आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Monday, March 31, 2014

भारतीय पेटेंट-प्रणाली और स्वास्थ्य-सुरक्षा (लेख)

पेटेंट शब्द का विकास लैटिन भाषा के शब्द 'लेटर्स पेटेंट' से हुआ है जिसका अर्थ है 'खुले पत्र'. ये खुले पत्र एक तरह के विशेषाधिकार-पत्र होते थे जो राजाओं या शासकों द्वारा खुली घोषणा के तौर पर सार्वजनिक रूप से किसी नए स्थान की खोज आदि के लिए जारी किए जाते थे. बाद में 15वीं शताब्दी में वियाना सीनेट द्वारा किसी आविष्कार के लिए पेटेंट का विशेषाधिकार दिए जाने की व्यवस्था लागू की गई. बहुत जल्द ही यह व्यवस्था पूरे यूरोप में फैल गई. यू.एस.ए. में विज्ञान एवं कलाओं के संरक्षण एवं विकास के उद्देश्य से पहला पेटेंट कानून 1790 में बना. भारत में पेटेंट-व्यवस्था ब्रिटिश-शासन के साथ आई. आधुनिक समय में पेटेंट किसी आविष्कृत नए उत्पाद या प्रक्रिया पर आविष्कारक को दिया जाने वाला बौद्धिक सम्पदा-अधिकार है. ऐसे निर्धारित अवधि वाले एकाधिकार के तहत वह अपने आविष्कार में आई लागत को वसूलने तथा उस आविष्कार से आर्थिक लाभ कमाने में सक्षम होता है. ऐसा इसलिए जरूरी समझा गया ताकि लोगों को तथा औद्योगिक कंपनियों आविष्कार के लिए प्रेरित किया जा सके. सामान्यतः किसी नए आविष्कार में एक लम्बा समय लगता है. उच्च तकनीक वाले इस समय में किसी आविष्कार के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले उपकरणों तथा सामानों की लागत भी काफी ज्यादा आती है. इसलिए पेटेंटों के जरिए आविष्कारकों को इस प्रकार का संरक्षण देना तथा उन्हें एक समुचित अवधि के लिए नए उत्पादों एवं प्रक्रियाओं के वाणिज्यिक दोहन का एकाधिकार देना आधुनिक शासकीय व्यवस्था का एक प्रमुख दायित्व बन गया है.

            विश्व के विभिन्न देशों में पेटेंट-प्रणाली अपने-अपने तरीके से स्थापित हुई किंतु कालांतर में सभी देशों को इस प्रणाली में एकरूपता लाने की जरूरत महसूस हुई. तदनुसार 1883 में तमाम देशों ने मिलकर औद्योगिक संपत्ति के संरक्षण के लिए एक अंतर्राष्ट्रीय समझौते को अपनाया. बाद में 1970 में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक अत्यंत महत्वपूर्ण समझौते के रूप में पेटेंट कोऑपरेशन ट्रीटी प्रभाव में आया. अनेक यूरोपीय देशों ने मिलकर 1977 में अलग से यूरोपियन पेटेंट कंवेंशन लागू किया जिसके तहत यूरोपीय पेटेंट कार्यालय की स्थापना हुई. वर्तमान में अधिकांश देशों में पेटेंट प्रणाली का मूल ढाँचा विश्व व्यापार संगठन के देशों के बीच इस मामले में हुए 1994 के ट्रिप्स एग्रीमेंट (व्यापार संबंधी बौद्धिक संपदा अधिकारों के बारे में हुआ अनुबंध) की शर्तों के अनुरूप पुनस्थापित एवं एकरूपित हो चुका है. इन कानूनों के तहत आज किसी एक देश का आविष्कारक किसी दूसरे देश में भी अपने आविष्कार के लिए पेटेंट का अधिकार प्राप्त कर सकता है. विश्व के कुछ व्यापार-प्रधान देशों ने मिलकर अलग से एल विश्व बौद्धिक संपदा संगठन (वाइपो) की भी स्थापना की है जिसके तहत उन्होंने वर्ष 2000 में पेटेंट लॉ ट्रीटी (पी.एल.टी.) नामक समझौता किया है. इस समझौते के तहत विभिन्न देशों द्वारा पेटेंटों को प्राप्त करने की प्रक्रिया को और सरल बनाने की कोशिश की जा रही है. चूँकि भारतीय उद्योग के लिए उदार पेटेंट व्यवस्थाएँ हानिकारक हो सकती हैं, अतः अभी उसने इस समझौते पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं.

स्वास्थ्य-प्रणाली में पेटेंटों का महत्व:

            चिकित्सा के क्षेत्र में पेटेंटों का विशेष महत्व है. चरक तथा सुश्रुत जैसे प्राचीन भारतीय चिकित्सा-विशेषज्ञों की चिकित्सा-पद्धतियों के बारे में पौराणिक काल से ही उल्लेख मिलता है. उन्हें उस जमाने में इन पद्धतियों के आविष्कार के किए कोई विशेषाधिकार मिले थे या नहीं, यह तो ज्ञात नहीं लेकिन यह स्पष्ट है उन्हें शासकीय संरक्षण एवं प्रोत्साहन अवश्य मिला था. नई चिकित्सा-पद्धतियों के आविष्कारकों को भारत में प्राचीन काल से लेकर मध्य-युग तक राजवैद्य घोषित करने या बनाने की प्रथा प्रचलित थी. जन-वैद्यों का कहीं कोई उल्लेख नहीं मिलता लेकिन जब राजवैद्य होते थे तो उनके द्वारा आविष्कृत पद्धतियों के प्रचलित हो जाने पर उन्हें अपनाकर आमजनों को चिकित्सा-सेवाएँ देने वाले जनवैद्य भी होते ही होंगे. जनजातीय समुदायों में चिकित्सा-गुरुओं की परम्परा आज भी कायम है. केरल में किर्टाड्स जैसी सरकारी संस्था इन जनजातीय चिकित्सा-गुरुओं की पद्धतियों को आधुनिक कानूनों के तहत बौद्धिक संरक्षण तथा पेटेंट का अधिकार दिलाने की दिशा में लम्बे समय से प्रयास कर रही है.

            भोजन की ही तरह दवाएँ भी जीवन का अनिवार्य हिस्सा हैं और गरीबों को जीने के लिए जितना जरूरी है भोजन का अधिकार, उतना ही जरूरी है बीमारियों के प्रतिरोध के लिए दवाएँ प्राप्त करने का अधिकार. खैर, हमारी स्वास्थ्य-प्रणाली में गरीबों को जीवन-रक्षक दवाएँ मुफ्त में मुहैया कराने की व्यवस्था कैसे हो इस पर तो आजादी के बाद से लेकर आज तक केंद्र तथा राज्य सरकारों द्वारा निरंतर विचार किया ही जाता रहा है, लेकिन खुले बाज़ार में इन जीवन-रक्षक दवाओं के मूल्य पर नियंत्रण रखने की समुचित एवं प्रभावी व्यवस्था बनाने की ओर ध्यान अभी हाल के वर्षों में ही में गया है. पेटेंट का मसला सीधे-सीधे दवाओं के मूल्य से जुड़ा है. पेटेंटेड दवाओं के मूल्य पर सरकार द्वारा कोई नियंत्रण नहीं रखा जा सकता अतः देश की गरीब जनता की स्वास्थ्य-सुरक्षा की आवश्यकता को देखते हुए हम एक लचीली पेटेंट व्यवस्था के पक्षधर नहीं हैं. चूँकि नई दवाओं के आविष्कार तथा उनके परीक्षण में काफी ज्यादा समय लगता है एक बड़ा खर्च आता है अतः आविष्कर्ता दवा-निर्माता नई दवाओं को काफी ऊँचे दामों पर बाज़ार में उतारते हैं और पेटेंट के अधिकार की अवधि के भीतर ही ऐसी दवाओं के आविष्कार पर आए व्यय के साथ-साथ अधिक से अधिक लाभ भी कमा लेना चाहते हैं. कई मामलों में तो वे पेटेंट के अधिकार का दुरुपयोग-सा करते दिखते हैं और उनके द्वारा निर्धारित दवाओं के बाज़ार-मूल्य मनमाने ढंग के लगते हैं. जैसे-जैसे दुनिया में नई-नई घातक बीमारियों का उद्भव एवं प्रसार हो रहा है, दवा-निर्माता अपने-अपने नए-नए पेटेंटेड उत्पाद विश्व के बाज़ार में उतारते जा रहे हैं. जाहिर है कि विकसित देशों की सुविधा-संपन्न दवा कंपनियाँ इस दिशा में दूसरों से आगे रहेंगीं और वे ऐसे उत्पादों के जरिए विकासशील अथवा गरीब देशों के दवा-बाज़ार पर एकाधिकार जमाने की कोशिश केरेंगी. भारत जैसे विकासशील देश में आज़ादी के बाद से ही जेनेरिक दवाओं के निर्माण को प्रोत्साहन दिया गया है क्योंकि हमारी गरीब जनता की अधिकांश रोग-निदान की आवश्यकता को सस्ती जेनेरिक दवाओं से पूरा कराना जरूरी है. इसीलिए बहुराष्ट्रीय दवा-कंपनियों की चालाकी-भरी प्रवृत्तियों से बचने के लिए हमने हमेशा फूँक-फूँककर कदम उठाए हैं और हमने अपने जेनेरिक दवाओं के उद्योग को देश के भीतर फलने-फूलने का पर्याप्त मौका दिया है. साथ ही साथ हमने नई दवाओं के विकास व पेटेंटेड दवाओं की उपलब्धता को भी बनाए रखने के लिए भी अंतर्राष्ट्रीय समझौतों के अनुरूप अपने पेटेंट कानून में समय-समय पर सनुचित प्रावधान किए हैं और उनका अनुपालन सुनिश्चित किया है.

भारत में पेटेंट-व्यवस्था का इतिहास:

            भारत में पेटेंट-व्यवस्था के कानूनी प्रावधानों की शुरुआत ब्रिटिश शासन की स्थापना के साथ हुई. पहला कानून 1856 में ब्रिटिश कानून की तर्ज पर बना जिसके तहत नए उत्पादकों के अंवेषकों को कुछ विशेषाधिकार दिए गए. बाद में 1959 में ब्रिटिश सरकार एक नया कानून लाई जिसमें निर्माताओं को नए आविष्कृत उत्पादों का भारत में 14 वर्षों तक निर्माण, विक्रय एवं उपयोग करने तथा अन्य लोगों को इसका प्राधिकार देने के विशेषाधिकार की व्यवस्था की गई. कालांतर में 1872 में पेटेंट व डिजाइन संरक्षा अधिनियम के रूप में पेटेंट अधिकारों को और व्यापक किया गया तथा उसके तहत डिजाइनिंग को भी लाया गया. जैसे-जैसे ब्रिटेन में पेटेंट कानून बदलते गए वैसे-वैसे ही ब्रिटिश सरकार भारतीय पेटेंट कानून भी बदलती गई. इसी क्रम में देश में भारतीय पेटेन्ट और डिजाइन अधिनियम 1911 लागू हुआ जिसके तहत पेटेंट प्रशासन को नियंत्रक पेटेंट्स के अधीन लाया गया. 1930 में गुप्त पेटेंट अनुदान, अतिरिक्त पेटेंट, सरकार द्वारा आविष्कार के उपयोग जैसी तमाम नई व्यवस्थाओं के साथ-साथ इन कानून के तहत पेटेंट की अवधि को 14 वर्ष से बढ़ाकर 16 वर्ष कर दिया गया. 1945 में पुनः इस अधिनियम में कुछ महत्वपूर्ण संशोधन किए गए.

स्वतंत्रता-प्राप्ति के पश्चात भारत सरकार ने 1949 में पेटेंट कानून की समीक्षा करने तथा राष्ट्रीय हितों के अनुरूप पेटेंट-प्रणाली में आवश्यक परिवर्तन लाने वाले संशोधनों की संस्तुति करने के उद्देश्य से सेवानिवृत्त न्यायामूर्ति डॉ. बक्शी टेकचंद की अध्यक्षता में एक समिति गठित की. इस समिति की शिफारिशों के आधार पर 1950 में भारतीय पेटेंट कानून में व्यापक संशोधन करते हुए उसमें आविष्कारों के आवश्यक संरक्षण तथा अनिवार्य लाइसेंस देने एवं लाइसेंस के निरसन आदि की व्यवस्था की गई. 1952 में पुनः इस कानून में संशोधन करके खाद्य एवं औषधियों, कीटनाशकों, जर्मीसाइड्स व फंगीसाइड्स व शल्य-चिकित्सा या रोग-निदान के उपकरणों अथवा उनके उत्पादन की प्रक्रिया से संबंधित किसी आविष्कार के संदर्भ में विनिर्दिष्ट विशेष आवश्यकता की स्थिति में सरकार द्वारा अनिवार्य लाइसेंस जारी किए जाने की व्यवस्था की गई. भारत सरकार द्वारा पेटेंट कानून की समीक्षा तथा उसमें आवश्यक संशोधनों की संस्तुति करने के लिए 1957 में पुन: न्यायमूर्ति एन. राजगोपाल आयंगर की अध्यक्षता में एक समिति गठित की. इस समिति की रिपोर्ट सरकार को 1959 में प्राप्त हुई किंतु इसकी सिफारिशों के आधार पर नया पेटेन्ट अधिनियम वर्ष 1970 में ही जाकर बन पाया. इस अधिनियम उत्पादों के निर्माण की प्रक्रिया पर आधारित पेटेन्ट दिए जाने की व्यवस्था की गई. पेटेंट अधिकार की अवधि 20 वर्ष की रखी गई.

            वर्ष 1994 में गाट एग्रीमेंट (विश्व व्यापार संगठन का समझौता) लागू होने के बाद उसके तहत विभिन्न देशों के बीच हुए ट्रिप्स एग्रीमेंट (व्यापार संबंधी बौद्धिक संपदा अधिकारों के बारे में हुआ अनुबंध) के आधार विश्व के तमाम देशों में पेटेंट कानूनों में व्यापक फेरबदल हुए और भारत में भी इसी के अनुरूप एक अध्यादेश के माध्यम से 31 दिसम्बर 1994 को पेटेंट अधिनियम 1970 में व्यापक संशोधन किए गए. बाद में इन संशोधनों को 1999 में संसद द्वारा पारित किए जाने पर इन्हें पहली जनवरी 1995 के पूर्वगामी प्रभाव से लागू किया गया. इस संशोधित अधिनियम में भेषज, दवाओं, तथा जैव रसायक के क्षेत्र में उत्पादों के पेटेंट की भी व्यवस्था की गई किंतु ये प्रावधान कुछ कठिनाइयों की वजह से प्रभावी नहीं हो पाए. बाद में ट्रिप्स समझौते तथा उसके तहत 14 नवंबर 2014 को विश्व व्यापार संगठन के देशों द्वारा पारित दोहा उद्घोषणा को ध्यान में रखते हुए पहले 1 जनवरी 2005 के प्रभाव से एक संशोधन अध्यादेश के माध्यम से और बाद में पेटेंट (संशोधन) अधिनियम, 2005 के द्वारा भारत सरकार ने पेटेंट कानून में व्यापक परिवर्तन किए. इस संशोधित अधिनियम के तहत कोई भी व्यक्ति जो आविष्कार का वास्तविक एवं प्रथम आविष्कारक होने का दावा करता है या ऐसे किसी दावेदार का प्रतिनिधि होता है, पेटेन्ट के लिए आवेदन कर सकता है. इसी के साथ ही यह भी व्यवस्था है कि कोई भी इच्छुक व्यक्ति अधिनियम में प्रावधानित कारणों से किसी भी व्यक्ति को पेटेन्ट दिए जाने के आवेदन का विरोध कर सकता है. नियंत्रक द्वारा दोनों पक्षों की  सुनवाई के पश्चात ही पेटेन्ट स्वीकृत करने का फैसला लिया जाता है. भारत में पेटेंट की वर्मान निर्धारित अवधि 20 वर्ष की है. किसी भी पेटेन्ट को जारी करने की तारीख से तीन वर्ष की अवधि समाप्त होने के बाद कोई भी इच्छुक व्यक्ति नियंत्रक के समक्ष यह शिकायत करते हुए कि दिए गए पेटेन्ट से जनता की समुचित अपेक्षाएँ नहीं हुई हैं या आविष्कृत पेटेन्ट जनता के लिए उचित कीमत पर उपलब्ध नहीं है, अपने लिए सम्बन्धित उत्पाद अथवा प्रक्रिया हेतु अनिवार्य लाइसेंस दिए जाने की प्रार्थना कर सकता है.

भारत में फार्मा पेटेंटों की स्थिति:

            यथासंशोधित भारतीय पेटेंट अधिनियम 1970 के तहत पेटेंट का अधिकार केवल नए आविष्कृत उत्पादों अथवा प्रक्रियाओं के लिए दिया जाता है. पेटेंट-योग्य आविष्कार नई जानकारियों पर आधारित होना चाहिए तथा उसका नूतन औद्योगिक उपयोग होना चाहिए. उसका कोई पूर्वानुमान नहीं होना चाहिए. किसी पूर्व-आविष्कृत उत्पाद के निर्माण की अभिनव प्रक्रिया के आविष्कार को भी पेटेंट दिया जा सकता है. जो आविष्कार सामान्य रूप से ज्ञात सिद्धांतों अथवा परंपरागत ज्ञान पर आधारित अथवा प्रकृति में सामान्य रूप से उपलब्ध उत्पादों से जुड़े होते हैं या जन-सुरक्षा एवं नैतिक मानदंडों के विरुद्ध होते हैं उन्हें पेटेंट नहीं दिया जा सकता. इसी तरह से जीव-जगत के लिए हानिकारक तथा पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने वाले आविष्कारों के लिए भी पेटेंट अनुमन्य नहीं है. दवा-निर्माण की दृष्टि से 2005 के संशोधन द्वारा लागू किया गया सबसे महत्वपूर्ण प्रावधान यह है कि जब तक नया आविष्कृत उत्पाद अथवा प्रक्रिया भिन्न एवं विशिष्ट गुणों से युक्त न हो तथा उसकी प्रभावशीलता में संवर्धन न हो तब तक उसे पेटेन्ट नहीं दिया जा सकता. अत: भारत में किसी दवा-निर्माता को पेटेंट-अधिकार प्राप्त करने के लिए यह जरूरी है कि वह अपने नवीन उत्पाद अथवा प्रक्रिया के अभिनव एवं विशिष्ट गुणों तथा उसकी बढ़ी हुई प्रभावशीलता को सिद्ध करे. भारत में वर्ष 2005 में पेटेन्ट कानून में लागू किए व्यापक संशोधनों के उपरांत पाँच हजार से भी अधिक फार्मा उत्पादों एवं प्रक्रियाओं को पेटेंट का अधिकार दिया जा चुका है जिसका विवरण तालिका - 1 में दिया है.
तालिका - 1
भारत में लागू फार्मा पेटेंट्स (प्रक्रिया एवं उत्पाद दोनों मिलाकर)

वर्ष
भारतीय पेटेंट्स
विदेशी पेटेंट्स
कुल पेटेंट्स
विदेशी फार्मा पेटेंट्स का प्रतिशत
2005-06
268
189
457
41.36
2006-07
343
455
798
57.02
2007-08
235
670
905
74.03
2008-09
265
942
1207
78.04
2009-10
96
434
530
81.89
2010-11
93
503
596
84.39
2011-12
76
206
282
73.04
2012-13
59
284
343
82.80
कुल
1435
3683
5118
71.96
           
            भारत में पेटेन्ट नियंत्रक के कार्यालयों द्वारा वर्ष 2005 के बाद के संशोधित अधिनियम के तहत जिन प्रमुख फार्मा कंपनियों को पेटेन्ट के अधिकार दिए गए हैं उनका विवरण तालिका – 2 में दिया गया है. देश में नए प्रावधानों के तहत जारी किए गए पेटेंटों में लगभग 72% विदेशी उत्पादों या प्रक्रियाओं के हैं. तालिका – 1 तथा तालिका – 2 के विवरणों को देखने से पता चलता है कि देश में विदेशी उत्पादों या प्रक्रियाओं के पेटेन्ट लगातार बढ़ रहे हैं और जहाँ वर्ष 2005-06 में इनका प्रतिशत केवल 41.36 प्रतिशत था, वहीं वर्ष 2012-13 में इनकी संख्या बढ़कर 82.80 प्रतिशत हो गई. सिर्फ प्रतिशत ही नहीं घट रहा है, भारतीय पेटेन्टों की संख्या साल दर साल कम भी हो रही है. स्पष्ट है कि पेटेन्ट अधिकार पाने में विदेशी कंपनियाँ ही बाज़ी मार रही हैं. यह चिन्ता का विषय है. चूँकि पेटेन्टों के विकास के लिए जिस प्रकार के संसाधन, इन्फ्रास्ट्रक्चर तथा क्लीनिकल ट्रायल्स की सुविधा दवा की कंपनी के पास होने चाहिए, वे भारतीय कंपनियों के पास उपलब्ध नहीं हैं अतः जरूरत इस बात की है इन कंपनियों का विदेशी कंपनियों के साथ व्यावसायिक अंतर्सम्बंध बने और ये शोध तथा नई दवाओं के विकास की दिशा में आगे बढ़ सकें.
तालिका – 2
भारत में मुख्य फार्मा कंपनियों को दिए गए पेटेंट
कंपनी का नाम
पेटेंट्स की संख्या
कंपनी का नाम
पेटेंट्स की संख्या
एफ. हॉफमान रोश
166
जांसेन फार्मा
69
सानोफी
159
बोरिंगर
68
नोवार्टिस
147
अवेंटिस
65
ऐस्ट्राजेनेका
118
ग्लैक्सो
57
फाइजर
102
स्मिथक्लाइन
54
शेरिंग
83
अल्टाना फार्मा
33
एली लिली
80
वर्टेक्स फार्मा
31
बायर
80
ऐस्टेलस
29
मर्क
73
अब्बॉट
25

भारतीय दवा-उद्योग की स्थिति:

            भारतीय दवा-उद्योग में जेनेरिक दवाओं के कारोबार का बाहुल्य है. जेनेरिक दवाएँ सस्ती होती है और आसानी से निर्मित की जा सकती हैं अतः भारतीय दवा-निर्माता इन्हीं का निर्माण करना पसंद करते हैं. आँकड़ों के अनुसार भारतीय जेनेरिक दवाओं का विश्व के लगभग 80 देशों में प्रसार है. भारतीय दवाओं का अमेरिका, अफ्रीका, जापान तथा यूरोपीय देशों तक में आयात होता है. यूनीसेफ भी विकासशील देशों में चलाए जा रहे अपने दवा-वितरण कार्यक्रमों के लिए सबसे ज्यादा दवाएँ भारत से ही खरीदता है. कैंसर, एड्स, हेपेटाइटिस-सी, ट्यूबरकुलोसिस आदि की तमाम भारतीय जेनेरिक दवाओं के दाम अंतर्राष्ट्रीय दामों के मुकाबले बहुत ही कम होते हैं अतः तमाम विकासशील या गरीब देशों के लोग इन्हीं दवाओं को खरीदना पसंद करते हैं. एक अनुमान के मुताबिक भारत हर साल लगभग ग्यारह अरब डॉलर मूल्य की जेनेरिक दवाएँ निर्यात करता है. मात्रा की दृष्टि से भारतीय दवा उद्योग का विश्व में तीसरा तथा मूल्य की दृष्टि से 14वां स्थान है. भारत सरकार जेनेरिक दवाओं के उपयोग को बढ़ावा देने के लिए कुछ इस प्रकार की नीति भी बना रही है कि सरकारी अस्पतालों के डॉक्टर केवल जेनेरिक दवाओं ही मरीज़ों को लिखकर देंगे तथा सरकारी अस्पतालों के माध्यम से केवल जेनेरिक दवाओं का ही वितरण किया जाएगा. ब्रांडेड दवाएँ कुछ अनिवार्य परिस्थितियों में लिखी जाएँगीं और इसका अधिकतम सीमा निर्धारित रहेगी.

            भारतीय दवा-उद्योग को आधुनिक एवं पेटेंटेड/ ब्रांडेड दवाओं के निर्माण के लिए सक्षम बनाने के लिए सरकार द्वारा इस उद्योग में पूँजी-प्रवाह को बढ़ाने के भी उपाय किए जा रहे हैं. इसके विदेशी पूँजी-निवेश को भी बढ़ावा दिया जा रहा है. लेकिन विदेशी पूँजी-निवेश के नाम भारत में ब्राउन फील्ड निवेश ज्यादा हुआ है. इस प्रकार के निवेश में देशी कंपनी का स्वामित्व किसी विदेशी निवेशक कंपनी के हाथ में चला जाता है. आँकड़ों के अनुसार पिछले एक दशक में भारत में लगभग नौ अरब डॉलर का विदेशी पूँजी-निवेश हुआ है, जिसमें से आधे से ज्यादा निवेश स्थापित भारतीय कंपनियों को अधिग्रहीत करने के लिए हुआ. पिछले कुछ वर्षों में अधिग्रहीत भारतीय कंपनियों का विवरण तालिका - 3 में दिया गया है. इसे देखने से पता चलता है कि सबसे बड़ा अधिग्रहण भारत की बहुराष्ट्रीय दवा-कंपनी रैनबैक्सी लैबोरेटरीज का रहा है जिस पर अब जापान की कंपनी डायची सांक्यो का कब्ज़ा हो चुका है. पिरामल हेल्थ केयर को अमेरिकी कंपनी एब्बॉट लैबोरेटरीज अधिग्रहीत कर चुकी है. विदेशी कंपनियाँ प्रमुख भारतीय कंपनियों की जेनेरिक दवाएँ बनाने की क्षमता तथा उनके स्थापित बाज़ार के लालच में ही उनका अधिग्रहण करने के लिए आगे आ रही हैं और भारत सरकार को उनकी इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाकर भारतीय कंपनियों में अन्य प्रकार के विदेशी पूँजी-निवेश को बढ़ाने का रास्ता तलाशना होगा.
तालिका - 3
भारतीय फार्मा कंपनियों के अधिग्रहण की स्थिति
वर्ष
अधिग्रहीत भारतीय कंपनी
अधिग्राहक विदेशी कंपनी
विदेशी कंपनी का मूल देश
अधिग्रहण की धनराशि (मिलि. अमेरिकी डॉलर में)
2006
मैट्रिक्स लैब
माइलान इंक
यू.एस.ए.
736
2008
डाबर फार्मा
फ्रेसेनिअस काबी
सिंगापुर
219
2008
रैनबैक्सी लैबोरेटरीज
डायची सांक्यो
जापान
4600
2008
शांता बायोटेक
सानोफी अवेंटिस
फ्रांस
783
2009
ऑर्किड केमिकल्स
हॉस्पिरा
यू.एस.ए.
400
2010
पिरामल हेल्थ केयर
एब्बॉट लैबोरेटरीज
यू.एस.ए.
3720

भारत में दवाओं के मूल्य-नियंत्रण की व्यवस्था:

            उदारीकरण के साथ-साथ देश में 1994 में जो दवा नीति लागू हुई उसमें घरेलू दवा-उद्योग को प्रोत्साहन देने तथा उसमें विदेशी पूँजी-निवेश को बढ़ावा देने के उद्देश्य से मूल्य-नियंत्रण की काफी लचीली व्यवस्थाएँ रखी गईं. इस नीति के तहत जारी दवा (मूल्य नियंत्रण) आदेश, 1995 में मूल्यों के नियंत्रण का आधार दवाओं के उत्पादन की लागत से जोड़ दिया गया जिससे काफी हद तक मूल्य-निर्धारण की चाभी दवा-निर्माताओं के ही हाथ में आ गई. उन्होंने उत्पादन-लागत के जो भी आँकड़े दिए उन्हीं पर दवाओं की कीमतें निर्धारित होने लगीं. आयातित दवाओं के मामले तो स्थिति और भी विषम हो गई. आयातक कंपनी दवा द्वारा बताई गई लैंडेड लागत के आधार पर ही मूल्य-निर्धारण होने लगा क्योंकि विदेशी निर्माताओं से उत्पादन-लागत के आँकड़े मिलना आसान नहीं था. भारत सरकार के फार्मास्यूटिकल विभाग अथवा नेशनल फार्मास्यूटिकल प्राइसिंग अथॉरिटी के पास ऐसी कोई महारत नहीं थी कि वे दवाओं की उत्पादन-लागत का वास्तविक आकलन कर पाते और दवाओं के बाज़ार मूल्यों का तदनुसार विनिमयन करते. लिहाज़ा दवा-निर्माता मनमानी लागतों के आँकड़ें पेशकर नए-नए फार्मूलेशन के साथ बाज़ार में उतरने लगे और एक ही 'बल्क ड्रग' के भिन्न-भिन्न फार्मूलेशन काफी ऊँची-नीची दरों पर बाज़ार में बिकने लगे. डॉक्टरों व दवा-विक्रेताओं ने भी कमाई की इस बहती नदी में खूब हाथ धोए. उन्हें विभिन्न रूपों में ऊँची दरों वाली दवाएँ लिखकर देने अथवा बेचने का प्रतिफल मिलने लगा. दवाओं की कीमतें आसमान छूने लगीं. गरीब मरीज़ त्राहि-त्राहि करने लगे. माननीय उच्चतम न्यायालय ने तो पिछले वर्ष एक मामले में विचार करके हुए मौखिक रूप से यहाँ तक कह दिया कि दवा की कीमतें इतनी अधिक हैं कि मरीज़ के सामने दो विकल्प रह जाते हैं कि या तो वह मर जाए या फिर ज़मीन व ज़ेवरात बेचकर दवा खरीदे.

            पानी सिर से ऊपर निकलता देखकर विगत दो-तीन वर्षों में भारत सरकार इस मामले में काफी संवेदनशीलता से आगे बढ़ी है और उसके द्वारा दिसंबर 2012 में नई राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण नीति लागू करते हुए दवाओं की मूल्य नियंत्रण प्रणाली को राष्ट्रीय आवश्यक औषधि सूची 2011 से जोड़ दिया गया है. इस नीति के तहत भारत सरकार के फार्मास्यूटिकल्स विभाग द्वारा जो नया दवा मूल्य नियंत्रण आदेश 2013 विगत 15 मई को अधिसूचित किया गया है, उससे पूरी फार्मास्यूटिकल मनूफक्चरिंग इंडस्ट्री में खलबली मच गई है. वर्तमान में नेशनल फार्मास्यूटिकल्स प्राइसिंग अथॉरिटी (एन.पी.पी.ए.) द्वारा इस नई राष्ट्रीय नीति एवं मूल्य नियंत्रण आदेश के अनुरूप आवश्यक दवाओं की सूची में शामिल 348 मुख्य दवाओं तथा उनके लगभग 300 अन्य स्वरूपों की बिक्री की मूल्य-सीमाएँ निर्धारित करने का काम किया जा रहा है तथा अग्रिम सूचना की 45 दिन की अवधि बीतने के उपरान्त विभिन्न दवाओं के लिए क्रमशः अगस्त-सितम्बर के महीने में ये मूल्य-सीमाएँ प्रभावी हो जाएँगी. इनके प्रभावी होते ही बाज़ार में आवश्यक दवाओं की कीमतों में औसतन 25 से 50 प्रतिशत तक की कमी आएगी. कुछ मामलों में यह कमी 60 प्रतिशत से भी ज्यादा होगी. स्वास्थ्य मंत्रालय जब किसी नई औषधि को अनिवार्य दवाओं की सूची में शामिल करेगा तो उस औषधि पर भी नई मूल्य-निर्धारण प्रणाली स्वयमेव लागू हो जाएगी. इस नए आदेश के तहत एन.पी.पी.ए. द्वारा अनिवार्य दवाओं के प्रत्येक फार्मूलेशन की बिक्री की मूल्य-सीमाएँ संबंधित फार्मूलेशन के विभिन्न ब्रांडों नामों के वर्तमान बाज़ार-मूल्यों के औसत के आधार पर तय की जाएँगी. इसके लिए किसी भी फार्मूलेशन के वही ब्रांड संज्ञान में लिए जाएँगे जिनकी बाज़ार में संबंधित फार्मूलेशन के कुल टर्नओवर में कम से कम एक प्रतिशत की भागीदारी होगी. कीमतें भी नई नीति लागू होने के कम से कम छह महीने पहले की देखी जाएँगी अर्थात जून 2012 के पहले की. आयातित दवाओं के मामले में भी यही नीति होगी. एक बार सीलिंग मूल्य निर्धारित हो जाने के बाद इस सीलिंग को हर साल थोक मूल्य सूचकांक के आधार पर बढ़ाया अथवा घटाया जाएगा. नए आदेश में यह भी व्यवस्था है किसी फार्मूलेशन के विभिन्न ब्रांडों की बाज़ार में हिस्सेदारी के घटने-बढ़ने की संभावना को देखते हुए प्रत्येक पाँच वर्ष के अंतराल पर संचरित वार्षिक टर्नओवर के आधार पर सीलिंग मूल्यों का पुनर्निधारण भी किया जाएगा.

            स्पष्ट है कि इस आधार पर किसी भी फार्मूलेशन का सीलिंग मूल्य तय करते समय उसके बाज़ार में प्रचलित न्यूनतम मूल्य वाले ब्रांडों की कीमतों की भी भूमिका होगी और जो भी सीलिंग मूल्य तय होगा वह ऊँची कीमत वाले ब्रांडों की कीमत से काफी कम होगा. इस प्रकार किसी भी फार्मूलेशन के निम्न मूल्य वाले ब्रांडों का बाज़ार में वर्तमान में जितना ज्यादा हिस्सा है, उसके मँहगे ब्रांडों की कीमतें उतनी ही ज्यादा कम होंगी. विभिन्न ब्रांडों की बाज़ार में हिस्सेदारी का निर्धारण आई.एम.एस. हेल्थ द्वारा उपलब्ध कराए जाने वाले आँकड़ों के आधार पर किया जाएगा. जिनका डाटा उनसे नहीं मिल पाएगा उनका डाटा एन.पी.पी.ए. खुद इकट्ठा कराएगी. एन.पी.पी.ए. द्वारा निर्धारित की गई मूल्य-सीमाओं पर नज़र डालें तो पता चलता है कि इस नई प्रणाली से कैंसर, हृदय-रोग, डायबिटीज, रक्तचाप जैसी तमाम खर्चीले इलाज़ वाली बीमारियों की दवाओं के ऊँचे दाम वाले ब्रांडों की कीमतों में भारी गिरावट आएगी तथा भविष्य के लिए इनकी कीमतों की स्थिरता भी सुनिश्चित हो सकेगी. नए आदेश के तहत जो दवाएँ आवश्यक दवाओं की सूची में नहीं शामिल हैं, एन.पी.पी.ए. उनकी कीमतों पर भी नियंत्रण रखेगा. जैसे ही ऐसी दवाओं की कीमत में बाज़ार में किसी वर्ष दस प्रतिशत से ज्यादा बढ़ेगी, वैसे ही एन.पी.पी.ए. सरकार द्वारा पूर्वनिर्धारित प्रक्रिया के तहत अगले एक वर्ष तक के लिए उनकी मूल्य-सीमा निर्धारित कर देगी. पेटेंटेड दवाओं को इस मूल्य-नियंत्रण प्रणाली से बाहर रखा गया है.

            अब देखना यह है कि अभी तक दवाओं के बाज़ार को अपनी मनमर्ज़ी के मुताबिक नचाने वाले दवाओं के निर्माता तथा व्यापारी किस सीमा तक इन सरकारी नियंत्रणों के बन्धन में बंधते हैं और किस सीमा तक वे अपनी पहुँच और रसूख के बल पर इन नियंत्रणों को भविष्य में शिथिल कराने का प्रयास करते हैं. नई नीति तथा नए आदेश के लागू होते ही दवा कंपनियों के शेयरों के बाज़ार-मूल्य औंधे मुँह गिरे हैं, अतः वे चुप तो नहीं बैठेंगे. इंडियन ड्रग मैनूफैक्चरर्स एसोशिएशन, इंडियन फार्मास्यूटिकल्स एलायंन्स तथा ऑर्गनाइजेशन ऑफ फार्मास्यूटिकल प्रोड्यूशर्स ऑफ इंडिया लगातार प्रयासरत हैं कि इन नियंत्रणों के असर को कैसे हल्का किया जाय। ऐसे में यह जरूरी होगा कि एन.पी.पी.ए. मजबूती से इन नई नीतियों के क्रियान्वयन के मामले में आगे बढ़े तथा राजनीतिक, प्रशासनिक व न्यायालयीय, हर स्तर पर दृढ़ता से दवाओं के बाज़ार को कसाई का बाज़ार बना देने वाली इन स्वार्थी शक्तियों का मुकाबला करे.

भारतीय पेटेंट कानून के नए प्रावधानों का महत्व:

            भारतीय पेटेंट कानून बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों की आँख की किरकिरी साबित हो रहा है. विश्व व्यापार संगठन के 1994 के समझौते के तहत विभिन्न देशों के बीच हुए ट्रिप्स एग्रीमेंट (व्यापार संबंधी बौद्धिक संपदा अधिकारों के बारे में हुआ अनुबंध) की शर्तों की आड़ में बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियाँ अपने पेटेंटों के माध्यम से भारत के विशाल बाज़ार पर अपनी अनाप-शनाप कीमतों वाली दवाओं का एकाधिकार जमाने की होड़ में रहती हैं. पेटेंटेड दवाओं पर देश का दवा मूल्य नियंत्रण आदेश नहीं लागू होता है अतः सरकार इन मँहगी दवाओं की मूल्य-सीमाओं का निर्धारण भी नहीं कर सकती. लेकिन भारत सरकार ने ट्रिप्स समझौते के तहत 14 नवंबर 2014 को विश्व व्यापार संगठन के देशों द्वारा पारित दोहा उद्घोषणा के तहत अनुमन्य अधिकारों का उपयोग करते हुए वर्ष 2005 में पेटेंट (संशोधन) अधिनियम 2005 के माध्यम से जो कानूनी प्रावधान लागू किए, उनके तहत ऐसी बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों के पर कतरने की समुचित व्यवस्था है. भारतीय दवा-उद्योग मुख्यतः जेनेरिक दवाएँ बनाता है, जिनकी उत्पादन-लागत सीमित होती है. इन पर मूल्य-नियंत्रण की व्यवस्थाएँ भी लागू होती है. देश की करोड़ों गरीब जनता की स्वास्थ्य की परिरक्षा के लिए देश में सस्ती जेनेरिक दवाओं के उत्पादन को बढ़ावा दिया जाना जरूरी है. लेकिन इसमें एक ख़तरा भी है. रोज पनप रही नई-नई बीमारियों के निदान के लिए दवा-निर्माताओं को नई दवाओं के आविष्कार का मौका देना तथा उसके लिए उन्हें प्रेरित किया जाना भी जरूरी है. भारत जैसे विकासशील देश को इन दोनों जरूरतों के बीच साम‍‍ञ्जस्य बिठाकर ही चलना श्रेयस्कर है. पिछले सात-आठ सालों में विदेशी दबावों के आगे बिना झुके हम इसी नीति पर चल रहे हैं.

            हमारे कानून के तहत पेटेंट का अधिकार उन्हीं दवाओं के लिए मिलता है, जिनका दवा-निर्माता आविष्कार करता है. पेटेंट की गई दवा को कोई और कंपनी पेटेंटधारक की अनुमति के बिना निर्धारित अवधि (बीस साल) तक न तो बना सकती है, न ही उसका वितरण कर सकती है. इस अवधि में आविष्कारक कंपनी बाज़ार में उसे मनमाने दामों पर बेचकर मुनाफा काटती है. इसी बीच कंपनी यह भी प्रयास करती है कि वह किसी प्रकार से पेटेंटेड दवा को एक नए फार्मूले के तहत कोई नया कलेवर देकर एक  छद्म आविष्कार के रूप में उसका नए नाम से पेटेंट करा ले और बाज़ार में फिर से उस दवा पर बीस वर्षों के लिए अपना एकाधिकार जमा ले. व्यापार-जगत में बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों की इस प्रवृत्ति को एवरग्रीनिंग (सदाबहारीकरण) कहा जाता है. भारत सरकार ने 2005 के पेटेन्ट कानून में किए गए संशोधनों के माध्यम से इस एवरग्रीनिंग की प्रवृत्ति को रोकने का काम किया है. इस कार्रवाई का सबसे उत्तम उदाहरण तब सामने आया जब ब्लड कैंसर की ग्लाइवेक के नाम से बिकने वाली दवा इमाटिनिब की पेटेंटधारक स्विस कंपनी नोवार्टिस द्वारा भारत में 1998 में इमाटिनिब मेसाइलेट नाम से पेटेंट हासिल करने के लिए दाखिल किए गए प्रार्थना-पत्र का इन नए प्रावधानों के तहत भारतीय कंपनी नाटको फार्मा लिमिटेड ने 2005 में विरोध किया और इस मामले की सुनवाई करते हुए संबंधित सहायक पेटेंट एवं डिजाइन कंन्ट्रोलर ने पेटेंट अधिनियम की संशोधित धारा 3 (डी) के अन्तर्गत इस दवा को एक नया पदार्थ तो माना किंतु उसमें किसी अधिक प्रभावकारी गुण के अभाव के कारण 25 जनवरी 2006 को घोषित अपने फैसले में उसे पेटेंट के लिए अयोग्य करार दे दिया. माननीय उच्चतम न्यायालय ने भी नोवार्टिस द्वारा दायर की गई अपील की सुनवाई करते हुए इस वर्ष अप्रैल में इस को फैसले सही ठहरा दिया, जिससे अंतर्राष्ट्रीय फार्मा सेक्टर में तहलका मच गया. पाश्चात्य शक्तियाँ इस फैसले तथा इस कानूनी प्रावधान को लेकर भारत की आलोचना तो कर रही हैं लेकिन उन्हें अपने वाद के छ्द्म आधार का पता है इसलिए इस पर कोई भी किसी तरह का वाद लेकर विश्व व्यापार संगठन के सामने जाएगा, ऐसा नहीं लगता.

भारतीय पेटेंट कानून के तहत अनिवार्य लाइसेंस की व्यवस्था:

            भारतीय पेटेंट अधिनियम की धारा 84 के अंतर्गत विशेष परिस्थितियों में पेटेंट-धारक के अलावा किन्हीं अन्य इच्छुक दवा-निर्माताओं को भी किसी दवा के पेटेंट के अधिकार को अतिक्रमित करते हुए निर्माण की अनुमति दिए जाने का प्रावधान किया गया है. ऐसी अनुमति को अनिवार्य लाइसेंस कहा जाता है. इसके लिए अनुमति प्राप्त करने वाली कंपनी पेटेंट-धारक को नियंत्रक द्वारा निर्धारित समुचित मुआवज़ा भी देती है. लेकिन इस प्रावधान का इस्तेमाल काफी सूझ-बूझ के साथ ही किया जाना चाहिए, क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर किसी भी देश में जारी किए जाने वाले अनिवार्य लाइसेंस का व्यापक विरोध होता है और ऐसे देश को आविष्कार-विरोधी के रूप में चित्रित किया जाता है. भारतीय कानून के अनुसार पेटेंट के लिए आविष्कार का काम अथवा उसका परीक्षण भारत में ही किया जाना चाहिए तथा पेटेंटेड दवा की बाज़ार में पर्याप्त उपलब्धता होनी चाहिए ताकि  जनता की आवश्यकता की पूर्ति हो सके. इसी के साथ पेटेंटेड दवा की कीमत भी ऐसी होनी चाहिए कि कोई आम आदमी उसे खरीद सके. यदि ऐसा नहीं होता है तो जनता की स्वास्थ्य-सुरक्षा सुनिश्चित करने के उद्देश्य से, विशेषकर एड्स, कैंसर जैसी महामारियों से देश की जनता को बचाने जैसी आपातकालीन परिस्थितियों को ध्यान में रखकर किसी पेटेंटेड दवा के लिए देश में अनिवार्य लाइसेंस दिया जा सकता है. इसी व्यवस्था के तहत भारत में नियंत्रक द्वारा बायर कार्पोरेशन की पेटेंटेड तथा अति मँहगी कैंसर की दवा के जेनेरिक संस्करण के निर्माण के लिए नैटको नामक भारतीय कंपनी को अनिवार्य लाइसेंस जारी किया गया. यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण फैसला था जिस पर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर काफी शोर मचा, हाँलाकि बायर कार्पोरेशन इस मामले को लेकर औपचारिक रूप से किसी अंतर्राष्ट्रीय फोरम में नहीं गई है. भारत के इस कदम की तुलना कुछ अन्य देशों से करने के लिए हाल के वर्षों में विभिन्न देशों द्वारा जारी किए गए अनिवार्य लाइसेंसों का विवरण तालिका - 4 में दिया गया है.

तालिका - 4
विश्व में अनिवार्य लाइसेंस जारी करने वाले प्रमुख देश
क्रम सं.
देश
तिथि
दवाओं के नाम
प्रभावित पेटेंटधारक कंपनियाँ
1.
ब्राजील
04.05.2007
एफाविरेंज़
मर्क एंड कं.
2.
कनाडा
18.10.2001
सिप्रोफ्लोक्सासिन
बायर कार्पोरेशन
20.11.2007
ज़ायडोवुडीन, लामीवुडीन एवं नेविरापीन
ग्लाक्सो स्मिथ क्लाइन, शायर एवं बोरिंगर-इंजेल्हीम
3.
इटली
21.03.2007
फिनास्टेराइड एवं आइमीपेनेम सिलास्टाटिना
मर्क एंड कं.
23.02.2005
सुमाट्रिप्टान सक्सीनेट
ग्लाक्सो ग्रुप लिमि.
4.
इजिप्ट (मिस्र)
2002
सिल्डेनाफिल (वियाग्रा)
फाइज़र
5.
इंडोनेशिया
03.09.2012
एफाविरेंज़ (सस्टाइवा), अबाकाविर (ज़ियाजेन), डायडानोसीन (वाइडेक्स), कालेट्रा, टेनोफोविर (विरियाड), एवं एट्रिप्ला
मर्क एंड कं., ग्लाक्सो स्मिथ क्लाइन, ब्रिस्टॉल-मायर्स स्क्विब, एब्बॉट लैबोरेटरीज एवं जिलियाड साइंसेज
6.
मलेशिया
-
डायडानोसीन, ज़ायडोवुडीन
ब्रिस्टॉल-मायर्स स्क्विब एवं ग्लाक्सो स्मिथ क्लाइन
7.
थाइलैंड
29.11.2006
एफाविरेंज़
मर्क एंड कं.
8.
जाम्बिया
21.09.2004
ज़ायडोवुडीन, लामीवुडीन, नेविरापीन
ग्लाक्सो स्मिथ क्लाइन, शायर एवं बोरिंगर-इंजेल्हीम
9.
जिंबाबवे
27.05.2002
ऐंटीरेट्रोवायरल दवाएँ

10.
भारत
09.03.2012
सोराफेनिब (नेक्सावार)
बायर कार्पोरेशन

            भले ही सरकार बड़ी संख्या में अनिवार्य लाइसेंस न जारी करे किंतु इस प्रकार की व्यवस्था होने से ही पेटेंट-धारक कंपनियाँ एक प्रकार के दबाव में रहती हैं. नेक्सावार के मामले ने ही इस दिशा में काफी दबाव बना दिया है और विदेशी कंपनियाँ अब भारतीय बाज़ार में अपनी पेटेंटेड दवाओं को उनके दामों में अंतर्राष्ट्रीय मूल्यों की तुलना में कुछ कमी करके ही उतार रही हैं.

            यह प्रश्न अक्सर उठाया जाता है कि क्या धारा 84 के तहत राष्ट्रीय आपातकालीन स्थिति में किसी पेटेंटेड दवा का अनिवार्य लाइसेंस किसी अन्य औषधि-निर्माता को दिए जाने जैसी व्यवस्थाएँ ट्रिप्स अनुबंध के अनुरूप हैं अथवा क्या ऐसे प्रावधान देश में दवा कंपनियों द्वारा सामान्यतः भारी लागत लगाकर किए जाने वाले नए उत्पादों के आविष्कार को हतोत्साहित करने वाले हैं. इसका उत्तर स्पष्ट है. अनिवार्य लासेंसिंग के बारे में ट्रिप्स अनुबंध के अनुच्छेद 31 में स्पष्ट व्यवस्था है. दोहा उद्घोषणा में भी साफ कहा गया है कि सभी देशों को निर्धारित कारणों के आधार पर अनिवार्य लाइसेंस जारी करने का अधिकार होगा. सभी देशों को यह भी अधिकार होगा कि वे राष्ट्रीय आपातकाल या अन्य अत्यावश्यक कारणों से अनिवार्य लाइसेंस की प्रार्थना को, उसे स्वीकार किए जाने के लिए विनिश्चित न्यूनतम समय-सीमा से भी विमुक्त कर सकेंगे. इस उद्घोषणा में एच.आई.वी. अथवा एड्स, ट्यूबरकुलोसिस (क्षय रोग), मलेरिया तथा अन्य महामारियों की स्थिति को राष्ट्रीय आपदा अथवा इस प्रकार के प्रावधान के लिए जरूरी अन्य प्रकार की अत्यावश्यक स्थिति माना गया है. लेकिन इन प्रावधानों के तहत अभी तक भारत में कंट्रोलर जनरल द्वारा 9 मार्च 2012 को केवल नाट्को फार्मा लिमिटेड को बायर कार्पोरेशन की कैंसर की पेटेंटेड दवा 'सोराफेनिब टोसाइलेट' को नेक्सावार के नाम से बनाने की अनुमति दी गई है क्योंकि बायर लोगों की जरूरत पूरी नहीं कर पा रही थी और दवा के दाम भी बहुत ज्यादा थे. लेकिन इस इकलौते केस को लेकर भी बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने अच्छा-खासा हो-हल्ला मचाया.

निष्कर्ष:


            आज जिस तरह फार्मा कंपनियों द्वारा अमेरिका अथवा यूरोप में मात्र पैकेजिंग अथवा उत्पाद के आकार व स्वरूप को बदलकर (मसलन टैबलेट को कैप्स्यूल में परिवर्तित करके) नया पेटेंट प्राप्त करके पेटेंटिंग व्यवस्था का सदाबहार लाभ प्राप्त करने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है, उसे देखते हुए हमारे लिए अपनी गरीब जनता को सस्ते में स्वास्थ्य-सुरक्षा उपलब्ध कराने के लिए कड़े पेटेंट प्रावधान रखने जरूरी हैं. दोहा उद्घोषणा में साफ-साफ कहा गया है कि सभी सदस्य देशों को टिप्स अनुबंध के अनुरूप अपने सभी नागरिकों के स्वास्थ्य की परिरक्षा का अधिकार है, विशेष रूप से उन्हें दवाएँ उपलब्ध कराने का. ट्रिप्स एग्रीमेंट में भी स्पष्ट रूप से कहा गया है कि कोई भी सदस्य देश ऐसे आविष्कृत उत्पादों को पेटेंट के अधिकार से बाहर रख सकता है जिनका वाणिज्यिक दोहन लोगों के स्वास्थ्य के संरक्षण के लिए आवश्यक हो. इस प्रकार भारत को भी अपने कानून के तहत जन-स्वास्थ्य के संरक्षण के लिए किसी भी नए औषधीय उत्पाद को पेटेंट के दायरे से बाहर रखने के प्रावधान करने का अधिकार है. किंतु भारत आविष्कारों को बढ़ावा देने के प्रति भी सजग है. इसलिए इस छूट का व्यापक उपयोग न करते हुए नए संशोधन के द्वारा भारतीय कानून की धारा 3 (डी) में केवल यही व्यवस्था की गई है कि मात्र नए उत्पाद अथवा उसके नए उपयोग की खोज भर से ही किसी को पेटेंट हासिल करने का अधिकार नहीं होगा, उसके लिए नए उत्पाद में भिन्न व बेहतर चिकित्सकीय प्रभाव का होना भी आवश्यक होगा. जाहिर है कि बहुत ही सीमित प्रतिबंध वाला यह प्रावधान पेटेंट-अधिकार के सदाबहारीकरण की प्रवृत्ति को रोकने के लिए ही बनाया गया है तथा पूरी तरह से ट्रिप्स अनुबंध के अनुरूप है और इस पर पाश्चात्य शक्तियों द्वारा इतनी हाय-तोबा मचाया जाना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है.