आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

Saturday, May 21, 2011

आ ही गए (नवगीत)

आ ही गए, आखिरकार
जेठ में तप कर झुलसती देह पर
जल की शीतल फुहारें दँवारने
समुद्री क्षितिज से लपकते श्याम घन।

धुल ही गए, आखिरकार
धूल-धूसरित पेड़ों के तन
खिल उठे फिर से सब के मन
सोंधी मिट्टी की आर्द्रता से सनी
खुशबुओं के झोकों में।

आ ही गए, आखिरकार
कारे-कारे कजरारे
प्यारे-प्यारे मेघ सारे
विविध वेश धारे।

आ ही गए, आखिरकार
नारियल-तरु-शिखाओं पर
घुमड़-घुमड़ हहराते
झमाझम नीर बरसाते
धरती का ताप मिटाते
नदियों का सीना नहलाते
मछुआरों के मन में भय उपजाते
खेतों में उल्लास जगाते
माटी में दबे शुष्क बीजों में जीवन पनपाते
सृष्टि के कोने-कोने में
हरीतिमा का रास रचाते
जगत-पोषक श्याम घन
प्रणय-सुख के धाम घन।

Sunday, May 1, 2011

काबुलीवाला: मूल (मलयालम): ओ एन वी कुरुप्प: हिन्दी-अनुवाद: उमेश चौहान

ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित मलयालम के सुप्रसिद्ध कवि ओ एन वी कुरुप्प ने गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर का 150 वाँ जन्म-वर्ष मनाए जाने के अवसर पर उन्हें आदराञ्जलि अर्पित करने के उद्देश्य से पिछले वर्ष उनकी प्रख्यात कहानी ‘काबुलीवाला’ को स्मृति में रखते हुए एक नूतन दृष्टि-बोध वाली मलयालम कविता 'काबुलीवाला' लिखी जो ‘मलयाला मनोरमा’ पत्रिका के वार्षिक विशेषांक 2010 में छपी। प्रस्तुत है मेरे द्वारा हाल में किया गया उसका हिन्दी अनुवाद:-

काबुलीवाला

मूल (मलयालम): ओ एन वी कुरुप्प
हिन्दी-अनुवाद: उमेश चौहान

कल देखा मैंने काबुलीवाला को,
आया वह फिर से मेरी दहलीज पर
पहले वाली थैली नहीं कंधे पर
आँखें दोनों धंसी हुई
कपड़े सलवटों भरे
कितने ही वर्ष बीत चुके हैं लेकिन
चेहरे पर मुसकान बिखेरता,
“रहमान!”
उसे पहचान लिया यह जताया मैंने
आह्लादपूर्वक उसके नाम का उच्चारण करते हुये।

इस प्रकार भरी आँखें लिये काबुलीवाला
मेरे सामने खड़ा रहा,
क्या छलक रहा उसकी आँखों से?
नाम नहीं भूला मैं इसकी खुशी?
या हृदय में संजोए गए संचय को खोलकर दिखाने की व्यग्रता?
या शब्दों के मौन में विलीन हो जाने का दुःख?
या फिर शब्दों में न समा सकने वाली कोई अन्य बातें?
यह लो फिर से आकर खड़ा है
काबुलीवाला मेरे सामने।

“इसे याद कर कि
फिर कभी मिलना नहीं था,
मिलने की खुशी है, रहमान!
इतने दिनों तक कहाँ थे?
काबुल में थे?
या कि व्यापार करते हुए घूमते रहे
फिर से प्रवासी बने दूसरे देशों में?
मेरी छोटी बेटी की ही उम्र की
तुम्हारी भी है एक छोटी सी बच्ची,
पहले कभी तुम्हारा कहा यह याद है मुझे,
उस समय तुम्हारी आँखों का भर आना भी,
क्या हुआ, उसकी शादी हो गई क्या?”

“नव-पल्लवित अंगूर-लता सी
सौन्दर्यमयी नव-वधू बन
मेरी छोटी बेटी की तरह एक दिन
जन्म-गृह से उसके विदा होने के समय
किसी के द्वारा भी न देखे गए अपने आँसुओं को समेटे
क्या थोड़ी दूर तक पीछे जाकर तुम भी वापस लौट आए?
क्या बेटी को दूसरे के हाथों में सौंपने वाले
एक पिता की उत्कंठा तुमने भी जानी?
क्या हुआ, क्या सुखी है वह?
नाती-पोते भी हैं क्या तुम्हारे?
उनके साथ दोस्ती है क्या?
उन्हें किस्से-तमाशे सुनाते हो क्या?
तुम्हारे थैले में एक हाथी है, आदि-आदि?”

मेरी कुशल-क्षेम की बातें यूँ लंबी हो जाने के समय
क्यों एक अक्षर भी बोले बिना खड़ा है वह?
अत्यधिक डबडबाई उसकी आँखों में
तैर रहीं जलती हुई वेदनाएं,
फूट पड़ा वह व्यक्ति आक्रोश में भर,
“पटक कर मसल डाल उसे मैंने!
मेरी एकमात्र बच्ची को
भयानक भेड़िए की भाँति काट कर नोंच डालने वाले
उसकी छाती को भोंक कर मसल डाला मैंने!
उसी बीच मेरी झोपड़ी में आग लगा कर भाग गया कोई,
मैं रक्षा नहीं कर पाया बाबू जी!
वह जल कर भस्म हो गई!”
फूट-फूट कर रो पड़ा वह।

सर्वस्व खो चुके काबुल से
कितने मील दूर चल कर वह
फिर क्यों पहुँच गया है मेरे सामने?
इस प्रश्न का उत्तर पाए बिना
खड़े रहने पर सुनी मैंने
काबुलीवाला की स्नेह से सनी यह बात,
“बाबू जी! अपनी छोटी बेटी को जरा सा
देखने भर के लिए आज आया हूँ मैं!
नहीं है अब काबुल में मेरी बेटी!
भारत में……भारत में……!”
फूट-फूट कर रोता
मेरे पैरों के पास बैठ गया वह
गर्म आँसुओं से भरे मेघ जैसा।

“मानवता का दुःख समूचा
समाया है तुम्हारे संचय में
यह जानता हूँ मैं,
पूर्णिमा में जगमगाती बुद्ध की करुणा से भरे
किसी पद को ढूँढ़ता खड़ा हूँ मैं ……!”

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