हिन्दी में बाल - कविता की वर्तमान
स्थिति
·
उमेश चौहान
हिन्दी में बाल - साहित्य की एक लम्बी परम्परा है ।
इसकी लोकप्रिय परम्परा में उपनिषदों की कथाएँ, पौराणिक कथाएँ, राम - कथा पर आधारित कहानियाँ, कृष्ण - लीला से जुड़ी हुई कहानियाँ तथा आदिवासी लोक - कथाएँ आदि
सम्मिलित हैं। ये सब कथाएँ मात्र संस्कृत अथवा अन्य प्राचीन भारतीय भाषाओं से किया
गया अनुवाद भर नहीं हैं। हिन्दी में इस तरह की कथाओं को मूल कथाओं के आधार पर बड़े ही
रोचक ढंग से लिखा गया है। इनकी लोकप्रियता की छाप हिन्दी पढ़ने वालों के बीच ही नहीं,
समूचे भारतीय जनमानस पर पड़ी है और अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय में भी
इस प्रकार के
साहित्य की कम पूछ नहीं है। लेकिन ये सब पारम्परिक कथाएँ आज की नई पीढ़ी के लिए कितनी ही उपयोगी क्यों न हो, उनकी जरूरत केवल
इन्हीं के सहारे पूरी नहीं हो सकती। आज समय तेजी के साथ बदल रहा है। वैज्ञानिक
खोजों एवं तकनीकी ज्ञान ने लोगों के रहन - सहन से लेकर उनके सोच - विचार तक को
आमूल - चूल परिवर्तित कर दिया है। आधुनिक सोच के तहत अंधविश्वासों एवं रूढ़ियों का
कोई स्थान नहीं हो सकता। बचपन से ही आधुनिक सोच का विकास आवश्यक है। तदनुसार बाल -
साहित्य में बदलाव आना भी जरूरी है, और हिन्दी भाषा के बाल - साहित्य में ऐसा
बदलाव निरन्तर आ भी रहा है।
हिन्दी के समकालीन बाल - साहित्य में कहानियों और कविताओं का विशेष महत्व है। अन्य विधाएँ संभवत: बच्चों के लिए ज्यादा महत्व नहीं रखती हैं। हिन्दी में बाल - कहानियों का उल्लेखनीय विकास होने की बात आसानी से समझ में आती है, क्योंकि संस्कृत व पाली जैसी भाषाओं तथा आदिवासी बोलियों में इसकी एक लंबी परंपरा रही है। उपनिषदों की कहानियाँ, पुराण - कथाएँ, राम - कथा, कृष्ण - लीला, जातक - कथाएँ, 'पंचतंत्र' की कहानियाँ, प्राचीन आदिवासी लोक कथाएँ आदि इस परम्परा के उदाहरण हैं। आधुनिक गद्यकाल में भी अनेक कथाकारों व नाटककारों ने बाल - कहानियाँ व बाल - नाटक लिखे हैं और इनका व्यापक प्रचार - प्रसार हुआ है। इनमें से अनेक रचनाएँ प्राचीन काल की संस्कृत अथवा पाली की कथाओं पर आधारित हैं। विदेशी भाषाओं के बाल - साहित्य से प्रभावित हिन्दी - कहानियाँ भी प्रचुर मात्रा में लिखी गई हैं। हरिकृष्ण देवसरे, आर.सी. प्रसाद सिंह, श्याम सिंह 'शशि', दिविक रमेश, रेनू चौहान आदि ने हाल के वर्षों में बेहतरीन बाल - कथाओं व नाटकों की रचना की है। राजकमल प्रकाशन, दिल्ली ने हाल ही में अशोक वाजपेयी द्वारा संपादित बाल - नाटकों का एक संग्रह 'उमंग' शीर्षक से प्रकाशित किया है। शरारे प्रकाशन, दिल्ली से पिछले साल प्रकाशित हुआ रेनू चौहान के बाल - एकांकी संग्रह 'रंग - बिरंगे बादल' के नाटक भी बाल - मनोविज्ञान की दृष्टि से अपना विशेष महत्व रखते हैं। विशेष रूप से उनके 'और घर बच गया' एकांकी में एक छोटी - सी चिंकी चिड़िया जिस तरह से जंगल में पेड़ के नीचे आग लग जाने पर उसके ऊपर बने अपने घोंसले को बचाने के लिए चोंच से दो - दो बूँद पानी लाकर आग को बुझाने का प्रयत्न करती है और जिस तरह से जंगल के अन्य जानवर पहले तो उस पर हँसते हैं, किन्तु आग के फैल जाने पर अपने घरों पर भी ख़तरा आते देख उसकी मदद करते हुए मिल - जुलकर उस आग को बुझा लेते हैं, वह बच्चों के लिए एक अद्भुत प्रेरणादायक आख्यान बन पड़ा है। ऐसी रचनाएँ मुझे हिन्दी में नया 'पंचतंत्र' लिखे जाने का आगाज़ करती लगती हैं।
हिन्दी के समकालीन बाल - साहित्य में कहानियों और कविताओं का विशेष महत्व है। अन्य विधाएँ संभवत: बच्चों के लिए ज्यादा महत्व नहीं रखती हैं। हिन्दी में बाल - कहानियों का उल्लेखनीय विकास होने की बात आसानी से समझ में आती है, क्योंकि संस्कृत व पाली जैसी भाषाओं तथा आदिवासी बोलियों में इसकी एक लंबी परंपरा रही है। उपनिषदों की कहानियाँ, पुराण - कथाएँ, राम - कथा, कृष्ण - लीला, जातक - कथाएँ, 'पंचतंत्र' की कहानियाँ, प्राचीन आदिवासी लोक कथाएँ आदि इस परम्परा के उदाहरण हैं। आधुनिक गद्यकाल में भी अनेक कथाकारों व नाटककारों ने बाल - कहानियाँ व बाल - नाटक लिखे हैं और इनका व्यापक प्रचार - प्रसार हुआ है। इनमें से अनेक रचनाएँ प्राचीन काल की संस्कृत अथवा पाली की कथाओं पर आधारित हैं। विदेशी भाषाओं के बाल - साहित्य से प्रभावित हिन्दी - कहानियाँ भी प्रचुर मात्रा में लिखी गई हैं। हरिकृष्ण देवसरे, आर.सी. प्रसाद सिंह, श्याम सिंह 'शशि', दिविक रमेश, रेनू चौहान आदि ने हाल के वर्षों में बेहतरीन बाल - कथाओं व नाटकों की रचना की है। राजकमल प्रकाशन, दिल्ली ने हाल ही में अशोक वाजपेयी द्वारा संपादित बाल - नाटकों का एक संग्रह 'उमंग' शीर्षक से प्रकाशित किया है। शरारे प्रकाशन, दिल्ली से पिछले साल प्रकाशित हुआ रेनू चौहान के बाल - एकांकी संग्रह 'रंग - बिरंगे बादल' के नाटक भी बाल - मनोविज्ञान की दृष्टि से अपना विशेष महत्व रखते हैं। विशेष रूप से उनके 'और घर बच गया' एकांकी में एक छोटी - सी चिंकी चिड़िया जिस तरह से जंगल में पेड़ के नीचे आग लग जाने पर उसके ऊपर बने अपने घोंसले को बचाने के लिए चोंच से दो - दो बूँद पानी लाकर आग को बुझाने का प्रयत्न करती है और जिस तरह से जंगल के अन्य जानवर पहले तो उस पर हँसते हैं, किन्तु आग के फैल जाने पर अपने घरों पर भी ख़तरा आते देख उसकी मदद करते हुए मिल - जुलकर उस आग को बुझा लेते हैं, वह बच्चों के लिए एक अद्भुत प्रेरणादायक आख्यान बन पड़ा है। ऐसी रचनाएँ मुझे हिन्दी में नया 'पंचतंत्र' लिखे जाने का आगाज़ करती लगती हैं।
हिन्दी - साहित्य में बाल - कविता का जो विकास हुआ है, वह मुझे आश्चर्यजनक लगता है, क्योंकि उसके पूर्ववर्ती साहित्य,
जैसे संस्कृत - साहित्य में, बाल - कविताओं की
कोई स्पष्ट परंपरा नहीं है। इस दृष्टि से भक्तिकाल में सूरदास अथवा तुलसीदास के
पदों में जो बाल - सुलभ लालित्य उभर कर सामने आया, उसे एक नई परंपरा का उद्भव ही
माना जाना चाहिए। कालान्तर में राजस्थानी कवि जटमल की रचना 'गोरा
बादल' (1623) एक मुकम्मल बाल - काव्य के
रूप में सामने आई। आधुनिककाल में लगभग हर श्रेष्ठ कवि ने बाल - कविताओं की रचना की है। इसकी शुरुआत भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के समय से ही
हो गई थी। उनके समय में ही बाल - साहित्य की पत्रिकाओं के प्रकाशन की भी शुरुआत
हुई। बाद में बालमुकुन्द गुप्त, मैथिलीशरण गुप्त, अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध', महादेवी वर्मा, सुमित्रानंदन पंत, सुभद्राकुमारी चौहान, रामनरेश त्रिपाठी आदि ने
श्रेष्ठ बाल - कविताओं की रचना की। इन कवियों की बाल - कविताओं में बच्चों के भीतर
कोमल भावनाओं का विकास करने, भारत के ऐतिहासिक व सांस्कृतिक गौरव के प्रति आस्था
पैदा करने, भारतीय परम्परा की श्रेष्ठता का भाव भरने,
देश - प्रेम की भावना जगाने, नैतिक शिक्षा देने, देश व समाज के प्रति समर्पण की
प्रवृत्ति पैदा करने, सामाजिक सद्भावना पैदा करने, कल्याणकारी उपदेश देने, प्रकृति के प्रति प्रेम
जगाने आदि का उद्देश्य प्रबलता के साथ सामने आता है। कहीं - कहीं इन कविताओं में बालकोचित
खिलंदड़पन व नटखटपन भी बड़े ही रोचक ढंग से प्रस्तुत हुआ है। प्रकृति पर आधारित व
बच्चों को सहज रूप से आकर्षित करने वाले बिम्बों, जैसे चिड़ियाँ, जंगली व पालतू जानवर,
परियाँ, भूत - प्रेतों आदि पर केन्द्रित कविताएँ, जो आजकल
बाल - साहित्य की मुख्यधारा हैं, उस दौर में ज्यादा नहीं लिखी गईं।
महादेवी वर्मा की कविता ‘चिड़िया कहाँ रहेगी?’ में बात तो उसी चिड़िया की की गई
है, जो आजकल बाल – कविताएँ लिखने वाले अनेकानेक
कवियों की प्रिय विषय – वस्तु है, लेकिन
इसकी, ‘आँधी आई जोर - शोर से/ डालें
टूटी हैं झकोर से/ उड़ा घोंसला, अंडे फूटे/ किससे दु:ख की बात कहेगी? अब यह चिड़िया कहाँ रहेगी?’ जैसी पंक्तियाँ, बच्चों के मन में चिड़िया के दु:ख, उसकी लाचारी एवं उसके भविष्य की विडंबना के प्रति
जिस तरह के संवेदनापूर्ण भाव का सृजित करती हैं, वह अद्भुत है।
ऐसा समकालीन कवियों की चिड़ियों के जीवन पर केन्द्रित कविताओं में ऐसा कम ही दिखाई पड़ता
है। लेकिन ऐसा नहीं है कि वर्तमान में ऐसी संवेदनशीलता जगाने वाली कविताओं का सर्वथा
अभाव है। गीतकार शेरजंग गर्ग एक जाने - माने बालकवि भी है। उनकी कविता 'कौआ और कोयल'
की पंक्तियाँ, 'कितना शोर मचाता कौआ/ नहीं किसी को
भाता कौआ/ पर कोयल जो मीठा गाती/ वह सबका ही मन बहलाती/ हम भी प्यारे गीत सुनाएँ/
सारी दुनिया को अपनाएँ' कौआ और कोयल जैसी
दो सामान्य रूप से कहीं भी दिख जाने वाली चिड़ियाओं के स्वरों की प्रकृति के अन्तर के
माध्यम से बच्चों को एक गहरी सीख देती है। यह कविता सहजता से कबीर की 'ऐसी बानी
बोलिए, मन का आपा खोय' जैसी सीख देती हुई - सी लगती हैं। श्रम, लगन और आत्मनिर्भरता
की चेतना का विस्तार करती हुई सरस्वती कुमार दीपक की ये पंक्तियाँ भी देखिए -
चिड़िया आई
तिनके तोड़े, तिनके जोड़े,
ऊपर खींचे, नीचे मोड़े,
चिड़ा - चिड़ी के खेल निगोड़े,
काम अधूरे कहीं न छोड़े,
कितनी प्यारी बात सिखाई!
अपना घर हम आप बनाएँ,
तिनका - तिनका जोड़ सजाएँ,
नहीं आँधियों से घबराएँ,
अपने घर बैठे मुसकाएँ,
प्यार भरी हम लड़े लड़ाई।
इसी सिलसिले में रमेश तैलंग की बाल - कविता 'पानी पीने आई चूँ … चूँ' भी कितने ध्वन्यात्मक आकर्षण के साथ चिड़िया को पानी पिलाने का इंतज़ाम
करने का संदेश देती है -
पानी पीने आई चूँ … चूँ
पानी पीने आ … ई!
जल्दी जाओ, बरतन लाओ,
भरकर उसमें पानी,
झटपट जिसमें चोंच डालकर पी ले चूँ … चूँ रानी।
गरमी से घबराई चूँ … चूँ
गरमी से घबरा … ई!
वर्तमान समय में जैसे - जैसे चिड़िया पर बाल - कविताएँ लिखने
का चलन बढ़ा है, अनेक बालकवियों ने उसे कविता की एक घिसी - पिटी विषय - वस्तु के
रूप में भी प्रस्तुत किया है। उदाहरणस्वरूप चंद्रपाल सिंह यादव 'मयंक' अपनी 'चिड़िया
रानी' शीर्षक कविता में जब 'चिड़िया रानी आओ ना/ अपना गीत सुनाओ ना/ मैं तो खाता
हलवा - पूड़ी/ तुम भी आकर खाओ ना' कहते हैं, तो केवल एक मनोविनोद का भाव जगाने के अलावा
कुछ नहीं करते। इसी तरह से कन्हैयालाल 'मत्त' की 'चिड़िया - बिल्ली की लड़ाई' शीर्षक
कविता की 'आ जा, मेरी बिटिया रानी! सुन ले एक कहानी! एक चिरैया/ बड़ी नचैया/ बड़ी
गवैया/ एक चिरौटा/ जितना छोटा/ उतना खोटा/ चिड़िया दाल - भात खाती तो/ वह खाता
गुड़धानी! सुन ले एक कहानी!' जैसी पंक्तियाँ भी चिड़िया और चिरौटे का जो तुलनात्मक
वर्णन हमारे सामने प्रस्तुत करती हैं, उसमें भी बस एक मनोरंजकता से ज्यादा कुछ
नहीं है। कृष्ण शलभ ने भी 'चुलबुल बुलबुल' कविता में 'चुलबुल बुलबुल छोड़
ठिकाना/ उड़ी, चोंच भर लाई दाना/ जाने क्या - क्या, जाने क्या - क्या?
तिनके तुनके दिन भर चुनके/ बैठी साँझ घोंसला बुन
के/ कहती किस्सा नया - पुराना/ जाने क्या
- क्या, जाने क्या - क्या?'
कहकर चिड़िया की दिनचर्या का कुछ सीधा - सपाट वर्णन
ही किया है। ऐसा नहीं है कि बच्चों के लिए मनोविनोद जरूरी नहीं है। वह तो बच्चों
क्या, बड़ों के लिए भी जरूरी है, लेकिन मेरे विचार में मनोविनोद के साथ - साथ जो
कविता सहज ढंग से जाने - अनजाने बच्चों के मन में कुछ विचार भी छोड़ जाए वही सफल
बाल - कविता हो सकती है।
चिड़िया ही नहीं, अन्य प्राकृतिक बिम्बों को भी सामने
रखकर कविगण आजकल तमाम हल्की - फुल्की बाल - कविताओं की रचना कर रहे हैं, जिनका मनोविनोद से ज्यादा
कोई ताल्लुक बच्चों के वैचारिक अथवा मानसिक विकास से नहीं है। शायद बच्चों के बीच कॉमिक्स
के प्रति बढ़ती रुचि के कारण ही इस तरह की बाल - कविताएँ लिखे
जाने का चलन बढ़ रहा है। लेकिन यह वैसा ही है, जैसे कवि
- सम्मेलनों में हास्य कविताओं के बढ़ते चलन ने उन्हें फूहड़ता और मनोरंजन
का केन्द्र बनाकर समकालीन कविता की मुख्यधारा से दूर कर दिया है और श्रोताओं को भी
अच्छी कविताएँ सुनने से वंचित कर दिया है। राष्ट्रबंधु अपनी कविता 'ताक धिनाधिन ताक' में बच्चों का कुछ ऐसा ही मनोरंजन करते हुए कहते हैं, -
'भालू आलू लालू चालू/ अटकन चटकन दही पलोटन/ गधा रेंकता घोड़ा हिनहिन/ ताक धिनाधिन ताक
धिनाधिन।' सरस्वती कुमार दीपक अपनी कविता 'कचौड़ी - पकौड़ी' में इससे भी दो कदम आगे
निकल जाते हैं, - 'कूदी धम से गरम कचौड़ी/ बोली उससे एक पकौड़ी/ "तू मुँह
फुल्लो, मैं हूँ गोरी/ जा थाली से परे निगोड़ी!" चंद्रदत्त इंदु की पंक्तियाँ
'बिल्ली बोली' की ये पंक्तियाँ तो और भी कॉमिक लगती हैं, - 'मैं बिल्ली मंत्री के
घर की/ मुझे खबर है दुनिया भर की/ मैं घूमी सारा इंग्लैंड/ अमरीका में मेरे फ्रेंड/
कभी रूस भी हो आती हूँ/ नहीं किसी से शरमाती हूँ/ नीरू, आओ जरा पास में/ तुमको
बैले डांस दिखाऊँ! बिल्ली बोली - म्याऊँ - म्याऊँ!' रमेश रंजक 'चंदा मामा का गीत'
कविता में - 'चंदा मामा दूर के/ नखरे बड़े हुज़ूर के/ तोड़ रहे हैं छत पर चढ़कर/ पत्ते
बड़े खजूर के/ चंदा मामा दूर के!' कहकर थोड़ी कल्पनाशीलता का पुट मिलाते हुए एक
बहुप्रचलित काव्याभिव्यक्ति को नया कलेवर देने का प्रयास करते हैं, लेकिन फिर भी
उनकी रचना किसी पैरोडी जैसी ही लगती है। बालस्वरूप राही वैसे तो बाल - कविता के क्षेत्र में भी एक बड़ा नाम हैं लेकिन उनकी 'दादा - पोती' कविता की - 'दादाजी हो चले पोपले/ दलिया
- खिचड़ी खाते हैं/ पोती जी के दाँत दूध के/ चीजें नरम चबाते हैं/ हलवा
- पूरी खाकर दोनों की ही दावत मनती है' जैसी सरल
एवं आकर्षक दिखने वाली पंक्तियाँ कोई दीर्घकालिक अथवा विशेष महत्व रखती हों,
ऐसा मुझे नहीं लगता।
बाल - कविताओं में साधारण ढंग से अथवा मनोरंजक रूप से कही
गई हर बात गैर - जरूरी अथवा अप्रासंगिक हो ऐसा भी नहीं है। आजकल ऐसी बाल - रचनाओं
की भी बहुतायत है जिसमें बच्चों के जीवन की साधारण घटनाओं का, परिवार की सामान्य
स्थितियों तथा पारिवारिक रिश्तों में विद्यमान प्रगाढ़ मधुरता का रोचक ढंग से वर्णन
होता है। ऐसी कविताएँ निश्चित रूप से एक उम्र तक के बच्चों को बहुत भाती है। कृष्ण
शलभ 'सुनता नहीं हमारी सूरज' कविता में जाड़े में
सूरज के देर से निकलने की शिकायत बड़े ही रोचक ढंग से पेश करते हुए बीच में बाबा से
अपने डरने की बात ले आते हैं, - 'सुनता नहीं हमारी सूरज/ अपने जी की करता है/ जाड़े
में नखरा करता है/ बाहर बड़ी देर से आता/ घर के अंदर बैठा रहता/ इसको क्या, इसका क्या जाता? मैं बाबा से डरता तो हूँ/ ये कब किससे डरता है।' रमेश तैलंग 'किताब मेरी'
कविता में जिस तरह बस्ते के अंदर मुँहफुल्ली किताब को सुलाने के लिए कलर - बॉक्स
का तकिया लगाने की बात करते हैं, वह सचमुच रोचक है, - 'रात हो गई तू भी सो जा/ मेरे
साथ, किताब मेरी! सपनों की दुनिया में खो जा/ मेरे साथ, किताब मेरी! बिछा दिया है
बिस्तर तेरा/ बस्ते के अंदर देखो! लगा दिया है कलर - बॉक्स का/ तकिया भी सुन्दर,
देखो! मुँहफुल्ली, अब तो खुश हो जा/ मेरे साथ, किताब मेरी!' वे अपनी 'टिफिन खुल गया बस्ते में' शीर्षक कविता में भी स्कूल जाने वाले बच्चे से
जुड़ा एक बड़ा ही रोचक प्रसंग उठाते हैं, - 'रँगी किताबें सब हल्दी में/ उफ्फ़,
मम्मीजी की जल्दी में/ किस्मत अपनी सड़ी हो गई/
टिफिन खुल गया बस्ते में!' संजीव ठाकुर अपनी कविता 'पापा
क्यों पढ़ते अखबार?' में बच्चे से पापा को बड़ा ही मजेदार उलाहना दिलवाते हैं, - 'रंग
- बिरंगी बुक्स हैं मेरी, उन्हें न पढ़ते पापाजी/ ये काले अखबार रोज़ क्यों पढ़ते
रहते पापाजी!' इस तरह की कविताओं पर भला किसकी हँसी रुकेगी और किस बच्चे को मजा नहीं
आएगा! लेकिन किशोरावस्था में पहुँचते - पहुँचते बाल - मन भाव - बोध के
अलग पायदान पर पहुँच जाता है और अपेक्षाकृत अधिक चिन्तनशील होने लगता है, अत: उसकी साहित्यिक रुचि भी बदल जाती है। उस आयु
- वर्ग में पहुँचकर इस तरह की कविताओं के प्रति उसका लगाव स्वाभाविक
रूप से कम हो जाता है और इस प्रकार की कविताएँ उसके लिए अप्रासंगिक हो जाती हैं।
भावुकता में डूबी हुई बाल - कविताएँ प्राय: मन को लंबे समय
तक विह्वल करती रहती हैं और बच्चों अथवा किशोरों को ही नहीं, बड़ों के मन को भी समय
- समय पर उद्वेलित कर देती हैं। सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता 'बचपन' भला किसे
भूल सकती है! जब भी उनकी पंक्तियाँ, - 'बार - बार आती है मुझको मधुर याद बचपन
तेरी' याद आती हैं तो जैसे बचपन का बीता हुआ एक - एक पल पुन: सामने प्रस्तुत हो जाता है। यह कविता हिन्दी के बाल - साहित्य
ही नहीं, समूचे हिन्दी - साहित्य की एक अमूल्य धरोहर है। इस कविता में माँ अपनी
बेटी की हरकतों को देखकर कैसे अपने खुद के बचपन के दिनों में वापस पहुँच जाती है, इसका अद्भुत प्रस्तुतीकरण हुआ है। इसकी, - 'माँ ओ!' कहकर बुला रही थी,
मिट्टी खाकर आई थी/ कुछ मुँह में कुछ लिए हाथ में मुझे खिलाने आई थी' जैसी
पंक्तियाँ मन में भावातिरेक का विचित्र - सा संचार करती हैं। बेटी के ऐसे रूप को
देखकर माँ के मन में नवजीवन का संचार होने लगता है। उसका खोया हुआ बचपन लौट आता
है। वह खुद बच्ची बनकर बेटी के साथ तुतलाने और खेलने लगती है। आलोचकों द्वारा इस
तरह की भाव - प्रधान कविता को 'नोस्टाल्जिया' पैदा करने वाली कविता कहकर इसके
साहित्यिक महत्व को कभी नकारा नहीं जा सकता। इस कविता ने ही मुझे लगातार बाल -
कविताएँ लिखने के लिए प्रेरित किया है। मैंने इसी तरह के भाव - बोध के साथ लिखी गई
अपनी कविता 'बेटी की याद' को सुनकर माँओं की आँखों में आँसू भर आते देखा है। इसमें
जब छुट्टियों में बेटी अपनी माँ के साथ पिता से दूर चली जाती है, तब पिता उसकी याद
में किस तरह से व्यथित होते हैं, उसका वर्णन है। इस कविता की कुछ पंक्तियाँ यहाँ
पर बानगी के तौर पर प्रस्तुत हैं, -
'बिछुड़ गए दिन सुख के सारे गुड़िया तेरे जाते ही,
अब तो यादें औ' आँसू ही मिलते हैं घर आते ही।
'डैडी' की तुतली बोली
का भ्रम होता जब भी घर में
फूट-फूट जी भर रोता हूँ बियाबान सूने घर में।
वह नकली छोटी गुड़िया तुम जिसे रोज नहलाती थी
तोड़-तोड़ कर हाथ-पैर सब अपने संग सुलाती थी।
रखी हुई है यहीं मेज पर प्रतिपल मुझे चिढ़ाती है
और तुम्हारी छतरी वाली फोटो खूब रुलाती है।'
विज्ञान तथा तकनीक के उत्तरोत्तर विकास ने पिछली शताब्दी
में दुनिया को बड़ी तेजी से बदला है। यह तरह - तरह की कारों व अन्य वाहनों से चलने
का युग है। यह भूमिगत रेलगाड़ियों, मोनो रेलों तथा हाई स्पीड ट्रेनों का युग है। यह
हवाई - यात्राओं का युग है। यह देवी - देवताओं के चमत्कारों तथा परी - कथाओं से
परे वैज्ञानिक चमत्कारों एवं रोबोटों का युग है। यह ब्रह्माण्ड के गृहों - उपगृहों
व नक्षत्रों से जुड़ी काल्पनिकताओं में रमने के बजाय उनकी धरती पर उतरकर वहाँ डेरा
जमाने की कोशिशें करने का युग है। पिछले दो दशकों में इलेक्ट्रॉनिक्स का जिस तेजी
से विकास हुआ है और कम्प्यूटर तथा मोबाइल फोन आदि ने आकर भारत जैसे विकासशील देश
में भी जिस गति के साथ के साथ जन - जीवन को बदला है, उसका बच्चों के विकास, उनके
मनोविज्ञान तथा उनकी अभिरुचियों पर भी व्यापक प्रभाव पड़ा है। आज शहर के संपन्न व
मध्य आय वर्ग के बच्चे कम्प्यूटर व लैपटॉप से लेकर मोबाइल फोनों तक पर तरह - तरह
के गेम खेलने में जुटे रहते हैं। टेलीविज़न की बड़ी स्क्रीन भी बच्चों के इलेक्टॉनिक
खेलों का मैदान बन गई है। बाज़ारों में बच्चों के इलेक्टॉनिक खेलों की डीवीडी आदि
की भरमार है। खेलों की वर्चुअल डिवाइसेज का भी बोलबाला है। बच्चों की भाँति -
भाँति की मनोरंजक फिल्में बन रही हैं। कार्टून फिल्मों का तो कहना ही क्या? थ्री
डी फिल्में भी बड़ी संख्या में बनने लगी हैं। एनिमेशन तकनीक के प्रसार ने मनोरंजन
के नए द्वार खोले हैं। आज भारत के गाँवों तक के बच्चे 'टॉम एण्ड जेरी' जैसी
एनिमेटेड फिल्मों से सुपरिचित हैं और ऐसी फिल्मों के फैन हैं। इन सब परिवर्तनकारी
मनोरंजन की नई विधाओं के चलते बच्चे लगभग पूरी तरह बाल - पत्रिकाओं तथा अन्य
पुस्तकों को पढ़ने के प्रति विमुख होते जा रहे हैं। उनके पास लाइब्रेरी तक जाने का
समय ही नहीं है।
बच्चों के दिलो - दिमाग में तरह - तरह की प्रेरणाएँ भर देने वाली कविताओं
की जरूरत आज जितनी ज्यादा महसूस की जा रही है, उतनी शायद कभी
नहीं थी। कौतुक, मनोविनोद, रहस्यमयता,
चमत्कार, यह सब तो बच्चों को भाता ही है,
लेकिन बाल्यावस्था में ही हमारे चरित्र - निर्माण
की नींव भी तो पड़ती है। हम घर से लेकर बाहर तक बचपन में जो कुछ भी सीखते हैं,
उसी से हमारी आंतरिक सोच विकसित होती है। बाद में जो कुछ भी सीखा जाता
है, वह उस मौलिक अवचेतना के ऊपर बस एक मुलम्मे की तरह चढ़ता है,
जो रगड़ खाकर उतर भी जाता है। इसलिए सामाजिक चेतना के विकास के लिए,
सामाजिक प्रगति के लिए, सामाजिक परिवर्तन के लिए
बाल - साहित्य का अनन्य महत्व है। कहने को लोग भले यह कहें कि
बच्चों को विचारों के बोझ के नीचे दबाना ठीक नहीं। उनके कोमल मन पर जबर्दस्ती कुछ थोपना
ठीक नहीं। उनके दिलो - दिमाग का स्वाभाविक विकास होना चाहिए।
लेकिन इस तरह की आदर्श
स्थिति से अथवा निस्संगता के विकास से समाज का कुछ भला नहीं हो सकता। हाँ, यह जरूर है कि बच्चों के लिए विचार तथा व्यवहारपूर्ण साहित्य रचते समय यह ध्यान
अवश्य रहना चाहिए कि भाषा सरल हो और कथ्य रोचक हो, जिससे बच्चे
उसे रुचिपूर्वक पढ़ने के लिए प्रवृत्त हों। अन्यथा केवल शिक्षाप्रद अथवा उपदेशात्मक
रूप से लिखी गई रचनाओं को पढ़ने में बच्चे कभी रुचि नहीं लेंगे। 'पंचतंत्र' की सफलता का यही रहस्य है। उसकी कथाएँ वन्य
पशुओं के आचार - व्यवहार व प्राकृतिक बिम्बों के सहारे बच्चों
को जीवन व राजनीति के तमाम दाँव - पेंच सिखाती हैं और कठिन से
कठिन से परिस्थितियों में निर्णय लेने की क्षमता का विकास करती हैं।
समकालीन हिन्दी बाल -साहित्य में शिक्षाप्रद बाल - कविताओं
की तेजी से विकास हो रहा है। इन कविताओं में आधुनिकता है। वर्तमान समय की जरूरतों को
ध्यान में रखते हुए अनेक जाने - माने कवियों
बच्चों के भीतर इनके प्रति जारूकता व समझदारी भरने लायक विचारों को अपनी रचनाओं में
रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है। शेरजंग गर्ग की 'बत्ती के अर्थ'
कविता की यह पंक्तियाँ बड़े ही रोचक ढंग से बच्चों को ट्रॉफिक लाइट सिग्नल
प्रणाली के महत्व को समझाती हैं -
रुको, बढ़ो,
दरशाती बत्ती, जीवन सदा बचाती बत्ती,
आगे बढ़ो, बताती बत्ती,
रुक जाओ, समझाती बत्ती।
इस बत्ती का अर्थ समझ लो, जल्दबाजियाँ व्यर्थ समझ लो।
शांत भाव से आगे बढ़ना, है राहों की शर्त, समझ लो।
शेरजंग गर्ग अपनी 'गाय' शीर्षक कविता में गाय के सारा दूध हमें दे देने
वाले उदार स्वरूप का उल्लेख जिस हास्य के पुट के साथ करते हैं, वह निश्चित उनकी कविता को बाल - मन के लिए सहज ग्राह्य
एवं आकर्षक बना देता है - 'कितनी अच्छी, कितनी प्यारी, सब
पशुओं में न्यारी गाय/ सारा दूध हमें दे देती, आओ, इसे पिला
दें चाय' कहकर वे बच्चों के मन में बड़े ही गुदगुदाने वाले तरीके
से इस गंभीर विचार को भर देते हैं कि जो उदारता हमें प्रिय लगती है, उसकी सिर्फ प्रशंसा करने से ही काम नहीं चलने वाला। हमें उदारता के प्रत्युतर
में दयालुता दिखानी चाहिए। अपना सर्वस्व न्यौछावर कर हमारा पोषण करने वाले को हमें
उसका प्रतिफल भी देना चाहिए। हमें उसे लाभ का भागीदार बनाना चाहिए। गाय को चाय पिलाने
के प्रस्ताव के बहाने शेरजंग गर्ग यहाँ इसी प्रत्युपकार के भाव को जगाने की कोशिश करते
हैं। गरीब किसानों की ज़मीनों को कौड़ी के मोल खरीदकर बड़े - बड़े
औद्योगिक संयंत्र स्थापित करके सम्पन्नता के साथ जीने वालों को उन ज़मीनों से विस्थापित
व उपेक्षित गरीबों के भले के लिए भी लाभ का कुछ हिस्सा लगाना चाहिए, इसका आज के निर्मम विकास के प्रणेताओं को अवबोध कराने वाली कविता है यह। उदारता
के बदले में उदारता की भावना का प्रसार करने वाली यह कविता भले ही हम बड़ों को कोई सीख
न दे पाए, लेकिन बच्चों के मन में यह निश्चित ही एक बड़ी उदात्त
भावना का सृजन करने की क्षमता रखती है।
सरल एवं मनोरंजक ढंग से लिखी गईं शिक्षाप्रद कविताएँ बाल - साहित्य में विशेष महत्व रखती हैं, क्योंकि
बाल्यावस्था तो जीवन में शिक्षा प्राप्त करने का ही काल होती है। यदि बड़ों के लिए शिक्षाप्रद
कविता लिखी जाएगी तो वह अग्राह्य हो जाएगी। इसीलिए ज्यादातर कवि उपदेशात्मक अथवा संदेश
देने वाली कविताएँ लिखने से बचते हैं। कहानियों, नाटकों तथा उपन्यासों
के मामले में यही बात लागू होती है। बच्चे सीख से दूर नहीं भागते क्योंकि उन्हें तो
घर से लेकर बाहर तक सीख मिलती ही रहती है। यदि यही सीख उन्हें साहित्य के माध्यम से
मिलती है तो वह और ज्यादा असरकारी सिद्ध होती है। यदि ऐसी सीख रोचक ढंग से मिले तो
कहना ही क्या! आजकल तो कॉमिक्स व कार्टून - फिल्मों आदि में भी शिक्षाप्रद सामग्री की भरमार है। दिविक रमेश की कविता
'गलती तो सबसे हो जाती' में सीख का यह अंदाज़ भला किस बच्चे को नहीं
भाएगा - 'पापा बोले - "देखो बिट्टू! गलती तो सबसे हो जाती/ पर गलती पर गलती करना/ बात नहीं
अच्छी कहलाती!" इसी प्रकार शिवकुमार गोयल की कविता 'बूँद - बूँद से सागर बनता' में भी बड़े सरल शब्दों
में एक बड़ी सीख दी गई है -
चींटी ने चावल के दाने
एक - एक कर जमा किए
चिड़िया ने तिनके जोड़े तो
नए घोंसले बना लिए।
बूँद - बूँद से सागर बनता
कण- कण से पर्वत होता,
जो मिल - जुलकर रहते हैं
उनके आगे माथा झुकता।
बच्चों को जीवन की कठिन परिस्थितियों से जूझने के तौर -
तरीके सिखाने वाली, अनुकरणीय जीवन - चरित्रों से उन्हें परिचित कराने वाली, आचार -
व्यवहार के उत्तम स्वरूप को उनके सामने प्रस्तुत करने वाली तथा बेहतर चरित्र - निर्माण के लिए उन्हें प्रेरित करने वाली रचनाओं के मामले
में हिन्दी का आधुनिक बाल - साहित्य काफी सम्पन्न है। जाने - माने कथाकारों व
कवियों से लेकर सामान्य से सामान्य रचनाकारों ने इस दिशा में हिन्दी के बाल -
साहित्य की श्री - वृद्धि की है। मुंशी प्रेमचंद की 'ईदगाह' जैसी बहुचर्चित कथा से
लेकर सुभद्रा कुमारी चौहान की 'झांसी की रानी' तक ने ऐसे चरित्र - निर्माता बाल -
साहित्य को सृजित किया है। प्राय: छोटी - छोटी घटनाओं के
बिम्बों को सामने रखकर बच्चों को बड़ी - बड़ी बातें सिखाने का प्रयत्न किया जाता है,
जो ऐसी रचनाओं को बच्चों के लिए बड़ा ही सार्थक बना देता है, भले बड़ों के लिए उसका
कोई मूल्य न हो। मैंने स्वयं इसी को ध्यान में रखकर कुछ बाल - कविताएँ लिखी हैं।
मेरी कविता 'काले काले बादल आए!' में बच्चों के खेल - खेल में
घटी एक दुर्घटना के प्रसंग को सामने रखकर एक ऐसी ही कोशिश की गई है।
बच्चे किसी भी काल में समाज, देश तथा पूरे विश्व का भविष्य
होते हैं। अत: भविष्य को सजाने - सँवारने
तथा उसकी भयावहता के प्रति आगाह करने का सबसे बड़ा लक्ष्य भी बच्चे ही बनते हैं। आज
हम अपने अनुभवों के आधार पर जिन - जिन आसन्न ख़तरों को महसूस कर
रहे हैं, उन्हें हमारे द्वारा बाल - साहित्य
के माध्यम से बच्चों के सामने रखना जरूरी है, क्योंकि ये ख़तरे
हम से ज्यादा उनके लिए ही प्रासंगिक है। मैंने अपनी 'युद्ध और
बच्चे' शीर्षक कविता में इसी की ओर इशारा करते हुए लिखा है
- 'दुनिया का कोई भी बच्चा/ नहीं जानता कि लोग
क्यों करते हैं युद्ध/ जबकि इस दुनिया में/ कल बड़ों को नहीं, इन्हीं बच्चों
को जीना है/ युद्ध होता है तो बच्चे ही अनाथ होते हैं/
और आणविक युद्ध का प्रभाव तो/ गर्भस्थ बच्चे
तक झेलते हैं/ बच्चे यह नहीं जानते कि/ क्यों शामिल किया जाता है उन्हें युद्ध में/ किंतु
वे ही असली भागीदार बनते हैं/ युद्ध के परिणामों के।'
भविष्य के इन ख़तरों में केवल युद्ध ही नहीं है, आज जिस तरह से प्राकृतिक संसाधनों का दोहन हो रहा है और जिस तरह से हमारे द्वारा
पृथ्वी के जल - थल - नभ को अपनी सुख
- सुविधाओं के लिए अंधाधुंध तरीके से प्रदूषित किया जा रहा है,
उसने इस पृथ्वी के अस्तित्व को ही ख़तरे में डाल दिया है। बच्चों को इन
ख़तरों के प्रति सतर्क करना तथा पर्यावरण संरक्षण के प्रति उन्हें संवेदनशील बनाना आज
की सबसे बड़ी जरूरत है। वैदिक साहित्य के बाद शायद ही इस दिशा में कोई अहं भूमिका किसी
परवर्ती साहित्य ने निभाई हो। आज की स्थिति पर्यावरण क्र प्रति साहित्य की इसी निस्संगता का परिणाम
है। भले
ही अभी
भी ये
चिन्ताएँ हिन्दी
- साहित्य की
मुख्यधारा में
न हो, लेकिन हिन्दी
के बाल
- साहित्य में
इन सरोकारों
को पर्याप्त
स्थान मिल
रहा है।
दिविक रमेश की बाल - कविता 'अगर पेड़ भी चलते होते' की
निम्न पंक्तियाँ इसका उदाहरण हैं -
अगर पेड़ भी चलते होते, कितने मजे हमारे होते।
बांध तने में उसके रस्सी चाहे कहीं संग ले जाते,
जहाँ कहीं भी धूप सताती, उसके नीचे झट सुस्ताते,
जहाँ कहीं भी वर्षा होती, उसके नीचे हम छिप जाते।।
दिविक रमेश अपनी कविता 'खुशी लुटाते हैं त्योहार'
में भी पर्यावरण संरक्षण के प्रति कुछ इसी तरह की जागरूकता भरते हुए
कहते हैं - 'जिस दिन पेड़ नहीं कटते हैं/ जंगल का होता त्योहार।'
प्रदूषण आज एक विकराल समस्या है। यह समूची पृथ्वी के
अस्तित्व को मिटाने की ओर बढ़ रहा है। वायु - प्रदूषण के चलते ओज़ोन - परत में छेद
हो रहे हैं, जिनका आकार साल दर साल बढ़ता जा रहा है। ओज़ोन परत वायुमंडल में हमारे
सिर पर तनी वह अदृश्य छतरी है, जो सूर्य से निकलकर पृथ्वी की तरफ आने वाली पराबैंगनी
व अन्य हानिकारक किरणों को हम तक पहुँचने से रोकती है और हमें उनके दुष्प्रभाव से
बचाती है। इस परत में होने वाली कोई भी क्षति पृथ्वी पर हमारे तथा वनस्पतियों के
अस्तित्व के लिए बहुत बड़ा ख़तरा बन सकती है। इसी प्रकार वायुमंडल में बढ़ती जा रही
तरह - तरह की जहरीली गैसों के दुष्प्रभाव से लोगों में भाँति - भाँति की नई
बीमारियाँ फैल रही है। अनेक प्रकार की त्वचा की बीमारियाँ पैदा करने वाली सल्फर
गैसों की मात्रा वायुमंडल में निरन्तर बढ़ रही हैं। कैंसर जैसी मारक बीमारियों का
भी तेजी से प्रसार हो रहा है। जहरीली गैसें बादलों के जल में मिलकर पृथ्वी पर अम्ल
- वर्षा करती हैं। बढ़ती हुई अम्ल - वर्षा से भूमि और जल दोनों ही निरंतर प्रदूषित
हो रहे हैं जिनका पृथ्वी के जीव - जन्तुओं तथा वनस्पतियों पर भयानक दुष्प्रभाव पड़
रहा है। हमारी औद्योगिक गतिविधियों के कारण होने वाले जल एवं भूमि - प्रदूषण का हाल तो और भी बुरा है। प्लास्टिक के बढ़ते उपयोग
ने पृथ्वी के श्वास - कोशों को चोक करना शुरू कर दिया है। हमारे प्रदूषण बढ़ाने
वाले रीति - रिवाज़ों ने भी नदियों तथा तालाबों को खूब गंदा किया है। हमारी नदियाँ,
झीलें, मंदिरों के तालाब सभी हमेशा गंदगी से पटे पड़े दिखाई देते हैं। एक तरफ तो
भारत में पिछले पचास - साथ वर्षों में स्वास्थ्य - सेवाएँ बेहतर होने से आबादी
बेतहासा बढ़ी है, दूसरी तरफ संचार व यात्रा की सुविधाएँ तथा आर्थिक संशाधन बढ़ने से
आवागमन भी आसान हुआ है। इसने आस्था को एक नया स्वरूप प्रदान किया है। आज हर तीर्थ
- स्थान पर नियंत्रणातीत भीड़ दिखाई पड़ती है। हर मंदिर पर लाखों के मेले जुटते हैं।
पर्व - त्योहारों पर पवित्र मानी जाने वाली नदियों के घाटों पर लाखों लोग स्नान
करने पहुँचते हैं। हिन्दुओं में लाखों मृतकों का दाह - संस्कार अब गंगा या किसी न
किसी पवित्र नदी के किनारे ही होता है और उनकी अधजली पिंडियाँ या कभी - कभी तो
समूची लाशें ही जल में प्रवाहित कर दी जाती हैं। यह आस्था का एक अवैज्ञानिक और
विकृत चेहरा है। नई पीढ़ी को इन भयानक प्रवृत्तियों के प्रति जागरूक किया जाना
जरूरी है। सृष्टि को बचाए रखने तथा प्रदूषण मुक्त वतावरण को सृजित करने के लिए
वैज्ञानिक सोच के साथ रीति - रिवाज़ों तथा परंपराओं का परिमार्जित किया जाना बहुत
जरूरी है। इसके लिए हमें न सिर्फ अपनी सोच बदलनी होगी बल्कि बच्चों की सोच में
परिवर्तन लाकर आने वाली पीढ़ी को इसके लिए तैयार करना होगा। यह हमारा धार्मिक,
सामाजिक तथा नैतिक दायित्व होना चाहिए। यह काम बाल - साहित्य के जरिए बखूबी किया
जा सकता है। आवश्यकता बच्चों को उपदेश देने की नहीं है। उनमें वैचारिक सोच पैदा
करने की है, जिज्ञासा जगाने की है, समस्या की भयावहता के प्रति आगाह करने की है।
बच्चे बड़ों से ज्यादा जिज्ञासु होते हैं, वे बड़ों से ज्यादा जल्दी व आसानी से
सीखते हैं और वे बड़ों से ज्यादा प्रश्नाकुल होते हैं।
समाज की उन्नति इस बात पर ही निर्भर करती है कि उसकी भावी पीढ़ी का विकास
किस तरह के माहौल में और किन अवधारणाओं अथवा वैचारिक स्थापनाओं के बीच हो रहा है।
ऐसा नहीं है कि आधुनिक बनने के लिए परंपरागत रूप से अथवा विरासत में मिला हुआ सभी
कुछ त्याज्य होता है। जो समाज अपनी परंपरा की अच्छी धरोहरों को त्याग देता हैं, वह
कभी आगे नहीं बढ़ सकता। वह प्राय: दिग्भ्रमित हो जाता है। परम्परा व सांस्कृतिक
विरासत समाज में एक गौरव की भावना का विकास करती है और वह साहस व सम्बल देती है, जिसके सहारे नई पीढ़ी एक बेहतर भविष्य की ओर बढ़ सकती है। जो समाज अपनी स्थापित
संस्कृति से एकदम कटकर आगे बढ़ना चाहेगा व एक ऐसे शून्य की ओर भी बढ़ सकता है जहाँ
हो सकता है कि उसकी वैचारिक व सांस्कृतिक प्रगति पूरी तरह से अवरूद्ध हो जाय।
इसलिए यह बहुत आवश्यक है कि भावी पीढ़ी के मन में देश की परम्परा व संस्कृति
में निहित अच्छाइयों के प्रति विश्वास व लगाव की भावना मजबूत की जाए तथा उसमें
निहित बुराइयों अथवा रूढ़ियों को दूर करने का भी भरपूर प्रयास किया जाय। इस तरह के
सम्मिश्र प्रयास से ही किसी स्वस्थ सामाजिक परिवर्तन की नींव रखी जा सकती है।
इस दृष्टि से बाल - साहित्य में देश की परम्परा व सांस्कृतिक विरासत से जुड़ी
कथाओं, कविताओं आदि का बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान होता है।
हमारे देश में हमें विरासत में बहुत कुछ ऐसा मिला हुआ है जो
नायाब है। परंपरा की यह संपन्नता दुनिया के किसी देश में नहीं है। हमारी
सांस्कृतिक विरासत में बहुत कुछ आयातित भी है जो समय - समय पर बाहर से आने वाले
मानव - समूहों के द्वारा लाया गया और धीरे - धीरे हमारी परंपरा में घुल - मिल गया।
ऐसे मानव - समूह भारत में जिस किसी भी उद्देश्य से आए हों, लेकिन उन्होंने हमारी
परंपरा को विविधता से समृद्ध किया, उसे विस्तार दिया, उसमें संश्लेषण का संचार
करते हुए लगातार एक नयापन भरा। हमें बच्चों के मन में इस थाती को संभालने की
जागरूकता भरने का दायित्व निभाना चाहिए। हमें अपनी मौलिक तथा संकरित दोनों तरह की
विरासत में जो कुछ भी अच्छा दिखे, जो कुछ भी हमारे लिए कल्याणकारी हो, जो कुछ भी
हमारे भविष्य को बेहतर बनाने वाला हो, उसे आगे बढ़ाना चाहिए। मसलन विश्व में
एलोपैथी चिकित्सा - पद्धति के प्रसार के आगे हम आयुर्वेद की अच्छाइयों को भूलने
लगे हैं। लेकिन पिछले दो दशकों में आयुर्वेद फिर से एक आकर्षक चिकित्सा - पद्धति
के रूप में उभरा है। इसने भारतीय पर्यटन उद्योग को एक नया आयाम दिया है। आज
सम्पन्न विदेशी लोग भी इसकी उत्तमता के कायल हो रहे हैं और आयुर्वेदिक इलाज़ के लिए
भारत की ओर आकर्षित हो रहे हैं। बच्चों के मन में इस तरह के मौलिक भारतीय ज्ञान के
प्रति उत्सुकता व जानकारी भरने का काम बाल - साहित्य बखूबी कर सकता है। मैंने अभी
हाल ही में आयुर्वेदिक चिकित्सा के प्रति कौतूहल व आकर्षण पैदा करती नरेन्द्र गोयल
की मनोरंजक बाल - कविता 'बंदर का धंधा' पढ़ी, जिसकी ये पंक्तियाँ यहाँ उद्धृत करना
जरूरी लग रहा है -
बिल्ली बोली - मुझको आया एक सौ चार बुखार,
मैं शिकार पर कैसे जाऊँ, जल्दी इसे उतार।
बंदर बोला - रस गिलोय का तीन बार तुम पीना,
कल से ही तुम डांस करोगी, ईना, मीना, डीना।
तभी लोमड़ी आकर बोली, गोरी मुझे बनाओ,
मैं ही दीखूँ सबसे सुंदर ऐसी बूटी लाओ।
बंदर बोला - घी कुँवार तुम दोनों समय लगाओ,
चमकेगा कुंदन सा चेहरा फीस मुझे दे जाओ।
चल निकला बंदर का धंधा, अब वह मौज़ मनाता,
अच्छी - अच्छी जड़ी - बूटियाँ, जंगल से वह लाता।
भारतीय समाज का एक बड़ा हिस्सा आज भी गाँवों में रहता है। हमारे गाँवों के बच्चे
उन स्कूलों में पढ़ते हैं, जहाँ न तो ढंग के क्लास - रूम हैं, न पठन - पाठन की अन्य
सुविधाएँ। वहाँ इलेक्टॉनिक - क्रांति का प्रभाव भी अभी मोबाइल
फोन व टेलीविज़न आदि तक ही सीमित है। वहाँ तक अभी कम्प्यूटरों, लैपटॉपों व आई - पैडों की पहुँच व्यापक नहीं हुई है।
गाँव के बच्चों के लिए यह चीज़ें अभी भी एक कौतुक की वस्तु हैं। गाँवों में सामाजिक
समानता व समरसता का विचार अभी भी केवल एक राजनीतिक नारा भर है। जातीय व धार्मिक विषमता
से गाँवों के बच्चे निरन्तर रू - ब - रू
होते रहते हैं। बाल - साहित्य में इन ग्रामीण स्थितियों का चित्रण
विरले ही होता है। ग्रामीण अंचल की विशिष्टताएँ समकालीन बाल - कविताओं तक अपनी पहुँच नहीं बना पाई हैं। खेती - किसानी
की बातें तो नगण्य ही हैं। ग्रामीण - समाज के मनोरंजक दृश्यों,
ग्रामीण कल्पनाओं व सरोकारों तथा गाँवों के भविष्य से जुड़ा बाल
- साहित्य विकसित होना बहुत ही आवश्यक है। ऐसे बाल - साहित्य की जरूरत सिर्फ ग्रामीण बच्चों को ही नहीं, शहरी
बच्चों के लिए भी है। देश में हर जगह गाँवों से शहर में जाकर बस जाने वाले परिवारों
की संख्या बढ़ती जा रही है। इन परिवारों के बच्चों का गाँव के लोगों से जुड़ाव लगातार
कम होता जा रहा है। उनकी ज़िन्दगी शहरों में ही सिमटती जा रही है। इस प्रकार गाँवों
से बौद्धिक पयालन हो रहा है और गाँव एवं शहर के बीच का वैचारिक फासला बढ़ता ही जा रहा
है। आज शहरों की नई पीढ़ी का गाँवों की स्थितियों व ग्रामीण सरोकारों से परिचित होना
बहुत जरूरी है। यह बाल - साहित्य में ग्रामीण अंचल से जुड़ी कहानियों
व कविताओं के माध्यम से आसानी से हो सकता है।
रघुवीर सहाय ने कहा था कि कविता मनुष्य को मनुष्य बनना सिखाती है। मुझे लगता
है कि कविता मनुष्य को जीवन जीने का सलीका सिखाती है। इसीलिए कविता बच्चों के लिए बहुत
उपयोगी माध्यम है। बस जरूरी यही है कि जो कुछ भी बाल - कविता
में कहा जाय, वह सुग्राह्य एवं सरल हो। बच्चों में आधुनिक सोच
एवं वैज्ञानिकता का प्रसार भी कविताओं
के माध्यम से ज्यादा आसानी से हो सकता है। भारत जैसे देश में
इसकी एक बड़ी आवश्यकता भी है। यहाँ सोच में जड़ता एवं रूढ़िवादिता अधिक दिखाई पड़ती है।
इसे दूर करने की शुरुआत बाल - साहित्य से ही होनी चाहिए। बड़ों
तथा गुरुजनों के प्रति आदर - भाव, सहिष्णुता,
सहृदयता, शुचिता, दयालुता,
समानता का भाव, यह सब जगाने वाला बाल -
साहित्य तो हमें चाहिए ही, लेकिन साथ ही बच्चों
के मन में पारिवारिक, सामाजिक व राजनीतिक यथार्थ का बोध एवं भविष्य
के प्रति अपनी तरह की एक सोच पैदा करने वाला साहित्य भी हमारे लिए बहुत जरूरी है। 'पंचतंत्र' की कहानियाँ लिखे जाने का उद्देश्य ही यही
था। आज समय बहुत बदल चुका है। आज बच्चों को एक नए तरह के पंचतंत्र की बहुत जरूरत है।
आज देशज भाषाओं के बाल - साहित्य में नई तकनीक के सहारे विकसित
व नई विधाओं से संपुष्ट रचनाओं का सृजन बहुत जरूरी है। अन्यथा जो मैकाले की नीतियाँ
नहीं कर पाईं, वह अब
हो जाएगा। एनिमेटेड दृश्य - श्रव्य सामग्री तथा कॉमिक्स के रूप
में विदेशी कथा - पात्र, परी - कथाएँ, कौतुक - रहस्य रोमांच की
कथाएँ हमारी नई पीढ़ी को पूरी तरह से अपने आकर्षण के आगोश में समेट लेंगी। शीघ्र ही
आयातित बाल - साहित्य व कॉमिक्स की चमक में खोए तथा हैरी पॉटर,
एलीस इन वंडरलैंड आदि के दीवाने भारतीय बच्चे शहरों में ही नहीं,
हमारे गाँवों में भी दिखने लगेंगे। ऐसे में हमारी संस्कृति का क्या होगा?
मुझे लगता है कि हमें समकालीन पीढ़ी से ज्यादा भावी पीढ़ी के साहित्य व
मनोरंजन का संसार रचने की चिन्ता व प्रयास करने चाहिए।
दु:खद और अफ़सोसजनक बात यह है की आज बड़े - बड़े पुरस्कारों के पीछे भागने वाले हमारे नामी - गरामी
साहित्यकारों ने विशेष रूप से कवियों ने बाल - साहित्य से अपने
को दूर कर लिया है। बाल - साहित्य को बस हल्का - फुल्का मानकर एक गैर - महत्वपूर्ण दर्ज़ा ही दिया जाता
है। साहित्यिक संस्थाओं ने भी यही रवैया अपना रखा है। न ही उनकी बाल - साहित्य प्रकाशित करने में कोई रुचि है और न ही पुरस्कार आदि देकर उसे प्रोत्साहित
करने में। इस प्रकार आज बच्चों के तथा समाज के भविष्य को चौपट करने वाली यह स्थिति
साहित्य के इन्हीं कर्णधारों की पैदा की हुई है। गनीमत यही है कि जो ज्यादा बड़े साहित्यकार
नहीं बन पा रहे, कम से वे अपने इस दायित्व को निभा रहे हैं और
बाल - साहित्य का भविष्य धीरे - धीरे निखर
रहा है। यदि इस क्षेत्र में कुछ बड़े लोग भी शामिल हो जाएँ तो शायद हिन्दी के बाल -
साहित्य का भविष्य शीघ्र चमक जाय। मुझे यह देखकर बहुत खुशी हुई कि हिन्दी
की साहित्यिक पत्रिका 'साहित्य अमृत' ने
अभी हाल ही में एक बेहतरीन बाल - साहित्य विशेषांक प्रकाशित किया।
यह और भी आश्वस्तिकारक है कि हिन्दी की साहित्यिक पत्रिका 'कथा' भी अपना बाल - साहित्य विशेषांक प्रकाशित करने जा रही है। क्या हिन्दी की समस्त साहित्यिक
मासिक पत्रिकाएँ साल में अपना कम से कम एक अंक और त्रैमासिक पत्रिकाएँ दो या तीन साल
में अपना एक अंक बाल - साहित्य विशेषांक प्रकाशित करने के लिए
नहीं सुरक्षित कर सकतीं? क्या हिन्दी - साहित्य के लिए पुरस्कार देने वाली संस्थाएँ और सरकारें अच्छे बाल
- साहित्य को प्रोत्साहित करने के लिए अपने पुरस्कारों की कुछ हिस्सेदारी
बाल - साहित्य को नहीं दे सकतीं? मेरा मानना
है कि अपने बच्चों तथा समाज के भविष्य के लिए उन्हें इस दिशा में गंभीरता से विचार
करना चाहिए।