साफ-साफ, खरी-खरी व सच्ची बातें करीने से कहना,
बेधड़क-बेख़ौफ़ क्रान्ति का बिगुल फूँकना, ‘न ब्रूयात सत्यमप्रियम्’ के मधुर जाल
में फँसे बिना सामाजिक बुराइयों तथा कुरीतियों पर सीधा आक्रमण करना, विहंगम ऐतिहासिक
दृष्टि के साथ तीव्र राजनीतिक चेतना का जोश जगाना, भाषा की पूरी संपुष्टता के
साथ उर्दू-शायरी को नये-नये कलात्मक आयाम देना- कैफ़ी आज़मी की बुलंदियों को छूती
इन विशिष्टताओं से कौन वाक़िफ नहीं है। सचमुच ही कैफ़ी आज़मी (मूल नाम अख़्तर
हुसैन रिज़्वी) उर्दू शायरी के बादशाह थे वे। इन सब बातों पर किसी
एक लेख में एक साथ सब कुछ लिखा जाय, यह संभव ही नहीं है। देश की स्वतंत्रता के
पहले के तथा आज के माहौल को यदि तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाय तो अन्य बातों से
अलग, साम्प्रदायिकता की जो परिदृश्य तब था,
वही आज भी दिखाई पड़ता है। इसलिए इसी एक पहलू को मद्देनज़र रखते हुए मैंने यहाँ कैफ़ी
आज़मी साहब की शायरी पर एक नजर डालने की कोशिश की है।
हम
जानते हैं कि आजादी के पहले कभी गोधरा कांड नहीं हुआ था। मुसलमानों के समक्ष
गुजरात जैसी कोई त्रासदी भी उपस्थित नहीं हुई थी। देश के बंटवारे के समय हिन्दू-मुस्लिम
दंगे तो हुये थे किंतु कोई मंदिर या मस्जिद, भले ही वह विवादित ढांचा रहा हो और
उसमें पूजा या अजान न होती हो, ढहाया नहीं गया था। उस समय की साम्प्रदायिकता
राजनीति तक केन्द्रित थी। वह भी अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो की नीति के
कारण। आज इसके आयाम में समाज और राजनीति का हर दिन, हर पहलू समा गया है। ऐसे में
इस विषय पर कैफ़ी साहब की शायरी की प्रासंगिकता पर एक नज़र डालना और भी समीचीन हो
जाता है।
साम्प्रदायिकता के परिप्रेक्ष्य में
कैफ़ी साहब की सबसे महत्वपूर्ण नज़्म संभवत: ‘सोमनाथ’ है। आजादी के साथ बंटवारे की
आंधी ठंडी होने के पश्चात शायद यह पहली बड़ी घटना थी,
जब देश में हिन्दू व मुस्लिम सम्प्रदायों के रिश्तों का परीक्षण हुआ था। कैफ़ी
साहब को मूर्तियों के टूटने की चिन्ता नहीं थी। वे दिलों की भावनायें टूटने के
प्रति चिन्तित रहते थे। उनका मानना था कि यदि विभिन्न धर्मों के लोगों के बीच का
परस्पर विश्वास टूट गया तो सर्वनाश हो जाएगा। वे कट्टरपंथियों की आस्था के मूल्यों
के प्रति भी आशंकित थे। उन्हें विश्वास नहीं था कि कट्टरपंथी अपनी धार्मिकता के
सहारे समाज का कोई भी भला कर सकते हैं। ऐसे लोग समाज में सिर्फ क़यामत ही ला सकते
हैं
-
'बुत
जो टूटे तो किसी तरह बना लेंगे उन्हें
टुकड़े,
टुकड़े
सही दामन में सजा लेंगे उन्हें
फिर
से उजड़े हुये सपने में सजा लेंगे उन्हें
गर
खुदा टूटेगा हम तो न बना पायेंगे
उसके
बिखरे हुये टुकड़े न उठा पायेंगे ............
तुम
बनाओ तो खुदा जाने बनाओ कैसा
अपने
जैसा ही बनाया तो क़यामत होगी'
मेरा
मानना है कि कम्युनिस्ट विचारधारा के पोषक होते हुये भी कैफ़ी साहब नास्तिक नहीं
थे। अपनी नज़्म ‘सोमनाथ’ के आखिरी अंश में उन्होंने सर्वधर्म-समभाव की तथा सभी के
अन्दर किसी न किसी प्रकार की आस्था होने की बात कही - ‘इक न इक बुत तो हर इक
दिल में छुपा होता है/ उसके सौ
नामों में इक नामे ख़ुदा होता है।’
’सांप’
शीर्षक नज़्म में कैफ़ी साहब ने साम्प्रदायिकता के पूरे सच को नंगा कर दिया। इसके
विरुद्ध अपनी लड़ाई और अपने प्रयासों को उजागर करते हुये उन्होंने कहा - 'ये
सांप आज जो फन उठाये/ मेरे रास्ते
में खड़ा है/ पड़ा था
कदम चाँद पर मेरा जिस दिन/ उसी दिन
उसे मार डाला था मैंने।’ लेकिन कैफ़ी साहब के मारने पर भी यह
सांप मरा नहीं। रेंगता और घिसटता हुआ शिवाले तक जा पहुँचा - ‘जहाँ दूध उसको
पिलाया गया/ पढ़े पण्डितों ने कई मन्त्र ऐसे/ ये कम्बख़्त फिर से जलाया गया/
शिवाले से निकला ये फुंकारता/ रगे-अर्ज पर डंक सा मारता।’ जब इस सांप के डसने
से धरती की नसों में बहता ख़ून फिर से ज़हरीला होने लगा तो कैफ़ी साहब फिर उसे मारने
को आगे बढ़े। अबकी बार यह साँप इस्लाम की शरण में चला जाता है - ‘करीब एक
वीरान मस्जिद, मस्जिद में वो जा छुपा/ जहाँ
उसे पिट्रोल से गुस्ल देके/ हसीं एक
तावीज़ गर्दन में डाला गया/ हुआ जितना
सदियों में इंसाँ बुलन्द/ ये कुछ
उससे ऊँचा उछाला गया।’ समय के साथ हर धर्म साम्प्रदायिकता
के ज़हर से भरे इस सांप को दुलराता है। कैफ़ी साहब इस बारे में पैनी दृष्टि रखते
हैं। किसी को छोड़ देने का प्रश्न ही नहीं था। ऊँचे उछलते साम्प्रदायिकता के इस
ज़हरीले साँप की यात्रा उन्होंने इस नज़्म में कुछ इस प्रकार से आगे बढ़ाई -
‘उछल
के वो गिरजा की देहलीज़ पर जा गिरा
जहाँ
उसको सोने की केचुल पहनायी गई
सलीब
एक चाँदी की सोने पे उसके सजायी गई
दिया
जिसने दुनिया को पैगामे-अम्न
उसी
के हयात-आफरी नाम पर
उसे
जंगबाज़ी सिखाई गई’
कैफ़ी
आज़मी की सामाजिक-राजनीतिक चेतना उनकी शायरी में सर्वत्र झलकती है। अंग्रेज़ देश को
गुलामी की जंजीरों में जकड़े रखने के लिए साम्प्रदायिक आधार पर फूट डालने का
प्रयत्न करते रहे। इसे परखते हुये कैफ़ी आज़मी लोगों को हमेशा जोरदार शब्दों में
इसके प्रति आगाह करते रहे। ‘अवाम’ शीर्षक
नज़्म में जब उन्होंने कहा - ‘आड़ जुल्मों सितम की लेते हैं/
भाईयों को लड़ा भी देते हैं’, तो उनका इशारा इसी ओर था। कैफ़ी
साहब कभी कहीं भी निराश होते नहीं दिखते। वे क्रांति के पुजारी थे। वे उम्मीद की
किरण कभी नहीं मिटने देते थे - 'खानजंगी के
इस अंधेरे में/ जल रही है हज़ार कंदीले ’- और फिर -
‘हमको कब तक लड़ायेंगे अंग्रेज़/ जाल कब तक बिछायेंगे अंग्रेज़/ फूट की आग हम
बुझा देंगे/ कत्ल–ओ-गारतगिरी हम मिटा देंगे’ जैसी बातें कहकर वे हमेशा आज़ादी
की लड़ाई लड़ने वालों की हौंसलाअफज़ाई करते रहे। कथ्य और शिल्प की उत्कृष्टता के
साथ-साथ देशभक्ति की चेतना की जादुई ताकत से सराबोर हैं कैफ़ी साहब की ये पंक्तियाँ।
वे अंग्रेज़ों के ज़ुल्म का जिक्र करते-करते उनका मन भारत के तमाम हिस्सों में हुई
क्रांतियों के अमर शहीदों की याद में कितना व्यथित हो उठता था उसे हम यहाँ देखते
हैं - ‘लो मुहम्मद अली की लाश है यह/ लो तिलक से बली की लाश है यह/ लो भगतसिंह
से जवान की लाश/ लो यह मोपला किसान की लाश/ लाश है यह अलाहदियत की/
लाश है यह अखंड भारत की।’ वे अपनी नज़्मों में साम्प्रदायिकता
से सने स्वार्थी तत्वों को जमकर लताड़ते हैं - ‘आफरी हिन्दुओं, मुसलमानों/ लीग के, कांग्रेस के
परवानों/ ख़ून के एक-एक कतरे का/ तुमने अपनों से ले लिया बदला/ लेकिन उससे मिला सके
न निगाह/ कर दिया जिसने जिन्दगी को तबाह।’
'शांति
वन के करीब’ शीर्षक नज़्म में जो बिम्ब कैफी साहब ने खींचा, वह अनूठा है। इस रचना
में उन्होंने लोकतंत्र के घायल शरीर को सामने रखकर तत्कालीन समूचे
सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य की समीक्षा तथा आलोचना की। लोकतंत्र की यह गत किसी और
ने नहीं,
अपने ही लोगों ने बनाई है। उन्हीं की सूईयों के नश्तरों से यह लहू-लुहान हुआ है
- 'सुईयां
हिन्दू भी थीं और सिख भी थीं/ और
था उनके तसर्रुफ में वो जिस्म–ए-नाजनीं/ कुछ
थी ऊँची जात की जो इसलिए थी सुर्ख़रू/ बेतकल्लुफ
पीती थीं वोह नीची जात का लहू/ एक
इक सूई के लब पर उसके सूबे का था नाम/ चाहती
थीं सब अलग भारत से अपनी सुबह-ओ-शाम।’ जातीयता के आधार पर हो रहे
शोषण व ज़ुल्म के विरुद्ध इसमें तीखा व्यंग्य है। सूबाई आधार पर उठने वाले
अलगाववादी स्वरों के विरूद्ध एक चेतावनी भी है। इस संघर्ष में निराशा नहीं है।
इसमें फिर से उठ खड़े होने की एक स्पष्ट जिजीविषा है। सब कुछ ठीक-ठाक हो जाने की
आकांक्षा है - 'सुनके उसका नाम इन आँखों में
आँसू आ गये/ बोली वोह
तुम तो जरा सी बात पर घबरा गये/ उसका
रोना क्या है पहले क्या थी और क्या हूँ अभी/ सूईयाँ
चुन लो तो देखोगे कि जिन्दा हूँ अभी।’
जब
देश के बंटवारे की माँग पर मुस्लिम लीग अंग्रेजी हुकूमत के प्रति लचीली हो गयी तो
कैफ़ी आज़मी ने उन्हें भी खरी-खोटी सुनाने में संकोच नहीं किया। उन्हें इसमें भी
अंग्रेजों की फूट डालने की नीति ही नजर आई और देश के बंटवारे की बात को तो उन्होंने
आपसी फूट से परिणमित कमजोरी के रूप में ही देखा। उन्होंने देश का विभाजन चाहने
वालों से करारा प्रश्न किया -
‘दोस्त
से उठकर गैरों की जफ़ा भूल गये
बाहमी
जंग में दुश्मन का गिला भूल गये
इतना
टकराये हो आपस में के खुद कांपते हो
यूनियन
जैक के साये मे खड़े हाँफते हो
याद
तो होगा तुम्हें भी वह गुलामाना चलन
घर
के झगड़ों में रहा करते थे तुम दोनों मगन
आ
गया ऐन लड़ाई में जो लन्दन से मिशन
शिमला
रोअ होके झुका दी गई आखिर गरदन ……
तुमने
सर सामने दुश्मन के झुकाया कैसे
अपने
जयकारों को, नारों को भुलाया कैसे’
साम्प्रदायिक
सद्भाव व सहिष्णुता बढ़ाने वाले कई तत्व कैफ़ी आज़मी की शायरी में देखे जा सकते
हैं। रामकथा के उद्धरण अथवा राम व सीता के आदर्शों को सामने रखकर जब भी उन्होंने
कोई बात कही,
तो उनके कथ्य की शक्ति व ग्राह्यता कई गुना व्यापक हो गई। वे फौजी जवानों का
आवाहन करते हुये कहते हैं - ‘खींच दो अपने ख़ूँ से ज़मीं पर लकीर/ इस तरफ आने
पाये न रावन कोई/ तोड़ दो हाथ अगर हाथ उठने लगे/ छूने पाये न सीता का दामन कोई/
राम भी तुम, तुम्हीं लक्ष्मण, साथियो/ अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो।’
‘दायरा’ शीर्षक नज़्म में वे इन प्रतीकों का उपयोग जिन्दगी की मजबूरियों तथा उनसे
उत्पन्न कुण्ठा की अभिव्यक्ति के लिए करते हैं - ‘अपने हाथों को पढ़ा करता
हूँ/ कभी कुरआँ, कभी गीता की तरह/ चंद रेखाओं में, सीमाओं में/ जिन्दगी कैद है
सीता की तरह/ राम कब लौटेंगे, मालूम नहीं/ काश रावण ही कोई आ जाता।’ यह रावण
के ही आ जाने की इच्छा के पीछे छिपी जो तल्ख़ी है, वही
तो है जो दिनोदिन बढ़ती चली गई है और आज पूरे देश की जनता के मन में समाई हुई है।
इस प्रकार कैफ़ी साहब आज भी हमारे लिए सबसे बड़े समसामयिक शायर साबित होते हैं।
धर्म
तथा धार्मिक आस्थाओं के उद्भव एवं विकास को सम्पूर्णता में लपेटे अपनी तरह की एक
अनूठी रचना है ‘जिन्दगी’। इसे पढ़कर लगता है कि जैसे कैफ़ी साहब का सभी धर्मों पर
से विश्वास उठ चुका था। इसमें उन्होंने धार्मिक कट्टरपन व खोखलेपन पर गहरी चोट की
है। पाषाण युग में जब आदमी गुफाओं में रहता था और प्रकृति के हर खतरें से जूझता था
तथा धर्म का कोई स्पष्ट स्वरूप नहीं था, इस नज़्म
में पहले उसी समय का हाल बताया है - ‘मौत लहरायी थी सौ शक्लों में/ मैंने हर
शक्ल को घबरा के खुदा मान लिया/ काट के रख दिये संदल के पुर-असरार दरख़्त/ और पत्थर
से निकला शोला/ और रोशन किया अपने से बड़ा एक अलाव/ जानवर जिब्ह किये इतने/
खूँ की लहरें पाँव से उठके कमर तक आयीं/ और कमर से मेरे सर तक आयीं।’
आगे वैदिक-काल की धार्मिक आस्थाओं की व्यर्थता कुछ इस तरह से बयां है - ‘सोमरस
मैंने पिया/ रात-दिन रक्स किया/ नाचते-नाचते तलवे मेरे ख़ूँ देने लगे ……
हड्डियाँ
मेरी चटखने लगीं ईंधन की तरह/ मंत्र होठों से टपकने लगे रोगन की तरह ……
सूरज
की सुनहरी जुल्फ़ें/ आग में आग मिले/ जो अमर कर दे मुझे/ ऐसा कोई राग मिले ……
अग्नि
मां से भी न जीने की सनद जब पायी/ जिन्दगी के नये इमकान ने ली अंगड़ाई।’
‘जिन्दगी’
में धार्मिक विमर्श का यह सिलसिला आगे भी जारी रहता है। बौद्ध धर्म का उल्लेख कुछ
यूँ आता है - ‘चार अबरू का सफाया करके/ बे-सिले वस्त्र से ढाँपा यह वदन/ पोंछ
के पत्नी के माथे से दमकती बिंदिया/ सोते बच्चों को बिना प्यार किये/ चल पड़ा
हाथ में कशकोल लिये/ चाहता था कहीं भिक्षा ही में जीवन मिल जाये/ जो कभी बन्द न
हो, दिल को वो धड़कन मिल जाये/ मुझको भिक्षा में मगर ज़हर मिला।’ आगे ईसाई धर्म
सामने आता है - ‘झुक के सूली से उसी वक्त किसी ने यह कहा/ तेरे इक गाल पे जिस
पल कोई थप्पड़ मारे/ दूसरा गाल भी आगे कर दे/ तेरी दुनिया में बहुत हिंसा है/
इसके सीने में अहिंसा भर दे ……… मैं
उठा जिसको अहिंसा का सबके सिखलाने/ मुझको लटका दिया सूली पे उसी दुनिया ने।’
और फिर इस्लाम की हालत देखकर तो उनकी निराशा अपने चरम पर पहुँच गयी - ‘गूँज
उठा सारा जहाँ/ अल्लाहो अकबर, अल्लाहो अकबर/ उसी आवाज में एक और भी गूंजा एलान/
कुल्ले मिन अलेहा फान ……… ऐसा लगता
था कि बुझ जायेगा जलता है जो सदियों से चिराग/ आज अंधेरा मेरी नस-नस में उतर
जायेगा।’
अंधकार में खत्म हुई धर्म की इस यात्रा में कैफ़ी साहब अंत में सत्य की पहचान कर
ही लेते हैं। वे अंधविश्वास की, खोखली आस्थाओं की,
सौगातों को दूर फेंकते हुए यह घोषणा कर देते हैं कि जिन्दगी का अंधेरा स्वयं
अपने ही विष को पीकर मर चुका है - 'रात जो मौत का पैगाम लिये आयी थी/
बीबी-बच्चों
ने मेरे/
उसको
खिड़की से परे फेंक दिया/ और वह ज़हर
का इक जाम लिये आयी थी/ उसने वह
खुद ही पिया/ सुबह उतरी
जो समंदर में नहाने के लिये/ रात की लाश
मिली पानी में।’
कैफ़ी
साहब की शायरी में सभी जगह धार्मिक व साम्प्रदायिक कट्टरपन का विरोध मिलता है।
उन्होंने अपनी बात हमेशा पूरी सच्चाई के साथ सामने रखी। चाहे किसी को भला लगे या
बुरा,
उन्होंने गलत कदमों के लिए हर किसी को टोका। वे लोगों को
नसीहत देने से भी कभी नहीं चूके। वे कभी निराशा के गर्त में नहीं पड़े। वे सदैव नई
रोशनी की तलाश करते रहे और हमें आगे का रास्ता दिखाते रहे। वे बुलंदी पर पहुँचे
हुये शायर थे। जागृति और चेतना के जिस शिखर वे पहुँचे वहाँ वे पूरे जमाने को भी
अपने साथ लेकर गये - ‘मेरी दुनिया में न पूरब है, न पच्छिम कोई/ सारे इनसान
सिमट आये खुली बाहों में/ कल भटकता था जिन राहों में तनहा-तनहा/ काफ़िले कितने मिले
आज उन्हीं राहों में।’ भले ही आज वे हमारे बीच नहीं हैं किन्तु हमारे बीच से
उनकी हस्ती कभी नहीं मिट सकती और न ही मिटायी जा सकती है। वे कल जितने प्रासंगिक थे,
आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं। इसका प्रमाण खुद उन्होंने इन शब्दों में दिया है - ‘क्यों
संवारी है यह चंदन की चिता मेरे लिये/ मैं
कोई ज़िस्म नहीं हूँ जला दोगे मुझे/ राख
के साथ बिखर जाऊँगा मैं दुनिया में/ तुम
जहाँ खाओगे ठोकर, वहीं पाओगे मुझे/ हर
कदम पर है नए मोड़ का आगाज़, सुनो/ मेरी
आवाज़ सुनो, प्यार का राज सुनो।’