(अक्टूबर 2012 के 'लमही' पत्रिका के शिवमूर्ति विशेषांक में प्रकाशित)
·
उमेश चौहान
शिवमूर्ति का कथा-संसार भले ही सीमित
है, किन्तु उसमें जो भी स्त्री कथा-पात्र दिखाई पड़ते हैं, वे बड़े ही सजीव व
मार्मिक रूप से हमारे ग्रामीण समाज के गरीब व दलित स्त्री-वर्ग की
दयनीय स्थिति उजागर करते हैं। हालाँकि उनकी अधिकांश कहानियाँ आर्थिक उदारीकरण व
मंडलीकरण के दौर के पहले के गाँवों के परिवेश से जुड़ी हैं, किन्तु आज भी इन गाँवों
में बहुत कुछ बदला नहीं है। चाहे वह ‘कसाईबाड़ा’ की शनिचरी, लीडराइन या परधानिन हो, ‘तिरिया चरित्तर’ की विमली हो, ‘अकाल-दंड’ की
सुरजी हो, ‘सिरी उपमा जोग’ की ममता हो,
‘केशर-कस्तूरी’ की केशर हो या ‘भरतनाट्यम’ की देहाती पत्नी,
ये सभी ऐसे स्त्री कथा-पात्र हैं जो एक ऐसे समाज में रहते हैं, जहाँ उनके हिस्से
में बस गरीबी है, अभाव है, भूख है, शोषण है, प्रेम की सीमित अभिव्यक्ति एवं वासना से
प्रेरित छल-कपट है, रिश्तोँ की कड़वाहट है, आत्मसम्मान बचाने की लालसा है, प्रतिरोध
है, पराजय है, सामाजिक पतन है। शिवमूर्ति के ये स्त्री कथा-पात्र हमें देश के हरएक
प्रांत के गांवों में इतने जीवंत रूप में मिलते है कि हमें उनकी यथार्थपरक लेखकीय
दृष्टि का कायल होना पडता है। यहाँ शिवमूर्ति की कुल जमा सात कहानियों, जिनसे मैं
परिचित हूँ, के आधार पर उनके इन स्त्री कथा-पात्रों की स्थिति का एक विश्लेषण किया
गया है, जो सैद्धांतिक या कहानी की आलोचना के स्थापित मानदंडों के अनुरूप न होकर,
एक नितांत पाठकीय दृष्टिकोण पर आधारित है।
शिवमूर्ति
की कहानियों को पढ़ते समय उनके स्त्री कथा-पात्रों की मनोदशाओं को हम उनके साथ घटित
हो रही घटनाओं के संदर्भ में जिस बेचैनी, उत्सुकता व संवेदना के साथ महसूस करते
हैं, वह अद्भुत है। किसी भी अन्य कथाकार की कहानियाँ पढ़ते समय ऐसा इतनी ही गहराई
से महसूस होता हो, मुझे नहीं लगता. प्रेमचंद्र की कहानियाँ पढ़ते समय भी नहीं। इसका
मुख्य कारण जो मुझे लगता है, वह है, शिवमूर्ति द्वारा इन कथा-पात्रों के संवादों
में खाँटी आम बोल-चाल की गँवई अवधी भाषा का इस्तेमाल। अवध क्षेत्र के गाँवों में
बोली जाने वाली ठेठ अवधी में बातचीत करते उनके कथा-पात्र हमें एकदम से उस परिवेश
में खींच ले जाते हैं, जहाँ के वे रहने वाले हैं। वे उसी तरह बिना किसी लाग-लपेट
के अपनी बातें कहते हैं, जैसी प्रायः गाँवों में होती हैं, विशेष रूप से दलित व गरीब
तबके के लोगों के टोलों-मुहल्लों में। इस भाषा में अभद्र गालियों, मुहावरों व
आक्षेपों का नैसर्गिक व भरपूर इस्तेमाल होता है और शिवमूर्ति ने इसी भाषा को
अपनाकर इन कथा-पात्रों को यथार्थ के एकदम करीब लाकर खड़ा कर दिया है। कलात्मक आलोचना
की दृष्टि से देखा जाय तो शिवमूर्ति एक नया ही सौंदर्य-शास्त्र गढ़ते नजर आते हैं
और वे अपने स्त्री कथा-पात्रों को उतने ही सुन्दर अथवा दीन-हीन रूप में हमारे
सामने लाकर खड़ा कर देते हैं, जैसे वे वास्तविक जगत में होते हैं। इन कथा-पात्रों
में बाल-विवाह की त्रासदी व कुपोषण तथा गरीबी की शिकार बहुएँ हैं, पत्नियाँ हैं,
माँएँ हैं, वृद्धाएँ हैं।
शारीरिक सौन्दर्य-वर्णन की दृष्टि से
देखा जाय तो ऐसा जहाँ भी शिवमूर्ति ने किया है, गजब की शैली में किया है। ‘कसाईबाड़ा’ कहानी में जब परधान दारोगा के घर से पंजीरी चाटता हुआ निकलता है तो सोचता
है, ‘मुँह में इतनी मिठास कहाँ से? पंजीरी की मिठास यह नहीं हो सकती। दरोगाइन अभी
तक तगड़ी हैं। चालीस से ज्यादा की नहीं लगतीं। देह अतर गुलाब की तरह महक रही थी।
परधानिन की देह से तो गन्ना मिल वाली तेज गंध निकलती है। तभी मैं सोचूँ कि उसे
इतनी मक्खियाँ क्यों घेरे रहती हैं?’ ‘तिरिया चरित्तर’ में जब जवान हो रही विमली डरेवरजी
के सामने आती है तो ‘डरेवरजी उसे ध्यान से देखते हैं – चेहरे का तेज दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है, शरीर गदराता जा रहा है. कितनी
चमकती है देह!’ ‘अकाल-दंड’ कहानी में शिवमूर्ति जवान हो चुकी सुरजी का वर्णन यूँ करते हैं, ‘सालों-साल अधपेट रूखे-सूखे भोजन के
चलते देह की अतिरिक्त चिकनाई कब की गल चुकी है। शेष है तो प्रकृति से मिला गोरा
रंग, पानीदार आँखें, बरबस खींच लेने वाला बोलता चेहरा। और चौबीस-पच्चीस की उम्र
वाले शरीर की स्वतःस्फूर्त चमक। इसे इस दुर्दिन में कहाँ छिपाकर ले जाय वह। और इसी
पर सिकरेटरी की नजर चढ़ गई है।’
गरीबी व
विपन्नता की शिकार स्त्रियों, विशेषकर वृद्धाओं के शारीरिक वर्णन के में तो
शिवमूर्ति बेजोड़ हैं। ‘अकाल-दंड’ कहानी में
सुरजी की माँ का रूप-वर्णन देखिए, ‘तार-तार हुई मैली चीकट धोती में मक्खियों से
घिरी बुढ़िया किसी प्रेत-योनि की अवतार लगती है। अशक्त चुचके लटकते चमड़े वाले
हाथ-पाँव, लता जैसी लटकी सूखी छातियाँ। बदरंग बिखरे सन हुए बाल। पकी बरौनियों के
अंदर से झाँकती दो बु्झी आँखें। जैसे नुची आँखों वाली बू्ढ़ी मरियल मुर्गी।’ इसी प्रकार उनकी हालिया कहानी ‘ख्वाजा, ओ मेरे पीर!’ में वृद्ध हो चली मामी का
वर्णन भी अद्भुत है, ‘कमर झुक गई थी, शरीर जर्जर था,
झुर्रियाँ लटक रही थीं। पहनी गई धोती बदरंग और अंशतः पारदर्शी हो गई थी। जैसे
एक्स-रे प्लेट में हड्डियाँ झलकती हैं, उसी तरह टांगों का धुंधला अक्स झलक रहा था।
लंबी सूखी लटकती छातियाँ पुराने ढीले पड़ गए ब्लाउज की निचली सीमा लांघकर थोड़ा बाहर
निकल आई थीं।’ ‘सिरी उपमा जोग’ कहानी में गाँव की बाल-व्याहिता देहाती पत्नी ममता का पति उसके तमाम
प्रकार के त्याग व सहयोग से प्रतियोगी परीक्षा में सफल हो, बड़ा अफसर बनकर शहर चला
जाता है और अपनी गाँव की पत्नी को उपेक्षित कर वहाँ एक शहरी लड़की से शादी करके रम
जाता है। फिर जब वर्षों बाद अचानक उसका लड़का गाँव से आकर उसके सामने खड़ा हो जाता है, तो उसे ममता की याद कुछ
इस प्रकार से आती है, ‘उनके दिमाग में पत्नी के टूटे दाँत
वाला चेहरा घूम गया। दीनता की मूर्ति, अति परिश्रम-कुपोषण और पति की निष्ठुरता से
कृश, सूखा शरीर, हाथ-पाँव सूजे हुए, मार से। बहुत गरीबी के दिन थे, जब उनका गौना हुआ
था. इंटर पास किया था उस साल।’ यदि
उस समय पति ने इंटर पास किया था तो पत्नी की उम्र निश्चित ही चौदह-पन्द्रह साल से
ज्यादा की नहीं रही होगी। उस उम्र में ममता का यह हाल! लेकिन दीनता की शिकार यही
ममता निरक्षर होते हुए भी आशा एवं आत्म-विश्वास की मूर्ति भी है। वह जल्दी ही माँ
भी बन जाती है। पति को साहिबी वाली नौकरी दिलाने के लिए वह अनेकों प्रकार के त्याग
करती है। जब पति का सेलेक्शन हो जाता है तो वह यही सोच-सोचकर खुश होती है कि जो
गाँव की औरतें उसे यह कहकर ताना मारती थीं कि खुद धोएगी गोबर और भरतार को बनाएगी
कप्तान, वे अब कुछ नहीं कहेंगी, उसकी तो पत बच गई।
‘केशर कस्तूरी’ कहानी
का शहर में जा बसा अफसर जब अपने साढू के साथ बचपन में ही गाँव में ब्याह दी गई
उनकी लड़की के घर पहुँचता है, तब जिस स्थिति में उसकी बूढ़ी सास को देखता है, उसका
शिवमूर्ति द्वारा किया गया वर्णन किसी को भी विचलित कर देने वाला हो सकता है, ‘सबसे आगे एक मटमैला हड्डहा बैल जाड़े से रोएँ फुलाए खड़ा था। उसके बाद पुआल
का ऊँचा ढेर। ढेर की आड़ लेकर धूप सेंकती बैठी थी केशर की बूढ़ी, अशक्त और लगभग अंधी
सास। बगल में एक चारपाई खड़ी थी। जमीन पर बिछे पुआल के एक सिरे पर डेढ़-दो हाथ लंबी,
तेल और मैल से चीकट एक काली कथरी सूख रही थी। कथरी से बूढ़ी तक ढाई-तीन गज लंबे क्षेत्र
में मक्खियाँ भिनक रही थीं। सांय-सांय करके हाँफती बूढ़ी, रह-रहकर खाँसती और बलगम
का एक लोंदा बगल में लुढ़का देती। हर लोंदे पर मक्खियों का काला गोला जमा था।’ शिवमूर्ति की भाषा व उनके अनोखे
सौंदर्य-बोध की यही खूबी है कि वे बिना यह सोचे कि कहाँ क्या सड़ा हुआ दिखेगा, कहाँ
क्या घिनाएगा, कहाँ क्या विचलित कर देगा, सब कुछ वैसे का वैसा ही हमारे सामने रख
देते हैं, जैसा वह होता है। ऐसा यथार्थपरक सौंदर्य-बोध तथा चित्रण की ऐसी भाषायी
सहजता अन्यत्र विरले ही दिखाई पड़ती है।
यौनिकता,
यौनाकर्षण, यौन-पिपासा, यौन-शोषण आदि के चित्रण की दृष्टि से शिवमूर्ति काफी बेबाक
कथाकार हैं। वे कथा की आवश्यकतानुरूप बेझिझक इन प्रवृत्तियों को चित्रित करते हैं
और जहाँ जो कहना होता है, उसे खुल्लमखुल्ला कहते हैं। भद्र-व्यवहार या आभिजात्यता
के चक्कर में पड़कर वे मौन या अर्ध-मुखर नहीं बने रहते। यह बिंदासपन ही उनके
कथा-प्रवाह को रोचक एवं प्रभावी बना देता है। भाषा की नैसर्गिकता इस रोचकता को और
ज्यादा बढ़ा देती है। ‘भरतनाट्यम’ कहानी में
पत्नी की कामुकता की गिरफ्त में फँसे बेटे को उसका बाप, “साला,
शाम होते ही मेहरारू की टाँगों में घुस जाता है. चार साल में तीन पिल्लियाँ निकाल
दीं. खबरदार! अगर चौथी बार मूस भी पैदा हो गया तो बिना खेत-बारी में हिस्सा दी अलग
कर दूँगा” कहकर लताड़ता है, किन्तु ओढ़ने तक की सुविधा न
होने के कारण बेटा तब भी जाड़े भर घर के भीतर पत्नी के पास ही सोने को मजबूर है।
यहाँ, “लगातार तीन-तीन बच्चियों को जन्म देने के बाद भी
पत्नी की शारीरिक भूख भले न कम हुई हो, पर मेरी भूख जरूर कम हो गई है। अब तो
हफ्ते-दस दिन में एकाध घंटे का मौक़ा ही काफी है” कहकर शिवमूर्ति कितनी
बेझिझकी के साथ उसकी यौनेच्छा की स्थिति का एक सहज विश्लेशण कर देते हैं। पत्नी की
यौन-पिपासा के बारे में भाभी की व्यंग्योक्ति भी शिवमूर्ति कितनी बेबाकी से सामने
लाते हैं, “साँड़ बनाना चाहती है भतार को. तीन-तीन बेटियाँ
बियाने के बाद भी गरमी कम नहीं हुई है, पलटन तैयार करने की कसम खाई है मायके से।
इस हरजाई की कोख में लड़का फल सकता है भला!” लेकिन इस प्रकार के व्यंग्य-बाण सहने के बावजूद भी
पति पाता है, ‘पर मेरी पत्नी अब भी कभी-कभी मौक़ा पाकर,
सबके लेट जाने के बाद रात में गरम दूध का गिलास मुझे दे जाती है. इसमें सहज-स्नेह
कम और एक निहित स्वार्थ अधिक होता है, विचित्र स्वार्थ!’
इसी कहानी में पत्नी की उत्कट यौन-पिपासा
से पीड़ित पति के मन में पत्नी की नसबंदी के बारे में विद्यमान अज्ञानता के प्रति
जो कुढ़न उत्पन्न होती है, उसे भी शिवमूर्ति कितनी बेबाकी से इन शब्दों में सामने
लाते हैं, ‘चौबीस साल की उम्र में ही तीन बच्चों का बाप
हो गया हूँ, यह सोचकर ही रोना आ जाता है। दिल में आता है, मँड़हे में ही पूजा कर
रहे बाप का शंख-घड़ियाल उठाकर गड़ही में फेंक दूँ। आखिर क्या अधिकार था उन्हें पाँच
साल की उम्र में मेरी शादी करने का? कभी-कभार पत्नी के सामने अपनी नसबंदी की कराने
का प्रस्ताव रखता हूँ तो वह इतनी गमगीन हो जाती है, जैसे मैं उसका गला काटने का
प्रस्ताव रख रहा होऊँ। मेरी कमर के गिर्द लिपटी उसकी बाँहें सुन्न पड़ जाती हैं।
उसकी नज़र में बधिया करना और आदमी की नसबंदी करना एक ही बात है। उसे कितनी बार समझा
चुका हूँ कि दोनों में बहुत फर्क है। नसबंदी के बाद भी सब कुछ पहले जैसा ही होगा,
सिर्फ बच्चे नहीं होंगे।’
‘भरतनाट्यम’ कहानी में
ही शिवमूर्ति आगे इस बेरोजगार व परेशान पति तथा उसकी कामुक पत्नी के यौन-संबंधों
के मनोवैज्ञानिक पक्ष का और भी खुलकर विश्लेषण करते हैं, ‘ऐसे समय जबकि मैं मानसिक रूप से व्यग्र रहता, पत्नी से सहवास को भी
व्याकुल रहता। पत्नी मेरी मुफ़लिसी से पूरी-पूरी असंतुष्ट थी, फिर भी बिना किसी
खास एतराज के खुद को मेरे लिए प्रस्तुत करती रहती थी, लेकिन जब-जब मेरी नजर उसके
फटे और मैले-कुचैले कपडों पर पड़ती, मैं अपराध-बोध से गड़ जाता।’ इस मानसिक वितृष्णा से उन दोनों को मुक्ति तभी
मिलती है, जब पति को सरकारी क्लर्क की नौकरी मिल जाती है। इस मुक्ति की खुशी में
पत्नी की कामुकता और भी ज्यादा मुखर हो उठती है, जिसका चित्रण शिवमूर्ति यूँ करते
हैं, ‘भाभी ने खाने के साथ दूध का गिलास देकर और पत्नी ने
रात में सारे शरीर की मालिश करके और बीसों उँगलियाँ चटकाकर अपनी प्रसन्नता व्यक्त
की। उस रात उसने मेरी कमर को इतने जोर से अपनी भुजाओं में कसकर दबाया था कि याद करने
पर आज भी दर्द होने लगता है।’ नौकरी ज्वाइन करने के बाद
जब पति दिल्ली रहकर घर लौटता है तो बिना यह जाने कि वह नौकरी गँवाकर लौटा है,
पत्नी जिस कामुकतापूर्ण व्यवहार के साथ उससे मिलती है, उसका वर्णन शिवमूर्ति से
ज्यादा अच्छी तरह शायद ही कोई कथाकार कर सकता है, ‘रात
में पत्नी ने नौ बजते-बजते ही काम समाप्त करके कोठरी में सेज सजा दी और दिलोजान से
समर्पित हुई. चरम बिंदु पर पहुँचते-पहुँचते उसने किंचित लाज और मान-भरे स्वर में
कहा, “इस बार मुझे भी ले चलिए अपने साथ। कब तक यहाँ सड़ूँगी।
आज तक मैंने कभी शहर नहीं देखा है।” मैं रस-भंग नहीं करना
चाहता था और चुम्बनों की बौछार से उसका मुँह बंद कर दिया।’ यह शिवमूर्ति की विशिष्ट शैली ही है, जो इस प्रकार की बातों को अश्लीलता
का ठप्पा लगाकर खारिज कर दिए जाने से बचाए रखती है और कहानी को रोचकता के एक नायाब
पायदान पर ले जाकर खड़ा कर देती है।
शिवमूर्ति
की हालिया कहानी ‘ख्वाजा, ओ मेरे पीर!’ में भी शादी के बाद से ही नियमित रूप से अलग
रह रही मामी जिस प्रकार से केवल पुत्र-प्राप्ति के उद्देश्य को मन में रखकर रोज रात
को खेत के मचान पर मामा से यौन-संबन्ध बनाने के लिए आती हैं, वह प्रसंग भी अद्भुत एवं
रोचक है, ‘शाम को गाय-बैलों को चारा-पानी देकर, माँ-बाप को खिला-पिलाकर पहर रात
बीते लाठी लेकर निकलतीं मामी। साँप-बिच्छू और सियार-भेड़ियों को धता बताती, आधी रात
के पहले-पहले जा पहुँचती मामा के माचे पर। पहर-डेढ़ पहर का अभिसार और चौथे पहर मायके
के लिए वापसी। अँधेरी रात हो या चाँदनी, जाड़े की ठिठुरन हो या बरसात के गरजते-बरसते
बादल, मामी के लिए पति की सेज हमेशा डेढ़-दो घंटे की दूरी पर रही।’ मामी अपने मन
का दर्द भांजे को खुलकर बताती हैं, “बिना मरद का परिवार बेसहारा होता है। मुझे सहारे
की जरूरत थी। पति का सहारा नहीं मिला तो बेटे के सहारे की आस में अँधेरी-उजेरी रात
में दो कोस बीहड़ पार करके उनके पास पहुँचती रही। अपनी पसंद के किसी भी आदमी से बेटा
पाने की राह दुनिया ने रूँध न रखी होती तो मैं उतनी दूर दौड़कर क्यों जाती? …… उन्हें
मुझसे प्रेम होता तो जिस राह से औरत जात होकर मैं आती-जाती रही, वह क्या उनके लिए अनजान
थी?” और जब भांजा कहता है, “चाहिए तो यही
था मामी लेकिन ऐसा हो सकता है कि लाजवश ऐसा न कर पाए हों” तो मामी कितनी स्वाभाविकता
के साथ पूछती हैं, “अपने पराने के पास आते किस
बात की लाज थी भैने?” बाद में भांजा अपनी पत्नी से जो प्रतिक्रिया देता है, वह
काबिले-गौर है,“भाई, बच्चे पैदा होना तो यांत्रिक क्रिया है। बिना प्रेम के भी बच्चे
पैदा हो सकते हैं। बलात्कार से भी बच्चे पैदा हो जाते हैं। प्रेम या चाहना तो अलग चीज
हुई। मामी कह रही थीं कि जब औरत होकर रात के अँधेरे में मैं उनके पास जा सकती थी तो
वे मर्द होकर क्यों न आते, अगर उन्हें मुझसे प्रेम होता।” यहाँ निश्चित ही शिवमूर्ति
स्त्री-पुरुष संबन्धों की एक नई मीमांसा करते हुए नज़र आते हैं।
चैतू मल्लाह के माध्यम से इस कहानी में शिवमूर्ति मामा-मामी
की प्रणय-कथा को एक नया मोड़ देते हैं। एक दिन मामी द्वारा निरन्तर की जा रही मनुहार
के वशीभूत हो, मामा रात में उनके गाँव की तरफ जाते हैं, लेकिन काफी देरी से। मामी तब
तक उनकी तरफ आने का दो-तिहाई रास्ता पार कर चुकी होती हैं। बीच में ही दोनों की भेंट
होती है। मामा का आग्रह मानकर मामी वापस चल पड़ती हैं। मामा उनका पीछा करते हैं। यहीं
सामने आती है, शिवमूर्ति की रोमांटिकता की एक उत्कृष्ट अभिव्यक्ति, “देर तक पियारी
के किनारे दूर तक मामी के पैरों की ‘पयरी’ बजती रही। वे आगे-आगे, मामा पीछे-पीछे। पकड़
पाए तो मुख, वक्ष और नाभि से लेकर जांघों के मध्य तक चुम्बनों की झड़ी लगाकर देर तक
डूबते-उतराते रहे। ‘पियारी’ के किनारे खादर में उगी ऊँची हरी कास की सेज ही उनका रंगमहल
बन गई। अचानक भूरे बादलों के पहाड़ ने चाँद को ढक लिया। तेज हवा चलने लगी। जंगल हरहराने
लगा। मामा ने अलसायी पड़ी मामी को कंधे पर लादा और माचे की ओर लपके। नीचे सिर किए लटकी
मामी मामा की पीठ पर मुक्के मारती रहीं।” चैतू यह वृत्तान्त
सुनाकर जब बूढ़े मंगरू से कहता है, “काले मेघों से घिरा
आसमान। धारोधार बरसता पानी। मक्के की फसल से घिरा माचा और रात का तीसरा पहर। ऐसा ‘संजोग’ हर गृहस्थ के नसीब में कहाँ” तो लगता है कि शिवमूर्ति इस कहानी के माध्यम से हमें रूमानियत के जिस
पायदान पर ले जाकर सहजता से खड़ा कर देते हैं, वह उनके बिना हमारे नसीब में कभी
संभव ही नहीं हो सकता था। बूढ़ा मंगरू जब चैतू के वृत्तान्त की सत्यता पर संदेह
व्यक्त करता है तो शिवमूर्ति चैतू के मुँह से, “चूतड़ में
हल्दी लगी नहीं। औरत का दर्शन पाए नहीं। तुम क्या जानो?”
कहलाकर अपनी बिन्दास व मुँहफट भाषा से हमें आश्चर्य में डाल देते हैं। यह बिन्दास
भाषा ही उनके कथा-पात्रों को यथार्थ की दुनिया का वाशिन्दा बना देती है और उनके
कथा-वृत्त को स्वाभाविकता प्रदान करती है।
‘ख्वाजा,
ओ मेरे पीर!’ कहानी में ही उतराहा मामी से जुड़ा एक संदर्भ भी
काफी रूमानी है। गाँव में उन्हें देखकर भांजा याद करता है, “ननिहाल आने पर बचपन में यही मामी मुझसे ज्यादा मजाक करती थीं। रोक लेतीं।
घुटनों के बल बैठ जातीं और मेरा गाल मीजते हुए कहतीं – हमको
भी पढ़ा दो भैने एक किताब। कब पढ़ाओगे? दिन में कि रात में? कहाँ पढ़ाओगे? उर्दे में
कि अरहरी में? ऐसा करो, एक किताब उर्द (के खेत) में पढ़ा दो, एक अरहरी (के खेत)
में।” यहाँ एक गुदगुदाने वाली प्रच्छन्न अश्लीलता है!
एकदम भली लगती हुई! यही तो शिवमूर्ति की भाषा-शैली की विशेषता है। रूमानियत की इसी
प्रकार की एक वक्र एवं अत्यधिक आकर्षक अभिव्यक्ति का परिचय शिवमूर्ति तब कराते हैं
जब मामी के घर से चलते वक्त रमेशर की दुलहिन द्वारा डाले गए रंग से सराबोर मामा
वापसी के रास्ते में भाव-विह्वल हो फगुआ गाते हुए अचानक बोल उठते हैं, “छिनरी ने पूरा भिगो दिया। ठंड लग रही है।”
शिवमूर्ति के स्त्री कथा-पात्र गरीबी एवं अभावों
के बीच जीते हुए भी नारी अस्मिता की रक्षा के प्रति सजग हैं। ‘कसाईबाड़ा’ कहानी में जब सामूहिक विवाह के कार्यक्रम में शनिचरी की बेटी की शादी
होती है तो गरीब होते हुए भी वह किस खूबी से अपना दायित्व निभाती है, ‘खुला-खुली गहना-गुरिया देने का हुकुम नहीं था तो
क्या, शनिचरी ने चोरी से बेटी के बक्से में अपने सारे गहने डाल दिए थे-तीन सेर चाँदी।’
‘तिरिया चरित्तर’ कहानी में जब डरेवरजी
जवानी की दहलीज पर खड़ी गरीब विमली को पैकेट के भीतर छिपाकर अंदर पहनने की चीज भेंट
करता हैं तो उसका स्वाभिमान जाग उठता है। विमली का बाल-विवाह हो चुका होता है। पति
कोलकाता में मजदूरी करता है। गौना हुआ नहीं। जिसको देखो, वही उसकी जवानी को लूटना
चाहता है। ऐसे में विमली सोचती है, “कलकत्ते वाले उसके
आदमी को क्या पता कि कितने ‘जतन’ से
सँभालकर रखा है विमली ने उसकी अमानत! पके आम के पेड़ की रखवाली जैसा कठिन काम!
कितनी निगाहें हैं, पके आम के पेड़ पर!” अपनी अस्मिता को
बचाने के लिए बेचैन विमली की सोच का ऐसा रूपकीय प्रस्तुतीकरण सिर्फ शिवमूर्ति ही
कर सकते हैं। ‘केशर कस्तूरी’ कहानी की
केशर भी निरन्तर गरीबी की त्रासदी भोगते रहने के बावजूद पिता व मौसा के घर आने पर
उनके सामने सहनशीलता एवं स्वाभिमान से सराबोर दिखाई पड़ती है, “दुःख तो काटने से ही कटेगा बप्पा! …… भागने से तो वह और पिछुआएगा।” केशर गाती है, “अपने करमवा माँ ‘जरनि’ लिखाई लाए, का करिहै बाप महतारी जी-ई-ई।”
वह फिर अलापती है, “मोछिया तोहार बप्पा ‘हेठ’ न होइहै, पगड़ी केहू ना उतारी, जी-ई-ई। टुटही
मँड़ैया मा जिनगी बितौबै, नाही जाबै आन की दुआरी जी-ई-ई।”
लोक-गीतों की ऐसी पंक्तियों के माध्यम से किसी भाव-प्रवण बात को चमत्कारिक प्रभाव
से ओत-प्रोत कर देना तथा सीधे-सीधे सामान्य पाठकजनों के हृदय में उतार देना कथाकार
शिवमूर्ति की विशेषता है। हिन्दी-कहानी के पाठक उनकी इस शाब्दिक एवं भावात्मक
जादूगरी के कायल हैं।
शिवमूर्ति
की कहानियों के अधिकांश स्त्री कथा-पात्र गरीबी, बाल-विवाह के कारण उत्पन्न
सामाजिक विषमताओं व पुरुष-समाज के बलात्कारी आचरण से त्रस्त हैं और वे यथावसर इस
सबके प्रति विद्रोह करते नजर आते हैं। प्रतिरोध के बुलन्द स्वर उठाना और शारीरिक
रूप से भी अन्याय के विरुद्ध लड़ना, इन कथा-पात्रों का सामान्य स्वभाव है। आर्थिक,
सामाजिक, शारीरिक एवं मानसिक शोषण का प्रतिरोध करना ही शिवमूर्ति की कहानियों का
मुख्य उद्देश्य अथवा केन्द्रीय भाव है। ऐसे प्रसंगों में उनकी भाषा भी गाँवों में
प्रचलित अवधी की भाव-भरी, प्रियकर व कहीं-कहीं स्वाभाविक गाली-गलौज भरी शब्दावली
से सनकर बड़ी ही चमत्कारिक हो उठती है। ‘कसाईबाड़ा’ कहानी की मुख्य कथा-पात्र शनिचरी
एक अनपढ़, गरीब व शोषण की शिकार स्त्री है जिसकी बेटी रूपमती को ग्राम-प्रधान ने सामूहिक-विवाह
कार्यक्रम के बहाने पैसे लेकर शहर के एक आदमी को वेश्या-वृत्ति कराने के लिए सौंप
दिया है। शनिचरी को ग्राम-प्रधान का प्रतिद्वन्दी व पेशे से अध्यापक, गाँव का
चालाक लीडरजी अपने लाभ के लिए भड़काकर उस ग्राम-प्रधान के दरवाजे पर अनशन के लिए
बैठा देता है। ग्राम-प्रधान जैसे ही घर के बाहर आता है, शनिचरी इस संघर्ष में
अकेले होते हुए भी परधान से बेखौफ़ भिड़ जाती है, ‘निकलते ही शनिचरी उनका (परधान जी का)
पैर पकड़कर गोहार लगाती है, “मोर बिटिया वापस कर दे बेईमनवा, मोर फूल ऐसी बिटिया
गाय-बकरी की नाई बेंचि के तिजोरी भरै वाले! तोरे अंग-अंग से कोढ़ फूटि कै बदर-बदर
चूई रे कोढ़िया …।” लीडर
तो बस परधानी पर कब्जा जमाकर अपने एम. एल. ए. व
मिनिस्टर बनने का सपना पूरा करने के लिए शनिचरी को मोहरा बनाता है, किन्तु गाँव का
अपाहिज व अधपगला अधरंगी खुलकर शनिचरी के पक्ष में खड़ा होता है। वह अकेला ही गाँव
में घूम-घूमकर परधान व लीडरजी की पोल खोल-खोलकर विरोध के स्वर बुलन्द करता रहता
है। जब परधान दारोगा की शह पाकर शनिचरी को अनशन-स्थल से उठवा फेंकता है, तब अधरंगी
परधान व उसके बेटे के पुतले बनाकर सारे गाँव में मुनादी करके शनिचरी से शाम को
बबूल के एक ठूँठ पर उन दोनों को फाँसी दिला देता है। यहाँ शिवमूर्ति ने शनिचरी का
जो रूप हमारे सामने प्रस्तुत किया है, वह एक आत्मविश्वास से भरी विद्रोही स्त्री
का है, ‘आने-जाने वाले रुककर देखते हैं तो शनिचरी हाथ की छड़ी पुतलों
पर मारकर परिचय देती है, “ई खिरोधरा आ। ई परेमवा। ई खिरोधरा…।” शनिचरी इस
संघर्ष में परधान के दमन का सीधा विरोध करती हुई उसे चुनौती देती है, ‘सहसा उठकर खड़ी होती है वह और आकर बिल्डिंग का
दरवाजा फटफटाने लगती है, “अरे या रँड़वा, खोल केवड़वा।”
‘कसाईबाड़ा’ कहानी में अन्याय के विरुद्ध प्रतिरोध की यह
प्रवृत्ति सिर्फ शनिचरी या अधरंगी तक ही सीमित नहीं है। परधान की अत्याचारी
गतिविधियों के विरुद्ध परधानिन के विद्रोह का जो दृश्य शिवमूर्ति ने खींचा है, वह
विभिन्न राम-कथाओं में लंकापति रावण को समझाने के लिए पत्नी मंदोदरी द्वारा किए गए
शालीन प्रतिरोध से कहीं ज्यादा तीक्ष्ण व धारदार है, ‘हाथ झटककर परधानिन बड़बड़ाने लगती है, “ई गाँव लंका
है। इहाँ लंकादहन होवेगा। रावन तू ही हो। लीडर बना है बिभीखन। तोहरे दूनों के चलते
गाँव का सत्यानाश होवेगा। होई रहा है। बहिन-बिटिया बेंचो। हमहूँ का बेचि लेव।
रुपया बटोरो। साथ लै जायेब, लेकिन अब हम एहि घरे मा ना रहब। आपन बेटवा लैके
भीखकौरा माँगब, मुला …।” इसी
प्रकार जब लीडरजी मुख्यमंत्री को निवेदन देने के बहाने से धोखे से अनपढ़ शनिचरी के
दस्तखत कोरे स्टाम्प-पेपर पर कराकर उसकी ज़मीन हड़प लेता है और पत्नी से झूठा
आश्वासन दिलवाकर परधान उसे धोखे से अनशन तुड़वाने के बहाने जहर पिलाकर मार देता है
तब लीडरजी के घर में भी विद्रोह की ज्वाला भड़क उठती है। उनकी चालाकी भरी
गतिविधियों से त्रस्त लीडराइन के यह तेवर देखिए, ‘तिनककर बैठ जाती हैं लीडराइन, “धोखेबाज, बेईमान। तुम्हारे ही पाप के कारण
मेरी कोख नहीं फल रही है। मैं …।” फिर जब
लीडरजी उसे समझाने व मनाने की कोशिश करता है तो लीडराइन का गुस्सा अपने चरम पर
पहुँच जाता है, “तुम लोग कसाई हो।
सारा गाँव कसाईबाड़ा है। मैं नहीं रहूँगी इस गाँव में।” निश्चित ही ‘कसाईबाड़ा’ कहानी शिवमूर्ति की एक बेहद प्रभावशाली कहानी है,
जो हमारे ग्रामीण समाज में व्याप्त शोषण व अत्याचार, राजनीतिक मूल्य-च्युति,
प्रशासनिक भ्रष्टाचार, प्रतिरोधी स्वरों के दमन तथा देश में नए संविधान के लागू
होने के दशकों बाद आज भी कसाईबाड़े रूपी ऐसे तमाम गाँवों की स्थिति में कोई बदलाव न
होने की विडंबना को पुरजोर ढंग से उद्घाटित करती है।
‘अकाल-दंड’
कहानी में राहत-सामग्री बँटवाने वाला इलाके का सिकरेटरी मेहनत-मंजूरी कर अपना व
बूढ़ी माई का पेट पालने वाली निम्न जाति की युवती सुरजी की आकर्षक देह को भोगने के
लिए पागल हो उठता है। वह उसकी इज्जत लूटने के लिए उतावला होकर एक रात सुरजी की
झोपड़ी में घुस जाता है। वह सुरजी को प्रलोभन देता है कि उसका उद्धार कर देगा।
सुरजी मुँहतोड़ जवाब देती है, “उद्धार
जाकर अपनी माई-बहन का कर दाढ़ीजार। उन्हीं को पढ़ा अपना यह ‘परेमसागर’।” लेकिन सिकरेटरी वासना में अंधा है। वह उसे फिर लालच देता है। इस अवसर पर
सुरजी की निर्भीकता व भय दोनों का जो सम्मिश्र-चित्रण शिवमूर्ति ने किया है, वह
बहुत ही प्रभावशाली है, ‘सिकरेटरी की काली छाया आगे बढ़ते देख गुर्राती है
सुरजी, “ख-आन … खबरदार जो
आगे बढ़ा।” वह दूसरे कोने की ओर पिछड़ती जा
रही है, “मुँह झौंसि देब
दहिजार के पूत।” सिकरेटरी फिर भी नहीं मानता।
वह जोर-जबर्दस्ती पर उतर आता है। यहाँ पर शिवमूर्ति अपनी व्यंग्य-भरी धारदार भाषा
में स्त्री-विद्रोह
का जो रूप प्रस्तुत करते हैं, वह अद्भुत है, ‘लात का पक्का धक्का
पिछवाड़े लगता है तो औंधे मुँह जाकर बाँस के चौखट से टकराते हैं। आगे के दोनों दाँत
– घोड़ा-दंत निकल भागे। बाप रे! उठकर खून थूकने तक की ताब नहीं। पड़े-पड़े भैंसे की
तरह हाँफ रहे हैं। फिर गुर्राती है सुरजी, “भलमानसी चाहौ तो अब चुप्पै भाग जाव।
नाही त अबही गोहार लगाय देब त तोहर भद्दरा (भद्रता) उतरि जाए।” ‘अकाल-दंड’ ही शिवमूर्ति की एकमात्र ऐसी
कहानी है, जिसमें उनकी गरीबी, अत्याचार व शोषण की शिकार नायिका प्रतिरोध व संघर्ष
करते-करते एक ऐसे मुकाम पर पहुँच जाती है, जहाँ वह रण-चंडी बनकर दुश्मन पर हमला कर
देती है और अंततः आततायी को सजा देने में सफल होती है, भले ही एक अपराधिनी बनकर। जब
सिकरेटरी गाँव के दबंग रंगी बाबू का इस्तेमाल करके सुरजी को अपने कैम्प तक बुलवाने
में सफल हो जाता है, तब सुरजी के पास अपनी इज्जत बचाने का और कोई चारा नहीं बचता
और वह साहस व संघर्ष के शीर्ष पायदान पर पहुँच जाती है। इस कहानी का यह अंतिम
दृश्य पुरुष-अत्याचार के विरुद्ध होने वाले एक स्त्री-संघर्ष के जिस चरम गंतव्य तक
हमें ले जाता है, वह बेमिसाल है, ‘सिकरेटरी के तम्बू के
अंदर-बाहर भीड़ जमा हो गई है। अंदर का दृश्य बड़ा भयानक है। सिकरेटरी बाबू पलंग पर
नंग-धड़ंग पड़े छटपटा रहे हैं। सुरजी ने हँसिये से उनकी देह का नाजुक हिस्सा अलग कर
दिया है और पिछवाड़े के रास्ते भागकर अँधेरे में गुम हो गई है।’
प्रतिरोध के स्त्री-स्वर शिवमूर्ति की अन्य कहानियों में भी
तरह-तरह के प्रसंगों में बिखरे पड़े हैं। ये स्वर कहीं एक पत्नी के हैं, कहीं एक माँ
के, कहीं एक बहू के, कहीं एक सामान्य अबला के। ‘भरतनाट्यम’ कहानी में तो शिवमूर्ति
ने एक नाकारा व बेरोजगार बेटे के प्रति माँ के भीतर उपजे गुस्से को भी एक अलग ही तरह
का नायाब सा खालिश ग्रामीण रूपक गढ़कर उभारा है। यहाँ बेटा गोबर से कंडे पाथती अपनी
माँ की शारीरिक भाषा के माध्यम से ही उसके गुस्से की तीव्रता को महसूस कर लेता है,
‘मुझे देखकर वे अपना हाथ गोबर पर और जोर-जोर से पटकने लगती हैं।
लगता है, यह हाथ गोबर पर नहीं, मेरे गालों पर पड़ रहा है –
थप्प, थप्प! और मेरे चेहरे पर गोबर छोप उठा है।’
‘तिरिया चरित्तर’ एक स्त्री-प्रधान
कथा-पात्र वाली शिवमूर्ति की संभवतः सर्वाधिक चर्चित कहानी है। इसकी नायिका विमली का
बाप अपाहिज है और माँ बूढ़ी तथा लाचार। बचपन में ब्याहे पति का अता-पता नहीं और उसकी
तरफ से भी कोई खोज-खबर नहीं। भाई शादी करके जोरू का गुलाम बनकर अलग रह रहा है, इसलिए
वह माँ-बाप की जिम्मेदारी सँभालने के लिए सरपंच के घर में काम पर लग
जाती है। लेकिन जब सरपंचाइन उसकी माँ को उधारी पर भी घर का चूल्हा जलाने के लिए पैसे
देने से मना कर देती है, तो वह अगले ही दिन उसके यहाँ का काम छोड़ देती है। उसके विद्रोह
के स्वर तीखे हैं, “नहीं करना उसे ऐसी जगह गोबर-झाड़ू, जहाँ माँगने पर भीख भी
नहीं मिल सकती।” विमली मेहनत-मंजूरी की
तरफ मुड़ती है। जिस काम को औरतें नहीं करती हैं, उसे करने की ठान लेती है। वह भट्ठे
पर ईंटें ढोने का काम पकड़ लेती है। इससे गाँव की औरतों में खलबली मचनी स्वाभाविक है।
उसका बाप भी उसे धिक्कारता है। लेकिन माई सहारा देती है। वह विमली को गाँव की जलनखोर
औरतों की परवाह न करने के लिए प्रेरित करती है। वह जलनखोरों पर नमक
छिड़कने के लिए पहली ही मजदूरी के पैसों से एक बोरा नमक खरीदकर लाने जैसी व्यंग्योक्ति
करती है। शिवमूर्ति ने यहाँ विमली की माई के उद्गार बड़े ही तीखे ढंग से व्यक्त किए
हैं, “जिसको अपने जले पर नमक छिड़कवाना हो, आकर छिड़कवा जाए … मेरी
बिटिया जनम भर दूसरे की कुटौनी-पिसौनी, गोबर-सानी करे। फटा-उतारा पहिरे। तब इनकी
छाती ठंडी रहेगी …… एक टूका रोटी के लिए दूसरे का लरिका सौंचाए …… भट्टे पर कौन
बिगवा (भेड़िया) बैठा है। सबेरे से साँझ तक काम करो। फिर अपने घर। एहमा कौन
बेइज्जती? ई गाँव के लोग केहू के चूल्हा की आग बरदास नहीं कर सकते। जैसे इनकी छाती
पर जलती है। इन्हीं लोगन के चलते हमार सोना जैसन बेटवा हाथ से निकरि गवा। तू लूल
तो भवै हो, अन्हरौ होई गए हौ का? कुछ सोचौ-समझौ।” पति और समाज दोनों को
एक साथ लताड़ती विमली की माई का यह रूप तथा शिवमूर्ति की यह अवधी-सनी
भाषा बहुत ही प्रभावशाली है।
जवान हो
रही विमली जब धीरे-धीरे काम-पिपासु लोगों की नीच हरकतों का शिकार होने लगती है, तो
अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए उसके भीतर प्रतिरोध के स्वर भी मुखर होने लगते हैं।
इसके लिए वह प्रायः व्यंग्य व विनोदपूर्ण ढंग से ही पेश आती है। भट्ठे पर साथ काम
करने वाला बिल्लर जब एक दिन उसे घर छोड़ने के बहाने साथ आकर रास्ते में छेड़खानी
करने पर आमादा हो जाता है, तो वह उसे बुरी तरह झिड़क देती है, “ए बिलरू! बड़ी
बदमाशी सूझती है – हट!” फिर भी जब बिल्लर नहीं मानता तो वह उसे नसीहत भी देती है, “अरे-अरे! मनई जैसा
चल!” बिल्लर उसके मन के चोर को पहचानता है। विमली के मन में भट्ठे पर ट्रक लेकर आने
वाले डरेवरजी के प्रति कोमल भाव व आकर्षण है। बिल्लर इसी का फायदा उठाकर उसे दबाव में
लेने का प्रयास करता है, “डरेवर बाबू की देह महकती है और
मेरी गंधाती है?” विमली न घबराती है, न सकुचाती। वह दो टूक जवाब
देती है, “रमकल्ली के भतार! न तू हमार बियहा हो न डरेवर बाबू। खबरदार!”
बिल्लर डर जाता है। लेकिन बाद में वह उसकी माई को लालच में फँसाकर विमली को
पाने की कोशिश करता है। वह अपनी बहन के हाथों माई के लिए नया हुक्का व तम्बाकू भरी
हाँड़ी भेजता है। माई खुश हो जाती है। वह विमली को उसके बचपन में ब्याहे पति के उपेक्षापूर्ण
व्यवहार तथा उसकी अल्प-कमाई की याद दिलाकर उसे बिल्लर से दूसरी शादी करने के लिए प्रेरित
करती है। किन्तु विमली प्रतिरोध करती है, “यह
आज सोच रही हैं। पहले क्यों नहीं सोचा? क्या जरूरत थी बचपन में ही किसी के गले में
बाँध देने की?” फिर वह माई की सोच को कोसती है, “कल कोई दस बीघे वाला लड़का आ जाएगा तो तू कहेगी कि मैं उसी के साथ बैठ जाऊँ?”
जब उसकी निगाह हुक्के व तम्बाकू की हाँड़ी पर पड़ती है तो वह एकदम ही विद्रोह पर उतर
आती है, “दस रुपए के हुक्के-तम्बाकू पर तूने अपनी बिटिया को राँड़ समझ
लिया रे? बोल! कैसे सोच लिया ऐसा? जिसकी औरत उसे पता भी नहीं और तू उसे दूसरे को
सौंप देगी? गाय-बकरी समझ लिया है?” माँ निरुत्तर ओ जाती है और चीख
पड़ती है, “चुप-चुप-चुप! हल्ला मत कर राँड़!” क्या हिन्दी-कहानी में है कहीं कोई सानी शिवमूर्ति
के इस प्रकार के स्त्री-विमर्श की?
‘तिरिया चरित्तर’ में ही इस बाल-व्याहिता
विमली का ससुर विसराम एक दरिन्दे के रूप में सामने आता है। वह बिना अपने बेटे को घर
बुलाए जवान हो रही विमली का गौना करा लाता है और उसका यौन-शोषण करना चाहता है। वह
गाँव का चौधरी है और चालाक भी। विमली उसका इरादा समझ जाती है और अपनी इज्जत बचाने
के लिए लगातार संघर्ष करती है। इस संघर्ष का चित्रण करते समय शिवमूर्ति बड़ी ही प्रभावी
व धारदार भाषा का इस्तेमाल करते हैं, ‘शुरू-शुरू में तो नई पतोहू जैसा शरम-लिहाज था। रीं-रीं करके
रोना – हम बिटिया
बराबर अही। आप बाप बराबर। रो-रोकर पैर छान लेती थी दोनों हाथों से। लगता था अब
ढीली पड़ी कि तब। लेकिन बाद में तो बिल्ली जैसी खूँखार। वैसी ही गुर्राहट! पंजे
मारना। हाथ झटकना। बिल्ली जैसे नाखून! सारा मुँह, नाक, कान, नोंच लिया है। पूरा
चेहरा ‘परपरा’ रहा है। जलन!’ जब विसराम जबर्दस्ती
करने की कोशिश करता है तो विमली आक्रामक हो उठती है, ‘दोनों पैर सिकोड़कर
ऐसा सधा वार किया छाती पर कि विसराम उताने दूर जा गिरा खटिया से। तब से छाती और
सिर में भयानक दर्द!’ शिवमूर्ति ने आत्म-रक्षा के लिए संघर्षरत विमली
का वर्णन करते-करते एक अनुपम उपमा की स्रष्टि की हैं यहाँ, ‘पैर सिकोड़कर
घुटने को अंकवार में बाँधकर, उसी में सिर गड़ाए बैठी है विमली। जैसे कोई साही
दुश्मन के आक्रमण की आशंका में बैठी हो काँटा फुलाकर! दूर से ही भूँक रहा है
विसराम। पास जाते ही एक काँटा तीर की तरह छूटेगा – सन्न!’ विमली का यह संघर्ष हमें आए दिन अपने आस-पास यथार्थ
रूप में घटित होता हुआ दिखता है। गाँवों में ही नहीं, शहरों में भी।
विसराम बल से नहीं जीतता है तो छल पर
उतर आता है। वह दिखावे के लिए पूजा-पाठ करने लगता है। अलग झोपड़ी बनाकर सोने लगता
है। फिर एक दिन धोखे से पंचामृत में नशीला पदार्थ मिलाकर विमली की इज्जत लूट लेता
है। विमली उस अर्ध-बेहोशी की अवस्था में भी मनसा संघर्ष के लिए उद्यत है किन्तु
शरीर साथ नहीं देता। शिवमूर्ति का दृश्यांकन यहाँ काफी हृदय-विदारक है, ‘ऐ! क्या हो रहा है? झोपड़ी हिल रही है या
खटिया? मुँह नोच लेगी वह। आँखें फोड़ देगी। लेकिन हाथ-पैर में जुम्बिश क्यों
नहींहोती? विसराम के शरीर में बाघ की ताकत आ गई है। डाकगाड़ी का इंजन – झक! झक! झक!
झक! बपा रे ए-ए! वह चीखना चाहती है लेकिन सिर्फ गों-गों करके रह जाती है। कोई वश नहीं।
जैसे अतक समुंदर में डूबी जा रही हो।’
सब कुछ लुट जाने के बाद भी विमली हताश नहीं होती। वह प्रतिकार के लिए तत्पर होती
है। उसके भीतर प्रतिशोध की ज्वाला भड़क उठती है, ‘सहसा रुलाई गायब हो
जाती है। बुझी-बुझी आँखों में चमक उभरती है। क्रमशः दीप्त होती चमक! बिल्ली की
आँखों की चमक देखा है कभी अँधेरे में? नीली चमक! जलती आँखें!’ विमली उस आततायी व धोखेबाज
ससुर से बदला लेने को उद्यत होती है। इस प्रतिशोध की तत्परता को शिवमूर्ति बड़े ही प्रभावशाली
ढंग से सामने लाते हैं, ‘उसकी आँखों में मँड़ही के अंदर खटिया पर
बेसुध पड़ा विसराम का काला अधनंगा शरीर नाच रहा है। युगों की भूख मिटाकर बेखबर सोया
पड़ा तृप्त-संतृप्त दैत्य! खुले मुँह से बहती पीक की धार? गंदा तन – गंदा मन! सारी गंदगी, बदबू, छल और धोखा जलाकर राख कर देगी वह। और कोई राह
नहीं।’
आज आए दिन खाप पंचायतों व ऐसे ही अन्य
जातीय व धार्मिक संगठनों द्वारा लिए जाने वाले तमाम ऊट-पटांग फैसले हमारे सामने आ रहे
हैं। शिवमूर्ति ने इस प्रकार की अंधी पंचायतों की अन्यायपरक गतिविधियों की एक
बेबाक एवं दिल दहला देने वाली झलक बड़ी सहजता से दिखाई है। ससुर विसराम धोखे से
पतोहू की इज्जत भी लूटता है और उसी के खिलाफ पंचायत में अभियोग भी लगा देता है।
विमली फिर भी उससे डरती नहीं है, वह इस हालत में भी प्रतिरोध का स्वर बुलन्द करती
है। जब विसराम गहने चुराने का आरोप लगाकर उसके बाल नोचने लगता है तो वह फिर संघर्ष
पर आमादा हो जाती है, ‘पतोहू झटके से उठ खड़ी होती है, “खबरदार! कुत्ता,
दाढ़ीजार, जो दुबारा हाथ लगाया मेरी देह पर। कच्चा चबा जाऊँगी।” बाप रे! सहमकर पीछे हट जाता है विसराम।’ बाद में जब पंचायत जुटती
है तो वह बड़ी निर्भीकता से उसके सामने सच का बयान करती है;
“तू मिट्टी के तेल की बोतल और माचिस लेकर
विसराम की मँड़ई में गई थी, यह सच है कि झूठ है?”
“सच है!”
“क्यों गई थी?”
“गई थी इसे मिट्टी का तेल डालकर इसे फूँकने।”
“काहे?”
“क्योंकि मेरी झोपड़ी में दारू पीने वाला,
मछली खाने वाला और मेरे साथ मुँह काला करने वाला जानवर यही था। मैं इसे जिंदा
जलाना चाहती थी लेकिन यह बच गया। अब मैं इसका कच्चा मांस खाऊँगी।”
लेकिन पंचायत को सच कहाँ सुनना है! वहाँ
कोई भी सच के साथ नहीं। न कोई सच जानना चाहता है, न कोई सच बोलना चाहता है। वहाँ
सभी में एक पूर्वाग्रह है। । वहाँ पहले से ही निर्धारित एक फैसला है, जिस पर बस
पंचायत का ठप्पा लगना है। फिर भी शिवमूर्ति की इस पंचायत में कम से कम गाँव का एक ऐसा
स्त्री-चरित्र है, जो सच के पक्ष में खड़ा होता है। वह है मनतोरिया की माई। वह कहती
है, “एकदम ठीक बोलती है पतोहू! मैं गवाह हूँ। एक दिन मैं खुद गई थी
इसकी झोपड़ी में। वही दारू की बोतल। वही बीड़ी के टोंटे। पुराना पापी है विसरमवा।
महागीध। घटियारी शुरू से इसके मन में बसी है।” जब पंचायत विमली को
कुलटा करार देकर उसे माथे पर दागे जाने का निर्णय ले लेती है, तो मनतोरिया की माई
फिर से जोरदार प्रतिवाद करती है, “ई अँधेर है। दगनी दागना है तो विसराम और
बोधन चौधरी के चूतर पर दागना चाहिए।” किन्तु पंचायत में
कौन सुनने वाला है। फिर भी इस अन्याय को विमली बर्दाश्त नहीं करती है। वह भरी
पंचायत में निर्भीकता से अपना विरोध दर्ज कराते हुए इस फैसले को अस्वीकार कर देती
है, “मुझे पंच का फैसला मंजूर नहीं। पंच अंधा है। पंच बहरा है। पंच
में भगवान का ‘सत’ नहीं है। मैं ऐसे
फैसले पर थूकती हूँ – आ-क-थू …! देखूँ कौन माई का लाल दगनी
दागता है।” नारी के विद्रोह का ऐसा रूप स्त्री-विमर्श के संपूर्ण
कथा-साहित्य में विरले ही दिखता है। शिवमूर्ति की यह कहानी इस दृष्टि से बेमिसाल
है और हिन्दी-कहानी में मील का एक पत्थर है।
शिवमूर्ति
की कहानियों में प्रायः हमारे ग्रामीण समाज में व्याप्त सामाजिक अन्याय, शोषण व
दमन का स्पष्ट व नंगा रूप उभरकर अभिव्यक्त होता है। उनकी यह अभिव्यक्ति हर समय एक
भोगे हुए सच के रूप में सामने आती है, किसी सुनी-सुनाई या पढ़कर समझी गई अनुभूति की
तरह नहीं। इस अन्याय व शोषण के जितने कारक-तत्व हैं, उन पर वे साफ-साफ रोशनी डालते
हैं। बाल-विवाह की प्रथा तो इसमें सबसे बड़ा कारक-तत्व है, जिसका उल्लेख वह ‘तिरिया
चरित्तर’, ‘सिरी उपमा जोग’ व ‘भरतनाट्यम’ जैसी कहानियों
में बखूबी करते हैं। ‘तिरिया चरित्तर’
की विमली माई से प्रश्न करती है, “क्या जरूरत थी बचपन में
ही किसी के गले से बाँध देने की?” वह
पराई अमानत को संहालते-संहालते किशोरावस्था से लेकर जवानी तक कदम-कदम पर संघर्ष से
गुजरती है और बाद में अपने ही ससुर द्वारा छली जाती है, ‘धोखा! छल! कहाँ-कहाँ से किन-किन खतरों से बचाती आई थी वह पराई अमानत!
कितने बीहड़? कितने जंगल? कितने जानवर? कितने शिकारी? और मुकाम तक सुरक्षित पहूँचकर
भी लुट गई वह! मेंड़ ही खेत खा गई छल से!’ स्थानीय स्तर पर
रोजगार के अभाव में रोजी-रोटी के लिए घर से पुरुषों का अकेले ही परदेश या महानगरों
की ओर विस्थापित हो जाना भी स्त्रियों के शोषण का एक बड़ा कारण बनता है। ‘कसाईबाड़ा’
में अपनी बेटी की पैदाइश के बारे में दारोगा के भय से शनिचरी द्वारा किया गया खुलासा
देखिए, ‘शनिचरी घबराती है।
उसके सरगवासी आदमी पर तोहमत लग रही है, तब तो सच बोलना ही पड़ेगा, “हुजूर, पैदा तो
इनही परधानजी ने किया था। पूछे का मौका भी नहीं दिए। हमारे आदमीजी तो तब परदेश गए
रहे।” गाँव में स्त्रियों का यौन-शोषण कोई विरली घटना
नहीं है। यह तो एक आम बात है। ‘कसाईबाड़ा’ में ही अधरंगी कितने व्यंग्य के साथ दारोगा
से इस ओर इशारा करता है, “कितनी
शनिचरियों के लूप लगवाओगे दारोगा साहेब, जब तक परधानजी की जवानी गरम है। लूप
लगवाना है तो परधान के लगवाओ।” मौका मिलते ही नजदीकी कस्बों व शहरों के
लोग भी गाँव की स्त्रियों का यौन-शोषण करने से बाज नहीं आते। ‘अकाल-दंड’ कहानी में
जब सूखे से पीड़ित गाँव की स्त्रियाँ रोजी के अभाव में शहरी अफसरों, डॉक्टरों, कर्मचारियों
या सेठों के घरों में जाकर काम करने लगती हैं, तब जो होता है उसकी ओर बड़ा ही व्यंग्यात्मक
संकेत किया है शिवमूर्ति ने, ‘उस दिन पानी के टैंकर का ड्राइवर कह रहा था – जनम के रंड़ुवे भी फेमिली
वाले बन गए इस सूखे में।’ इस पर अपना यौन-शोषण न होने देने के प्रति सजग
सुरजी की प्रतिक्रिया देखिए, ‘ई का हो रहा है – सुरजी सोचती है। बाढ़ में नहीं सूखे में ‘बहने’ लगा है
गाँव।’
निरक्षरता शोषण का एक अन्य बड़ा कारण है। इस देश के गामीण
क्षेत्रों में एक लम्बे समय से निरक्षर आदिवासियों व दलित वर्ग के लोगों की जमीनें
पढ़े-लिखे समाज के लोगों द्वारा छोटे-छोटे प्रलोभन दिखाकर हथियायी जाती रही हैं। देश
की आजादी के बाद शासक-वर्ग की सांठ-गांठ से यह सिलसिला और तेजी पकड़ गया है। ‘कसाईबाड़ा’ कहानी में लीडरजी गरीब शनिचरी
को अनशन पर बिठाकर परधान से भिड़ा देता है। वह जानता है कि परधान शनिचरी को नहीं
छोड़ेगा। वह उसकी शिकायत मुख्यमंत्री को लिखकर देने का बहाना बनाकर उसकी जमीन भी
अपने नाम लिखा लेता है। अनपढ़ शनिचरी हर तरफ से शोषण का शिकार होती है। पहले परधान
उसका यौन-शोषण करता है। फिर वह बेटी गँवाती है। लीडरजी उसकी प्रतिरोध की भावना का
राजनीतिक शोषण करता है। वह अपनी जमीन गँवा बैठती है और अंत में जान भी। इस सबकी जड़
में उसका गरीब व अनपढ़ होना ही है। शिवमूर्ति ने उसकी जमीन को धोखे से अपने नाम
लिखवा लेने वाले की लीडरजी की कारस्तानी को इस संवाद में बखूबी चित्रित किया है;
“ई तौ कचहरी वाला कागद है बेटवा, ऊपर की ओर रुपैया जैसी
छापी बनी है।”
“मुख्यमंत्री के पास तो वाटर मार्क वाली दरखास्त ही जाती है
काकी, बिना कोर्ट और टिकट वाली दरखास्त की कोई बैलू नहीं।”
“कुछ लिखौ नाहीं है। कोरा कागद।”
“इसमें मशीन से टाइप करवाकर लिखना होगा। हाथ की लिखाई नहीं
चलेगी।”
शनिचरी अँगूठा-निशान देती है।’
जातीय
ऊँच-नीच भारतीय समाज का सबसे बड़ा अभिशाप है। वर्ण-भेद कर्मणा है, यह बताने-समझाने
वाली ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने जोड़ा इसे हमेशा जन्म से ही है। यह वह व्यवस्था है,
जो जन्म से ही आपका कर्म-क्षेत्र, आपके गुण-दोष, आपका सामाजिक स्तर, आपकी आचरण
नियमावली व आपका भविष्य तय कर देती है। शिवमूर्ति जब ‘अकाल-दंड’ कहानी में रंगी बाबू नामक दबंग के मुँह से अपनी इज्जत बचाने के लिए
प्रतिरोधशील सुरजी के बारे में यह कहलवाते हैं, तो वे इसी विदंबना की ओर इशारा कर
रहे होते हैं, “नीच जाति है तो दूध की धोई
होने का सवाल ही नहीं पैदा होता। ये तो पेट से छल-छंद लेकर उपजती हैं।” कानून-व्यवस्था
की लचर हालत के कारण हमारे गाँवों में दबंगों का साम्राज्य स्थापित है। कोई उनके
खिलाफ मुँह नहीं खोल सकता है। उनके विरुद्ध किसी में प्रतिरोध करने की हिम्मत
नहीं। ‘अकाल-दंड’ कहानी में
प्रतिरोध करती सुरजी भी अंततः गाँव के दबंग रंगी बाबू से डरकर उसकी चाल का शिकार
हो जाती है। जो सुरजी सिकरेटरी की काम-पिपासा भाँपकर उसकी हर हरकत का मुँहतोड़ जवाब
देती है, वह इस दबंग के कहने पर बस यही सोच पाती है, ‘क्या कहे सुरजी (रंगी बाबू से)। मना भी कर दे तो यह जल्लाद
रात-ब-रात उठवा सकता है अपने आदमियों से। अभी तो ‘मनई धारन’ बोल रहा है। तब न जाने
क्या गत बनाए। चीख-पुकार करने पर भी इसके मुकाबले कोई नहीं आने वाला। “आपकी छाया
है तो हमें कौनो चिंता नहीं है बाबू साहेब। जब कहौ, जहाँ कहौ बयान दै देई। अंगूठा
लगाय देई।”
भारतीय समाज में नारी हमेशा से अबला मानी गई है। ‘आंचल में है दूध और आँखों में
पानी’ की भावना में स्थिरप्रज्ञ
हमारे समाज में नारी हमेशा ही शोषण, अत्याचार, अन्याय व प्रताड़ना का शिकार होती
रही है। भारतीय घर में सबसे दयनीय स्थिति होती है बहू की। उसकी यह स्थिति अमीरी और
गरीबी के भेद से परे है। शिवमूर्ति ने ‘’तिरिया चरित्तर’ कहानी में बहू की इस दुर्गति को बहुत ही मार्मिक ढंग से रेखांकित किया
है। विसराम जब बिना बेटे को घर बुलाए अपनी पतोहू विमली का गौना करा लाता है और
उसके साथ ही अपनी झोपड़ी में रहने लगता है, तो उस समय विमली की हालत बड़ी दयनीय हो
उठती है, ‘पतोहू कुछ बोलती ही
न थी। एकदम गूँगी। बोलती थीं उसकी आँखें। टुकुर-टुकुर ताकती हुई उतरा मुँह! थका
चेहरा! कसाई की गाय!’ विमली ससुर की कामुक करकतों का
विरोध करती है तो वह उसे जली-कटी सुनाता है; “मेला देखेगी? जलेबी खाएगी? गंगा असनान करेगी?” वह विमली की कोमल भावनाओं पर तीखा आघात करता है, “डरेवरवा की दारू महकती है और मेरी गंधाती है? नाक बंद करती
है? क्या-क्या बंद करेगी?” प्रायः जिस प्रकार की गाली-गलौज
भरी भाषा में सामान्यतः गाँव-घर में बातें होती हैं, वह लेखन की भद्र परंपरा में
दबी ही रहती है। किन्तु शिवमूर्ति जो कुछ जैसा है, वैसा ही कहने में विश्वास रखते
हैं। इसीलिए जब विसराम पतोहू को ‘कातिक की कुतिया’ कहकर गरियाता है तो हमें उनकी अभिव्यक्ति बड़ी स्वाभाविक लगती है, “मुझसे बोलने मे भी पाप लग रहा है रे? तिरिया चरित्तर
फैलाने से जान बचेगी? साली! कातिक की कुतिया!” पतोहू सब कुछ चुपचाप सहती है। बस किसी तरह अपनी इज्जत बचाए रखने का
प्रयत्न करती है। उसे पता है कि गाँव का समाज या पंचायत उसका साथ नहीं देगी। वह
उल्टे उसी की बेइज्जती करेगी। शिवमूर्ति पतोहू की इस मनोदशा का वर्णन बड़े ही
अनुभव-संपन्न तरीके से करते हैं, ‘एक रात – एक जुग। किसी से कहे भी तो क्या?
क्या करेगा कोई सुनकर हँसने के सिवा? भरी पंचायत में खड़ा होना पड़ेगा अलग। और
ऐसे-ऐसे नंगा कर देने वाले सवाल पंचायत के चौधरी लोग, रस ले-लेकर पूछते हैं कि ……
उसे खूब पता है। नैहर तक बदनामी अलग से। …… बप्पा और ‘आदमी’ की राह देखती विमली।’
स्त्री का यौन-शोषण होना और प्रतिरोध
किए जाने पर उसके ऊपर शारीरिक व मानसिक अत्याचार किया जाना, यह हमारे पुरुष-प्रधान
भारतीय समाज की सामान्य प्रवृत्ति है। वैदिक व पौराणिक बातों का हवाला देकर अतीत
में नारी की स्थिति भिन्न होने के कितने ही दावे किए जाएं तथा नारी-मुक्ति के वर्तमान
में गढ़े जा रहे नारों को कितना ही उछाला जाय, हमारे समाज की इस मानसिकता में कहीं
कोई परिवर्तन आता नहीं दिखता। यहाँ नारी-समाज को नीचे झुकाने के लिए नित्य नैतिकता
के नए पैमाने गढ़े जाते हैं, बहू-बेटियों के लिए रोज एक नई आचरण-संहिता रची जाती है
और पुरुषों से कहीं कोई प्रश्न पूछने वाला नहीं है। यही वह माहौल है जो ‘तिरिया
चरित्तर’ कहानी में पंचायत से निरपराध पतोहू को माथे पर दागे
जाने की सजा दिलवाता है, ‘बदले जमाने में
सोहाग से दगा की सजा है, सोहाग की निशानी, बिन्दी-टिकुली लगाने की जगह, बीचोबीच
माथे पर दगनी। जिन्दगी भर के लिए कलंक-टीका।’ यह सजा उसे पुरुष-समाज द्वारा एक राक्षसी उल्लास के साथ दी जाती है, ‘थोड़ी
देर में हाथ-पैर चलाती पतोहू को सब बकरी की तरह गोद में उठाए हुए लाते हैं और बीच
में बैठा देते हैं। कितनी मुलायम देह है – गुदगुदा मांस! दाब के बैठो। फिर न भागे।’
छल और अत्याचार की शिकार बहू की कातरता व उस पर ज़ुल्म ढा रहे लोगों की
घृणित मानसिकता का जैसा वर्णन शिवमूर्ति ने यहाँ किया है, वह अद्भुत है,
हृदय-स्पर्शी है और भयावह है, ‘जो जहाँ
पकड़े है, वहीं मांसलता का आनन्द ले लेना चाहता है। नोचते-कचोटते, खींचते, दबाते
हाथ। पतोहू जिबह होती गाय की तरह ‘अल्लाने’ लगती है। सोने वाले बच्चे जमकर रोने
लगते हैं। जगे हुए बच्चे डरकर घर की तरफ भाग चले हैं।’ यह सारे प्रतिरोध की विफलता की
स्थिति है। सारे संघर्षों की परिणति पराजय में होने का भाव है। समाज के पतन की ओर
अग्रसर होने की भयावह त्रासदी है। निश्चित ही यह वह अधःपतन है, जिसे हम सब देखते
हुए भी अनदेखा करते चले जा रहे हैं, ‘छन्न!
कलछुल खाल से छूते ही पतोहू का चीत्कार कलेजा फाड़ देता है। कूदती लोथ! मांस जलने
की चिरायंध! चीत्कार सुनकर एकाध कुत्ते भौंकते हैं, एकाध रोने लगते हैं। चीखते-चीखते
बेहोश हो गई पतोहू! लोग पीछे हटते हैं।’ इस प्रकार ‘तिरिया चरित्तर’ कहानी के इस अंतिम अंश में शिवमूर्ति हमें एक
शर्मसार कर देने वाले यथार्थ की दुनिया में ले जाते हैं, लेकिन विडंबना यही है कि
शर्म कहीं बची हो, तब न।
शिवमूर्ति
की कहानियाँ मुख्यतः स्त्री-विमर्श की कहानियाँ हैं, किन्तु उनके स्त्री-विमर्श के
केन्द्र में आज की पढ़ी-लिखी, जागरूक, पुरुष समाज से बराबरी का दर्जा पाने के लिए
प्रतिस्पर्धा करती, सामाजिक व बौद्धिक स्तर पर अपनी अस्मिता की रक्षा करने के लिए
आर्थिक व राजनीतिक ताकत जुटाती, अपने यौनिक अधिकारों के लिए सतर्क, भद्र-लोक की
नारी नहीं है। उनका स्त्री-विमर्श समाज की उन निम्नवर्गीय औरतों के शारीरिक व
आत्मीय सौन्दर्य, दैहिक ताप व उत्पीड़न, जिजीविषा, प्रतिरोध, राग-द्वेष, पारिवारिक
क्लेश आदि पर केन्द्रित है, जो दूर-दराज के गाँवों में घर-जवार की सीमाओं में कैद
होकर अपना जीवन गुजार रही हैं। यहाँ लक्ष्य बड़े नहीं हैं, किन्तु आशय बड़े हैं। यहाँ
अन्याय व शोषण के खिलाफ प्रतिरोध का दायरा व्यापक नहीं है, किन्तु उसमें अद्भुत
गहराई है। यहाँ शक्ति के संचयन, सुनिश्चित संघर्ष और जीत हासिल करने का कोई रोडमैप
नहीं है, किन्तु ये आख्यान अनुभूति की गहराई, अभिव्यक्ति की उन्मुक्तता, प्रतिवाद
की तीक्ष्णता व यथार्थ के सत्यापन से ओत-प्रोत हैं। इनमें फैन्टेसी से गुजरती हुई
अथवा प्रतीकात्मक आदर्शवाद के सहारे स्थापित मान्यताओं की उलट-पलट करती हुई
नायिकाएं नहीं हैं। इनमें तो अनपढ़, गरीब, विस्थापित, बाल-व्याहिता, श्रमिक, शोषित
व उपेक्षित वर्ग की साधारण स्त्रियों का जिन्दगीनामा है, जिसमें न हार की फिक्र
है, न जीत की, बस संघर्ष ही संघर्ष है, वेदना ही वेदना है।
**********