीहत भी देती है, अरे-अरे! मनई जैसा चल! बिल्लर उसके मन के चोर को पहचानता है। विमली के मन में भट्ठे पर ट्रक लेकर आने वाले डरेवरजी के प्रति कोमल भाव व आकर्षण है। बिल्लर इसी का फायदा उठाकर उसे दबाव में लेने का प्रयास करता है, “डरेवर बाबू की देह महकती है और मेरी गंधाती है?” विमली न घबराती है, न सकुचाती। वह दो टूक जवाब देती है, “रमकल्ली के भतार! न तू हमार बियहा हो न डरेवर बाबू। खबरदार!” बिल्लर डर जाता है। लेकिन बाद में वह उसकी माई को लालच में फँसाकर विमली को पाने की कोशिश करता है। वह अपनी बहन के हाथों माई के लिए नया हुक्का व तम्बाकू भरी हाँड़ी भेजता है। माई खुश हो जाती है। वह विमली को उसके बचपन में ब्याहे पति के उपेक्षापूर्ण व्यवहार तथा उसकी अल्प-कमाई की याद दिलाकर उसे बिल्लर से दूसरी शादी करने के लिए प्रेरित करती है। किन्तु विमली प्रतिरोध करती है, “यह आज सोच रही हैं। पहले क्यों नहीं सोचा? क्या जरूरत थी बचपन में ही किसी के गले में बाँध देने की?” फिर वह माई की सोच को कोसती है, “कल कोई दस बीघे वाला लड़का आ जाएगा तो तू कहेगी कि मैं उसी के साथ बैठ जाऊँ?” जब उसकी निगाह हुक्के व तम्बाकू की हाँड़ी पर पड़ती है तो वह एकदम ही विद्रोह पर उतर आती है, “दस रुपए के हुक्के-तम्बाकू पर तूने अपनी बिटिया को राँड़ समझ लिया रे? बोल! कैसे सोच लिया ऐसा? जिसकी औरत उसे पता भी नहीं और तू उसे दूसरे को सौंप देगी? गाय-बकरी समझ लिया है?” माँ निरुत्तर ओ जाती है और चीख पड़ती है, “चुप-चुप-चुप! हल्ला मत कर राँड़!”  क्या हिन्दी-कहानी में है कहीं कोई सानी शिवमूर्ति के इस प्रकार के स्त्री-विमर्श की?

‘तिरिया चरित्तर’ में ही इस बाल-व्याहिता विमली का ससुर विसराम एक दरिन्दे के रूप में सामने आता है। वह बिना अपने बेटे को घर बुलाए जवान हो रही विमली का गौना करा लाता है और उसका यौन-शोषण करना चाहता है। वह गाँव का चौधरी है और चालाक भी। विमली उसका इरादा समझ जाती है और अपनी इज्जत बचाने के लिए लगातार संघर्ष करती है। इस संघर्ष का चित्रण करते समय शिवमूर्ति बड़ी ही प्रभावी व धारदार भाषा का इस्तेमाल करते हैं, शुरू-शुरू में तो नई पतोहू जैसा शरम-लिहाज था। रीं-रीं करके रोना हम बिटिया बराबर अही। आप बाप बराबर। रो-रोकर पैर छान लेती थी दोनों हाथों से। लगता था अब ढीली पड़ी कि तब। लेकिन बाद में तो बिल्ली जैसी खूँखार। वैसी ही गुर्राहट! पंजे मारना। हाथ झटकना। बिल्ली जैसे नाखून! सारा मुँह, नाक, कान, नोंच लिया है। पूरा चेहरा परपरा रहा है। जलन!’ जब विसराम जबर्दस्ती करने की कोशिश करता है तो विमली आक्रामक हो उठती है, ‘दोनों पैर सिकोड़कर ऐसा सधा वार किया छाती पर कि विसराम उताने दूर जा गिरा खटिया से। तब से छाती और सिर में भयानक दर्द!’ शिवमूर्ति ने आत्म-रक्षा के लिए संघर्षरत विमली का वर्णन करते-करते एक अनुपम उपमा की स्रष्टि की हैं यहाँ, पैर सिकोड़कर घुटने को अंकवार में बाँधकर, उसी में सिर गड़ाए बैठी है विमली। जैसे कोई साही दुश्मन के आक्रमण की आशंका में बैठी हो काँटा फुलाकर! दूर से ही भूँक रहा है विसराम। पास जाते ही एक काँटा तीर की तरह छूटेगा सन्न!’ विमली का यह संघर्ष हमें आए दिन अपने आस-पास यथार्थ रूप में घटित होता हुआ दिखता है। गाँवों में ही नहीं, शहरों में भी।
           
विसराम बल से नहीं जीतता है तो छल पर उतर आता है। वह दिखावे के लिए पूजा-पाठ करने लगता है। अलग झोपड़ी बनाकर सोने लगता है। फिर एक दिन धोखे से पंचामृत में नशीला पदार्थ मिलाकर विमली की इज्जत लूट लेता है। विमली उस अर्ध-बेहोशी की अवस्था में भी मनसा संघर्ष के लिए उद्यत है किन्तु शरीर साथ नहीं देता। शिवमूर्ति का दृश्यांकन यहाँ काफी हृदय-विदारक है, ‘ऐ! क्या हो रहा है? झोपड़ी हिल रही है या खटिया? मुँह नोच लेगी वह। आँखें फोड़ देगी। लेकिन हाथ-पैर में जुम्बिश क्यों नहींहोती? विसराम के शरीर में बाघ की ताकत आ गई है। डाकगाड़ी का इंजन – झक! झक! झक! झक! बपा रे ए-ए! वह चीखना चाहती है लेकिन सिर्फ गों-गों करके रह जाती है। कोई वश नहीं। जैसे अतक समुंदर में डूबी जा रही हो।’ सब कुछ लुट जाने के बाद भी विमली हताश नहीं होती। वह प्रतिकार के लिए तत्पर होती है। उसके भीतर प्रतिशोध की ज्वाला भड़क उठती है, सहसा रुलाई गायब हो जाती है। बुझी-बुझी आँखों में चमक उभरती है। क्रमशः दीप्त होती चमक! बिल्ली की आँखों की चमक देखा है कभी अँधेरे में? नीली चमक! जलती आँखें! विमली उस आततायी व धोखेबाज ससुर से बदला लेने को उद्यत होती है। इस प्रतिशोध की तत्परता को शिवमूर्ति बड़े ही प्रभावशाली ढंग से सामने लाते हैं, उसकी आँखों में मँड़ही के अंदर खटिया पर बेसुध पड़ा विसराम का काला अधनंगा शरीर नाच रहा है। युगों की भूख मिटाकर बेखबर सोया पड़ा तृप्त-संतृप्त दैत्य! खुले मुँह से बहती पीक की धार? गंदा तन गंदा मन! सारी गंदगी, बदबू, छल और धोखा जलाकर राख कर देगी वह। और कोई राह नहीं।

आज आए दिन खाप पंचायतों व ऐसे ही अन्य जातीय व धार्मिक संगठनों द्वारा लिए जाने वाले तमाम ऊट-पटांग फैसले हमारे सामने आ रहे हैं। शिवमूर्ति ने इस प्रकार की अंधी पंचायतों की अन्यायपरक गतिविधियों की एक बेबाक एवं दिल दहला देने वाली झलक बड़ी सहजता से दिखाई है। ससुर विसराम धोखे से पतोहू की इज्जत भी लूटता है और उसी के खिलाफ पंचायत में अभियोग भी लगा देता है। विमली फिर भी उससे डरती नहीं है, वह इस हालत में भी प्रतिरोध का स्वर बुलन्द करती है। जब विसराम गहने चुराने का आरोप लगाकर उसके बाल नोचने लगता है तो वह फिर संघर्ष पर आमादा हो जाती है, पतोहू झटके से उठ खड़ी होती है, खबरदार! कुत्ता, दाढ़ीजार, जो दुबारा हाथ लगाया मेरी देह पर। कच्चा चबा जाऊँगी।बाप रे! सहमकर पीछे हट जाता है विसराम।’ बाद में जब पंचायत जुटती है तो वह बड़ी निर्भीकता से उसके सामने सच का बयान करती है;

तू मिट्टी के तेल की बोतल और माचिस लेकर विसराम की मँड़ई में गई थी, यह सच है कि झूठ है?
सच है!
क्यों गई थी?
गई थी इसे मिट्टी का तेल डालकर इसे फूँकने।
काहे?
क्योंकि मेरी झोपड़ी में दारू पीने वाला, मछली खाने वाला और मेरे साथ मुँह काला करने वाला जानवर यही था। मैं इसे जिंदा जलाना चाहती थी लेकिन यह बच गया। अब मैं इसका कच्चा मांस खाऊँगी।

लेकिन पंचायत को सच कहाँ सुनना है! वहाँ कोई भी सच के साथ नहीं। न कोई सच जानना चाहता है, न कोई सच बोलना चाहता है। वहाँ सभी में एक पूर्वाग्रह है। । वहाँ पहले से ही निर्धारित एक फैसला है, जिस पर बस पंचायत का ठप्पा लगना है। फिर भी शिवमूर्ति की इस पंचायत में कम से कम गाँव का एक ऐसा स्त्री-चरित्र है, जो सच के पक्ष में खड़ा होता है। वह है मनतोरिया की माई। वह कहती है, एकदम ठीक बोलती है पतोहू! मैं गवाह हूँ। एक दिन मैं खुद गई थी इसकी झोपड़ी में। वही दारू की बोतल। वही बीड़ी के टोंटे। पुराना पापी है विसरमवा। महागीध। घटियारी शुरू से इसके मन में बसी है। जब पंचायत विमली को कुलटा करार देकर उसे माथे पर दागे जाने का निर्णय ले लेती है, तो मनतोरिया की माई फिर से जोरदार प्रतिवाद करती है, ई अँधेर है। दगनी दागना है तो विसराम और बोधन चौधरी के चूतर पर दागना चाहिए। किन्तु पंचायत में कौन सुनने वाला है। फिर भी इस अन्याय को विमली बर्दाश्त नहीं करती है। वह भरी पंचायत में निर्भीकता से अपना विरोध दर्ज कराते हुए इस फैसले को अस्वीकार कर देती है, मुझे पंच का फैसला मंजूर नहीं। पंच अंधा है। पंच बहरा है। पंच में भगवान का सत नहीं है। मैं ऐसे फैसले पर थूकती हूँ आ-क-थू …! देखूँ कौन माई का लाल दगनी दागता है। नारी के विद्रोह का ऐसा रूप स्त्री-विमर्श के संपूर्ण कथा-साहित्य में विरले ही दिखता है। शिवमूर्ति की यह कहानी इस दृष्टि से बेमिसाल है और हिन्दी-कहानी में मील का एक पत्थर है।

            शिवमूर्ति की कहानियों में प्रायः हमारे ग्रामीण समाज में व्याप्त सामाजिक अन्याय, शोषण व दमन का स्पष्ट व नंगा रूप उभरकर अभिव्यक्त होता है। उनकी यह अभिव्यक्ति हर समय एक भोगे हुए सच के रूप में सामने आती है, किसी सुनी-सुनाई या पढ़कर समझी गई अनुभूति की तरह नहीं। इस अन्याय व शोषण के जितने कारक-तत्व हैं, उन पर वे साफ-साफ रोशनी डालते हैं। बाल-विवाह की प्रथा तो इसमें सबसे बड़ा कारक-तत्व है, जिसका उल्लेख वह तिरिया चरित्तर, सिरी उपमा जोगभरतनाट्यम जैसी कहानियों में बखूबी करते हैं। तिरिया चरित्तर की विमली माई से प्रश्न करती है, क्या जरूरत थी बचपन में ही किसी के गले से बाँध देने की? वह पराई अमानत को संहालते-संहालते किशोरावस्था से लेकर जवानी तक कदम-कदम पर संघर्ष से गुजरती है और बाद में अपने ही ससुर द्वारा छली जाती है, ‘धोखा! छल! कहाँ-कहाँ से किन-किन खतरों से बचाती आई थी वह पराई अमानत! कितने बीहड़? कितने जंगल? कितने जानवर? कितने शिकारी? और मुकाम तक सुरक्षित पहूँचकर भी लुट गई वह! मेंड़ ही खेत खा गई छल से!’ स्थानीय स्तर पर रोजगार के अभाव में रोजी-रोटी के लिए घर से पुरुषों का अकेले ही परदेश या महानगरों की ओर विस्थापित हो जाना भी स्त्रियों के शोषण का एक बड़ा कारण बनता है। ‘कसाईबाड़ा’ में अपनी बेटी की पैदाइश के बारे में दारोगा के भय से शनिचरी द्वारा किया गया खुलासा देखिए, ‘शनिचरी घबराती है। उसके सरगवासी आदमी पर तोहमत लग रही है, तब तो सच बोलना ही पड़ेगा, “हुजूर, पैदा तो इनही परधानजी ने किया था। पूछे का मौका भी नहीं दिए। हमारे आदमीजी तो तब परदेश गए रहे।” गाँव में स्त्रियों का यौन-शोषण कोई विरली घटना नहीं है। यह तो एक आम बात है। ‘कसाईबाड़ा’ में ही अधरंगी कितने व्यंग्य के साथ दारोगा से इस ओर इशारा करता है, “कितनी शनिचरियों के लूप लगवाओगे दारोगा साहेब, जब तक परधानजी की जवानी गरम है। लूप लगवाना है तो परधान के लगवाओ।” मौका मिलते ही नजदीकी कस्बों व शहरों के लोग भी गाँव की स्त्रियों का यौन-शोषण करने से बाज नहीं आते। ‘अकाल-दंड’ कहानी में जब सूखे से पीड़ित गाँव की स्त्रियाँ रोजी के अभाव में शहरी अफसरों, डॉक्टरों, कर्मचारियों या सेठों के घरों में जाकर काम करने लगती हैं, तब जो होता है उसकी ओर बड़ा ही व्यंग्यात्मक संकेत किया है शिवमूर्ति ने, ‘उस दिन पानी के टैंकर का ड्राइवर कह रहा था – जनम के रंड़ुवे भी फेमिली वाले बन गए इस सूखे में।’  इस पर अपना यौन-शोषण न होने देने के प्रति सजग सुरजी की प्रतिक्रिया देखिए, ‘ई का हो रहा है – सुरजी सोचती है। बाढ़ में नहीं सूखे में ‘बहने’ लगा है गाँव।’     

            निरक्षरता शोषण का एक अन्य बड़ा कारण है। इस देश के गामीण क्षेत्रों में एक लम्बे समय से निरक्षर आदिवासियों व दलित वर्ग के लोगों की जमीनें पढ़े-लिखे समाज के लोगों द्वारा छोटे-छोटे प्रलोभन दिखाकर हथियायी जाती रही हैं। देश की आजादी के बाद शासक-वर्ग की सांठ-गांठ से यह सिलसिला और तेजी पकड़ गया है। कसाईबाड़ा कहानी में लीडरजी गरीब शनिचरी को अनशन पर बिठाकर परधान से भिड़ा देता है। वह जानता है कि परधान शनिचरी को नहीं छोड़ेगा। वह उसकी शिकायत मुख्यमंत्री को लिखकर देने का बहाना बनाकर उसकी जमीन भी अपने नाम लिखा लेता है। अनपढ़ शनिचरी हर तरफ से शोषण का शिकार होती है। पहले परधान उसका यौन-शोषण करता है। फिर वह बेटी गँवाती है। लीडरजी उसकी प्रतिरोध की भावना का राजनीतिक शोषण करता है। वह अपनी जमीन गँवा बैठती है और अंत में जान भी। इस सबकी जड़ में उसका गरीब व अनपढ़ होना ही है। शिवमूर्ति ने उसकी जमीन को धोखे से अपने नाम लिखवा लेने वाले की लीडरजी की कारस्तानी को इस संवाद में बखूबी चित्रित किया है;

“ई तौ कचहरी वाला कागद है बेटवा, ऊपर की ओर रुपैया जैसी छापी बनी है।”
“मुख्यमंत्री के पास तो वाटर मार्क वाली दरखास्त ही जाती है काकी, बिना कोर्ट और टिकट वाली दरखास्त की कोई बैलू नहीं।”
“कुछ लिखौ नाहीं है। कोरा कागद।”
“इसमें मशीन से टाइप करवाकर लिखना होगा। हाथ की लिखाई नहीं चलेगी।”
शनिचरी अँगूठा-निशान देती है।

            जातीय ऊँच-नीच भारतीय समाज का सबसे बड़ा अभिशाप है। वर्ण-भेद कर्मणा है, यह बताने-समझाने वाली ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने जोड़ा इसे हमेशा जन्म से ही है। यह वह व्यवस्था है, जो जन्म से ही आपका कर्म-क्षेत्र, आपके गुण-दोष, आपका सामाजिक स्तर, आपकी आचरण नियमावली व आपका भविष्य तय कर देती है। शिवमूर्ति जब अकाल-दंड कहानी में रंगी बाबू नामक दबंग के मुँह से अपनी इज्जत बचाने के लिए प्रतिरोधशील सुरजी के बारे में यह कहलवाते हैं, तो वे इसी विदंबना की ओर इशारा कर रहे होते हैं, “नीच जाति है तो दूध की धोई होने का सवाल ही नहीं पैदा होता। ये तो पेट से छल-छंद लेकर उपजती हैं। कानून-व्यवस्था की लचर हालत के कारण हमारे गाँवों में दबंगों का साम्राज्य स्थापित है। कोई उनके खिलाफ मुँह नहीं खोल सकता है। उनके विरुद्ध किसी में प्रतिरोध करने की हिम्मत नहीं। अकाल-दंड कहानी में प्रतिरोध करती सुरजी भी अंततः गाँव के दबंग रंगी बाबू से डरकर उसकी चाल का शिकार हो जाती है। जो सुरजी सिकरेटरी की काम-पिपासा भाँपकर उसकी हर हरकत का मुँहतोड़ जवाब देती है, वह इस दबंग के कहने पर बस यही सोच पाती है, ‘क्या कहे सुरजी (रंगी बाबू से)। मना भी कर दे तो यह जल्लाद रात-ब-रात उठवा सकता है अपने आदमियों से। अभी तो ‘मनई धारन’ बोल रहा है। तब न जाने क्या गत बनाए। चीख-पुकार करने पर भी इसके मुकाबले कोई नहीं आने वाला। “आपकी छाया है तो हमें कौनो चिंता नहीं है बाबू साहेब। जब कहौ, जहाँ कहौ बयान दै देई। अंगूठा लगाय देई।”

            भारतीय समाज में नारी हमेशा से अबला मानी गई है। आंचल में है दूध और आँखों में पानी की भावना में स्थिरप्रज्ञ हमारे समाज में नारी हमेशा ही शोषण, अत्याचार, अन्याय व प्रताड़ना का शिकार होती रही है। भारतीय घर में सबसे दयनीय स्थिति होती है बहू की। उसकी यह स्थिति अमीरी और गरीबी के भेद से परे है। शिवमूर्ति ने ‘’तिरिया चरित्तर कहानी में बहू की इस दुर्गति को बहुत ही मार्मिक ढंग से रेखांकित किया है। विसराम जब बिना बेटे को घर बुलाए अपनी पतोहू विमली का गौना करा लाता है और उसके साथ ही अपनी झोपड़ी में रहने लगता है, तो उस समय विमली की हालत बड़ी दयनीय हो उठती है, ‘पतोहू कुछ बोलती ही न थी। एकदम गूँगी। बोलती थीं उसकी आँखें। टुकुर-टुकुर ताकती हुई उतरा मुँह! थका चेहरा! कसाई की गाय!’ विमली ससुर की कामुक करकतों का विरोध करती है तो वह उसे जली-कटी सुनाता है; “मेला देखेगी? जलेबी खाएगी? गंगा असनान करेगी?” वह विमली की कोमल भावनाओं पर तीखा आघात करता है, “डरेवरवा की दारू महकती है और मेरी गंधाती है? नाक बंद करती है? क्या-क्या बंद करेगी?” प्रायः जिस प्रकार की गाली-गलौज भरी भाषा में सामान्यतः गाँव-घर में बातें होती हैं, वह लेखन की भद्र परंपरा में दबी ही रहती है। किन्तु शिवमूर्ति जो कुछ जैसा है, वैसा ही कहने में विश्वास रखते हैं। इसीलिए जब विसराम पतोहू को कातिक की कुतिया कहकर गरियाता है तो हमें उनकी अभिव्यक्ति बड़ी स्वाभाविक लगती है, “मुझसे बोलने मे भी पाप लग रहा है रे? तिरिया चरित्तर फैलाने से जान बचेगी? साली! कातिक की कुतिया!” पतोहू सब कुछ चुपचाप सहती है। बस किसी तरह अपनी इज्जत बचाए रखने का प्रयत्न करती है। उसे पता है कि गाँव का समाज या पंचायत उसका साथ नहीं देगी। वह उल्टे उसी की बेइज्जती करेगी। शिवमूर्ति पतोहू की इस मनोदशा का वर्णन बड़े ही अनुभव-संपन्न तरीके से करते हैं, ‘एक रात – एक जुग। किसी से कहे भी तो क्या? क्या करेगा कोई सुनकर हँसने के सिवा? भरी पंचायत में खड़ा होना पड़ेगा अलग। और ऐसे-ऐसे नंगा कर देने वाले सवाल पंचायत के चौधरी लोग, रस ले-लेकर पूछते हैं कि …… उसे खूब पता है। नैहर तक बदनामी अलग से। …… बप्पा और ‘आदमी’ की राह देखती विमली।’
स्त्री का यौन-शोषण होना और प्रतिरोध किए जाने पर उसके ऊपर शारीरिक व मानसिक अत्याचार किया जाना, यह हमारे पुरुष-प्रधान भारतीय समाज की सामान्य प्रवृत्ति है। वैदिक व पौराणिक बातों का हवाला देकर अतीत में नारी की स्थिति भिन्न होने के कितने ही दावे किए जाएं तथा नारी-मुक्ति के वर्तमान में गढ़े जा रहे नारों को कितना ही उछाला जाय, हमारे समाज की इस मानसिकता में कहीं कोई परिवर्तन आता नहीं दिखता। यहाँ नारी-समाज को नीचे झुकाने के लिए नित्य नैतिकता के नए पैमाने गढ़े जाते हैं, बहू-बेटियों के लिए रोज एक नई आचरण-संहिता रची जाती है और पुरुषों से कहीं कोई प्रश्न पूछने वाला नहीं है। यही वह माहौल है जो तिरिया चरित्तर कहानी में पंचायत से निरपराध पतोहू को माथे पर दागे जाने की सजा दिलवाता है, ‘बदले जमाने में सोहाग से दगा की सजा है, सोहाग की निशानी, बिन्दी-टिकुली लगाने की जगह, बीचोबीच माथे पर दगनी। जिन्दगी भर के लिए कलंक-टीका।’ यह सजा उसे पुरुष-समाज द्वारा एक राक्षसी उल्लास के साथ दी जाती है, ‘थोड़ी देर में हाथ-पैर चलाती पतोहू को सब बकरी की तरह गोद में उठाए हुए लाते हैं और बीच में बैठा देते हैं। कितनी मुलायम देह है – गुदगुदा मांस! दाब के बैठो। फिर न भागे।’ छल और अत्याचार की शिकार बहू की कातरता व उस पर ज़ुल्म ढा रहे लोगों की घृणित मानसिकता का जैसा वर्णन शिवमूर्ति ने यहाँ किया है, वह अद्भुत है, हृदय-स्पर्शी है और भयावह है, ‘जो जहाँ पकड़े है, वहीं मांसलता का आनन्द ले लेना चाहता है। नोचते-कचोटते, खींचते, दबाते हाथ। पतोहू जिबह होती गाय की तरह ‘अल्लाने’ लगती है। सोने वाले बच्चे जमकर रोने लगते हैं। जगे हुए बच्चे डरकर घर की तरफ भाग चले हैं।’  यह सारे प्रतिरोध की विफलता की स्थिति है। सारे संघर्षों की परिणति पराजय में होने का भाव है। समाज के पतन की ओर अग्रसर होने की भयावह त्रासदी है। निश्चित ही यह वह अधःपतन है, जिसे हम सब देखते हुए भी अनदेखा करते चले जा रहे हैं, ‘छन्न! कलछुल खाल से छूते ही पतोहू का चीत्कार कलेजा फाड़ देता है। कूदती लोथ! मांस जलने की चिरायंध! चीत्कार सुनकर एकाध कुत्ते भौंकते हैं, एकाध रोने लगते हैं। चीखते-चीखते बेहोश हो गई पतोहू! लोग पीछे हटते हैं।’ इस प्रकार ‘तिरिया चरित्तर’ कहानी के इस अंतिम अंश में शिवमूर्ति हमें एक शर्मसार कर देने वाले यथार्थ की दुनिया में ले जाते हैं, लेकिन विडंबना यही है कि शर्म कहीं बची हो, तब न।

शिवमूर्ति की कहानियाँ मुख्यतः स्त्री-विमर्श की कहानियाँ हैं, किन्तु उनके स्त्री-विमर्श के केन्द्र में आज की पढ़ी-लिखी, जागरूक, पुरुष समाज से बराबरी का दर्जा पाने के लिए प्रतिस्पर्धा करती, सामाजिक व बौद्धिक स्तर पर अपनी अस्मिता की रक्षा करने के लिए आर्थिक व राजनीतिक ताकत जुटाती, अपने यौनिक अधिकारों के लिए सतर्क, भद्र-लोक की नारी नहीं है। उनका स्त्री-विमर्श समाज की उन निम्नवर्गीय औरतों के शारीरिक व आत्मीय सौन्दर्य, दैहिक ताप व उत्पीड़न, जिजीविषा, प्रतिरोध, राग-द्वेष, पारिवारिक क्लेश आदि पर केन्द्रित है, जो दूर-दराज के गाँवों में घर-जवार की सीमाओं में कैद होकर अपना जीवन गुजार रही हैं। यहाँ लक्ष्य बड़े नहीं हैं, किन्तु आशय बड़े हैं। यहाँ अन्याय व शोषण के खिलाफ प्रतिरोध का दायरा व्यापक नहीं है, किन्तु उसमें अद्भुत गहराई है। यहाँ शक्ति के संचयन, सुनिश्चित संघर्ष और जीत हासिल करने का कोई रोडमैप नहीं है, किन्तु ये आख्यान अनुभूति की गहराई, अभिव्यक्ति की उन्मुक्तता, प्रतिवाद की तीक्ष्णता व यथार्थ के सत्यापन से ओत-प्रोत हैं। इनमें फैन्टेसी से गुजरती हुई अथवा प्रतीकात्मक आदर्शवाद के सहारे स्थापित मान्यताओं की उलट-पलट करती हुई नायिकाएं नहीं हैं। इनमें तो अनपढ़, गरीब, विस्थापित, बाल-व्याहिता, श्रमिक, शोषित व उपेक्षित वर्ग की साधारण स्त्रियों का जिन्दगीनामा है, जिसमें न हार की फिक्र है, न जीत की, बस संघर्ष ही संघर्ष है, वेदना ही वेदना है।

**********




Wednesday, October 17, 2012

अखिलेश की कहानियों में राजनीतिक विमर्श (लेख) - 'समकालीन सरोकार' में पूर्वप्रकाशित

काश, मेरे किस्से सच होते!” – कथाकार अखिलेश की हालिया कहानीश्रंखलाका यह अंतिम वाक्य शायद उस निराशा की भावना की सटीक अनुगूँज है, जो वर्तमान में हर क्रांतिदर्शी वामपंथी सोच वाले, सर्वहारा की लड़ाई की इच्छा रखने वाले तथा जातीयता व भ्रष्टाचार से रहित सामाजिक व राजनीतिक व्यवस्था की कल्पना करने वाले भारतीय के भीतर व्याप्त है। पिछले वर्ष उनकी यह कहानी एक धमाके की तरह आई और शीघ्र ही उनकी सर्वाधिक चर्चित कहानियों में से एक बन गई। इसमें अत्तित में संकल्पित अथवा भविष्य में संभावित जन-क्रांति एक यूटोपिया की तरह प्रकट होती है, जो वास्तव में एक छलावा है, झूठा सुख है, भ्रामक संतुष्टि है। नया ज्ञानोदयमें छपी इस कहानी के बारे में उसके सम्पादक रवीन्द्र कालिया ने तो यहाँ तक कह दिया कि अखिलेश के अन्दर कुछ चमत्कारिक अन्तर्दृष्टि लगती है जो उन्होंने अन्ना हजारे के जनलोकपाल आंदोलन का अनशन शुरू होने से पहले ही कुछ उसी प्रकार के एक अनशन को अपनी इस कहानी के कल्पना-लोक में लाकर खड़ा कर दिया। हालाँकि मुझे अखिलेश की कहानी के रतन के धरने और अन्ना या रामदेव के धरनों में ज़मीन-आसमान का अंतर लगता है। जहाँ अन्ना या रामदेव के धरने विपक्ष की राजनीति से प्रेरित लगते हैं और केवल भ्रष्टाचार को रोकने से जुड़े एक आंदोलन के हिस्से हैं, वहीं अखिलेश के रतन का धरना दमन और अत्याचार के विरोध में अकेले लड़ी जाने वाली एक लड़ाई का हिस्सा है। वास्तव में अखिलेश की तमाम कहानियाँ ऐसी हैं, जिन्हें पढ़ते हुए हमें उनकी प्रखर राजनीतिक चेतना व सोच का अवबोध होता है। अखिलेश की अधिकांश कहानियों में राजनीतिक गंदगी व महत्वाकांक्षाओं से भरा कोई न कोई पात्र जरूर होता है, जिसके माध्यम से वर्तमान भारतीय, विशेष कर उत्तर भारत की राजनीति के विद्रूपों की वे बारीकी से बखिया उधेड़ते हैं और देश की सड़ियल व्यवस्था को हमारे सामने नंगा करके खड़ा कर देते हैं। विकल्प ज्यादा हैं नहीं, सो वे विकल्प की ओर नहीं जाते। किन्तु अपने भाषायी चातुर्य, विलक्षण वर्णन-शैली तथा व्यंग्यपूर्ण एवं खिलंदड़ेपन से भरे शब्द-जाल के माध्यम से वे पाठकों को अपनी कहानी में पूरी तरह से जकड़ लेते हैं और उन्हें विद्रूपों के प्रति सोचने के लिए विवश कर देते हैं।

अखिलेश के कहानी-संग्रहों शापग्रस्त तथा अँधेरा की कहानियाँ पिछले दशक की हिन्दी-साहित्य की सबसे चर्चित कहानियों में रही हैं और यहाँ पर उनके राजनीतिक विमर्श से संबन्धित जो भी बात रखी जा रही है, वह मुख्यतः इन्हीं दो संग्रहों की कहानियों तथा उनकी हालिया कहानी श्रंखलापर आधारित है। इन दो संग्रहों में अखिलेश की राजनीतिक विमर्श वाली प्रमुख कहानियाँ हैं बायोडाटा, ऊसर, चिट्ठी, यक्षगान एवं ग्रहण। इनमें छात्र-राजनीति से लेकर उच्च स्तर तक की राजनीति में व्याप्त विसंगतियों, भ्रष्टाचार, दोगलेपन, उच्छ्रंखलता, अन्तर्कलह आदि पर सीधी चोट की गई है। उन्होंने आधुनिक व तथाकथित विकासशील भारत की राजनीति की जो चीर-फाड़ की है, उससे उसका असली वीभत्सतापूर्ण चेहरा हमारे सामने आ जाता है। अखिलेश की कहानियों में अन्य विषयों व समस्याओं का, विशेष रूप से सुख, दुःख, प्रेम जैसे मनोभावों का भी इसी प्रकार की बारीकी व रोचक शैली में प्रतिपादन हुआ है, किन्तु राजनीतिक विमर्श के मामले में वे बेजोड़ हैं।

अखिलेश की कहानियों में जिस बात का मैं सबसे ज्यादा कायल हूँ, वह है उनकी वर्णन-शैली। वे जिस भी बिम्ब को गढ़ते हैं, उसे उलट-पुलट कर उसके हर पहलू को विश्लेषित करते हैं। वे विचित्र-विचित्र कथा-पात्र हमारे सामने लाते हैं। मसलन, ‘शापग्रस्त’ का सुख-दुःख की अनुभूतियों से रहित एवं फिश्चुला जैसे कष्टकारी रोग पर फख़्र करने वाला प्रमोद वर्मा, चिट्ठी’ के पात्र त्रिलोकी, रघुराज व मंडली के अन्य सदस्य, ‘बायोडाटा’ का नेता बनने को आतुर राजदेव, ‘पाताल’ का नपुंसक मंदबुद्धि प्रेमनाथ, ‘ऊसर’ का महत्वाकांक्षी नेता चन्द्रप्रकाश श्रीवास्तव, ‘जलडमरूमध्य’ के डिप्रेशन के शिकार व रोना भूल चुके सहाय जी,  ‘वजूद’ का डरपोक रामबदल, उसका बगावती बेटा जयप्रकाश तथा अत्याचारी बैद पंडित केसरीनाथ, ‘यक्षगान’ का धोखेबाज पति छैलबिहारी, स्वार्थी कामरेड श्याम नारायण तथा चालाक महिला नेता सरोज यादव, ‘ग्रहण’ का गरीब विपद राम तथा उसका बिना गुद्दे का पेटहगना बेटा राजकुमार, ‘अँधेरा’ का दंगे से आतंकित प्रेमी प्रेमरंजन, ‘श्रंखला’ का विद्रोही स्तम्भलेखक रतन कुमार आदि। यह दरशाता है कि अखिलेश के भीतर समाज में हाशिए पर अलग-थलग पड़े निकृष्टतम जीवन भोग रहे इनसानों के बारे में प्रबल चिन्ता है। अखिलेश की दूसरी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे किसी भी बात का गंभीरता व बेबाकी से विवेचन करते-करते उसे अचानक एक अद्भुत व्यंग्य-भरे हल्के-फुल्के विनोदात्मक स्तर पर ले आते हैं, जो उनकी बात को बड़ा ही रोचक बना देता है और उनकी प्रभावात्मकता चमत्कारिक हो उठती है। अखिलेश अपने निजी जीवन में भी ऐसे ही हैं। धीर-गंभीर लेकिन सदैव मुस्कराहट व विनोद से भरे हुए। उनसे मेरी पहली मुलाकात लगभग पन्द्रह वर्ष पहले हुई थी, लेकिन तबसे लेकर आज तक, मैं चाहे जहाँ रहा होऊँ, न मेरा उनसे कभी बिलगाव हो पाया है, न उनकी कहानियों से।

    बात अखिलेश की सर्वाधिक चर्चित कहानी चिट्ठी से ही शुरू करनी चाहिए। इसमें विश्वविद्यालय के मेधावी उत्साही छात्रों की एक मंडली है जो मध्यवर्गीय परिवारों से आती है, तथा प्रगतिशील विचारों की पोषक है। बाहरी तौर पर ये सब उद्दंड, मनचले और मसखरे लगते हैं, लेकिन भीतर से वे प्रगतिशील तथा विद्रोही हैं। विश्वविद्यालय की राजनीति में परिवर्तन लाने के लिए उनका संगठन भी अध्यक्ष पद के चुनाव के लिए अपना प्रत्याशी उतारता है, लेकिन वह बुरी तरह से हार जाता है। अखिलेश लल्ला की दूकान पर इस मंडली से हार की समीक्षा कराते दिखते है, - आज़ादी के बाद इस विश्वविद्यालय के छात्र-संघ का इतिहास रहा है कि अध्यक्ष की कुर्सी पर किसी ठाकुर या ब्राह्मण ने ही पादा है और प्रकाशन मंत्री की कुर्सी कोई हिजड़ा-भड़वा टाइप का ही आदमी गँधवाता रहा है। अध्यक्ष विगत अनेक वर्षों से भारतीय राजनीति के एक धुर कूटनीतिक बहुखंडी जी की उँगलियों और आँखों की संगीत, चित्रकला और भाषा को तत्क्षण समझ लेने वाला होता रहा है। इसके मूल में छिपा रहस्य यह है कि बहुखंडी जी पहले इस बात का जायजा लेते हैं कौन दो सबसे वरिष्ठ प्रतिद्वन्द्वी हैं। फिर उनका कुबेर दोनों को समृद्ध करता है। यहाँ अखिलेश कितनी बेबाकी से, या कह लें, घृणात्मक पुट वाली भाषा में भारत की छात्र-राजनीति की प्रजातांत्रिक प्रक्रिया का वह विकृत चेहरा उजागर करते हैं, जो सिर्फ कॉलेजों व विश्वविद्यालयों के चुनावों को ही नहीं, स्थानीय निकायों, विधान-सभाओं व संसदीय चुनावों तक में इसी प्रकार के जातिवादी-व्यवहार व धन-बल के चलते हमारी समूची लोकतांत्रिक प्रणाली को ही मूल्यहीन व प्रतिगामी बना रहा है। अखिलेश इस प्रक्रिया पर आगे और भी तगड़ी चुटकी लेते हैं, - चुनाव की पिछली रात जनेऊ घूम गया। बहुखंडी जी का प्रत्याशी इस बार ब्राह्मण था। मशाल जुलूस निकालने के बाद वह सभी छात्रावासों में गया और अपनी जाति के लोगों की मीटिंग कर पानी भरने की रस्सी जितनी मोटी जनेऊ निकालकर गिड़गिड़ाया, जनेऊ की लाज रखो। और हम हार गए।चिट्ठी की यह मंडली अखिलेश के छात्र-जीवन की वामपंथी चेतना से भरी अपनी खुद की वास्तविक मंडली लगती है। सजग, प्रतिबद्ध, प्रतिरोध के लिए कटिबद्ध, किन्तु भविष्य के प्रति सशंकित एवं नौकरी न मिल पाने के आसन्न भय से चिन्तित एवं निराश इस मंडली का रूप देखिए, - हम पोस्टर चिपकाते। नारे लगाते। हम जुलूसों में होते, सभाओं में होते, हड़तालों में होते। हम पुलिस और गुप्तचरी के रजिस्टर में दर्ज़ थे। सचमुच हम पढ़ाकू और लड़ाकू थे। हम गर्म तन्दूर पर पक रही रोटियाँ थे। लेकिन हम ऊपर उड़ते गैस-भरे रंग-बिरंगे गुब्बारों की तरह थे। हम उड़ रहे थे … हम उड़ रहे थे … उड़ते-उड़ते हम ऐसे वायुमंडल में पहुँचे जहाँ हम फूट गए। अब हम नीचे की ओर गिर रहे थे। अपना संतुलन खोए हम नीचे की ओर गिर रहे थे। हमारा क्या होगा, हमें पता नहीं था …। हमें नौकरी मिल नहीं रहा थी जबकि वह हमारे लिए साँस थी इस वक़्त।

अखिलेश की बायोडाटा कहानी एक विशुद्ध राजनीतिक विमर्श की कहानी है, जिसमें इसका मुख्य पात्र राजदेव राजनीतिक पदों पर विराजमान होने के लिए घर-परिवार, पत्नी-बच्चा, प्रेम व रिश्ते-नाते सब कुछ दांव पर लगा देने को आतुर है । वह पत्नी को प्यार करता है तो राजनीतिक फायदा देखकर, उसकी उपेक्षा करता है, तो भी उससे राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश करता है, वह दिखावटी प्रेम प्रदर्शित करता है ताकि उसकी राजनीतिक साख न गिर जाय। यदि उसके भीतर कभी अपनी पत्नी तथा परिवार की उपेक्षा के प्रति कोई आत्मग्लानि पैदा भी होती है तो वह बस क्षणिक ही होती है। उसकी राजनीतिक समझ बचकानी भले ही लगे, किन्तु यह भारतीय राजनीति के गिरते हुए स्तर की एक कड़वी सचाई है। अखिलेश राजदेव की इस सोच का बयान करते-करते देश की राजनीति के पूरे यथार्थ को हमारे सामने उघाड़कर रख देते हैं, - वह दृढ़प्रतिज्ञ था कि उसे नेतागीरी करनी है क्योंकि उसने जान लिया था कि सुख की सर्वोत्तम मलाई राजनीति के दूध में पड़ती है।  पहुँचे हुए नेता हो, तो चोरी कराओ, स्मगलिंग कराओ, कत्ल कराओ कोई बाल-बाँका नहीं कर सकता। बलात्कार करो, रंडीबाजी करो, प्यार करो या वासना, दारू पियो, क़ानून की ऐसी-तैसी कर दो, कोई खौफ़ नहीं। पुलिस, पी. एस. सी. हो, हाकिम-हुक्काम हों, डाकू-बदमाश हो - सब हाथ जोड़े मिलेंगे। ईश्वर की अनुकंपा से माल-पानी की कमी नहीं। इंजीनियर वग़ैरह का ट्रांसफर करा दो तो चाँदी। रुकवाओ, तो चाँदी। चुनाव का पैसा है उसमें खसोट लो। सूखा-बाढ़ का पैसा है, उसे हड़प लो। यहाँ भौजाई से जुआँ खोजवाने में लात खानी पड़ी, वहाँ सैकड़ों हँसीनाएँ हासिल हो जाएँ। चाहे जितने गुलछर्रे उड़ाओ, कोई चूँ-चपड़ करने वाला नहीं है। ऊपर से फ़ायदा कि पब्लिक में दबदबा भी। हमेशा जय-जयकार होती रहे। काम कुछ खास नहीं। बस, कुर्ता-पाजामा पहन लो और मौका पड़ने पर भाषण झाड़ दो।  

अखिलेश का यह कथा-पात्र राजदेव अपने भाग्य-निर्माता मोती सिंह की चापलूसी करके सब कुछ हासिल कर लेना चाहता है। वह मानता है कि सब कुछ पार्टी के बड़े नेताओं को खुश करके ही हासिल होता है। जैसा कि आज के नेताओं की आम प्रवृत्ति है, वह लूट-खसोट की पूरी योजना बना बैठा है। उसे पत्नी का गर्भवती हो जाना तथा ऊपर से बीमार भी हो जाना अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा पूरी होने के रास्ते में एक बड़े व्यवधान की तरह लगता है। जैसे उसकी पत्नी आसानी से खुश हो जाती है, वैसे ही वह चाहता है कि पार्टी के नेता भी खुश हो जाया करें ताकि उसे खुली लूट के मौके हासिल होते रहें, - ऐसे ही अगर पार्टी के आला नेता ख़ुश हो जाते तो मज़ा आ जाता। बस वे चुटकी बजाएँ, तो मुझको लाल बत्ती वाली कार मिल जाए। अर्दली और अंगरक्षक भी ससुरे सेवा रहें … कौन ठीक, प्रदेश सचिव बनने के बाद मिनिस्टरी न सही, जल्दी निगम की चेयरमैनी ही अपने तम्बू के नीचे आ जाए। तब भी तो लालबत्ती, बँगला, फ़ोन वग़ैरह का बंदोबस्त पक्का समझो। खसोट लूँ सब रुपया। हड़पकर कंगाल कर दूँगा निगम। किसी दूसरे नेता का जाने का मन नहीं होगा फिर उस कुर्सी पर … जो भी हो, मोती सिंह की कृपा से भविष्य उज्ज्वल दिखाई दे रहा है। …… वह बरस पड़ा, आखिर इतनी जल्दी प्रेगनेंट होने की क्या जरूरत थी और अगर भूल से चूक हो भी गई तो बीमार होने की क्या जरूरत?

राजनेताओं का व्यवहार कितना लंपट हो सकता है, अखिलेश इसका हवाला भी नेता बनने के बाद राजदेव द्वारा जो हवाई जहाज़ या रेल की यात्राएँ की जाएँगी, उनके बारे में उसकी सोच को व्यक्त करते समय बड़े ही खिलंदड़े अंदाज़ में देते हैं, - अर्र … राजा, जहाज़ से उड़ूँगा … एअर होस्टेस पर नज़रें गड़ाऊँगा तो हटाने का नाम नहीं लूँगा। ए. सी. डिब्बे में कोई हुस्न की मलका रही तो आँख सेंकते हुए रास्ता गुजार दूँगा। राजदेव मोती सिंह के सामने अपने को प्रदेश सचिव बनवा देने की गुहार लगाता है। मोती सिंह उस पर अपनी कृपा मुफ़्त में तो कर नहीं सकते। दूसरे नेताओं का ख्याल भी रखना है। अखिलेश की इस कहानी का यह अंश किसी भी राजनीतिक पार्टी के छोटे-बड़े नेताओं के बीच के इन स्वार्थपूर्ण अन्तर्सम्बन्धों  का पूरा कच्चा-चिट्ठा खोलकर रख देता है। मोती सिंह उसे जो तरीका समझाता है, वह अखिलेश की ठेठ बोल-चाल की भाषा में सनकर भारत की राजनीति में आज सर्वत्र अपनाए जाने वाले किसी घटिया फार्मूले की तरह सामने आता है, - राजदेव गिड़गिड़ाया तो मोती सिंह बोले, ज्यादा डायलागबाजी न झाड़ो। जाओ कुछ माल-पानी का जुगाड़ फिट करो। दिल्ली में हफ्ता-दस दिन रहना पड़ेगा। साम-दाम-दंड-भेद से सबकी लेंड़ी तर करनी होगी। तब ठुकेंगी तुम्हारी प्रदेश सचिवल्ली की नियुक्ति पर पक्की मुहर।

नेता बनने के बाद हमारे जनप्रतिनिधि प्रजातंत्र के लिए किस प्रकार से कलंक बन जाते हैं, इसका सटीक ब्यौरा उन बातों में हैं, जिन्हें अखिलेश राजदेव की सोच और भावी योजना की अभिव्यक्ति के माध्यम से इस कहानी में आगे उद्घाटित करते हैं, - प्रदेश सचिव बनने के बाद चुनाव की तैयारी करनी है, यानी कि धनधान्य इकट्ठा करना है और असलहे। गुंडों-बदमाशों की लम्बी फ़ौज खड़ी करूँगा। सब बूथों पर क़ब्ज़ा करवा लो, किला फ़तेह। बहुत हुआ, मुक़दमा ठुका। वहाँ भी कौन इनसाफ़ है? हो भी क्या फ़र्क़! फैसले तक तो अगला इलेक्शन आ जाएगा।जनता के ये प्रतिनिधि मंत्री बन जाने के बाद और भी ज्यादा चालाक व कांइये बन जाते हैं। वे किस प्रकार से जनता से नज़रे चुराकर गुलछर्रे उड़ाते हैं, कालाधन इकट्ठा करते हैं और उसे विदेशी बैंक-खातों में छिपाकर जमा करते हैं, इसका साफ-साफ खुलासा करता है अपनी सोच में राजदेव, - यदि मैं मंत्री बन गया तो फिर क्या कहने, अपने क्षेत्र में योगी-मुनि रहूँगा, पर बड़े-बड़े शहरों में ऐयाशी का नंगा नाच खेलूँगा। मेरी प्रेम तथा वासना की जो नदिया सूख चली है फिर भर जाएगी। अच्छा, मैं अपनी ब्लैक मनी छिपाऊँगा कैसे? फैक्टरियों में, विदेशी बैंकों में, फिर भी इफ़रात हुआ तो राजनीतिक भ्रष्टाचार विरोधी फ़िल्मों का निर्माता हो जाऊँगा ……। लेकिन अखिलेश यहीं पर इस प्रकार की नीच राजनीतिक महत्वाकांक्षा से भरे राजदेव के भीतर चल रहे अन्तर्द्वन्द्व को भी उभारते हैं। यदि कहीं मनचाहे तरीके से चीजें न घटित हुईं तो! नेता शायद यही सोचकर अपनी हत्वाकांक्षा की लगाम कसकर अपनी कल्पनाओं के घोड़ों को खुद ही थामता है, - उसने अपने सिर पर चपत लगाई, पंडित राजदेव, ज्यादा न उड़ो अभी। पहले प्रदेश सचिवल्ली पद पा लो, फिर डेमोक्रेसी पर आग मूतना। उसने निश्चय किया, हाँ, तभी वह डेमोक्रेसी पर आग मूतेगा।

राजनीतिक स्वार्थ इनसान को किस कदर भावनाशून्य, निर्मम और असहिष्णु बना देता है, इसका उत्तम उदाहरण है राजदेव का चरित्र। राजनीति का चस्का जब लगता है तो वह व्यक्ति के रोम-रोम में ऐसे छा जाता है कि उसकी सारी इन्द्रियाँ केवल अधिकार-मोह एवं पद-लिप्सा की अनुभूतियों को ही महसूस कर पाती हैं, बाकी अनुभूतियां बस क्षण भर को आती हैं, और फिर ऐसे विलीन हो जाती हैं, जैसे कहीं कुछ हुआ ही न हो। राजदेव के मन में प्रेम, संबन्ध, करुणा, दया आदि सारे भाव इसी क्षणिक उद्विग्नता के साथ प्रकट होते हैं और फिर पानी के बुलबुलों की भाँति शीघ्र ही फूटकर हवा में विलीन हो जाते हैं, तथा वहाँ बची रहती है बस राजनीतिक स्वार्थ को पूरा करने की कुटिल चेष्टा या फिर शायद किञ्चित वासना की पूर्ति की इच्छा, जो राजदेव में बचपन से विद्यमान है। अखिलेश ने ‘बायोडाटा’ कहानी में राजनीति की भूख के इस मनोशास्त्र को बड़े ही प्रभावी तरीके से प्रतिपादित किया है। मनोशास्त्रीय दृष्टिकोण से देखा जाय तो राजनीति की भूख मन में वासना की भूख के समानान्तर ही चलती रहती है। ये दोनों ही भूखें राजदेव के भीतर प्रारम्भ से ही मौजूद हैं, ‘अजीब दशा थी अभागे राजदेव मिश्र की। कुँवारा था, क्या हुआ, प्रेम एवं वासना की बिलकुल निर्धनता नहीं थी। इन निधियों से ठसाठस था वह। लेकिन शरीर पर नेता का बाना था और आत्मा में राजनीतिक तरक़्क़ी की दरकार। नतीजतन वह अपनी प्रेम एवं वासना की सम्पदा का विनिमय करने में असमर्थ था।’ उसकी राजनीतिक भूख का जिक्र पहले ही हो चुका है। उसकी वासना की भूख के शुरुआती अव्यक्त रूप का जिक्र भी अखिलेश ने देवर-भाभी के बीच घटित हुए इस वाकए में बड़ी रोचकता से किया है, ‘उसे लगा, भाभी उस पर फ़िदा हैं और एक दिन भाई के ऑफ़िस जाते ही भाभी की गोद में लुढ़क पड़ा। “ये क्या हरकत है?” भाभी आग-बबूला। वह बहाना करने लगा, “मेरे सिर में जुआँ पड़ा है, खोज दो।” “जब तुम्हारी मेहरी आ जाएगी तो उसी से जुआँ-चीलर खोजवाना।” भाभी ने ऐसा धक्का दिया कि राजदेव मिश्र ढहकर नीचे आ गया। शाम पिता उसे लाठी से मार रहे थे। वे मारते और कहते, “और जुआँ निकलवाओगे सरऊ।”

राजनीति की लिप्सा व्यक्ति में किस प्रकार की नीच प्रवृत्तियों को जन्म देती है, इसका जीता-जागता दस्तावेज़ है ‘बायोडाटा’ कहानी का कथावृत्त। पहले यह लिप्सा विवाह को टालते रहने के लिए प्रेरित करती है। फिर जब वासना की भूख जोर मारने लगती है और राजनीतिक महत्वाकांक्षा पूरी होती नहीं दिखती तो चटपट व्याह का उपक्रम किया जाता है। शादी में दहेज़ नहीं मिलता है तो पत्नी पर अत्याचार करने के बजाय राजदेव इस हकीक़त का राजनीतिक लाभ उठाने में जुट जाता है, ‘राजनीतिक हमजोलियों के बीच उसने घोषणा कर दी, “मैंने दहेज नहीं लिया है और एक ग़रीब लड़की का उद्धार किया है।” ……… वह अपनी इस युक्ति पर गद्गद था और सोच चुका था कि टिकट के लिए अपने बायोडाटा में जोड़ देगा कि उसने विपदा की मारी एक लड़की को बिना दान-दहेज अपना बनाकर सेवा की है।’ राजदेव को एन-केन प्रकारेण राजनीति की ऊँचाइयों तक पहुँचने के लिए एस्केलेटर का काम करने लायक एक बायोडाटा चाहिए। इस बायोडाटा को बेहतर से बेहतर बनाने के लिए उसे त्याग, लगन, ईमानदारी, जन-सेवा आदि के दिखावटी तमगे चाहिए, चाहे वे किसी भी कीमत पर हासिल हों। इसके लिए वह पत्नी, सन्तान, समाज, सभी के साथ कुटिल से कुटिल और निर्मम से निर्मम व्यवहार करने को तैयार है। उसके लिए यह नीच कर्म नहीं, बल्कि एक बड़े लक्ष्य को प्राप्त करने का यत्न भर है।

शादी के बाद राजदेव पर अस्थायी रूप से ही सही, वासना की भूख हावी हो जाती है और वह उसे मिटाने में पूरी आसक्ति के साथ जुट जाता है। अखिलेश इस आसक्ति का बड़ा ही रोचक एवं सहज चित्रण करते हैं, सावित्री पर वह फ़िदा था। एक तो उसके भाग्य से बाउम्मीद था। दूसरे वह छत्तीस वर्षों का एक ऐसा अतृप्त कामुक था, जिसका विवाह हुए आधा साल भी नहीं बीता था। सावित्री की एक-एक अदा उसे फिरकी की तरह नचाती। …… दोस्तों ने घोषणा कर दी, राजदेव की राजनीति बीवी के पेटीकोट में घुस गई।’  बस इन्हीं तानों को सुन-सुनकर उसकी राजनीति की भूख रुस्तम-ए-हिन्द बन जाती है और वह वासना की भूख को पटखनी दे देती है। अखिलेश ने यहाँ पर आकर जैसे इन दोनों भूखों के मनोशास्त्रीय विश्लेषण का निचोड़ प्रस्तुत कर दिया है, उसके हृदय में सूक्ति उठती: ‘हम लोगों के लिए राजनीति जीवनसंगिनी है और जीवनसंगिनी रखैल। जो रखैल को जीवनसंगिनी समझता है, लक्ष्य सदैव उससे दूर रहता है।’ …… वह सावित्री के पास ऐसे आता था जैसे ट्रक ड्राइवर रंडी के पास जाता है।  अब ट्रक-ड्राइवरों का तबका ऐसा लिखने के लिए अखिलेश से नाराज़ हो तो हो, लेकिन प्रेम-विहीन एवं भावना-शून्य वासना की भूख कैसे एक पति-पत्नी के सम्बन्ध को किसी ट्रक-ड्राइवर व वेश्या के बीच के संबन्ध जैसा बना देती है, यह उद्घाटित करने में अखिलेश ने सचमुच एक अप्रतिम लेखकीय कौशल का प्रदर्शन किया है।

राजदेव राजनीतिक महात्वाकांक्षा की वेदी पर पति-पत्नी के संबन्धों तथा पत्नी के प्रति बीच-बीच में उपजने वाले वासना-जन्य मोह की ही बलि नहीं चढ़ाता है, वह पत्नी के गर्भवती होते ही भावी सन्तान के प्रति मन में पैदा होने वाली सारी ममता व वात्सल्य की भी क्रूरता से इतिश्री कर देता है। जैसे ही पत्नी खुशी के भरकर उससे अपने गर्भवती होने की बात बताती है, उसे अपनी राजनीतिक उन्नति का मार्ग अवरुद्ध होता दिखाई देने लगता है। वह राजनीतिक लिप्सा में फँसकर पत्नी को जबरन मायके भेजने पर तुल जाता है। इसके लिए वह धमकी तथा मार-पीट तक पर उतर आता है। अखिलेश ने यहाँ पत्नी का एक बड़ा निरीह सा ख़ाका खींचा है। वह मजबूर तो है ही, किन्तु उसमें प्रतिरोध करने की भी जरा भी ताकत या इच्छा नहीं है। या यह शायद उस यथार्थ का परिचायक है, जो हमारे समाज में व्याप्त है। आज देश में किसी आक्रांता राजनीतिक पुरुष के विरुद्ध प्रतिरोध करने की ताकत अमूमन किसी स्त्री में दिखाई नहीं पड़ती। जब भी कोई स्त्री कहीं ऐसे किसी पुरुष के विरुद्ध प्रतिरोध का थोड़ा सा भी स्वर मुखर करती है, वहीं उसका गला घोंट दिया जाता है, या उसे आत्महत्या करने पर मजबूर कर दिया जाता है या फिर उसे स्थायी रूप से किसी पागलखाने के हवाले कर दिया जाता है। स्त्री की इसी बेचारगी और पुरुष के इसी अहंभाव का प्रभावकारी चित्रण हुआ है अखिलेश की इन पंक्तियों में, राजदेव सोच रहा था, सावित्री अभी उससे लिपटकर फूट-फूट रोएगी। पर उसने केवल अपना सिर पति के बाएँ कंधे पर धीरे से रख दिया और कुतिया की तरह कूँ……कूँ रोने लगी। राजदेव को कुछ न सूझा तो वह स्वामी विवेकानन्द की तरह सीने पर हाथ बाँध खड़ा हो गया और बोला, “चुप रहो … चुप रहो … बच्चे का ख़याल करो … रोते नहीं …” पर सावित्री थी कि कुतिया की तरह कूँ …कूँ रोए जा रही थी। उसकी आँख के कुछ आँसू राजदेव की छाती पर टिकी दाईं हथेली के ऊपरी हिस्से पर इकट्ठा हो गए थे।

अखिलेश ने स्वास्थ्य खराब होने की सूचना देने वाली मायके में रह रही गर्भवती पत्नी की चिट्ठी पाने के बाद राजदेव के भीतर उठने वाले मानसिक अन्तर्द्वन्द्व का जो चित्र बायोडाटा कहानी में खींचा है, वह हमें एक साथ सन्ताप, सहानुभूति, वितृष्णा व घृणा से भर देता है। बेहद चालाकी, मक्कारी, स्वार्थपरता, निर्ममता व नीच मानसिकता से भरे किसी राजनीतिक लिप्सा से ग्रस्त व्यक्ति का इतना सटीक चरित्र सिर्फ अखिलेश जैसा यथार्थ की सूक्ष्म परख रखने वाला कथाकार ही रच सकता है, ‘हालाँकि वह सावित्री के स्वास्थ्य और सन्तान-जन्म की अवहेलना करने में निपुण था, लेकिन दो झंझटें उसे उलझन में डाल देती थीं। एक – बचा-खुचा नैतिक बोध उसे चित्तकर देता कि सावित्री की चिट्ठी पाने के बाद भी दिल्ली जाना नीचता होगी। दो – राजनीति में सब एक-दूसरे के दुश्मन होते हैं। कुत्ते की तरह पोल-पट्टी सूँघने के लिए मारा-मारा फिरते हैं। अब सावित्री या  बच्चे या दोनों को ख़ुदा न खास्ता कुछ हो जाय और वह दिल्ली में रहे, तो इसे हमारे ख़िलाफ हथियार बना लेंगे भाई साहब लोग और कहीं यह लेटर हाथ पड़ जाए … उसका हाथ जेब में चला गया। जेब में जाकर वह थरथराने लगा। वह पत्र को मसलता रहा … मसलता रहा …… अचानक उसे झटके से बाहर निकाला। सड़क के किनारे आया। उसकी चिन्दी-चिन्दी की। ढलान पर फेंका और बिखरे हुए उन कागज़ के टुकड़ों पर मूतने लगा।हमें ऐसे राजनीतिक चरित्र अपने आस-पास के समाज में अक्सर दिख जाते हैं। ऐसे लोग हर संवेदना का मूल्यांकन सिर्फ राजनीतिक नफा-नुकसान देखकर ही करते हैं। राजनीति पर बुरा असर पड़ रहा हो तो वे सगे से सगे व्यक्ति से भी नाता तोड़ लेंगे और राजनीतिक लाभ मिलना हो तो वे सारी कड़वाहट भुलाकर गधे को भी बाप बना लेंगे। राजदेव के भीतर इस प्रकार की दुष्प्रवृत्ति की पराकाष्ठा है, वह मुस्कराया, क्या आइडिया है। साफ मुकर जाएगा। कहेगा कि उसे तो कोई पत्र मिला ही नहीं। उल्टे खुद तोहमत लगाएगा, मेरी तुम्हें परवाह नहीं …। वह तृप्त और उल्लसित था। उसने सावित्री को पत्र न भेजने की शिकायत लिखकर पत्र-पेटिका में डाल दिया था और अनवरत प्रदेश सचिव बनने के उत्साह में हिल रहा था।

मानसिक उद्वेगों के उतार-चढ़ाव को अखिलेश ने बायोडाटा कहानी में खूब बारीकी से उकेरा है। जब पत्र भेजने का कोई प्रभाव नहीं होता है तो सावित्री कम सून का संदेश लिखकर तार भेज देती है। तार पाने पर राजदेव के भीतर उत्पन्न होने वाली चिढ़ को अखिलेश ने पूरी तिक्तता के साथ अभिव्यक्त किया है, उसके होंठ विद्रूप से टेढ़े हो गए, “अंग्रेज़ी पेलती है।” विपत्ति से घिरे अभागे की तरह उसने सिर थाम लिया, “अब क्या होगा?” …… तारवाले ने दस्तख़त करा लिया था, इसलिए वह फँसा पा रहा था।  लेकिन अगले ही पलों में वह उदात्तता के हिंडोले पर पींगे मारने लगता है। उसे अपने पर ग्लानि होती है और सावित्री पर प्यार। वह सावित्री के प्रति सहानुभूति से भर उठता है। वह क्षण भर के लिए पत्नी के प्यार की श्रेष्ठता के आगे अपनी राजनीतिक महत्वाकाक्षाओं को भी तिलांजलि देता नज़र आता है, मुसीबत की मारी ने मुझे बुलाया है, मैं जरूर जाऊँगा। कोई भी ताक़त अब मुझे ससुराल जाने से नहीं रोक सकत्ती। मैं सचिव पद को भाड़ में झोकूँगा और पत्नी के पास पहुँच जाऊँगा। कभी न चुकाने वाले उधार का प्रबन्ध करूँगा। मिठाई, फल, मेवे, कपड़े ख़रीदकर ले जाऊँगा। वह खुश हो जाएगी। वह हँसा, कितना सरल है ख़ुश करना। वह हँसा, कितना सरल है ख़ुश करना!  वह ऐसे भावावेश को बेवकूफ़ी ही मानता आया है। भावावेश में इनसान कितनी जल्दी खुश हो जाता है, किन्तु राजनीति की दुनिया का यथार्थ बड़ा ही कठोर है। वहाँ कोई आसानी से कुछ नहीं देता।

बायोडाटा कहानी का अंत बड़ा ही व्यंग्यपूर्ण तथा विनोद से भरपूर है और साथ ही साथ संवेदना को कुरेदता हुआ भी। नेता बनने और पद पाने के लालच में राजदेव अंधा हो चुका है। उसके मन में न तो पत्नी के लिए ही कुछ लगाव बचा है, न ही बच्चे के लिए कोई मोह। वह स्वार्थ में पूरी तरह से संवेदनाशून्य हो चुका है। राजनीतिक महत्वाकांक्षा ने उसे निर्मम बना दिया है। वह पत्नी व बच्चे की मृत्यु की स्थिति को भी अपनी महत्वाकांक्षा को सँवारने की खातिर इस्तेमाल करना चाहता है। यहाँ अखिलेश ने मोती सिंह के दिए सन्तरे को आधार बनाकर जो रूपक गढ़ा है, वह बेजोड़ है और राजदेव द्वारा इस सन्तरे का स्वार्थपूर्ण रसास्वादन हमारी संवेदना को भीतर तक झकझोर देने वाला है, - राजदेव के हाथ में मोती सिंह का दिया एक सन्तरा था। सन्तरे को पकड़े हुए वह विचारमग्न था। - यदि बच्चा मर गया तो? - तो क्या, दूसरा पैदा कर लेंगे। - बीबी मर गई तो? - तो क्या … तो क्या …! - दोनों मर गए तो? उसने निश्चय किया , यदि ऐसा हुआ तो, अपने बायोडाटा में जोड़ेगा: पब्लिक की सेवा में पार्टी की ख़िदमत में गृहस्थी तबाह हो गई। परिवार उजड़ गया। … उसने लम्बी साँस छोड़ी और सन्तरा छीलने लगा। सन्तरे में बड़ा रस था। यहाँ राजदेव की राजनीतिक लालसा अखिलेश की लेखनी के माध्यम से सन्तरे का रस बनकर हमारी संवेदना के प्याले में लबालब छलक उठती है।

अखिलेश ने ऊसर कहानी में भी राजनीतिक विद्रूपता पर इसी प्रकार से तीखा प्रहार किया है। यहाँ भी एक राजनीतिक कार्यकर्ता चन्द्रप्रकाश श्रीवास्तव की महत्वाकांक्षाएँ हमें गली-मुहल्लों में दिखाई देने वाले नवबढ़े नेताओं की यथार्थ स्थिति से भिन्न नहीं दिखाई पड़ती, - चन्द्रप्रकाश लटकन नहीं बनना चाहता, वह महेन्द्रा एन्ड महेन्द्रा जीप खरीदना चाहता है और टैक्सी स्टैन्ड का ठेका पाना चाहता है। वैसे कहे भले न, लेकिन मन में बहुत कुछ है। वह टिकट पाना चाहता है। मन्त्री होना चाहता है। शुरू-शुरू में तो प्रधानमंत्री भी होना चाहता था। यह हमारी राजनीति का नग्न चेहरा है। जब कार्यकर्ता अपने उद्देश्य में विफल होकर निराश होता है तो नेता को गरियाता है, - “मुख्यमंत्री हिजड़ा है। बुढ़ापे में भी साला लड़की के लिए बौराया रहता है। बस, खाली ट्रांसफर-पोस्टिंग करना जानता है। यह नहीं कि अपने विधायक जी को मंत्री बना दे।” नाराज़गी का यह विस्फोट सीनियारिटी नहीं देखता। यहाँ बस बस सच को हथियार बनाया जाता है, वह चाहे जितना घृणित हो। यहाँ अखिलेश चन्द्रप्रकाश के माध्यम से राजनीतिक पार्टियों के भीतर समायी जा रही जड़ता व आदर्शविहीनता की स्थिति पर से परदा उठाते हैं। जिस तरह से शीर्ष स्तर तक पर भ्रष्टाचार हावी होता जा रहा है और राजनीतिक अपसंस्कृति का विस्तार हो रहा है, उसे चन्द्रप्रकाश की इस सोच में स्पष्ट महसूसा जा सकता है, - वह सोचने लगा कि पार्टी की राजनीति जो कुछ भी आम जनता से जुड़ी थी, वह भी ख़त्म हो चली। छवि के नाम पर संघर्ष करने वालों को पीछे किया गया। पार्टी के लोगों के सिर सिर से पहले टोपी उतरी, अब कुता-पाजामा भी उतर रहा है। सफ़ारी सूट का ज़माना आ गया है। जाड़े में प्रिंस कट कोट का ज़माना आ गया है। कुछ नहीं, बस हाय-हलो वालों की चाँदी बन गई है। हाईकमान को विदेशी संस्कृति, विदेशी वाइफ़ और विदेशों में धन जमा करने वालों ने घेर लिया है। देश का पतन हो रहा है।

अखिलेश शीर्ष स्तर के राजनीतिक भ्रष्टाचार को इस कहानी में तब और भी ज्यादा नंगा करते हैं, जब उनका कथा-पात्र चन्द्रप्रकाश शहर में पधारे पार्टी के सलाहकार से मिल न पाने की खीझ में इतना आक्रोशित हो जाता है कि वह मन ही मन उसके ऊपर गालियों की बौछार करने लगता है। वह कुंठित होता है कि बड़े नेता तो बड़े-बड़े घोटालों में डूबकर करोड़ों के वारे-न्यारे कर रहे हैं और उसके जैसे छोटे कार्यकर्ता को कमाई के सामान्य अवसरों से भी वंचित किया जा रहा है, - ‘सलाहकार साले, तेरी माँ की … तेरी बहन की … खुद तो तुम लोग हथियारों और पनडुब्बी वगैरह की खरीद में करोड़ों-करोड़ लील ले जाते हो, डकार ले जाते हो और मुझे एक महेन्द्रा एंड महेन्द्रा नहीं मिल सकती। टैक्सी स्टैंड का ठेका नहीं मिल सकता। ये साला विधायक चाहता तो मिलवा देता लेकिन मादर …। तुम सब हरामी हो।’ उसकी आत्मा सलाहकार और विधायकजी को धाराप्रवाह गालियाँ देने लगी। कुंठा की इसी बढ़ती अनुभूति के साथ चन्द्रप्रकाश का राजनीति से मोह-भंग होने लगता है। यहीं अखिलेश उसके माध्यम से जनता से ऐसे पथ-भ्रष्ट व स्वार्थी नेताओं को सबक सिखाने का उपक्रम करते दिखाई देते हैं, - ‘… ये सब नेता भ्रष्ट हैं। देश-सेवा का बीड़ा उठाते हैं लेकिन ये देश के साथ बलात्कार कर रहे हैं। देश के दुश्मन हैं। देश के लोगों को चाहिए कि इनके बाँस कर दें। ये पालिटिशियन अपने फायदे के लिए किसी का गला काट दें। जनता को तबाह कर दें। बहन-बेटी बेंच दे। ओह! कहाँ चिपका हुआ था मैं!’

अखिलेश की यक्षगान एक ऐसी कहानी है, जिसमें समकालीन राजनीति के तमाम उतार-चढ़ावों के दर्शन हमें एक साथ होते हैं। यहाँ अपने यौवन दहलीज़ पर कदम रखते ही नासमझी में एक नाकारा व लुच्चे इनसान के प्रेम के छल में फँस जाने वाली एक अवयस्क ग्रामीण लड़की सरोज पांडेय है, उसका व्याह से पहले ही सौदा कर देने वाला धोखेबाज़ पति छैलबिहारी है तथा लड़की को खरीदने वाले काम-लोलुप गाँव के पार्टी कार्यकर्ता परमू तथा भोला हैं जो सत्ताधारी पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष गोरखनाथ व उनको संरक्षण देने वाले ताक़तवर महन्त के काफी करीबी हैं। यहाँ बचपन से लड़की की आसक्ति में डूबा जुझारू व फक्कड़ युवा नेता श्याम नारायण है जिसका पार्टी सचिव इस बात से बिल्कुल निस्संग है कि किसी मासूम लड़की के साथ हुई बलात्कार की किसी सुनियोजित घटना के मुद्दे पर पार्टी को आगे आना चाहिए। यहाँ मौके का फायदा उठाने की तलाश में गिरगिट की तरह रंग बदलने वाली महिला नेता मीरा यादव भी है, जिनकी पार्टी के मुखिया के लिए प्रतिपक्ष के ऊपर आक्रमण करने का अवसर मिलने की अपेक्षा अपनी पार्टी का जातिगत  समीकरण बनाए रखना ज्यादा महत्वपूर्ण है। यहाँ सत्ता में विराजमान एक ऐसा मुख्यमंत्री है, जो अपनी पार्टी के बलात्कार के आरोपी तथा पार्टी में अपने आंतरिक विरोधी अध्यक्ष को मटियामेट तो करना चाहता है किन्तु अध्यक्ष के सजातीय वोटरों के नाराज़ हो जाने की संभावना के चलते आलाकमान का दबाव पड़ते ही उसे केस से बचाने में पूरी ताक़त लगा देता है। यहाँ एक ऐसा मीडिया है जो खबरे बनाता भी है और माल काट लेने के बाद उन्हें मिटाता भी है। अंत में सरोज पांडेय का कोई पता-ठिकाना नहीं ढूँढ़े नहीं मिलता और वह इन सब एक-दूसरे के विरोधी किन्तु आंतरिक रूप से एक ही दिशा में चलने वाले हमसफर स्वार्थी लोगों की टेढ़ी चालों की धमा-चौकड़ी में तिरोभूत हो जाती है, किन्तु वह तब भी कथाकार को उसे ढूँढ़े बिना अपनी कहानी का अंत करने के लिए धिक्कारने से नहीं चूकती।  

  सरोज का व्याह कराने के बहाने वास्तव में परमू तथा भोला उसका अपहरण करते हैं। पार्टी अध्यक्ष दबंग भी है और औरतख़ोर भी। वह सरोज को खुद ही गाड़ी में बैठाकर उसके वयस्क होने की बात प्रमाणित करने लिए उसकी आयु का फर्जी प्रमाण-पत्र बनवाने के लिए ले जाता है। बात में वह आतंक का पर्याय बने महन्त के मन्दिर में छिपाकर रखी जाती है। यहीं पर उसके साथ अध्यक्ष तथा उसके चमचा अपना मुँह काला करते हैं। महंत का यह अड्डा उन्हें अध्यक्ष के बंगले से भी ज्यादा सुरक्षित लगता है, जो वर्तमान राजनीति के कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों की ओर भी इशारा करता है - “अबे, तुम रहोगे देहाती भुच्चड़।” भोला समझाने लगा, “अध्यक्ष जी के यहाँ तो फिर भी एक बार पुलिस आ सकती है, पर महन्त जी के यहाँ किसकी हिम्मत है। अध्यक्ष जी जैसे बाईस उनकी जेब में हैं।” सरोज की आसक्ति में डूबा उसका रिश्तेदार व जुझारू तथा फक्कड़ युवा नेता श्याम नारायण यह सब पता कर लेता है, किन्तु जब वह अपनी पार्टी के सचिव से इस बाबत मदद माँगता है तो सचिव श्याम नारायण को उपेक्षापूर्वक दो-टूक जवाब देता है, – “एक समझदार कार्यकर्ता होने के नाते आपको मालूम होना चाहिए कि आर्थिक या बहुत अहम मसलों पर ही बड़ी लड़ाइयाँ लड़ी जाती हैं, जबकि सरोज पांडेय के प्रसंग में दोनों ही बातें नहीं हैं।” श्याम नारायण प्रत्युत्तर में कुछ कहते कि सचिव अपनी पार्टी का मुखपत्र उनके और अपने सामने करके पढ़ने लगे।अब श्याम नारायण विपक्षी दल की स्थानीय महिला नेता मीरा यादव की मदद लेने जाता है। यहाँ अखिलेश ने इस महिला नेता के मुखिया के यहाँ हाज़िरी लगाने की आदत की विवेचना करते हुए जैसे राजनीतिक पार्टियों की कार्य-संस्कृति पर ही सवालिया निशान खड़ा कर दिया है, - वह रोज मुखिया के यहाँ हाजिरी देने जाती थीं। यहाँ तक कि मुखिया न रहते तब भी। आज भी ऐसा था। मुखिया नहीं थे, तब भी मीरा यादव उनकी ड्योढ़ी पर मत्था टेकने गई थीं।जब मीरा यादव को प्रकरण का पता लगा तो उन्होंने पाया कि यह उनके लिए सत्ता-पक्ष को बदनाम करने तथा अपने मुखिया को खुश करने का बहुत अच्छा अवसर है। वे सरोज को अपने घर में ही पनाह देकर मीडिया के माध्यम से अपनी राजनीतिक गोटियाँ सेट करने में जुट गईं। उधर मुख्यमंत्री भी मीरा यादव की मुहिम को परोक्ष रूप से हवा देने लगे, - जैसा कि चर्चा में था, केन्द्रीय नेतृत्व में मुख्यमंत्री-विरोधी लॉबी गोरखनाथ को उनकी जगह मुख्यमंत्री बनाने की गुपचुप मुहर चलाए हुए थी। अतः मुख्यमंत्री के लिए यह वरदान ही था कि उनके प्रतिद्वन्द्वी गोरखनाथ का राजनीतिक भविष्य सरोज पांडेय के साथ बलात्कार के आरोप में फँसकर बर्बाद हो रहा था।

अखिलेश ने मीरा यादव के दोहरे व्यक्तित्व को बड़ी ही खूबी से उभारा है। पहले तो वह  तो वह उसे पीड़िता सरोज पांडेय के प्रति सहानुभूति से भरी हुई एक महिला नेता के रूप में सामने लाते हैं, हाँलाकि प्रकरण में कूदने के पीछे उसका मक़सद अपनी राजनीतिक छवि को चमकाना तथा तथा विपक्ष को बदनाम करना है, सरोज को न्याय दिलाना नहीं। वह सरोज जैसी सोने की मुरगी को खोना नहीं चाहती और सरोज से कहती है, - “मान लो, तुम घर जाओ और तुम्हें वहाँ घुसने ही न दिया जाए। रवाले तुम्हें धक्के देकर खदेड़ दें, तब! आख़िर इज़्ज़त लुटा चुकी लड़की का बोझ उठाना आसान है क्या! मैंने तुमको अपनी छोटी बहन बनाया है, ऐसे कैसे नरक भोगने के लिए वहाँ भेज दूँ।” लेकिन जब जातीय मताधार के खोने के डर से पार्टी का मुखिया उसे देखते ही गालियाँ बकने लगता है तो वह घबरा जाती है, - “आ … आ … रंडी … आ … जा … रंडी।” … “हरामजादी, तू ये सरोज नाम की कौन-सी छिनाल लिए घूम रही है?” वह एक बार प्रतिवाद करने की कोशिश तो करती है, - “नेताजी, वह छिनाल नहीं है। ज़ुल्म की मारी हुई एक असहाय लड़की है। दूसरे वह हमारे काम की है। उसके प्रकरण को उछालकर हम गोरखनाथ की पार्टी के वोट-बैंक में कमी ला सकेंगे।” किन्तु जब मुखिया अपनी राजनीतिक दूरदर्शिता को व्याख्यानित करते हुए उसे कमअक़्ल और महिला होने के लिए इस प्रकार लताड़ता है तो उसकी सोच पूरी तरह बदल जाती है, - “तुम एक तो चूतिया हो, दूसरे मेहरारू। मुझे वोट का गणित सिखाने चली हो। अरे, पता है, प्रदेश में गोरखनाथ की जाति के कितने वोट हैं। खुद मेरे चुनावी क्षेत्र में उसकी जाति के पैंतालीस हज़ार वोटर हैं। तुम्हारी इस करतूत से हम ये सारे वोट गँवा देंगे।” मुखिया जल्दी-जल्दी न समझ में आने वाला आगे का गणित भी समझाता है, - “सफाई मत दे सूअरी! तुझे मालूम नहीं था क्या कि गोरखनाथ अपनी पार्टी में मुख्यमंत्री का विरोधी है और चुनावों में मुख्यमंत्री के उम्मीदवारों को हराने की कोशिश करता है।” सरोज अब उस सोने को मुरगी को पूरी तरह गायब कर देती है। यहाँ इस मुखिया की एक महत्वपूर्ण राजनीतिक पार्टी के प्रमुख से साम्यता होना यह सिद्ध करता है कि अखिलेश एक दुस्साहसी एवं परम यथार्थवादी कथाकार हैं। इसमें सिर्फ मीरा यादव ही पलटी नहीं मारती, आज की अवसरवादी व स्वार्थी प्रवृत्तियों के अनुरूप इस कहानी का हर राजनीतिक पात्र पलटी मार जाता है। अखिलेश श्याम नारायण के आत्मचिन्तन के माध्यम से उस कामरेड टाइप के नेता में आए परिवर्तन को भी उजागर करते हैं, - “मैं स्वयं कहाँ सच्चा कार्यकर्ता होने का परिचय दे रहा हूँ। सरोज शोषित वर्ग की है नहीं, दलित भी नहीं है कि उसकी पक्षधरता को व्यापक सामाजिक परिवर्तन के आलोक में देखा जा सके। फिर मैं क्यों इतने दिनों से मारा-मारा फिर रहा हूँ? आखिर मुझे हुआ क्या है, जो मैं इतना हलकान हुआ जा रहा हूँ।” इस प्रकार इस कहानी के विभिन्न मोड़ों पर अखिलेश की भाषा तथा शैली का चमत्कारिक प्रयोग लगातार जारी रहता है और पाठक राजनीति के गंदे तथा घिनौने खेल को जैसे-जैसे उजागर होते देखते जाते हैं, वे स्तब्ध होते चले जाते हैं।

अखिलेश ने इस कहानी में मीडिया की राजनीतिज्ञों से होने वाली सांठ-गांठ तथा पत्रकारिता की मूल्यच्युति को भी निशाना बनाते हुए बहुत कुछ उद्घाटित किया है। जब मीरा यादव द्वारा किए गए बलात्कार की घटना के रहस्योद्घाटन की खबर किसी अन्य अखबार के एक संवाददाता को ही हो पाने की बात से नाराज़ संपादकगण अपने-अपने संवाददाताओं को लताड़ लगाते हैं तो अखिलेश एक संपादक से मीडिया का यह अंदरूनी सच भी कहलवा देते हैं, - ‘एक सम्पादक तो इतना क्रुद्ध हो गया कि कहने लगा, “प्रेस क्लब में दारू पीने और मुर्ग़े की टाँग ठूँसने से फुर्सत ही नहीं मिलेगी, ख़बर क्या लिखेंगे।” जब आलाकमान के दबाव में मुख्यमंत्री अपनी तरफ से सूचना मंत्री के यहाँ शानदार डिनर और मीडिया को गिफ्ट दिलाने की व्यवस्था करते हैं तो अखिलेश मीडिया के माहौल को कुछ इस प्रकार से व्यक्त करते हैं, - ‘दूसरी बात, जिसको लेकर विशेष सनसनी व्याप्त थी कि सुना जा रहा था कि रात्रिभोज में सम्मिलित होने वाले प्रत्येक पत्रकार को रंगीन टी वी सेट दिए जाएँगे, जो राज्य सरकार के उपक्रम ‘वीडियो विश्व’ के उत्पाद होंगे। …… कुछ वरिष्ठ पत्रकारों ने नाराज़गी भी प्रकट कर दी थी। उनका कहना थ कि पब्लिक सेक्टर के उत्पाद उन्हें फूटी आँख नहीं सुहाते हैं। उनके बच्चे तो ऐसे सामान देखते ही तोड़ डालेंगे।संवाददाताओं को पता चला कि तीन दैनिक-पत्रों तथा एक समाचार एजेंसी के सम्पादकों को मारुति-1000 भेंट की जाएगी। अतः संवाददाता अपनी उपेक्षा से अप्रसन्न थे। वैसे सम्पादक भी ख़ास खुश नहीं थे। उनका मानना था कि मारुति-1000 का मॉडल पुराना पड़ चुका है। राजधानी की सड़कों पर जब सेलो और स्टीम गाड़ियाँ धड़ल्ले से दौड़ रही हैं, तब मारुति-1000 से कैसी खुशी।’ यह मीडिया में बढ़ती जा रही मूल्यच्युति और भ्रष्टाचार की स्थिति को उजागर करने वाला हताशाजनक विवरण है जिसे अखिलेश बड़े ही रोचक तरीके से हमारे सामने रखते हैं।

अखिलेश की ‘ग्रहण’ कहानी दलित-विमर्श की एक ऐसी कहानी है जहाँ विपद राम के जीवन में व्याप्त गरीबी के नर्क व लाचारी का संवेदनापूर्ण वर्णन है। इस चमार परिवार में एक बिना गुद्दे वाला बीमार पेटहगना बेटा राजकुमार पैदा होता है, जो कदम-कदम पर सताया व दुत्कारा जाता है। स्कूल से लेकर समाज के हर प्लेटफार्म पर उसे अपमानित किया जाता है्। विपद राम शहर में जाकर रिक्शा चलाता है, फिर भी वह बेटे के इलाज के पैसे नहीं जुटा पाता। राजकुमार पढ़ाई छोड़कर घर बैठ जाता है लेकिन समाज में मिलने वाला अपमान उसका पीछा नहीं छोड़ता। पुरोहित का बेटा उसकी सरेआम बेइज्जती करता है और उसकी मुरगियाँ भी लेकर भाग जाता है। जब इस पर की गई राजकुमार की प्रतिक्रिया के बारे में गाँव में चर्चा होती है तो उच्चवर्णीय दंभ के आक्रोश में उन मुरगीचोरों के घरों के सारे लोग मिलकर राजकुमार को मार-मारकर अधमरा कर देते हैं और वह अस्पताल पहुँच जाता हैं। बाद में राजकुमार अस्पताल से भागकर बहिन जी जैसी बड़ी नेता की शरण में जाता है, लेकिन जब वह वहाँ से भी भगा दिया जाता है, तो विद्रोही बन जाता है। वह अपने अपमान का बदला भी लेता है और भूमिगत रहकर अपनी विद्रोही गतिविधियों को विस्तार भी देता है। इस कहानी में अखिलेश ने एक दलित परिवार की संवेदनाओं, उसके ऊपर हो रहे तरह-तरह के अत्याचारों तथा सब तरफ से निराश होकर एक विद्रोही के पैदा होने का जिस तरह से भावपूर्ण चित्रण किया है वह मार्मिक तथा क्रांति का आह्वान करने वाला है।  

 विपद राम की गरीबी तथा लाचारी का चित्रण करते समय अखिलेश जिस अनूठे तथा मर्म भरे ढंग से उसकी तुलना महात्मा गाँधी से करते हैं, वह हमें बहुत ही गहराई से सोचने को मजबूर कर देता है, - ‘विपद राम और गाँधी जी में कुछ समानताएँ भी थीं। मसलन गाँधी जी ने अपने बचपन में बीड़ी पी थी, विपद राम ने भी। यह अवश्य है कि गाँधी जी के जीवन में बीड़ी का सुट्टा मारने का कोई उपयोग नहीं था मगर जब विपद राम बीड़ी पीते थे तो उनकी अँतड़ियों का भूख से कलपना कम हो जाता था। … विपद राम इस मायने में गाँधी जी से भी आगे थे कि गाँधी जी ने तो बाद में वस्त्र कम किए लेकिन विपद राम बचपन से ही फटे कपड़ों में अपना हाँड़ दिखाते थे। गाँधी जी ने बहुत बाद की उम्र में विदेशी वस्तुओं का बहिष्ख़ार किया था जबकि विपद राम ने विदेशी वस्तुओं को कभी अपनाया ही नहीं था। वह इस अर्थ में भी गाँधी जी से आगे थे कि गाँधी जी बीमार होने पर प्राकृतिक चिकित्सा करते थे लेकिन विपद राम बीमारी के अपने आप ठीक होने में यक़ीन करते थे।’ यहाँ संभवतः यह उद्देश्य नहीं है कि विपद राम को गाँधी जी से ज्यादा महान सिद्ध किया जाय। बल्कि, मंशा शायद यह बताने की है कि विपत राम की स्थिति विभिन्न दृष्टियों से उन दीन-हीन आम लोगों से भी बदतर थी, जिनके प्रति गाँधी जी के भीतर सहानुभूति पैदा हुई थी और उसके कारण उन्होंने उनके जैसा ही बनकर रहने वाला त्याग भरा जीवन अपना लिया था।

 आगे चलकर ‘ग्रहण’ कहानी को अखिलेश एक अद्भुत मोड़ देते है और वह बीमार दलित युवक अचानक ही बहुश्रुत महिला नेता बहिन जी के सामने पहुँच जाता है। होता यह है कि कष्ट और उपेक्षा से तंग आकर एक दिन पाखाना करने की जरूरत महसूस होने पर राजकुमार अस्पताल से भाग लेता है। बाद में कोई और और चारा न होने के कारण वह गंदे पेट के ऊपर से ही कपड़े पहनकर बहिन जी से मिलने निकल पड़ता है। वहाँ उसे निस्सहाय खड़ा पाकर एक पत्रकार उसे भीतर ले जाता है। उसके बाद जो कुछ अखिलेश आगे चित्रित करते हैं वह सब काल्पनिक होने के बावजूद हमें एकदम किसी सत्य घटना की तरह ही लगता है। समकालीन राजनीति की एक बड़ी व धमकदार दलित नेता बहिन मायावती की तरह का एक चरित्र अपनी कहानी में सृजित करना और वहाँ कुछ वैसा ही घटित होते दिखाना जैसा कि बहिन जी के बारे में सुना जाता है, यहाँ तक कि भाव-भंगिमाएँ भी, यह सचमुच बड़े जीवट का काम हैं और इसके लिए अखिलेश अभिनन्दन के पात्र हैं, - ‘… राजकुमार एक पत्रकार के साथ कमरे में घुसा। कमरे में सामने वाली दीवार के पास एक बड़ी सी कुर्सी पर बहिन जी बैठी थीं। बाक़ी बारह-तेरह लोग ज़मीन पर बैठे थे। हालाँकि बहिन जी के निकट पाँच-छह कुर्सियाँ थीं लेकिन वे खाली थीं। पत्रकार को बहन जी ने कुर्सी पर बैठाया। यह भी कहा जा सकता कि पत्रकार जकर कुर्सी पर बैठ गया। … ‘वह कुछ कदम आगे बढ़ा। जाकर बहिन जी के पैरों पर गिर पड़ा और जानवरों की तरक मुँह ऊपर उठाकर क्रन्दन करने लगा। बहिन जी के नथुने फड़के। वह चौकन्नी हुईं, फिर भड़कीं, “बदबू …ये बदबू कहाँ से आ रही है?” उन्होंने अँगूठे और तर्जनी का चिमटा बनाकर अपनी नाक दबाई, “खिड़की-दरवाज़े खोल दो।” बैठे हुए समस्त ज़िला पदाधिकारी खिड़की-दरवाज़े खोलने के लिए उठ खड़े हुए। स्पष्ट है कि जो खिड़कियों-दरवाज़ों के निकट बैठे थे, उन्हें ही खोलने का सम्मान हासिल हुआ। … उसने हड़बड़ी में अपनी क़मीज़ ऊपर उठा ली, “बहिन जी हमें माफ कर दें। बदबू यहाँ से आ रही है।” “दूर हट … हट …।” बहिन जी से वह वीभत्स सूराख़ देखा ही नहीं गया। उन्होंने नाक मूँद ली, “बाहर निकल कमरे से।” जिस प्रकार से खिड़की-दरवाज़े खोलने के लिए कमरे में बैठे पदाधिकारियों के बीच प्रतियोगिता हुई थी, उसी तरह राजकुमार को कमरे से बाहर करने के लिए हुई।’ यह स्तब्ध कर देने वाला वर्णन है, क्योंकि यह वर्तमान दलित राजनीति के कटु सत्य की ओर इशारा करता है। इसमें कहीं कोई अतिरेक नहीं लगता। यही वह साहस और शैली है अखिलेश को अन्य कथाकारों से अलग एवं विशिष्ट बना देती है।

‘ग्रहण’ का दलित पेटहगना राजकुमार जब हर तरफ से ठोकरें, उपेक्षा और अन्याय पाता है तो अंत में विद्रोही हो जाता है। वह अपने अपमान का बदला लेता है और भूमिगत हो जाता है। विद्रोह एवं बदले का सारथी बनकर यह बीमार बेटा दूसरों के लिए भी प्रेरणास्रोत बन जाता है और धीरे-धीरे उसका भूमिगत कारवाँ बड़ा होने लगता है। अखिलेश इस स्थिति को बड़े ही बिम्बात्मक रूप से वर्णित करते हैं। बेटे की बगावत के बारे में जानते ही विपद राम उसे तरकीब सुझाते हैं और बेटे की सलामती के बारे में इन्हीं बिम्बों के सहारे जानकर संतुष्ट होते रहते हैं, - “बचवा, हमको मालूम कि हमारा तुम्हारा मिलना जल्दी नहीं हो सकेगा। इसलिए ऐसा करना कि तुम दो-चार दिन में ज़रूर रात-बिरात महीपाल बाबा की समाधि पर एक फूल चढ़ा दिया करना। उसे देखकर हम समझ जाएँगे कि तुम सलामत हो।” … वे दोनों महीपाल बाबा की समाधि पर निगरानी रखने लगे। कभी वहाँ गेंदा का फूल दिखता, कभी कनेर का, कभी गुड़हल का। पर अधिकतर वहाँ जंगली फूल ही मिलते थे।’ धीरे-धीरे जंगल में विद्रोही राजकुमार का कारवाँ बड़ा होने लगता है। विद्रोह के विस्तार की इस स्थिति को अखिलेश बड़ी ही मार्मिकता और प्रभावात्मकता के साथ प्रस्तुत करते हैं, - ‘एक रोज़ उन्होंने देखा कि महीपाल बाबा की समाधि पर एक नहीं दो फूल रखे हैं। वे चौंके, फिर सोचा कि इसमें कोई ख़ास बात नहीं, राजकुमार एक की जगह दो फूल रख गया होगा। लेकिन अगले दिन वहाँ फिर दो फूल रखे हुए थे। उसके अगले दिन परसों की तरह दो फूल रखे हुए थे। दिलचस्प बात यह थी कि फूल भिन्न-भिन्न किस्म के होते थे। इसका मतलब, महीपाल बाबा की समाधि पर ये फूल अलग-अलग लोग रख गए थे। सबसे बड़ी चीज़ तो यह कि राजकुमार समाधि पर फूल रोज़ नहीं रख जाता था, हफ़्ते में ज़्यादा से ज़्यादा एक बार या कभी दो बार। जबकि अब तीन दिन से लगातार फूल मिल रहे थे। और उस दिन तो विपद-बटुली की समझ में ही नहीं आया कि क्या करें, क्योंकि महीपाल बाबा की समाधि पर आठ फूल थे। उनकी समस्या यह थी कि वे कैसे पता करें कि इन फूलों में कौन फूल उनके बेटे का है। उनकी यह समस्या और बढ़ गई जब समाधि पर बारह फूल दिखे।’ ‘ग्रहण’ कहानी का यह अंत एक साथ कई सम्मिश्र भावनाएँ पैदा कर जाता है। यह अन्याय का मिलकर प्रतिरोध किए जाने की अलख जगाता है, उसका अंत जरूर होगा ऐसी आशा का संचार करता है, और अन्याय के ख़िलाफ होने वाले विद्रोह के प्रति हमारे मन में श्रद्धा का भाव भरता है।

  ‘अँधेरा’ कहानी में अखिलेश ने साम्प्रदायिक दंगे से त्रस्त युवक प्रेमरंजन को तमाम आतंककारी माहौल के बीच भी जिस हिक़ारत व नफ़रत के साथ एक साम्प्रदायिक पार्टी के नेताओं के दीवार पर लगे पोस्टरों में छपे फोटुओं पर मूत्र-विसर्जन करते दिखाया है, वह रोचक भी है और साम्प्रदायिकता फैलाने वालों के खिलाफ लोगों में व्याप्त नाराज़गी के बारे में हमारी आँखें खोल देने वाला भी है, - ‘दीवार पर तीन पोस्टर लगे थे। ये भगवान भक्त पार्टी की किसी महारैली से संबन्धित पोस्टर थे। उन तीनों पर पर दो नेताओं की तस्वीरें थीं। वह मुस्कराया – “ओह, आप हैं। आपकी पार्टी शौचालय नहीं बनवा सकती तो लीजिए हमारी सप्रेम भेंट।” उसने मूत्रांग को ऊपर उठाकर निशाना साधा – एक ही बार में दोनों पर प्रहार गिरा। प्रेमरंजन पर जैसे कोई जुनून सवार हो गया था। उसने अपने मूत्रांग को दाएँ-बाएँ ऊपर-नीचे हर कोण पर ले जाकर उन दोनों पर हमला बोला। नतीजा था कि जब वह निवृत्त हुआ था तो तीनों पोस्टर बुरी तरह भीग चुके थे।’ शायद इसके माध्यम से अखिलेश यही संदेश देना चाहते हैं सिर्फ धार्मिक भावनाओं के बल पर राजनीति करने वालों की अब खैर नहीं और नेताओं को जनता की मूलभूत समस्या के निवारण की ओर ध्यान देना ही होगा। यहाँ इशारा किस पार्टी की ओर है यह स्पष्ट ही है। अखिलेश की यह व्यंग्य व मज़ाकिएपन से भरपूर भाषा व प्रतिरोध को व्यक्त करने की शैली अद्भुत है और इस प्रकार का राजनीतिक विमर्श निश्चित रूप से अनूठा और कहानी-लेखन के नए प्रस्थान-बिन्दु तय करने वाला है। 

 अखिलेश की गत वर्ष छपी कहानी ‘श्रंखला’’ ने हिन्दी के कहानी-जगत में काफी हलचल मचाई है और निश्चित ही राजनीतिक विमर्श की कहानियों में यह मील का एक नया पत्थर बनने जा रही है। इस कहानी का मुख्य पात्र रतन कुमार आँखों से कम देखने वाला किन्तु कुशाग्र बुद्धि का है। उसकी स्मरण-शक्ति तेज है और वह आंतरिक आलोक के बल पर बहुत कुछ सूक्ष्मतर भी देख लेता है, लेकिन सदैव नहीं। जब यह क्रांतिदर्शी व परिवर्तनकामी युवा स्तम्भकार सत्ता-प्रतिष्ठान से सीधे टकराने लगता है तो उसका मानसिक और शारीरिक, हर प्रकार से दमन किया जाता है। जब वह इस दमन के खिलाफ आवाज़ उठाने की कोशिश करता है तो वह पूरी ताकत के साथ कुचल दिया जाता है। वह भयभीत होकर राजधानी से पलायन कर जाता है और निराशा में डूबकर किसी अर्धविक्षिप्त की तरह गुमनामी में अपने गाँव में जीने को बाध्य हो जाता है। उसकी प्रेमिका सुनिधि जब उसके बाबा के साथ गाँव पहुँचकर उससे मिलती है तो वह उसे ऐसी टूटी हुई हिम्मत वाले, भयाक्रांत, व हताश इनसान के रूप में पाती है, जिसकी उसने कभी कल्पना भी न की थी। ऐसे में सुनिधि के पास उसे फिर से जीवंत बनाने के लिए झूठ बोलने के अलावा और कोई चारा नहीं होता। वह उसके द्वारा शुरू किए गए धरने के फलस्वरूप बाहर पूरे देश में एक ‘समग्र क्रांति’ के फैल जाने की बात करती है, जिसका विवरण सुनकर वह क्रांतिदर्शी युवक फिर से प्रसन्न एवं उद्दीप्त हो उठता है। अखिलेश इस कहानी के माध्यम से इस देश की वर्तमान राजनीतिक स्थिति का एक सूक्ष्म विश्लेषण करते हैं और सत्ता की दमनकारी प्रवृत्तियों के प्रति हमें आगाह करते हुए, बड़ी सफाई से क्रांति की उस परिकल्पना की एक झलक भी हमें दिखला देते हैं, जिसके सपने तो बहुत समय से देखे जा रहे हैं, लेकिन जो वास्तव में इस देश में कभी होती नहीं दिखती।

अखिलेश का यह पात्र रतन कुमार शुरुआत में जब अपने कॉलम ‘अप्रिय’ में जाति-सूचक उपनामों के हटाए जाने की मुहिम चलाता है तो कुछ समकालीन बाहुबली नेताओं के नामों की स्थिति ऐसी बनती दिखाई देती है, - यहाँ पर अटल बिहारी वाजपेयी अटल बिहारी हो गये थे और शरद यादव सिर्फ शरद। उसने कई बाहुबली नेताओं को भी उनकी जाति से बेदखल कर दिया था। नेतीजा यह हुआ कि बबलू श्रीवास्तव सिमट कर बबलू हो गये, धनंजय सिंह धनंजय, अखिलेश सिंह अखिलेश बनकर रह गये। यहाँ अखिलेश स्पष्ट रूप से उत्तर प्रदेश के वर्तमान पीढ़ी के बाहुबलियों के वास्तविक नामों का उल्लेख करके अपनी दिलेरी का परिचय देते हैं। निश्चित ही बाहुबली नेताओं को इससे तक़लीफ होनी ही है। आगे जब रतन कुमार अपने कॉलम में सत्ता से भिड़ने का तरीका समझाता है, तो प्रशासनिक हल्कों में बवंडर मच जाना स्वाभाविक ही है, - किसी सता से भिड़ने का सबसे कारगर तरीका है कि उसके समस्त सूत्रों, संकेतों, चिन्हों, व्यवहारों, रहस्यों, बिम्बों को उजागर कर दो। हर सता अपनी हिफ़ाज़त के लिए शोषण और दमन करने की वैधता प्राप्त करने के लिए समाज में बहुत सारी कूट संरचनाएँ तैयार करती है। ये कूट संरचनाएँ एक प्रकार से पुरानी लोककथा के राक्षस की नाभि हैं जहाँ उसका प्राण बसता है। वक्ष पर आघात करने से, गरदन उतार देने से वह राक्षस नहीं मरता है। वह मरता है नाभि पर मर्मान्तक प्रहार से। इसलिए सता से लड़ना है, उसका शिकार करना है तो उसकी नाभिरूपी ये जो कूट संरचनाएँ हैं उन्हें उजागर करना होगा। पाठको! हर कोड को डिकोड करो, हर सूत्र की व्याख्या करो, हर गुप्त को प्रकट करो। क्योंकि कूट संरचनाएँ सामाजिक अन्याय और विकृतियों के चंगुल में फँसकर फड़फड़ा रहे सामान्य मनुष्य के सम्मुख लौह-यवनिकाएँ होती हैं।

 रतन कुमार पुनः अपने कॉलम में जो लिखता है वह एक तरफ तो आम आदमी की दुर्दशा तथा उसके ऊपर शासन-व्यवस्था द्वारा किए जा रहे अन्याय व अत्याचार का हवाला देता है और दूसरी तरफ निरंकुश सत्ता-प्रतिष्ठान द्वारा ढाए जाने वाले ज़ुल्मों की यथार्थ स्थिति को उजागर करता है, - हत्या, बलात्कार, भ्रष्टाचार के अनगिनत मुजरिम गुलछर्रे उड़ाते हैं क्योंकि उनके अपराध को साबित करने वाले सबूत नहीं हैं। पुलिस सेना जैसी राज्य की शक्तियाँ जनता पर ज़ुल्म ढाती हैं तथा लोगों का दमन, उत्पीड़न, वध बलात्कार करके उन्हें नक्सलवादी, आतंकवादी बता देती हैं और कुछ नहीं घटता है। क्योंकि सबूत नहीं है। इसी सबूत के चलते देश के आदिवासियों से उनकी ज़मीन, जंगल और संसाधन छीन लिये गये क्योंकि आदिवासियों के पास अपना हक साबित करने वाले सबूत नहीं हैं। न जाने कितने लोग अपने होने को सिद्ध नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि उनके पास राशन-कार्ड, मतदाता पहचान-पत्र, बैंक की पासबुक, ड्राइविंग लाइसेंस या पैन कार्ड नहीं है। वे हैं, लेकिन वे नहीं हैं। दरअसल इस देश में सबूत एक ऐसा फ़ंदा है जिससे मामूली और मासूम इन्सान की गरदन कसी जाती है और ताकतवर के कुकृत्यों की गठरी को पर्दे से ढाँका जाता है। अखिलेश का यह राजनीतिक विमर्श सचमुच सतासीन लोगों द्वारा किए जा रहे दमन, शोषण व अन्याय के बारे में जारी किए गए किसी श्वेत-पत्र जैसा लगता है। रतन आगे फिर अपने कॉलम में लिखता है, - मित्रो, धन शक्ति देता है और शक्ति से धन आता है। और बाद में धन स्वयं शक्ति बन जाता है, इसलिये अकूत से अकूत धन की लिप्सा उठती है और भ्रष्टाचार का जन्म होता है। अतः भ्रष्टाचार से भिड़ना है तो शक्ति के पंजे मरोड़ने होंगे। … भ्रष्टाचार से अर्जित सम्पदा विदेशी खातों में जमा है और इन खातों के कोड हैं। इसे पढ़कर किसी भी पाठक को रामदेव की आंदोलन की याद आ जानी स्वाभाविक है। समकालीन सरोकारों के प्रति अखिलेश की इतनी सजगता व उनके प्रति समुचित प्रतिक्रिया व्यक्त करने की ऐसी तन्मयता, उन्हें अपनी पीढ़ी के अन्य कथाकारों से काफी आगे ले जाकर खड़ा कर देती है।

जब रतन कुमार विरोधी ताकतों की साजिश का शिकार होने लगता है तो सबसे पहले उसका सम्पादक ही उसका सथ छोड़कर उसे ठेंगा दिखा देता है। यहाँ सत्ता किस तरह मीडिया को प्रलोभन देकर उसे अपने चंगुल में रखती है और किस तरह उसकी उँगली दबाकर उसे अपने नियंत्रण में बनाए रखने का प्रयास करती है, इसका बड़ा ही रोचक विवरण दिया है अखिलेश ने, - मुख्यमंत्री सचिवालय ने उस भूखंड का आवंटन तकनीकी कारणों से रद्द करने की धमकी दी जिसे बहुत कम क़ीमत में सम्पादक ने मुख्यमंत्री के सौजन्य से ग्रेटर नोयडा में हासिल किया था। साथ ही आठ एयरकंडीशनर, आठ ब्लोअर, तीन गीज़र वाला उसका घर था जिसका बिजली भुगतान बकाया न चुकाने के कारण रुपये सात लाख पहुँच गया था। सम्पादक ने उसे माफ़ करने की अर्जी लगा रखी थी लेकिन उसके पास कनेक्शन काट देने की नोटिस भेज दी गई। तब उसने अपने प्रिय स्तंभ अप्रिय को बंद करने का निर्णय भावभीगे मन से किया। जब रतन कुमार को निरन्तर जान से मारने की धमकियाँ मिलने लगती हैं तो वह अपने परिचित कोतवाल के पास जाता है। कोतवाल उसे व्यंग्यपूर्वक टरकाता भी है और परोक्ष रूप से उसे नक्सली भी घोषित कर देता है, - आपको किसका ख़ौफ़ है? नक्सलवाद से पूरा हिन्दुस्तान डरता है तो किसकी हिम्मत है जो आपसे पंगा ले। कोतवाल की बीबी पढ़ने-लिखने में रुचि रखती है, इसलिए वह उसे बौद्धिक स्तर पर छकाने और बरगलाने की कोशिश करती है, - कोतवाल की सुंदर बीबी ने संदर्भ को विस्तार दिया साहित्य समाज का दर्पण होता है। माफ़ कीजिएगा जनाब, ये नक्सल भी देश को भरमा रहे हैं। वे गरीबी, भूख, अत्याचार और राज्य के दमन को काफ़ी बढ़ा-चढ़ा कर बताते हैं। मैं कहती हूँ ये सब चीज़ें हमारे देश में हैं ही नहीं। इसीलिए आजकल की कहानियों में इनकी चर्चा बिल्कुल नहीं होती है। मैं कहती हूँ कि वे फर्स्ट क्लास कहानियाँ इसलिए हैं कि वे इन झूठी और फ़ालतू बकवासों से आज़ाद हैं।रतन इस वैचारिक आक्रमण व धमकी से परेशान होकर लौट आता है। अखिलेश द्वारा चित्रित कहानी का यह दृश्य निश्चित ही हमारा ध्यान समकालीन भारतीय राजनीति के एक बड़े ही संवेदनशील व विवादास्पद पहलू की ओर खींचता है।

धमकियों व दमन के विरोध में रतन कुमार का अनशन पर बैठ जाना चारों तरफ चर्चा का विषय बन जाता है। इन चर्चाओं का उल्लेख करते हुए अखिलेश कहानी में समाज की भाँति-भाँति की सोचने की प्रवृत्तियों के ऊपर एक विहंगम दृष्टिपात करते हैं। यह बहुत ही रोचक और विचारोत्तेजक लगता है। कुछ सामान्य सोच के लोग यह सहजता से मान लेते हैं कि रतन कुमार के ऊपर शासन अत्याचार कर रहा है, - लोग यह स्वीकार करते हैं कि सत्ता अपने से टकराने वालों को ग़ैरकानूनी दंड देने में प्रायः संकोच नहीं करती है, जबकि वह चाहे तो वैध तरीके ही विरोधी की ज़िन्दगी बरबाद कर सकती है।लेकिन भिन्न वर्गों में भिन्न-भिन्न प्रतिक्रियाएँ होती हैं। मसलन विश्वविद्यालय के शिक्षकों और उच्च न्यायालय के जजों का अनौपचारिक मंतव्य देखिए, - खुद विश्वविद्यालय के कई अध्यापकों का मानना था कि कॉलम बन्द होनेए से रतन कुमार बौखला गया था और यह सब अन्य कुछ नहीं अपने को चर्चा के केन्द्र में ले आने का एक घृणित हथकंडा है। जबकि उच्च न्यायालय के दो न्यायमूर्ति लंच में बातचीत के बीच इस परिणाम पर पहुँचे ये ब्लैकमेलिंग का केस है। दरअसल ये लौंडा सरकार से कोई बड़ी चीज़ हथियाना चाहता है।और जब अनशन के पहले ही दिन रात को रतन को धरना-स्थल से उठा लिया जाता है और दूर सुनसान जगह पर धमकाकर छोड़ दिया जाता है, तो सामान्य-जनों के बीच उसकी जो छवि बनती है, उसका खुलासा तब होता है जब सुनिधि गाँव में डरे-छिपे रतन के सामने पहुँचकर उसे सचाई बताने से झिझकते हुए इस प्रकार से सोचती है, - यह बताना तो और भी मुसीबत की बात थी कि अनशन स्थल से ग़ायब होने के बाद समाचार माध्यमों में उसकी कितनी नकारात्मक छवि पेश हुई थी। वह भगोड़ा, भुक्खड़, डरपोक और सनकी इनसान बताया जा चुका था।

 रतन की घबरायी और डरी हुई हालत देखकर सुनिधि सच बताना उचित नहीं समझती। वह जानती है कि रतन सत्ता के दमन से आतंकित है सो है, किन्तु वह शायद इस बात से वह कहीं ज्यादा निराश व दुःखी है कि इस दमन का प्रतिरोध कठिन है और किसी परिवर्तन की दूर-दूर तक कोई संभावना भी नहीं है। सुनिधि जानती है वह भीतर से कभी अपनी उम्मीदों को नहीं छोड़ सकता, और क्रांति अभी भी हो सकती है, इसकी आशा ही उसे फिर से जीवंत व खुशहाल बना सकती है। इसी बात को सहेजकर अखिलेश सुनिधि के मुँह से बाहर क्रांति होने की झूठी कहानी रतन को सुनाने का उपक्रम रचते हैं, - उसने झूठ बोलना शुरू किया तुम यहाँ घर में बन्द हो और बाहर आग लगी हुई है। ऐसा लगता है जैसे देश में बग़ावत हो गयी है। तमाम लोग सरकार, धनिकों और धर्माधीशों के ख़िलाफ़ सड़कों पर उतर आये हैं। ऐसा माना जा रहा है कि 1942 के भारत छोड़ो के बाद पहली बार इस देश में सत्ता के विरोध में ऐसा ग़ुस्सा पनपा है।और जब रतन कहता है, - विश्वास नहीं हो रहा है …। तो सुनिधि कहती है, - न करो, पर इससे सचाई नहीं बदल जाएगी। सच यह है कि सारी सेज़ परियोजनाओं पर किसानों ने क़ब्ज़ा कर लिया है और सेना ने उन पर गोली चलाने से इनकार कर दिया है। सुनिधि को लगा कि पिछले दिनों घटे ट्यूनिशिया, मिस्र के जनविद्रोह उसकी कल्पनाशक्ति को रसद-पानी दे रहे हैं, और छात्र, उनकी पूछो मत, बाप रे बाप! कोई भरोसा नहीं करेगा कि ये फास्ट-फूड, बाइक, मस्ती और मनोरंजन के दीवाने लड़के हैं। वे अपने-अपने शहरों, क़्स्बों और गाँवों में गुट बनाकर धावा बोल रहे हैं। इस पर रतन की प्रतिक्रिया देखिए, - अरे नहीं … रतन कुमार खड़ा हो गया। वह खुशी और अविश्वास से हिल रहा था। अखिलेश क्रांति के इस ‘यूटोपिया’ को और अधिक परवान चढ़ा देते हैं, - न मानो तुम। पर इसका क्या करोगे कि औरतें भी कूद पड़ी हैं इस लड़ाई में। और बूढ़े भी। उसे महसूस हुआ कि वह ज्यादा ही गपोड़ी हो गयी है लेकिन उसका मन लग गया था गप्प हाँकने में।’ लेकिन अंत में  सुनिधि को यथार्थ के धरातल पर वापस लौटना ही पड़ता है। और यहीं पर अखिलेश उसके माध्यम से बड़ी सिद्दत से उस कटु सत्य की ओर इशारा करते हैं, जहाँ केवल यही एक यथार्थ होता है कि खुशी का सबब बस कोई आभासी प्रकाश-पुंज होता है और समाज का वास्तविक ज्योतिर्मय स्वरूप हमेशा एक सपना ही बना रहना है, - ‘सुनिधि चुप थी। उसके मन में चल रहा था, दीपावली की रात सात चिरागों के उजियाले में इसने मेरे शरीर के लक्षण देखे थे और खुश हुआ था। आज मेरे झूठ के किस्सों ने इसके भीतर को जगमग किया। उसके टखने काँपने लगे, वह बेहद बेचैन होने लगी। गहरे अफ़सोस और उदासी से उसने सोचा, काश, मेरे किस्से सच होते!

इस प्रकार मैं इसी निष्कर्ष पर पहुँचता हूँ कि अखिलेश की कहानियों की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता उनका प्रखर राजनीतिक विमर्श ही है। उनकी कहानियों में दलित-विमर्श, स्त्री-विमर्श, सामाजिक विमर्श, मनो-विश्लेषण व अन्य तमाम प्रकार की विशिष्ट एवं उल्लेखनीय बातें भले ही प्रचुरता से हों किन्तु उनका राजनीतिक विमर्श का पक्ष इतना सशक्त, इतना प्रभावी, इतना यथार्थपरक व इतना अप्रतिम है कि अखिलेश हमेशा सबसे पहले इसी के लिए याद किए जाते रहेंगे। यह राजनीतिक विमर्श अखिलेश की सहज, व्यंग्य व विनोद से पूर्ण आकर्षक भाषा के साथ मिलकर इतना विचारोत्तेजक एवं प्रभावकारी हो उठता है कि पाठक उसमें मनसा डूबकर संवेदना और उद्विग्नता से भर उठता है। अखिलेश इसी विचारोत्तेजक राजनीतिक विमर्श व अपनी विशिष्ट अभिव्यंजना शैली व भाषा के कारण अपने समकालीन कथाकारों से एकदम अलग और आकर्षक दिखने लगते हैं। अखिलेश की कहानियों की पठनीयता व रोचकता उन्हें मुंशी प्रेमचन्द की विरासत को सँभालने वाला एक लोकप्रिय कथाकार बनाती है और उनका यथार्थ के मजबूत पायों पर खड़ा, पूरी सत्ता-व्यवस्था की कमियों को बेनकाब करता और देश की राजनीति के विद्रूपों को अलग-अलग कोणों से स्कैन करके हमारे सामने दिलेरी व बेरहमी से प्रस्तुत करता धारदार राजनीतिक विमर्श उन्हें कमलेश्वर या ऐसे ही अन्य श्रेष्ठ कथाकारों की पंक्ति में एक महत्वपूर्ण स्थान दिलाता है। अपने राजनीतिक विमर्श में अखिलेश न केवल अपने समय के साथ होड़ लगाते दिखते हैं, बल्कि वे समय से भी आगे निकलकर एक भविष्यदृष्टा कथाकार के रूप में हमारे सामने आते हैं।

***************

उमेश चौहान संवेदनशील कवि और प्रशासक हैं। कई कविता संकलन प्रकाशित। इन दिनों समकालीन यथार्थ को आल्हा की तर्ज पर लिखने में जुटे हुए हैं।

सम्पर्क: डी-I/ 90, सत्य मार्ग, चाणक्यपुरी, नई दिल्ली110021 (मो. नं. +91-8826262223, ई-मेल: umeshkschauhan@gmail.com)