मलयालम के सुप्रसिद्ध कवि अक्कित्तम अच्युतन नम्बूदिरी की कविताओं की यात्रा पैंसठ वर्ष से भी अधिक की है। इस लम्बी काव्य-यात्रा में उनकी कविताएँ अनेक कविता-संग्रहों तथा खंड-काव्यों के रूप में हमारे सामने आई हैं। मलयालम में शायद ही किसी अन्य कवि ने इतनी अधिक कविताएँ लिखी हों। उनके भीतर कविता की नदी निरन्तर प्रवाहित होती रहती है। एम.टी. वासुदेवन नायर ने इस प्रवाह की तुलना निला नदी के विस्तरित होते प्रवाह से की है। यह प्रवाह अभी रूका नहीं है और ऐसा लगता है कि यह कभी रूकेगा भी नहीं। स्वयं अक्कित्तम का कहना है कि उनकी सर्वोत्तम कविता अभी लिखी जानी है। उन्हें हर नई कविता लिखते समय यह लगता है कि वह उनकी पूर्ववर्ती कविता से बढ़िया है।
अक्कित्तम की कविता आद्यन्त आत्मान्वेषण की कविता है।
यथार्थ का अन्वेषण। चिरन्तन सत्य की खोज। इस खोज में चारों तरफ वेदना है। आँसुओं का प्रवाह है। तरलता ही तरलता है। जहाँ क्रोध है, अमर्ष है, वहाँ उसके
शमन का विधान बनने वाले आँसू भी हैं। इसी आर्द्रता से सृजित होते हैं मानवीय गुण,
जीवन के सत्य का अमृत। भौतिक जीवन में उष्णता है, पसीना ही पसीना है, छल है,
संघर्ष है। धनिक वर्ग द्वारा सामान्य-जन का उत्पीड़न है, पाशविकता है। संसार की
नाटकीय प्रवृत्तियों ने मनुष्य को पिशाचवत कर दिया है। राजनीतिक नेतृत्व खोखला
है। सिद्धान्तों व पूर्वाग्रहों के जाल में जकड़ा है। उसका आन्दोलनकारी रवैया बस
छलावा है। उसका आंतरिक स्वरूप स्वार्थमय है। निस्वार्थ, निश्छल प्रेम ही
दुनिया को बचा सकता है। अहिंसा ही प्रगति के रास्ते पर ले जा सकती है। असली तत्व-ज्ञान
नि:शर्त प्रेम ही है।
अक्कित्तम परम्पराओं के अनुगमन में विश्वास नहीं करते।
वे परम्पराओं का निरन्तर आकलन करते हुए अच्छाइयों को चुनते हैं, सन्मार्ग को
पहचानने का प्रयत्न करते हैं और आधुनिक परिवेश में उस पाम्परिक ज्ञान का उपयोग,
समाज को, इस सारे विश्व को बेहतर बनाने के लिए करने का संदेश देते हैं। वे ईश्वर-विश्वासी
हैं, कृष्ण के उपासक हैं, वे वेदान्तवेत्ता बनने का प्रयत्न न करते हुए, वेदों
की विचारधारा के उदात्त पक्ष को अपनाने की कोशिश करते हैं। वे परमाणु-उर्जा के
खतरनाक उपयोग के प्रति सचेत करते हैं तथा विश्व में प्रकाश फैलाने जैसे
शांतिपूर्ण कार्यों में उसके उपयोग के पक्षधर हैं। वे नितान्त आधुनिकतावादी भले न
दिखें लेकिन उनकी कविता की अंतर्ध्वनि निश्चित रूप से हमें अंधविश्वासों से
निकालकर आधुनिकता की सच्ची व शाश्वत वैचारिक धारा की ओर ले जाती है। वहीं उनका
स्वर्ग है और उसी स्वर्ग की रचना के लिए वे सभी का आह्वान करते रहते हैं इस सत्कर्म
में उन्हें प्रत्यक्ष या परोक्ष से प्रेरित करने अथवा धकेलने वाले सभी लोगों के
प्रति वे कृतज्ञता भी ज्ञापित करते हैं।
‘बीसवीं सदी का इतिहास’
निश्चित रूप से उनकी सबसे महत्वपूर्ण् एवं कालजयी रचना है। आलोचकों ने इसकी
तुलना टी.एस. इलियट के ‘वेस्ट लैंड’
से की है। सोवियत क्रांति तथा दो विश्व-युद्धों की पृष्ठभूमि में 1952 में
प्रकाशित हुआ काव्य है यह। इसमें हमारे आस-पास जो भी उस समय घटित हो रहा था, उसकी
मीमांसा स्वर्ग, नरक, पाताल, भूमि इन चार खण्डों में की गई है। इसके प्रारंभ में
अक्कित्तम ने अद्भुत शब्दों में अपनी इच्छा, अपने आदर्श, अपने विचारों का
प्रकटीकरण इस प्रकार किया है:-
‘जब मैं एक बूँद आँसू दूसरों के लिए टपकाता हूँ
उदित होते हैं मेरी आत्मा में हजारों
सौर-मंडल
जब मैं एक मुस्कान दूसरों के लिए
बिखेरता हूँ
हृदय में पसर जाती है नित्य निर्मल
पूर्णिमा।‘
दूसरों के लिए एक बूँद आँसू टपकाने वाला अपने आप में कितना
अधिक संवेदनशील होता है, इस प्रवृत्ति में वह कितना आनन्द प्राप्त करता है और
ऐसा करने पर उसकी आत्मा थोड़ा बहुत नहीं, हजारों सौर-मंडलों के आलोक से प्रकाशमान
होती है। अक्कित्तम की दृष्टि में दूसरे के लिए एक मुस्कान बिखेरना ही आनन्द
के प्रकटीकरण का सबसे नायाब तरीका होता है। ऐसे व्यक्ति के हृदय में निर्मल
पूर्णमासी जैसी शीतल प्रभा शाश्वत रूप से स्थान ग्रहण कर लेती है। कवि आगे केवल
इसी बात पर दु:खी होता है कि उसे इस दिव्य आनन्द के स्रोत का ज्ञान इतने विलम्ब
से क्यों हुआ और इस विलम्ब के कारण उसने जो कुछ खोया है, उसे याद कर वह दु:ख से
रोता है, - ‘इतने समय तक क्यों न जान सका मैं/ इस दिव्य
आनन्द के उद्गम को/ इस महाहानि को याद कर/ दुखी हो, कंपकंपाकर रोता हूँ मैं।‘
‘बीसवीं सदी का इतिहास’
के ‘स्वर्ग’ खंड में अक्कित्तम अपने
अतीत की याद करते हैं। इस अतीत में उनका अपना बचपन है, माँ का वात्सल्य है और
साथ ही इस समस्त सृष्टि का भी नैसर्गिक आभास है। ‘माता
के मधुर, उदार वात्सल्य रस का झाग/ आज भी है मेरे तम्बाकू के दाग से रंजित
होंठों पर’ कहकर वे इस अतीत को
अपने वर्तमान के विकृत हो चुके रूप से जोड़ देते हैं। वे इस स्वर्ग सरीखे अतीत को
याद कर आँसू बहाते हैं और उसे खो चुकने के यथार्थ का बोध होने पर वे पूरी तरह दुखी
हो जाते हैं, - ‘अतीत की सोच में डबडबाकर/ अंधराई
मेरी आंखों में/ भर आते हैं आँसू/ बह निकलते हैं दो धाराओं में/ होंठों पर टिककर
उनके सूख जाने पर/ महसूस करता हूँ मैं/ दु:ख की खटास को/ पूर्णता में।‘
‘नरक’ खंड में अक्कित्तम
तत्समय की सामाजिक, नैतिक वे रानीतिक स्थिति का बेबाकी से चित्रण करते हैं। यह
स्थिति हर दृष्टि से नाटकीय है। यह उस ज्ञान से उपजी है, जो वास्तव में अज्ञान
है, - ‘देखो, फीकी पड़ गई हैं/ बाल मन की रंगीन कल्पनाएँ/
आनन्द के तुहिन-कण सूख गए हैं/ ज्ञान की धूप खिलने पर’
कहकर वे स्वर्ग के नरक में परिवर्तित होते रूप की ओर इशारा करते हैं और साथ ही यह
व्यंग्य भी करते हैं, कि ऐसा ज्ञान की धूप खिलने पर हो रहा है। उनकी दृष्टि में
प्रकृति रहस्यमयी किन्तु शाश्वत है, - ‘लहरों, तारों व बालू के कणों की/ गिनती तो असंभव होती है/ उड़ते जाने,
उड़ते जाने पर भी/ निस्सीम ही बना रहता है आकाश/ काटते रहने पर भी/ पल्लवित होती
हैं/ घास, वृक्ष, लताएँ आदि।।‘ मनुष्य के लिए संभव नहीं
है इस विशालता की पार पाना। वह थक जाता है इसकी खोज में, - ‘अन्तरिक्ष में अनेक प्रकाश वर्ष दूर स्थित/ अन्य सूर्य और उनके सौर-मण्डल/
फिर जैसे-जैसे उनके आगे भी जाता है/ मनुष्य देखता है करोड़ों सूर्यों व उनके सौर-मण्डलों
को/ मनुष्य ही नहीं, उसकी कल्पना-दृष्टि भी/ इस विशालता का पार नहीं पा सकी है/
थक जाती है।‘
अक्कित्तम की दृष्टि में इस नारकीय स्थिति का कारण
मनुष्य के हृदय में भरा अहंभाव है, - ‘सत्य है/ फिर भी देखता हूँ मैं/ सविस्मय/ मनुष्य
के हृदय में भरे/ अहंभाव के विस्तार को।‘ वे मनुष्य को समस्त जीवों में श्रेष्ठतम सृष्टि
मानते हैं, - ‘उससे (बंदर से) भी श्रेष्ठ पाता हूँ/ मैं
एक और जीव को/ इस भूमि को दो पैरों पर छोड़/ उठ खड़े हुए मनुष्य को।‘ वह प्रकृति का उपभोग करने में कुशल है, - ‘भूमि के
भीतर सुसुप्त कोयला व ज्वलनशील पदार्थ/ नदी के जल में निहित विद्युत-शक्ति/
सूर्य रश्मियाँ, वायु/ परमाणुओं की अंदरूनी दिव्य-शक्ति आदि से/ मनचाहा काम
करवाता है कुशल मनुष्य।‘ किन्तु अहंभाव से ग्रसित
हो जब यही मानव पाशविक प्रवृत्ति पर उतर आता है तो अक्कित्तम के लिए शोषण का
प्रेरक, अन्याय की आग तथा आनन्द की समाप्ति का कारण बन जाता है, - ‘लेकिन उसकी दिग्विजय वहीं नहीं रुकती/ आदमियों से भी पशुवत काम कराता है
अधम मनुष्य/ हल पर झुक कर खड़े होकर ही/ चल पाता है थका मांदा किसान/ उसकी गहरी
छाप है मेरे मानस पटल पर/ उसकी उच्छ्वास हैं धान की पत्तियाँ/ उनके ऊपर तनी हुई
बालियाँ/ बीजों की आंखों में उभरते रक्त-कण/ इसे खाने वाला वह स्वयं नहीं/ यह
सत्य जिस दिन मैंने जाना/ मेरे हृदय का चांद अस्त हो गया।‘
मिल के मजदूरों की इस पीड़ा को भांपकर कि जिन कपड़ों का
निर्माण वे करते हैं, उनसे अपने स्वयं के तन को नहीं ढक सकते, अक्कित्तम अपने
जीवन को एक काल-रात्रि से घिरा हुआ पाते हैं, - ‘असुर गणों
सी/ लौह-युक्त भीमाकार धुंआ उगलती मशीनों से चालित/ कारखानों में/ रक्त चूसने
वाली चर्खी दर चर्खी/ मांसपेशियाँ गलाते हैं मजदूर/ यह ठीक है कि/ उस भीमकाय के
मुख से/ निकलते हैं सुंदर सपाट ऊनी व रेशमी कपड़े/ किन्तु ये सृष्टा/ अपनी ठंड
नहीं दूर कर सकते उनसे/ यह जिस दिन से समझा मैंने/ काल-रात्रि बन गया मेरा जीवन।‘
बीसवीं सदी के समाज की विसंगतियों में अक्कित्तम को सबसे
प्रबलता से दिखाई पडती हैं नैतिकता के ह्रास
से जुड़ी हुई समस्याएँ। यह ह्रास दुनिया के पाप के बोझ को बढ़ा रहा है, - ‘शुद्ध देशी पुष्प का/ शालीन परिवेश नष्ट हो रहा है/ पाप का बोझ थका रहा
है जगत को।‘ नैतिकता की इस गिरावट के कारण ही मनुष्य का हृदय नारकीय
आग की लपटों से घिरा जा रहा है, - ‘गली में कौवा नोचता है/ मृत औरत की आँखें/ स्तन
चूसता है/ नर-वर्ग का नवातिथि/ इस कटु सत्य को समझ पाने वाले/ शापित क्षणों से
ही/ मेरी नसों में लपकती हैं/ नरक की आग की लपटें।‘
नरक के इस अन्वेषण की, नीचता के इस इतिहास की, बातें यहीं
नहीं रुकती। मनुष्य का चारित्रिक ह्रास हृदय को अशान्त बनाता है और मानसिक सन्निपात
का कारण बनता है। व्यभिचार के फलस्वरूप होती हैं भ्रूण-हत्यायें। आग में कूदकर
मर कर पड़े हुए पतंगों जैसी स्थिति हो रही है, गलियों में शिशु-शवों की, - ‘क्या यह अति आडम्बर/ शान्त हृदय का प्रतिबिंब है? क्या यह भी प्राय: मानसिक सन्निपात का कारण नहीं बनता? चावल पकाने वाले की आग में/ पतंगें आकर गिरते हैं तो/ अगले दिन/ गली-कूचों
में दिखाई पड़ते हैं ढेरों शिशु-शव।‘ तभी
अक्कित्तम भावी पीढ़ी से अपना यह अनुभव-जन्य संदेश कह बैठते हैं कि प्रकाश
दु:खमय होता है, सुखप्रद तो अंधेरा है, - ‘रोते हुए
उस दिन कहा मैंने/ भावी नागरिक से यों/ प्रकाश दु:ख है, बेटे! तम ही तो सुखप्रद है।‘ अक्कित्तम का मानना है
कि इन्हीं नारकीय प्रवृत्तियों ने मनुष्य को पिशाच बना दिया है।
‘बीसवीं सदी का इतिहास’
के ‘पाताल’ खंड में अक्कित्तम पहले
तो अपने पापों को स्वीकार करने को उद्यत होते हैं – ‘अपने अत्याचार गिन-गिन कर/ बता रहा हूँ मैं/ ततैया ने डंक मारा हो जैसे/ ऐसी
टीस व सृजन भरे मन से।‘ इसी स्वीकारोक्ति के साथ ही वे
समाज के कर्णधरों के कृत्यों-कुकृत्यों का भी वर्णन करते हैं। वे सामाजिक व
राजनीतिक स्तर पर मुक्ति पाने के लिए किए जा रहे प्रयत्नों का आकलन करते हैं।
वे क्रांति की प्रक्रिया का तथा उसके प्रभावों की विस्तार से समीक्षा करते हैं।
वे राजनीतिक नेतृत्व के खोखलेपन को कठोरता से बेनकाब करते हैं, विशेष रूप से
विचारधारा के पूर्वाग्रहों से ग्रस्त स्वार्थी एवं निष्ठुर नेतृत्व के। वे इन
स्थितियों के प्रति द्रवीभूत हो जाते हैं। समूचे आकलन के पश्चात वे इस निष्कर्ष
पर पहुँचते हैं कि नि:शर्त प्रेम के बिना दुनिया में कुछ नहीं बचेगा, - ‘नि:शर्त जीव-प्रेम के बिना/ कुछ भी आगे नहीं बढ़ेगा/ ऐसा कहने की शक्ति
भी समेट ली हैं मैंने।‘ अक्कित्तम का मानना है कि जहाँ
दुनिया में एक ओर थीसिस है तो वहीं दूसरी ओर एंटीथीसिस भी। स्वर्ग की सिन्थेसिस
अथवा पुनर्स्थापना इन दोनों के बीच के रास्ते से ही संभव है।
अक्कित्तम ने जमींदार, पूंजीपति, धनाड्य, अधिकारी,
कर्मचारी, सम्पत्ति वाले किसान, बुद्धिजीवी, कलाकार, वैज्ञानिक आदि को सामान्य
मनुष्यों, पशुओं, वृक्षादि से भिन्न माना है। तत्ववेत्ता इन लोगों को ‘बुर्जुआ’ तथा ‘पेटी बुर्जुआ’ की श्रेणी में रखते हैं तथा स्वयं अपने को ही समाज का असली रक्षक मानते
हुए इनके विनाश की कामना करते हैं। अक्कित्तम ने इस प्रकार के पूर्वाग्रहों से
ग्रसित नेतृत्व की तीखी आलोचना की है, - ‘हृदय व बुद्धि
न उनमें कभी थी/ न आगे कभी होगी/ न आज ही है/ शिलावत हैं वे/ दु:खी लोगों के
प्रति/ सहानुभूति की शक्ति व त्याग की इच्छा/ उनमें हो सकती है/ यह धारणा ही
गलत होगी/ इसका विचार करना भी गलत होगा।‘ अक्कित्तम के अनुसार ऐसे लोगों का सिद्धान्त ‘जिसकी
लाठी उसकी भैंस वाला’ ही है।
अक्कित्तम ने राजनेताओं के छल-कपट भरे व्यवहार, उनकी
कार्य-प्रणाली तथा उनके संगठन के विस्तार के तरीकों को बड़ी बारीकी के साथ अपनी
पंक्तियों में स्थान दिया है। वे कच्ची उम्र के मासूमों को अपना शिकार बनाते
हैं, - ‘वे अभी-अभी/ अंडों से निकले/ मंद हवा के
झकोरों के बीच स्थित/ उन कबूतरों जैसे हैं/ जिनके पंख हिलाने व आँखें खोलने का/ समय
नहीं आया है अभी।‘ आगे चलकर अक्कित्तम बताते हैं कि नेता इन कच्ची उम्र के
अनुयायियों को कैसे धीरे-धीरे अपनी विचारधारा के रंग में रंगता है, -‘उनकी जठराग्नि पचा सके जिसे/ पहले उतनी ही मात्रा में/ विश्व-प्रेम का
अच्छा दूध ही/ उन्हें दिया मैंने/ आगे चलकर उस दूध में मैंने/ विद्वेष का थोड़ा
विष भी मिला दिया/आखिर में गूढ़ मुस्कान के साथ/ मैंने दूध देना ही बन्द कर
दिया/ अंत में वे स्वयं ही मुझे समझाने लगे हैं/ यह वास्तविकता कि विद्वेष ही
दिव्य मार्ग है।‘ अक्कित्तम बताते हैं कि जब एक स्वार्थी नेता अनुयायी को
पूरी तरह अपने रंग में रंग लेता है तब भी वह उसे नायक का स्थान देने को तैयार
नहीं होता, - ‘रोपित भी कर चुका था मैं/ मिट्टी पलटाये
खेतों में/ आधिपत्य-भ्रम के फल देने वाले/ अंधविश्वास के कटीले पौधे/ वे और मैं
एकाकार हो गये/ अभिन्न वस्तु बन गये/ फिर भी नायक मैं ही था/ वे तो बच्चे ही
ठहरे?’
अक्कित्तम क्रांतिकारियों के विद्रूप को भी हमारे सामने
रखते हैं, - ‘कीचड़ व धूल/ जिन्हें कंघी करने की फुरससत
न मिली ऐसी जुल्फें/ पसीने व बीड़ी की मिली-जुली/ उबकाने वाली दुर्गन्ध।‘ राजनेता अपने स्वार्थ के लिए इन क्रांतिकारियों की बलि चढ़ाने पर आमादा है,
- ‘आग में घी डालते/ उनके जीवन को/ चूल्हें
में झोंक रहे हैं/ मेरे परमार्थी शिष्य।‘ खा़की
पतलून में पिस्तौलें छिपाकर रोम-रोम में प्रतिकार की ज्वाला समेटे यह
क्रांतिकारी नशा करने में भी नहीं हिचकते, - ‘कभी भी/ मौका
मिलते ही/ यूरोपीय मधुशालाओं में घुस/ छक कर पी/ लड़खड़ाते हुए चलता हूँ।‘ अक्कित्तम ने ‘पाताल’ खंड में
क्रांति का विस्तृत उल्लेख किया है। इस क्रांति में हिंसा है, प्रतिकार है।
फसलों व अन्न-भंडारों पर कब्जा है। पुलिस का दमन-चक्र है। देश की सत्ता को वश
में करने की इच्छा है, - ‘फूंक मारने भर से ढह जाएँगें/ आज
के सारे न्यायालय/ समय आकर पुकार रहा है/ आँखें खोलो/ उठो! शत्रुओं को मारकर/रक्त-रंजित
आंतों की माला धारण करो! लकड़ी के भालों से बींध/ देश को अपने वश में कर लो!‘
लेकिन जब क्रांति समाप्त होती है तो उसका अवदान है एक
श्मशान, तिमिरावृत्त मन, मनुष्य का नित्य-रोदन, - ‘दीनों का संग्राम खत्म हुआ/ केरल शमशान बन गया/ तिमिर से आवृत्त मेरा
मन/ मेरे कानों में गूँजता है/ नित्य मनुष्य का रोदन/ मेरे पांवों में चुभते
हैं/ नर-मुंडों के कंकाल।‘ मानवता के इस रोदन से
टपके हैं करोड़ों आँसू। अक्कित्तम इन्हीं आँसुओं में पाते हैं उस प्रकाश का
उद्गम, जो आकाश में फैला हुआ है। यदि आँसुओं से नहीं तो शायद इस विनष्ट हो रहे
ब्रह्मांड के ताबूत की कीलों से निकला है यह आकाश में प्रसारित आलोक, - ‘वहाँ प्रकाश फैला है/ करोड़ों अश्रु-कणों से/ या फिर/ ब्रह्मांड के ताबूत
की कीलों के पुंज से तो नहीं?‘ जब क्रांतिकारी नीचे गिर जाता है, मृतात्माएँ घेर लेती हैं उसे। अक्कित्तम
उस समय सारी काव्य-कल्पनाओं में बेजोड़ हो उठते हैं, जब वे कहते हैं, - ‘प्रेतों के कपोलों से उमड़ती है/ आँसुओं की नदियाँ/ उनकी दीर्घ नि:श्वासों
की तरंग फैलने से/ सिहर उठती है/ उसके चेहरों की बाघ जैसी मूंछें।‘ प्रेतों के कपोलों पर आँसुओं की नदियों का उमड़ना एक अनूठी परिकल्पना है जो
साहित्य में अन्यत्र कहीं नहीं दिखाई पडती, भले हिन्दी में मुक्तिबोध ने प्रेत
के बिम्ब का प्रयो किया हो। यह संवेदना की उत्कटता है। यह उत्पीड़न का सबसे
मार्मिक अवशेष है। गिरे पड़े क्रांतिकारी के चेहरे की बाघ जैसी मूंछों का सिहरना
एक अनूठा व प्रभावशाली बिम्ब है। ‘पाताल’ खंड का
पटाक्षेप हृदय परिवर्तन के साथ होता है, - ‘दीन रोदन के
टकराने पर/ उसे भी रोने की चाह हुई/ किन्तु उठ न सकी उसकी आवाज़/ सूर्योदय तक।‘
अक्कित्तम ने ‘बीसवीं सदी का इतिहास’ के ‘भूमि’ खंड में अपनी सृजनात्मक चेतना का परिचय देते हुए धरातल पर स्वर्ग को
पुन: स्थापित करने की आकांक्षा को मूर्त रूप देने का मार्ग प्रतिपादित किया है।
इस प्रक्रिया में सबसे पहले उन्होंने आत्मान्वेषण के माध्यम से पश्चाताप का
मार्ग प्रशस्त किया है। यह वह अवसर है, जब क्रांति का महानायक अपने को महापापी
घोषित करता हुआ अपने अहिंभाव तथा अपने व्यतिचलन के कारणों की पहचान करता है, - ‘बारूद से भरी बन्दूक/ अपने हृदय में रखकर/ अशान्त हो/ समता का सुन्दर
उद्यान खोजता हआ/ भटकता रहा मैं/ पुस्तक-ज्ञान के आधार पर/ रक्त भरे मनुष्यों
को/ केले के तने की तरह कटवा डालने वाला/ पाताल भैरव हूँ मैं/ मुर्गी के अंडे की भाँति/
मुट्ठी में बंद कर सकता हूँ/ इस महाब्रह्मांड को/ ऐसी भ्रामक धारणा बना ली मैंने।‘ परिवर्तन के लिए अपनाये गये गलत तौर-तरीके के प्रति भी सजग होता है वह, ‘विष-वृक्ष के बोने पर भी/ उग आएँगे/ अमृत-फल देने वाले कल्पवृक्ष/ ऐसा ही
सोच बैठा मैं।‘ तदुपरान्त मानव-समाज से क्षमा मांगता है
वह, - ‘भूमि पर बसने वाले दो सौ करोड़ मनुष्यों/ अज्ञानतावश
मेरे द्वारा किया गया/ अपराध क्षमा करो।‘ भूमि को
सुधारने के लिये अपने कलंक को धोकर साफ करने का संकल्प लेता है वह, ‘इस भूमि को सुधारने की/ आशा करनी है तो/ पहले अपने भीतर के कलंक को/ धोकर
साफ करना होगा मुझे।‘
आज जब देश में परमाणु-उर्जा से बिजली बनाने के विकल्प की
इतनी ज्यादा आवश्यकता महसूस की जा रही है, उस स्थिति में यह देखकर सुखद आश्चर्य
होता है कि अक्कित्तम जैसे कालदृष्टा कवि ने आज से साठ वर्ष पूर्व ही ‘भूमि’ खंड में इसका आह्वान कर डाला था, ‘बम के लिए दुर्व्यय की जा रही/ अणु-उर्जा की शक्ति से/ गांव के अंधेरे
नुक्कड़ों में/ स्नेह के दीप जलाओ।‘ अक्कित्तम स्नेह
के दीप में ही विश्वास रखते हैं। यह स्नेह का दीप अंधकार के बाद ही जलता है।
अंधकार के आँसू ही इस दीप को प्रकाशित करते हैं। इसीलिये अक्कित्तम को अंधकार
सुखप्रद लगता है और आँसू दिव्यानन्द के स्रोत। वे नि:शर्त प्रेम को ही सत्य का
स्वरूप मानते हैं तथा उसके परिपालन को ही मनुष्य का धर्म मानते हैं, - ‘नि:शर्त प्रेम/ प्राप्त करेगा बल क्रमश:/ यही है सौन्दर्य/ यही सत्य/ इसका
परिपालन ही धर्म है।‘ अक्कित्तम की यही मीमांसा उनकी
कविता का प्राण तत्व है और उनका जीवन-दर्शन भी।
‘बीसवीं सदी का इतिहास’
के बाद क्रमेण अक्कित्तम की कविताओं में जीवन की क्षुद्रता का, उसकी आर्द्रता
का, आँसुओं की महत्ता का, निस्वार्थ-नैसर्गिक प्रेम की अनिवार्यता का अवबोधन
बढ़ता ही गया। वे दुनिया को बेहतर बनाने के लिए जीवन को क्लेशों में झोंक देने की
प्रेरणा देते हैं। ‘योद्धा’ में वे
कहते हैं, - ‘अपने जीते जी एक सुव्यक्त एवं सुन्दर
नव-पथ/ सृजित करना है इस दुनिया में/ नहीं तो मैं हूँ ही क्या? दुस्सह क्लेशों को पराभूत करने को ही तो/ शक्तिमान बना हूँ मैं।‘ आगे वे फिर कहते हैं, - ‘कठिन हो जाने दो मेरी
जिन्दगी/ तभी मेरे हृदय-लोक में कौंधेगा आलोक।‘ किन्तु
इस सर्जना में वे अंधानुकरण के पक्षधर नहीं। उन्हें सूर्य की तड़क-भड़क व उष्णता
की तुलना में चंद्रमा की शीतलता व विविधता श्रेयस्कर लगती है, - ‘सूर्य के कांचन रथ की लीक में/ ले जाने की जरूरत नहीं/ चन्द्र! तुम्हें अपना रथ/ नित्य नये-नये
रूप में चमकते हो तुम/ विश्व-चकित है इसी बात में।‘
किन्तु, अंधानुकरण के पक्षधर न होने का यह अर्थ नहीं, वे परम्परा में विश्वास न
रखते हों। वे भारतीय परंपराओं में विकसित सद्गुणों को संजोने तथा उन्हें परम सत्य
के रूप में ग्रहण करने में निरन्तर विश्वास दिखाते है। ‘भारतीय
का गान’ कविता में उनकी इन पंक्तियों को देखिए, - ‘एक
समु्द्र के मंथन से/ प्राप्त हुआ है यह/ एक सौरभ का वरदान/ एक सौभाग्य का वरदान/
एक अमृत/ सत्य के भी सत्य की तरह/ घोर तपस्या से कृशित /भारत के पूर्व वीरों की
मज्जा में/ कमल-नाल जैसी सुषुम्ना नाड़ी में/ हजारों-हजार वर्ष पहले से विद्यमान
वही अमृत/ हमारे भीतर भी प्रवाहित हो रहा है।‘ यह
भी गौरतलब है कि जिस समुद्र का मंथन अक्कित्तम के अतीत में हो रहा है, वह
हजारों-हजार अश्रु-नदियों के मिलन से बना है। अर्थात अक्कित्तम की दृष्ट में आँसू
ही सत्य के सौन्दर्य के आत्मालोक के प्रकटीकरण का मूल स्रोत है, कारक है।
‘नित्यमेघ’ कविता में
यह बात और ज्यादा स्पष्ट हो जाती है। इसमें जो वर्षा-मेघ हैं वह लीलामय हैं तथा
कालपुरूष ने उन्हें आँसुओं से निर्मित किया है, - ‘पिया-विरह
पीड़ा की अग्नि से, धूम-जाल से/ नि:श्वास वायु से, कालपुरुष ने बनाए हैं/
अश्रुओं से वर्षा-मेघ।‘ अक्कित्तम को आँसुओं से बना यह
वर्षा-मेघ विस्मित करता है तथा उसमें उन्हें मुरलीधर का विश्व रूप दिखाई पड़ता
है - ‘देख यह वर्षा-मेघ, काल थम, याद करे/ मुरली धरे विश्व
के शासक श्यामदेहि को/ उसके मुख में दिखे विश्वरूप जैसा मुझे/ विस्मित करता है,
मेघ, तुम्हारा महारूप ये/’ अक्कित्तम ने ‘संगमरमर की कहानी’ में आँसू की ही बूंद को पत्थर की
भांति जमकर भूमि के विभिन्न हिस्सों में संगमरमर के रूप में विस्तरित होते देखा
है। ‘तुलसी’ में जब विष्णु तुलसी का चरित्र-हनन
करते हैं तो अक्कित्तम के अनुसार तुलसी का शरीर आँसू बनकर पिघल जाता है और यही आँसू
उमड़कर गण्डकी नदी का रूप ले लेते हैं तथा अपने प्रवाह क्षेत्र में विविध रूपों
में नव-जीवन का परिपोषण करते हैं - ‘आँसू बनकर पिघल गया/ अपवित्र
हुआ मेरा शरीर/ नेपाल में हिमगिरि के निकट/ सुरभिपूर्ण व सुरम्य एक आश्रम में/ मेरे
उमड़ते आँसू नदी बन गए/ गण्डकी नाम से बह चली वह/ प्रवाहित होती जा मिली गंगा
में।'
जहाँ भी विसंगति है, धर्म-च्युति है, अक्कित्तम आवाज़
उठाने से नहीं चूकते। ‘तुलसी’ में उन्होंने
मूर्ति के रूप में पूजित देवताओं को प्रश्न के कटघरे में खड़ा किया है। वे विष्णु
के कृत्य को धर्म-च्युति की संज्ञा देते हैं - ‘स्थिति
व लय का कारण बनी मूर्तियों से स्वरूपित / हे मतिमानों! आपने
धोखा नहीं किया क्या? क्या धर्म-च्युति नहीं की अर्जित/ अपवित्र
हुआ क्या तुलसी का पातिव्रत/ या फिर कहीं/ पद्मावती के पति का पत्नीवृत तो नहीं? विष्णु गए थे तुलसी के पास/ किन्तु तुलसी तो चली थी/ प्रेम-तपस्या का
फल पाने/ अपने प्रिय सुन्दर पुरूष से न!‘ अक्कित्तम
इस पर भी कटाक्ष करते हैं कि जब तुलसी की पत्तियाँ विष्णु व शिव पर चढ़ती हैं तो
क्या वे दीनता से घबराते नहीं हैं - ‘चरण-कमलों पर चढ़ाए
जाते समय/ हरि-हर आज भी/ दीनता से किंचित घबराते नहीं क्या?’
अक्कित्तम के द्वारा सत्य व सौन्दर्य
का अन्वेषण निरन्तरता में आँसुओं के माध्यम से ही किया गया है। ‘झंकार’ में वे दीनानुकंपा में वाष्पित हो उठते हैं -
‘मैं दीनानुकंपा में वाष्पित हो/ गीत की तरह हवा में तैर
रहा हूँ।‘ ‘पिता आभार जताते है’ में वे प्रवाहित हो रहे आँसुओं के बीच में सारे घटना-संसार को लिखा हुआ
पाते हैं - ‘ओणम-लता के मंद-मंद हिलने-डुलने में/ प्यारी
बच्ची! तेरे सामीप्य का आस्वादन करता हूँ मैं/ उसी समय प्रवाहित हो रहे आँसुओं
के बीच/ इस घटना-संसार को लिखा हुआ भी पाता हूँ।‘ इस कविता के अंतिम चरण में पिता सद्ज्ञान देने के लिए अपनी दिवंगत बेटी को
आँसुओं से ही कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं - ‘मृत्यु मिथ्या
भ्रम है/ यह जताकर/ मेरी आँखें खोल देने वाली बेटी! मैं आँसुओं
से तेरे प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ।‘ कहीं-कहीं आँसुओं
का स्थान आर्द्रता ले लेती है। ‘घास’
में अक्कित्तम ने इसी आर्द्रता को अपने अस्तित्व का मूलाधार बनाया है - ‘पांवों के नीचे अभी भी नम है/ भूमि द्वारा अतीत में लिपटाई गई मिट्टी /उस
मिट्टी को छुड़ाऊँगा नहीं मै/ अन्यथा मेरा कमल-पुष्प बिखर जायेगा न/ मेरी मिट्टी
में ही उगी है न/ तुम्हारे होठों की बांसुरी भी तो/’
यहाँ अपनी विरासत को संजोकर रखने तथा मिट्टी से जुड़े रहने की उत्कट आकांक्षा का
प्रकटीकरण भी किया है अक्कितम ने। आँसुओं की असली उपादेयता और उनका नैसर्गिक
अवदान तब सामने आता है जब अक्कितम ‘प्राणायाम’ में कहते हैं - ‘आँसुओं से सानकर बनाए गए/ एक
मिट्टी के लोंदे पर/ जोरों से पनपता है/ हमारे पूर्वजन्म के सौहार्द का आवेश।‘ जब नित्यानन्द की अनुभूति करते हुए उसके प्रभावों के प्रति आश्चर्य
प्रकट करते हुए अक्कित्तम अपने भीतर उठ रहे अन्तर्द्वन्द का चित्रण करते हैं
तो बहुधा उनकी कविताओं में जिस हृदय के प्रस्वेदन तथा आँखों से होने वाले आंसुओं
के प्रवाह का उल्लेख आता है, उसका अन्तर्सम्बन्ध स्पष्ट हो जाता है - ‘ऐसा क्यों होता है यह सोचकर/ मेरा अंतकरण पसीने में नहाने पर/ आँसुओं में
चमकते हैं मोरपंखी नेत्र/ उसके नीचे उभरता है मन्दहास भी?’
अक्कित्तम की अनेक कविताओं में
उनके अगाध प्रकृति-प्रेम के भी दर्शन होते हैं। वे भूमि पर मानवेतर जीवों के
अधिकारों के प्रति हमें सचेत करते हैं। ‘कल की क्रांति’ कविता में वे मेढ़कों से कैसा सीधा सवाल करवाते हैं- ‘अभिनय नहीं करते/ भाषाओं को छापकर नहीं बेचते हम/ राशन नहीं खाते/ तो क्या
ब्रम्हा की सृष्टि नहीं हैं हम?’ मेढ़क आगे मनुष्यों
को चेतावनी देते हैं, जिसे अक्कित्तम ने कल की क्रांति का सूचक माना है - ‘किसने दिए हैं हाथ/ मनु-पुत्रों को/ हमें मारने के लिए/ एकजुट होने पर
हमें भी उनको मारने की शक्ति मिल सकती है शायद।‘
जानवरों की सभा के संकल्प के माध्यम से अक्कितम इस कविता में यह स्पष्ट करते
हैं कि मनुष्य के अहंभाव का मूल कारण धन-बल है - ‘कागज
के शेर की भाँति / वे तीनों सिंह-शीश देखने पर ही तो/ मनुष्य में उभरता है/ ’अरे मैं’ ऐसा हिरण्यकश्यपत्व।‘ इस हिरण्यकश्यपत्व को चकनाचूर करने के लिए ही जानवरों की वह सभा एक नई
क्रांति का बिगुल बजाती है - ‘हम जुलूस के रूप में चलने
पर/ गिर वन में कैद दु:खी सिंहों को मुक्त कर सकते हैं/ उन्हें भी साथ लेकर चल
सकेंगें/ नासिक तक बिना थके/ वहाँ प्रेस में छपने वाले/ नोटों की सारी गड्डियों को
जला सकेंगें/ त्रिगुणों से हीन ये/ मनु-पुत्र बैठे रह जायेंगे तत्क्षण।‘ इस कविता के अंत में चिर-परिचित शैली में अक्कित्तम का संदेश आता है- ‘यह आग/ भूमि के भीतर सुलग रही है/ इसे समझे बिना/ आज भी मरने-मारने पर
उतारू हैं लोग/ वस्त्रों से ढँकी हुई है नग्नता।‘
‘एक चुम्बन की समृति’
कविता में अक्कितम प्रकृति से छेड-छाड़ की हमारी प्रवृत्ति को आत्मघाती बताते
हैं। यह तथाकथित कालिदास जैसी अवस्था है जो उसी डाल को काट रहे थे, जिस पर वे
स्वयं बैठे थे। हमें उन्हीं की तरह ज्ञान की आवश्यकता है। अक्कित्तम इसके लिए
हमें सचेत करते हैं -‘स्वयं बैठी है जिस डाल पर/
उसे ही नीचे से काटने वाली मान्यते! नीचे खड़े हो आक्रोशित
होता हूँ मै/ रोक दे इस आत्महत्या को तू!’ वे अणु-विस्फोट की आशंका के पीछे का कारण स्नेह-विहीनता को ही मानते
हैं – ‘आज अणु-विस्फोट की आशंका/ मृत्यु के बरामदे में/ खड़े होकर कांपती है/
स्नेहविहीन क्षणों में।‘
अक्कित्तम की वहिर्दृष्टि जितनी व्यापक
है, उनकी अन्तर्दृष्टि उतनी ही गहरी है। वे कठिन से कठिन परिस्थिति को समग्रता
से जाँचते-परखते हैं और फिर कविता के माध्यम से हमें उसके बीच से, समस्या का
साक्षात्कार कराते हुए, जिज्ञासाओं के समाधान की ओर ले जाते है। वे निर्लिप्त
बने रहकर सत्य का अन्वेषण करते हैं। यह उनके जीवन की कठोर साधना का परिणाम है।
उनकी कविता इसी साधना का निचोड़ है। इसमें कहीं बनावट या मिलावट नहीं है। ‘नित्यमेघम’ में उन्होंने अपने इस काव्य-दर्शन का
प्रतिपादन सटीक रूप से किया है - ’छिदित हीर-रत्नों के/ भीतर से मैं गुज़र सका/
भाग्यवश ही/ क्योंकि मैं बस एक धागा-मात्र था।‘ कुछ आलोचकों ने अक्कित्तम को कवियों में ऋषि-तुल्य बताया है। सरल, सौम्य,
शान्त, हमेशा सत्यान्वेषण की चाह रखने वाले। संघर्ष और अमर्ष के प्रस्वेदन से
भीगना।, फिर वायु से उसका शीतीकरण, उठती हुई आग का आँसुओं से प्रशमन, नि:शर्त
प्रेम के साम्राज्य की स्थापना का स्वप्न, भूमि पर स्वर्ग उतारने की निरन्तर
आकांक्षा, यह सब एक ऋषि ही सोच या कह सकता है। उपनिषद में कहा गया है कि जो ऋषि
नहीं वह कवि नहीं हो सकता। ‘नानृषि:कवि:’ की यह उक्ति अक्कित्तम पर सटीक बैठती है।