आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

Wednesday, September 16, 2015

ब्रह्मा सिंह ‘ब्रह्म’ जी के अवधी व खड़ी बोली मिश्रित अवधी के चुनिंदा छंद

(स्वर्गीय श्री ब्रह्मा सिंह ‘ब्रह्म’ का जन्म फाल्गुन शुक्ल पक्ष सप्तमी, विक्रम संवत् 1977 में लखनऊ जनपद के दादूपुर गांव में एक जमींदार परिवार में हुआ। उन्होंने बचपन से ही जमींदारी के पारंपरिक आडंबर से मुक्त जीवन जीते हुए गाँव के सभी वर्गों के लोगों के सुख - दुख में घुलमिल कर साधारण जीवन जिया। वर्ष 1942 के ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन के समय उन्होंने अन्य मित्रों के साथ भूमिगत रहकर आज़ादी की लड़ाई में भी हिस्सा लिया। वैचारिक दृष्टि से वे महात्मा गाँधी की नीतियों के आलोचक तथा नेताजी सुभासचंद्र बोस के अभियान के प्रबल समर्थक थे। उनके मन में क्रांतिकारियों के प्रति अथाह श्रद्धा थी। वैश्विक स्तर पर वे अमिरिकी नीतियों के कटु आलोचक थे। वर्ष 1952 में पंचायती राज व्यवस्था लागू होने के बाद से वे लगातार लगभग चार दशक तक ग्राम पंचायत दादूपुर के निर्विरोध प्रधान चुने जाते रहे। खेती - किसानी व राजनीति के साथ - साथ वे निरंतर काव्य - धारा का भी रस - रंजन करते रहे। उनके छंद यदा - कदा गयाप्रसाद ‘सनेही’ जी द्वारा संपादित पत्रिका ‘सुकवि’ में प्रकाशित होते रहे। लखनऊ से प्रकाशित होने वाले सुप्रसिद्ध हिन्दी दैनिक ‘स्वतंत्र भारत में भी उनकी कई रचनाएँ प्रकाशित हुईं। उनके छंदों में सामाजिक व राजनीतिक विसंगतियों पर करारा व्यंग्य होता था। उनकी शाम की चौपाल में साल के बारहों महीने साहित्य का पठन - पाठन होता रहता था। गाँव के अनपढ़ लोग अक्सर वहाँ कथारस में डूबने के लिए इकट्ठा होते थे। देवकीनंदन खत्री के उपन्यास ‘चंद्रकांता संतति’ का तो इस चौपाल में पुन: - पुन: धारावाहिक पाठ होता था। बरसात के मौसम में ‘आल्हा’ का गायन व फागुन के महीने में ‘होली’ का गायन भी नित्यप्रति होता था। रविवार के दिन उनकी बैठक लखनऊ से आने वाले साहित्यिक मित्रों से जगमगाती रहती थी। जब उनकी जीवन - संगिनी विजयलक्ष्मी जून 1988 में उन्हें इस दुनिया में अकेला छोड़कर चली गईं तब वे अध्यात्म की ओर प्रवृत्त हुए और जुलाई, 2004 में ईश्वरलीन होने तक वे ज्यादातर भक्तिपरक छंद ही लिखते रहे। ‘शीशे के आर पार’ (1997) तथा ‘आस्था के फूल’ (1999) शीर्षक से उनके दो कविता - संग्रह प्रकाशित हुए हैं।

उनकी रचनाधर्मिता के बारे में ‘शीशे के आर पार’ की भूमिका में सुप्रसिद्ध गीतकार स्वर्गीय श्री नीलम श्रीवास्तव जी ने लिखा है, - “ब्रह्म जी अनुभूतियों के कवि हैं, वर्णनात्मकता उनकी रचनाओं में नहीं मिलेगी। उनकी प्रातिभ चेतना का ग्रहणकारी लेंस इतना संवेदनशील है कि अपने युग की हर क्रिया और घटना को बाँध लेता है। जिसका प्रभाव देश और समाज पर पड़ता हो, उनकी कविताओं में घटनाएँ सीधे तथ्यात्मक रूप में आती हैं। किन्तु उनके फलस्वरूप उत्पन्न मानसिक प्रतिक्रियाओं के तल्ख़ रेखांकन पाठक के ह्ड़रिदय पर छोड़ जाती हैं। … ‘ब्रह्म’ जी की भाषा में ठेठ ग्राम्य मुहावरों का ठाठ और कथन शैली की वक्रता विशेष रूप से आकर्षित करती है। फिर चाहे वे दार्शनिक चिन्तनपरक छंद हों, चाहे नीतिपरक, चाहे विशुद्ध वंदना के पद हों, चाहे श्रंगार के, सभी रचनाओं में कहीं आनुप्रासिक नाद - सौन्दर्य है तो कहीं भावमयी वक्रोक्ति।”

यहाँ प्रस्तुत हैं स्वर्गीय ब्रह्मा सिंह ‘ब्रह्म’ जी के अवधी व खड़ी बोली मिश्रित अवधी के कुछ चुनिंदा छंद।)

सामाजिक व राजनीतिक सरोकारों के छंद

 

हर ओर है जंगलराज बना, हर झाड़ी मां सांपन डेरा हुआ।
खुलेआम हैं शेर दहाड़ि रहे, चहुँ ओर अँधेरा बिखेरा हुआ।
जहाँ बन्दर बैठे नियाव करैं, हर ओर उलूकन डेरा हुआ।
किससे - किससे कहिए बचिए, हर हाथ जहाँ पे लुटेरा हुआ॥

दलतंत्र का तंत्र चली यदि तो, प्रजातंत्र का देश निकारा बनी।
दल के दलदल धँसि कै फिरि तौ, इहाँ न्याय का ढोंग ढपारा बनी।
सौहार्द  सनेह  नहीं  रहिहै,  बटमारन  क्यार  अखारा  बनी।
दुखी दीन अनाथ कुमारिन की, फिरि इज्जत क्यार कबारा बनी॥

यदि नीयत साफ़ तुम्हारी नहीं, तो चुनाव कराना जरूरी है क्या?
धन फूँकि फक़ीर बना सबको, कँगला बनवाना जरूरी है क्या?
तुम भूल पे भूल सदैव किए, फिर से दोहराना जरूरी है क्या?
जो राह नवीन बना न सकै, उसे नेता बनाना जरूरी है क्या?

मन भी है वही अरु पंक वही, मद पी बदलाव कहाँ करिहैं?
जब साज वही अरु बाज वही, फिरि राग सुरीले कहाँ बजिहैं?
शतरंज वही मोहरे भी वही, फिरि चाल नवीन कहाँ चलिहैं?
जो बिधान वही, बरताव वही, तो चुनाव कराए कहाँ बनिहै?

यदि राष्ट्र समृद्ध बना न सके, चढ़ मंच पै गर्व जताना वृथा।
इतिहास नवीन रचा न सके, उन्हें शासन - भार थमाना वृथा।
पर - पीर का पीर नहीं समझैं, उनको कुछ भी समझाना वृथा।
सुनना उस नीच नराधम के मुख बीरन गौरव - गाना वृथा॥

चहु ओर निराशा घटा गहरी, रोजगार के वादे हुए खोखले।
मँगगाई कै मार गरीब मरै, वे विकास के नाम करैं घपले।
अब माफिया लूट मचाय रहे, हेरा - फेरी के खूब बढ़े मसले।
जाति - द्वेष के बीज उगाए यहाँ, सब देशी - विदेशी करैं हमले॥

तुम हो यहिके करता - धरता, उलटे अब शोर मचावहु ना
जस आगि लगाय जमालो दुरी तेहि भाँति ते रंग रचावहु ना।
अब मूर्ख समाज प्रबुद्ध हुआ, कहि मूर्खन का बौरावहु ना।
यहु आत्म - परीक्षण का अवसर, येहिका अब व्यर्थ गँवावहु ना॥

बनि आपु गरीबन के अगुआ, फगुआ अब और मचाओ नहीं।
तुम कौरु दिखाय कै ईंट हनौ, यहु नाटक और दिखाओ नहीं।
भगवान भरोसे जिए हम तौ, रखवारी का रासु रचाओ नहीं।
जो कि बाकी बचीं बछियाँ, छछियाँ, कछिया पर दाँत गड़ाओ नहीं॥

हर मेज चढ़ावा चढ़ावति हैं, इन पंडन का कस पेटु भरी।
उइ मीटिंग, ईटिंग, चीटिंग मां, सब साफ सफाचट झारि करी।
हड़ताल की तालन रासु रचे हमरे सब काम हैं ताक धरी।
हम टूकन का लुलुआत फिरैं, उन माखन - रोटी कै आरि करी॥

हम टैक्स बिकास भरी पहिले, फिरि पेट मां अन्न का दाना धरी।
तुम फंक्शन रोज़ु मनावा करौ, हम सूखा का राहत कोषु भरी।
खुशियाँ तुम्हरी हमरी खुशियाँ, खुशियाबरदारी का बाना धरी।
बिनु चाकरी चाकरी कीन करी, भोरहें उठिकै मुज़राना करी॥

रिसते रिसते रिसिगे रिश्ते, सब बाणिज क्रांति के पेट समाने।
पतिनी, पति, बन्धु, सखा, भगिनी, पति, मातु, गुरू, भगवान बिलाने।
कर्तव्य न याद रहे कुछ भी, सिगरे धन - दानव दाढ़ समाने।
देस, समाज कि चाह नहीं, निज स्वारथ में कवि ‘ब्रह्म’ भुलाने॥

जिनके घर भूँजी है भांग नहीं, धरि टोपी चलैं मग मां फुफकारत।
उठि प्रातहि ते परपंच रचैं, नित रोटी पराई पै दृष्टि हैं डारत।
स्वान समान गिरैं छिछड़ान पै, बैठि बज़ार मां बातैं बघारत।
काम औ धाम सधै न कछू, जनसेवक ह्वै जन - युद्ध प्रचारत॥

नानी के आगे ननौरे की बात, बताय हिया झुरसाओ नहीं।
तुम मारि लंगोटी बसौ कुटिया, यूँ ही गाँधी के गीत सुनाओ नहीं।
बनि सत्य अहिंसक त्यागी बृती, गल तौक बिदेसी बँधाओ नहीं।
इतिहास कहीं पृथिराज नरेस का फेरि यहाँ दुहराओ नहीं॥

यह मत्स्य का न्याय सनातन है, बड़की मछरी छोटकी धरि खाई।
बलहीन गरीब सताए गए, बलवान दे मूँछ पै ताव सदाई।
गदहे नित ढोवत बोझु रहे, हियाँ बाँधे तुरंग रहे ठहनाई।
गौतम, गाँधी गए धुनि सीस, जु लास पै गीधन दुँद मचाई॥

बना कोई किसान का बेटा यहाँ, कोई पान का बेंचने वाला हुआ।
कोई जाति व पांति का रक्षक है, कोई जूतों को थामने वाला हुआ।
हुआ कोई मुसलमां पूत यहाँ, कोई मस्जिद तोड़ने वाला हुआ।
इन भोंदू बिचारे गरीबन का, दुख - दर्द न मेटने वाला हुआ॥

भगवान किसान बतावति हैं, कविता गढ़ि नित्य सुनावति हैं।
मन मां कुछु है, मुख मां कुछु है, कपटी मुनि भेषु बनावति हैं।
जय बोलि किसान पिसान करैं, करि नेहु सनेहु जनावति हैं।
जब दांव लगै, तब चूकै नहीं, मर्मान्तक चोट चलावति हैं॥

तुम अम्बर ते महि पै उतरौ, फिरि बात कहौ तब बात बनै।
पग कंटक घाव कि पीर सहौ, फिरि पीर कै बात कहौ तौ गुनै।
कर मां पकरौ हर कै मुठिया, तन आतप बात सहौ तौ जनै।
सहि भूख, तृषा, चिमनी का धुँआ, मजदूर कै बात सुनौ तो सुनै॥

गाली - गलौज की बानि परी, पुनि ‘टान्ट’ किसी पे कसैं कसिकै।
नित शासन केरि बुराई करैं, कुरसी कै कहैं कुरसी धँसिकै।
मदपान किए बिनु सूझै नहीं, कवि गान करैं मद मां बहिकै।
अपना लिथड़ैं कचरा मां परे, उपदेशत मंच चढ़े हँसिकै॥

अबहूँ है समय कुछु ध्यान धरौ, छलछिद्र न नीति प्रचार करौ।
तुम भाई ते भाई लड़ाओ नहीं, खड़ी आँगन मां न दीवार करौ।
सबके अधिकार बराबर हैं, करि केन्द्रित न अतिचार करौ।
सबकै कुटिया अपनी - अपनी, अपनी - अपनी ते पियार करौ॥

यदि स्वार्थ कै आँधी चलाए रहे तब कुरसी का खेल चला ही करेगा।
कथनी - करनी सम भाव बनी, नहिं स्वत्व समत्व पै ध्यान धरेगा।
सब नंगे ही बीच बज़ार खड़े, निरवस्त्र किए नहिं काम सरेगा।
रोने - धोने से लाभ मिलेगा नहीं, कफ़नी सिर बाँधि जो न बिचरेगा॥

कहलाते  अछूत  उधारक  ही, सबमें  समरूप  कहा  करते।
पर कौड़ी के लालच मां परिकै, तुम कौड़ी पे जान दिया करते।
तुम जाति व धर्म व भाषा - विभेद पे वाद नवीन गढ़ा करते।
जिनके श्रम का तुम खाय जिए, सर्वस्व उन्हीं का हरा करते॥

धन पानी की भाँति बहाए सदा, हमें भूखे ही पेट सुलाते रहे।
परियावरणी परणी तरणी, व्यवसायिक सिंधु डुबाते रहे।
जब आय परी अपने सिर पे, जनसंख्या का दोषु बताते रहे।
नभ ते महि लौं, महि ते अहि लौं, बिष ही बिष नित्य घुलाते रहे॥

कवि कोविद पंडित हैं वे नहीं, करि निंदा जो लोगन मंच रिझावैं।
तुम नेता वही असली समझौ जो कि पास पड़ोसिनि चैन चुरावैं।
नर चातुर वे ही कहावत हैं जो लगाई - बुझाई मां रैन बितावैं।
इहाँ मूर्खन के सरदार वही जो कि झूठइ साँचु है बैन सुनावै॥

हिन्दी भाषा से जुड़े छंद


तुम तोता रटंत रटौ न सबै, राष्ट्रभाषा कै लाज सँवारे रहौ।
तन से, मन से, नख से शिख लौं, छकि हिन्दी सुरा मतवारे रहौ।
रचना रस हिन्दी में डूबी रहे, मुख से तुम हिन्दी प्रचारे रहौ।
तम हिन्दी कै बरखी मनाओ नहीं, झूठी - मूठी न शेखी बघारे रहौ॥

हिन्दी कै चिन्दी उघारौ नहीं, सिर बिन्दी कै शान न ‘ब्रह्म’ बिगाड़ौ।
करनी अपनी - अपनी लखिये, झूठै मंच पै बैठि न भासन झाड़ौ।
कान्वेन्ट मां पूत पठाओ नहीं, डैडी - मम्मी कहावै कै रीति का छाड़ौ।
भाषा - भूषा विदेसी का छोड़ि सबै, फिरि हिन्दी के केतु का विश्व मां गाड़ौ॥

श्रंगार रस के छंद


दुहुँ यौवन जोर सरोज कली, भ्रमरावलियाँ तिन गूँजन लागीं।
हिय व्योम बगीची दरीचिन में, कल कामुक कोकिल कूजन लागी।
तन साड़ी सजी नव पल्लव सी, अधराधर मंजरि फूलन लागी।
रति रानी सुहाग बदे जनु है, रतिनाथ के नाथहिं पूजन लागी॥

पिय प्रेम - पिपास हुलास भरी, अधिरात उनींद उचाटन लागी।
भरि बाँह में बाँह पिया को जगावत, धीर अधीर सुधी रस पागी।
पिय नेह भरे, रस भीगे जगे, हिय सों हिय मर्दन की अनुरागी।
मुख नाहीं करै, मन हाँही भरै, सिसकारिन पीय रिझावन लागी॥

भुज - बंधन में बँधिकै पिय के वह लाखों बहाने बनावति है।
कर अंबर कंबर टारति है, कटि किंकिनि शोर मचावति है।
बिछुआ ठुनकी, ठुनके कंगना, चुरिला मृदु तान सुनावति है।
रस आगरि नागरि नेह भरी, सिसकारिन पीय रिझावति है॥

भक्ति व अध्यात्म के छंद


परिवार तजे नर क्या बनिहै, जब लौ ममता मन त्यागी नहीं।
धन संपति त्याग का अर्थ है क्या, यदि है मन लोभ विरागी नहीं।
पद भार तज्यो न तज्यो मद जो, तब लौं दुख देह ते भागी नहीं।
अपनत्व समत्व समीर बिना, शुख - शांति हृदय बिच जागी नहीं॥

प्रलयंकर फूँक दो शंख यहाँ सब के मन क्षुब्ध समीर बहा दो।
अब ज्वालामुखी धधकै चहुँ ओर सुधीर दवारि के पुंज जला दो।
उफनाय समुद्र, फटै नभ औ प्रलयोदक धारि धरान बहा दो।
जो कि न्याय के हाथों सताये गए उनके स्वर में स्वर रुद्र मिला दो॥

तुमने न कभी दुलराया हमें हमने न कभी कुछ ध्यान दिया।
मन को परवान चढ़ाया नहीं बिनु स्नेह के दीप जलाया किया।
कभी पूरब की, कभी पश्चिम की झुलसाती हवाओं के मध्य जिया।
इक डाल बसेरा बनाए हुए सब जीवन यूँ ही गुजार दिया।।

यह आयु इहाँ बहती सरि है, दिन रैन दोऊ यहि कूल यहाँ।
यह मृत्यु सनातन शाश्वत है, डरना मन की फिरि भूल यहाँ।
जग होता वही जो कि होना यहाँ, भगना फिर भी है फिज़ूल यहाँ।
नर घर्षण से डरना फिर क्या, यह घर्षण जीवन - मूल यहाँ॥

दुनिया रसहीन बताते रहे, रस अमृत खोज लगा न सके।
सबको तुम नित्य जगाते रहे, अपने को कभी भी जगा न सके।
थिरता के हैं पाठ पढ़ाए सदा, मन की पै अशांति भगा न सके।
सदा तोते की भाँति रटे ही रटे, मन राम के प्रेम पगा न सके॥

मन इंद्रिय संयम कीन नहीं, किमि सुस्थिर बुद्धि निवास करै।
फिरि ऐसे अयोग्य मनुष्यन में मन पावन भाव नहीं सँचरै।
शुचि भावना भाव विहीन है जो किमि निर्मल ज्ञान प्रकाश भरै।

बिनु ज्ञान प्रकाश भरे उर में, सुख - शांति के निर्झर कैसे झरैं॥

प्रथम शत्रु - कुपोषण (अवधी आल्हा)

बिना खाद जस मरियल दाना, बिनु सींचे न खेतु हरियाय।
वैसइ काया है मनुष्य कै, बिनु पोषण तनु जाय नशाय।।

जस कमजोर बीजु बोए ते, कबौ न पावै उपज किसान।
वैसइ स्वस्थ द्याह पावै का गर्भकाल ते बनै विधान।।

नौ महिना तक मातु - गर्भ मां शिशु पावै जब पोषाहार।
अंग - अंग सब विकसैं, पावै, देह - दिमाग उचित आकार।।

ऊसर बीजु बये फल कै गति तुलसी पहिलेइ कहा बुझाय।
यहि ते मंत्र गांठि मां बाँधौ, माँ का पोषण परम उपाय।।

जो कन्या की करैं उपेक्षा, हनैं गर्भ, जन्मत दुरियांय।
बेटवा प्वासैं जिउ भरि – भरिकै, बिटिया बचा - खुचा बसि खांय।।

उनकी बिटियाँ गर्भ धरैं जब, कैसे पूत होयं बलवान।
चाहे जेतना खांय - पियैं उइ, करि न सकैं शिशु का कल्यान।।

स्वस्थ पुत्र कै करौ कामना तौ पहिले रखौ सुता का ध्यान।
स्वस्थ सबल बिटियै आगे चलि बनिहै सफल मातु लेउ मान।।

माँ का दूधु पिए ते शिशु का खूब होय बल - बुद्धि विकास।
जो माता ना दूधु पियावै, वहिके कुच कैंसर का वास।।

मैया दूधु पियैहै कैसे जो न मिली समुचित आहार।
येहिते माता के पोषण का सबते पहिले करौ विचार।।

प्रसवकाल ते एक साल तक जहाँ प्रसूता पोसी जाय।
वहि घर के शिशु परम निरोगी काया - बुद्धि बढ़ै मुसकाय।।

जैसे - जैसे तनु बिकसै शिशु माँगै बहुविध पोषाहार।
बिना संतुलित भोजन पाए नाटेपन का होय शिकार।।

दुर्बल काया रोगु बोलावै, सिकुड़ि दिमाग बुद्धि घटि जाय।
घटै आयु, तनु होय पराश्रित, डांगर पशु सम निष्फल काय।।

बहुतु कुपोषण है भारत मां सुनि माता का दूधु लजाय।
केहरि - सुत मूषक सम घूमैं, पिचके पेट रहे रिरियाय।।

बीस फीसदी देश कै जनता आजु अल्पपोषित है भाय।
सब ते ज्यादा हियैं कुपोषित दुनिया चिन्ता रही जताय।।

युवाशक्ति मां भारत आगे, कहि हम वृथा रहे इतराय।
क्षुधा, कुपोषण, रोग प्रभावित अल्पबुद्धि उइ अति निरुपाय।।

यह त्रासदी मिटी जब, तबहीं, भारत बनी जगत सिरमौर।
ज्ञान - चक्षु अब ख्वालौ भाई, सबका मिलै सुमति का ठौर।।

जे गरीब, वंचित, उनके घर नारी - पोषण कै दरकार।
रुकै भ्रूण - हत्या कन्या कै, बिटिया पावै सम अधिकार।।

यहै स्वप्न होवै जन - जन का, यहै उपाय करै सरकार।
यहै राह चलि मिटी गरीबी, सुखी, समृद्ध होई संसार।।

अंधकार मां दर - दर भटके, सारा दोषु भाग्य का दीन।
नई रोशनी भरौ दृष्टि अब, भाग्य अपन खुद रचौ नवीन।।

प्रथम शत्रु अब बनै कुपोषण, मिटै कुशिक्षा औ कुविचार।
सजग होउ मैया, बहिनी सब, सबल, निरोग होय परिवार।।

चलौ, उठौ अब करौ तयारी, नव संकल्प लेहु मन आज।

पोषण कमी न कोउ शिशु झेली, येहिते पइहै मुक्ति समाज।।

ऐलान कुर्दी का आखिरी बयान

समुद्र - तट की गीली रेत पर
खामोश लेटे मासूम ऐलान कुर्दी की तस्वीर
साफ़ - साफ़ बयां कर रही है कि
यह दुनिया कितनी तंगदिल है
और हद दर्ज़े की बेरहम भी।

गोया कि यह दुनिया अब
एक ख़ौफ़नाक आग बन चुकी है
जो रोटी पकाती नहीं, सिर्फ़ जलाती है
या कभी पिघलने वाली बर्फ़ बन चुकी है
जो इंसानियत को बचाती नहीं, जमा देती है।

यहाँ मजबूर हैं बच्चे - बूढ़े
देश और नागरिकता के नाम पर
समुद्र में डूबकर मरने के लिए
किसी को अहसास भी नहीं हो रहा
कि उन्हें शरण देने की मनाही कर
यह दुनिया पहले ही मर चुकी है
चुल्लू भर पानी में डूबकर।

ऐलान तो वैसे ही निकला होगा घर से
प्यार से माँ की उँगली थामे
जैसे बच्चे जाते हैं मेला घूमने
उसे नहीं पता रहा होगा कि
उसके माँ - बाप भाग रहे थे
अपनी और उसकी जान बचाने के लिए
छोड़कर अपना घर, शहर, देश, सर्वस्व।

ऐलान तो वैसे ही बिछड़ा होगा नाव पर
और फिसली होगी माँ की पकड़ से उसकी बाँह
जैसे बच्चे अक्सर बिछुड़ जाते हैं मेले में
काश, वह फिर से कहीं मिल जाता
मेले में भटके किसी बच्चे की तरह
और स्वार्थ में एक - दूसरे का घर जलाती यह दुनिया
बच जाती उस मासूम की हत्या के आरोप से।

अरे बेशरमो!
अरे बेरहमो!
अरे मासूमों के क़ातिलो!
अरे हैवानियत के कारोबारियो!
अरे लड़ने - लड़ाने के शौकीनो!
अरे लाशों के किलों पर फ़तह का परचम लहराने वालो!
तुम धरती पर चारों तरफ फैले ताजा ख़ून की चमक को देखो!
काला सागर में तैरती जली हुई बस्तियों की राख को देखो!
बमों से ज़मीदोज़ की गई ऐतिहासिक धरोहरों के गर्दो - गुब्बार को देखो!
देखो - देखो, तुम समय के चेहरे पर घोंपी गई संगीनों के घावों को गौर से देखो!

अरे बहरो!
तुम हवा में गूँज रही माताओं, बहनों, बच्चियों की सिसकियों को सुनो!
समुद्री रेत के कान में मुँह सटाकर
अपनी पीड़ा का हवाला दे रहे ऐलान कुर्दी के आखिरी बयान को सुनो!
यह अंतिम मौका है तुम्हारे लिए पश्चाताप करने का
इसलिए हतप्रभ दुनिया की इस चीखो - पुकार को तुम बड़े ही ध्यान से सुनो!

मुझे अभी भी पूरी उम्मीद है कि
युद्धोन्माद में भटकते हुए
तुम एक एक दिन
इस खूबसूरत दुनिया के किसी फूल की मुस्कान से डर जाओगे
और अपने ख़तरनाक हथियारों को

किसी दिन ईद के चाँद के बांकपन के हवाले कर दोगे!