कभी - कभी उमस और घुटन के बीच ताजी हवा का एक झोंका बड़ा ही सुकून देता है। युवा कवि उमाशंकर चौधरी के आधार प्रकाशन, पंचकूला से प्रकाशित हालिया संग्रह ‘वे तुमसे पूछेंगे डर का रंग’ की कविताएँ नए कवियों की रचनाओं की भीड़ के बीच से कुछ ऐसा ही अहसास जगाती हुआ हमारी ओर लपकती है, एकदम ताजी हवा की खुशबू - सी छोड़ती हुई। इस संग्रह में अलग - अलग शेड्स की कविताएँ हैं, जो इस युवा कवि की अनुभव - संपन्नता की पहचान कराती हैं। साथ ही इनमें भावों का भी ऐसा वैविध्य है, जो इन्हें पढ़ते समय हमारे मन में स्मृतियों और चेतना की नई - नई खिड़कियाँ खोल देता है। इनमें कहीं आज के समय की विकट स्थिति की चिन्ता हैं, कहीं देश की व्यवस्था व राजनीति के प्रति आक्रोश है, कहीं माँ, पिता व बहन जैसे पारिवारिक रिश्तों से जुड़ी संवेदनाओं को रेखांकित करती मार्मिकता है, कहीं रोचक एवं एक अलग किस्म का दृष्टिकोण रखता स्त्री - विमर्श है और कहीं जीवन के ऐसे राग - रंग हैं जो हमें अपने ही सुख - दुख का अहसास कराते हुए से लगते हैं। इस संग्रह की अनेक कविताएँ आत्मवृत्तात्मक हैं, जो यह स्वत:सिद्ध कर देती हैं कि इनमें कवि के अपने ही जीवन के अनुभव रचे - बसे हैं, हालाँकि ऐसी सारी
ही कविताओं में इन निजी अनुभवों के दायरे में उमाशंकर ने आज की बृहत्तर पारिवारिक
व सामाजिक परिस्थितियों को भी संपूर्णता में समेटा है। जो बात इस संग्रह के बारे में सबसे अच्छी लगी, वह है इसकी भाषा की सरलता व अकृत्रिमता और वह भी सपाटबयानी से लगभग पूरी तरह से
बचते हुए।
सबसे पहले मैं उमाशंकर के इस संग्रह की उन कविताओं की बात करना चाहूँगा, जिनमें आजकल लोगों में व्याप्त होती जा रही निस्संगता, जड़ता या विवशता की ओर हमारा ध्यान आकर्षित किया गया है। इनमें सबसे उल्लेखनीय कविता है 'अब ख़ून नहीं डर बह रहा है' जो आज के युवाओं की मन:स्थिति को बखूबी चित्रित करती है। उमाशंकर के अनुसार आज का युवा दिग्भ्रमित है, वह संघर्ष के बजाय पलायन का रास्ता चुन रहा है और निश्चेतना के गर्त्त में समाता चला जा रहा है। उनकी इस कविता की पंक्तियाँ, 'अगर तुम बीच चौराहे पर यह कहोगे कि/ तुम्हारी धमनियों में अब/ ख़ून नहीं डर बह रहा है तब/ वह तुमसे पूछेगा डर का रंग और/ जब तुम उससे कह दोगे झक्क सफेद/ तब वह बंद कमरे में सिरिंज से निकालेगा ख़ून की दो बूँद/ और फिर वह पछाड़ खाकर गिर जाएगा/ उसी बंद कमरे में' आज के युवाओं के मानसिक संभ्रम की स्थिति को बड़े ही सशक्त रूप में
अभिव्यक्त करती हैं। निश्चित ही उनके संग्रह का शीर्षक भी इसी कविता के नाम पर होना, इसके महत्व को और भी ज्यादा रेखांकित करता है। अपनी एक अन्य कविता 'इन दिनों' में उमाशंकर मनुष्य - चेतना के इस ह्रास को 'इन दिनों शरीर में कम होता जा रहा है नमक/ शरीर में कम होता जा रहा है लोहा भी' कहकर और भी ज्यादा प्रभावी ढंग से सामने रखते हैं। वे इस कविता में अपनी बात को आगे बहुत ही सार्थक तरीके से विस्तार देते हैं, 'इन
दिनों धीरे - धीरे बच्चों की भूख मरने लगी है/ आँसुओं में नमक का खारापन बढ़ने लगा है/ लोगों ने अपने दुख - दर्द के बारे में/ बातें करनी कम कर दी हैं/ कम कर दिया है उन्होंने अब लोकतंत्र के बारे में सोचना/ इन दिनों सचमुच बहुत बढ़ गई है/ आदमी में तकलीफ सहने की क्षमता।' निश्चित रूप से उमाशंकर चौधरी की ये कविताएँ आज के समाज का एक ऐसा पोर्ट्रेट हैं जो किसी भी प्रगति के प्रति, चेतना के प्रसार के प्रति अथवा विसंगति के प्रतिरोध के प्रति हमारे मन में व्याप्त होती जा रही निस्संगता का अवबोध कराती हैं।
अभी हाल ही में दिल्ली के एक कार्यक्रम में सुप्रसिद्ध आलोचक मैनेजर पांडे ने कहा कि व्यवस्था के प्रति आक्रोश जताने वाली प्रभावशाली कविता लिखने के लिए यह जरूरी नहीं कि आप प्रधानमंत्री को ही निशाना बनाकर कविता लिखें, बल्कि गरीबों की बस्तियों, झोपड़पट्टियों के अभावों व दुरावस्था की कविता लिखकर भी आप बड़ी ही सार्थक वैचारिक हलचल पैदा कर सकते हैं। उमाशंकर के इस संग्रह में शामिल देश की व्यवस्था के प्रति आक्रोश व्यक्त करती कुछ कविताओं में आए प्रधानमंत्री की कार्य - प्रणाली के वर्णन को देखकर सहज रूप से मेरा ध्यान मैनेजर पांडे जी के उक्त कथन की ओर जाता है, किन्तु साथ ही मुझे यह भी लगता है कि उमाशंकर ने अपनी इन कविताओं में प्रधानमंत्री का जिक्र महज़ उनकी ओर लोगों का ध्यान आकर्षित करने अथवा इन कविताओं को चर्चा के केन्द्र में लाने के लिए नहीं किया है। पिछले कुछ वर्षों से इस देश की राजनीति में प्रधानमंत्री की कार्य - प्रणाली सचमुच चर्चा के केन्द्र में रही है और शहर के नुक्कड़ ही नहीं, कस्बाई बाज़ारों के चाय व पान की दूकानों व गाँवों की चौपालों तक में प्रधानमंत्री द्वारा व्यवस्था को सुधारने, निर्णय लेने या उसे भ्रष्टाचार से मुक्त बनाए रखने के प्रयासों के बारे में आम तौर पर बहस होती रही है। यही नहीं, यह भी स्पष्ट है कि पिछले लोक सभा
चुनावों में लोगों ने सांसदों को चुनते समय प्रत्याशियों को ध्यान में न रखकर
प्रधानमंत्री बनने जा रहे व्यक्ति को ध्यान में रखकर ही वोट डाला है। ऐसे में एक चेतना - संपन्न कवि के रूप में उमाशंकर द्वारा सीधे प्रधानमंत्री को ही अपनी कविताओं के केन्द्र में लाया जाना बड़ा ही स्वाभाविक लगता है, यह निश्चित ही केवल इन कविताओं को चर्चा के केन्द्र में लाने का प्रयास नहीं है। इसलिए आज की राजनीति में दृष्टिगत हो रहे शीर्ष स्तर के विद्रूप को जब उमाशंकर अपनी 'प्रधानमंत्री लेते हैं निर्णय और हम डर जाते हैं' शीर्षक कविता में, 'इसीलिए प्रधानमंत्री लेते हैं निर्णय/ तब हम काँप जाते हैं/ क्योंकि हम जान गए हैं कि प्रधानमंत्री जो लेते हैं निर्णय/ उसमें हम नहीं होते हैं/ हम कहीं नहीं होते हैं' कहकर अपना आक्रोश जताते हैं, तब मैं मैनेजर पांडे जी की तरह सशंकित नहीं होता, बल्कि एक युवा कवि की सत्ता - प्रतिष्ठान से जुड़े बड़े से बड़े स्तर की कमज़ोरी को सामने लाने की क्षमता के प्रति आश्वस्त हो उठता हूँ, जिसकी समाज को हर काल में शख़्त जरूरत होती है।
'प्रधानमंत्री लेते हैं निर्णय और हम डर जाते हैं' उमाशंकर चौधरी की एक बहुत ही महत्वपूर्ण कविता है। इस कविता में देश के विकास के बारे में उच्चतम स्तर पर तय की जाने वाली नीतियों के खोखलेपन व आम आदमी के ऊपर पड़ने वाले उनके प्रभावों का कच्चा - चिट्ठा उजागर किया गया है। उनकी इस कविता की पंक्तियाँ, - 'सरकार लेती है निर्णय/ और हम काँप जाते हैं/ सरकार का मुस्कराता चेहरा हमें डराता है', डंके की चोट पर यह अभिव्यक्त करती हैं कि सरकार के फैसले प्राय: आम आदमी के हक़ में नहीं होते। साथ ही कविता की, - 'परन्तु इस देश में/ सच एक फैंटेसी की तरह है/ और इस देश का हर एक आदमी/ जिसके पेट में भले ही न हो अन्न का एक दाना/ बूझ गया है भेदना इस फैंटेसी को बहुत ही तथ्यपरक होकर' जैसी पंक्तियों के माध्यम से उमाशंकर यह भी स्पष्ट कर देते हैं कि देश का गरीब से गरीब आम आदमी इस तरह के फैसलों की सच्चाई को बखूबी समझने लगा है और अब वह सरकार के ऐसे झाँसों में नहीं आने वाला। 'प्रधानमंत्री पर अविश्वास' शीर्षक कविता में उमाशंकर एक कदम और आगे बढ़ते हुए, - 'उस घुप्प अँधेरे वाले सपने में प्रधानमंत्री/ कुछ बुदबुदाते हैं/ कुछ ठोस वायदे करते हैं/ कुछ सलाह और मशवरे देते हैं और गायब हो जाते हैं/ मेरे सपने से गायब हुए प्रधानमंत्री/ मुझे इस देश के सबसे बड़े मसखरे दिखते हैं' कहकर इस देश के अंधकारमय सता - प्रतिष्ठान और उसके झूठे वादे करने की प्रवृत्ति के प्रति गहरा आक्रोश व्यक्त करते हुए विश्वासहीन हो चुके प्रधानमंत्री की तुलना मसखरे से कर देते हैं। निश्चित ही
उमाशंकर ने इन कविताओं में देश की राजनीति की उन विसंतियों की नब्ज़ पर हाथ रखा है,
जिन्हें हमने पिछली सरकार के समय पूरे देश को झकझोरते हुए देखा है।
उमाशंकर प्रधानमंत्री के बारे में अपने विमर्श को ‘चुप्पी की भी हद होती है’ कविता में और आगे ले जाते हुए सीधे - सीधे कुछ ऐसा आरोप लगाते हैं कि जिससे यह
लगने लगता है कि उनके निशाने पर भारत के वे पूर्व प्रधानमंत्री हैं, जिनके बारे में
मीडिया हमेशा गंभीर से गंभीर मसलों पर चुप बने रहने की बात उछालता रहता था। इस कविता
में वे कहते हैं, - “मैंने कहा आप देश के प्रधानमंत्री हैं कब तक चुप रहेंगे/ लेकिन वे फिर भी चुप रहे/ मैंने खीझकर कहा चुप्पी की भी कोई हद होती है/ और वापस चला आया/ प्रधानमंत्री को छोड़कर वापस लौट रहा था/ तो चिड़ियों की चहचहाहट की मधुर ध्वनि कान में सुनाई पड़ रही थी।” इसी प्रकार से ‘मौन की कोई भाषा नहीं होती’ शीर्षक कविता में “लगता है हमारे देश के प्रधानमंत्री को/ खबरों से ऊब सी हो गई है/ बंद कर दिया है उन्होंने अपना टेलीविज़न सेट” कहकर एक बार फिर वे प्रधानमंत्री पर संवेदनहीनता का गंभीर आरोप लगाते हैं। मेरी
समझ में इन कविताओं में उमाशंकर ने प्रधानमंत्री का उल्लेख एक प्रतीक की तरह किया है।
उन्होंने देश की राजनीति के उच्चस्थ स्तर तक को कटघरे में खड़ा करने के उद्देश्य से
ही ऐसा किया है। हमारे देश में आज की राजनीतिक स्थिति बड़ी ही घटिया है। इसमें धोखा
है, फरेब है, विश्वासघात है और यह हर तरफ है, हर दल में है। जनता को विकल्प नहीं सूझता।
वह परिवर्तन के लिए वोट डालता है, लेकिन चेहरे बदल जाने के बाद भी कोई बदलाव नहीं होता।
जनता इसीलिए निराश और लुटी हुई महसूस करती है। ‘फेरबदल’ कविता में “हुक्मरान बदल गए/ हुक्मरान की ताजपोशी हो गई/ हम खुश नहीं हुए/ हम सच को जानते थे” तथा “सब चाहते हैं कि गतिशील हो जीवन/ लेकिन इस फेरबदल का क्या मतलब/ जहाँ सिक्के के दोनों ही ओर/ अपनी ही उभरी हुई हड्डियों वाला अक्स दिखे” जैसी पंक्तियों के माध्यम से उमाशंकर देश की राजनीति की इसी विडंबना की ओर संकेत
करते हैं।
उमाशंकर की कविताओं में स्त्री विमर्श अथवा नारी की
संवेदना की अभिव्यक्ति सामान्य विचारधारा से कुछ अलग रूप में सामने आती है। आज की नारी
पुरुष पर आश्रित जीवन नहीं जीना चाहती। वह गृहस्वामिनी के दर्ज़े में घुटन महसूस करती
है, क्योंकि जब उसे यह दर्ज़ा दिया जाता है तो उसे घर के बाहर के समाज से बहिष्कृत कर
दिया जाता है। यह दर्ज़ा पितृसत्तात्मक समाज द्वारा नारी को छद्म रूप से महिमामंडित
किए जाने का एक तरीका है। जब वे ‘कहाँ है रानी का शयनकक्ष’ कविता में एक पुराने महल में रानी
का शयनकक्ष न पाकर “जब नहीं है इस धरती पर कहीं रानी का शयनकक्ष/ तब क्या रानी कभी सोती नहीं होगी/ या वह सिर्फ़ तब सो पाती होगी/ जब राजा की सोने की होती होगी इच्छा” तब वे अतीत के पितृसत्तात्मक समाज के इसी विद्रूप की ओर एक संकेत करते हैं,
जहाँ स्त्री का वज़ूद सिर्फ़ दिखावटी है। किन्तु जब वे अपनी कविता ‘स्त्रियों को प्यार करने से उनका पिछला जीवन ही रोकता है’ में “स्त्रियों के पास प्यार की कमी नहीं है/ लेकिन स्त्रियाँ चाहती हैं एक ठौर” कहते हैं, तब थोड़ा संदेह पैदा होता कि शायद उनकी कविता की स्त्री
भी पुरुष के आश्रय की भूखी है। इससे यह संकेत मिलता है कि वे उस पुराने महल में रानी
का शयनकक्ष पाकर संतुष्ट भी हो सकते थे। इसीलिए मुझे लगता है कि शायद आज की स्त्री
के मन की थाह लेने में वे कहीं चूक गए हैं। मेरे विचार में आज की स्त्री सिर्फ़ एक ठौर
ही नहीं चाहती, वह उस ठौर में पुरुष का समर्पण और विश्वास चाहती है, उस पर अपना बराबरी
का हक़ चाहती है, वहाँ पर वह किसी भी तरह से पुरुष की गुलामी या वर्चस्व के नीचे दबकर
नहीं रहना चाहती। आज की स्त्री गृहस्वामिनी का दर्ज़ा नहीं, घर से बाहर तक पुरुष के
विश्वास एवं कर्म की बराबर की भागीदार बनना चाहती है। शायद पिछली कमियों को पूरा करने
की चाहत में वह पुरुष से भी आगे निकलना चाहती है। इसी तरह स्त्री विमर्श की एक और
कविता ‘स्त्रियों को प्यार करने से उनका पिछला जीवन ही रोकता है’ में भी उमाशंकर कुछ
अलग तरीके की सोच को सामने लाते हैं, जो मुझे बहुत अपील नहीं करती। हाँ, आजकल के पुरुष
की वासना प्रेरित सतही प्रेम करने की मानसिकता को उमाशंकर ने अपनी कविता ‘आखिरी नहीं पहली पसंद’ में बखूबी पहचाना है और “वे लड़कियाँ जिनके/ कपड़ों के ऊपर से नहीं दिखते हैं/ सुडौल और पुष्ट स्तन उनको/ सबसे आखिर में प्यार किया जाएगा” कहकर उसे स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त किया है।
उमाशंकर चौधरी के इस संग्रह में माँ, पिता, बेटी व बहन जैसे पारिवारिक रिश्तों
के बारे में लिखी गई कविताएँ मुझे सबसे ज्यादा उल्लेखनीय लगती हैं। इन कविताओं में
ऐसे पारिवारिक रिश्तों के सूक्ष्म व मनोवैज्ञानिक अंतर्संबन्धों को बड़ी ही सरलता व
खूबसूरती के साथ सामने रखा गया है। इनमें उनके आत्म - कथन जैसा अहसास होने के बावजूद
यही महसूस होता है, कि जैसे उनके जैसी पृष्ठभूमि से आए हुए किसी भी आम आदमी के जीवन
में ऐसा ही कुछ पारिवारिक वातावरण विद्यमान होता है। इन कविताओं में संवेदना की तीक्ष्णता
व तरलता दोनों की ही प्रचुर मात्रा में अनुभूति होती हैं। ‘चाय की दुकान पर पिता’ शीर्षक कविता में पिता का जितना सजग व बाह्य जगत से सहज रूप से जुड़ा
हुआ किन्तु बेफिक्र रूप सामने आता है, वहीं तुलनात्मक रूप से माँ का घर के भीतर तक
ही सीमित किन्तु ज्यादा जिम्मेदारी से भरा हुआ व व्यवहार - कुशल रूप दिखाई देता है।
पिता की आर्थिक तंगी के प्रति माँ के नज़रिये को “अनवरत खेतों की कम हो रही पैदावार/ और थम चुकी गाँव की ज़िन्दगी से माँ बहुत आहत है/ वैसे माँ कई बार ठंडे दिमाग से पिता के बारे में कहती है/ ‘इ आदमी तो हीरा है, लेकिन इ ज़माना ही खराब है।’ जैसी पंक्तियों में उमाशंकर बड़ी ही सादगी किन्तु अर्थपूर्ण तरीके से सामने रखते
हैं और “पिता की कपड़े की सिलाई हुई गंजी की जेब में/ तब जलावन के पैसे नहीं थे/ और तब माँ ने पिता के सामने कड़वा मुँह बनाकर/ अपने बटुए से पैसे निकालकर मेरी ओर बढ़ाए थे/ और मैं जलावन वाले की दुकान की तरफ दौड़ गया था” जैसी पंक्तियों में उनकी जिम्मेदारी निभाने क्षमता को बड़े ही रोचक तरीके से प्रस्तुत
करते हैं। पिता भले ही गुस्सैल हों, माँ से झगड़ते रहते हों, लेकिन उनके रिश्ते में
प्रेम की कितनी सान्द्रता है, यह ‘माँ से पिता क्या बहुत दूर थे’ कविता की “जब से माँ की मृत्यु हुई/ पिता ने गुस्साना छोड़ दिया है” जैसी पंक्तियों से स्पष्ट होता है। अपने जीवन में पिता के वज़ूद को हम वास्तव में
उनके अपने बीच न रहने पर ही पहचान पाते हैं, इसे उमाशंकर की ‘सोचना पिता के बारे में’ कविता की “एक दिन पिता नहीं रहेंगे/ मैं सोचता हूँ और काँप जाता हूँ/ मैं आकाश की तरफ देखता हूँ/ और सोचता हूँ क्या आकाश भी एक दिन नहीं रहेगा?” से बेहतर अन्यत्र कहाँ महसूस किया जा सकता है।
पारिवारिक रिश्तों से जुड़ी उमाशंकर की अन्य कविताओं में बेटी के बारे में लिखी
गई ‘कविता से ज्यादा प्यारी है डेढ़ साल की बेटी’ तथा बहन के बारे में लिखी गई ‘काश! बहन ने प्रतिकार किया होता’ जैसी कविताएँ अपना विशेष प्रभाव छोड़ती
हैं। वास्तव में देखा जाय तो समकालीन कविताओं में बहन पर लिखी गई कविताएँ विरल हैं।
पुरुषप्रधान भारतीय समाज की विडंबना को उजागर करती बहन के बारे में लिखी गई कविता ‘काश! बहन ने प्रतिकार किया होता’ में उमाशंकर बड़ी ही संजीदगी के साथ
यह अभिव्यक्त करते हैं कि समाज में पुरुष की जो भी बिगड़ी हुई मानसिकता अथवा स्त्री
के प्रति संकीर्ण सोच बनी है, उसका कारण घरों के भीतर बचपन से ही बेटों को बेटियों
से ज्यादा महत्व दिए जाने जैसी प्रवृत्ति है। पितृसत्तात्मक संस्कृति से प्रभावित भारतीय
परिवारों में बेटियाँ अपने भाइयों की गलत हरकतों व बदतमीज़ियों का प्रतिरोध नहीं करतीं।
इस कविता की “मैं बहन के उदास चेहरे को देखता हूँ/ और सोचता हूँ कि अगर बहन ने बचपन में ही/ मेरे थप्पड़ का प्रतिकार किया होता/ तो शायद ऐसा नहीं होता/ शायद ऐसा नहीं होता” कहकर उमाशंकर केवल इस प्रवृत्ति की पृष्ठभूमि को ही नहीं उभारते, बल्कि ऐसी मानसिकता
विकसित होने के प्रति एक प्रायश्चित्त के भाव का समावेश भी करते हैं। ‘बच्चा’ कविता में वे बच्चे के विकास को सामाजिक विसंगतियों
व दुनियावी कठिनाइयों को समझने की प्रक्रिया से जोड़कर इस कटु सत्य को सामने लाते हैं
कि कैसे एक हँसता - मुस्कराता बच्चा बड़ा होते - होते गंभीर होता चला जाता है, - “उस बच्चे ने अभी - अभी खोली हैं आँखें/ उस बच्चे के चेहरे पर मुस्कान है अभी/ वह बच्चा बड़ा होगा और एक दिन सब बूझ जाएगा/ फिर वह गंभीर होने लगेगा।” अपनी कविता ‘अनसुना’ में वे सब्ज़ी बेचने वाले गरीब बच्चे की असमय ही विकसित हो गई गंभीरता व पारिस्थितिकीय
निस्संगता के बारे में “उस बच्चे को अगर आप चाहें सुनाना/ दूर चलने वाले ट्रिगर की आवाज़/ और ढेर सारे बच्चों का विलाप/ तो वह नहीं सुनेगा आपकी बात/ वह छिड़कने लगेगा पानी की बूँदें अपनी हरी सब्ज़ियों पर/ ताकि रह सकें वे ताजी थोड़ी देर और थोड़ी देर और” जैसी पंक्तियों के माध्यम से हमें भीतर तक झकझोर देने वाली टिप्पणी करते हैं।
आजकल देश की राजनीतिक व सामाजिक विसंगतियों व व्यवस्था की खामियों पर हर युवा कवि
अपने - अपने तरीके से चोट कर रहा है। कहीं प्रतिरोध के स्वर तीखे व विद्रोही हैं, कहीं
सतर्क और गहरी पड़ताल वाले हैं। उमाशंकर की कविताएँ इस संदर्भ में एक विशिष्ट अंदाज़
में अपना प्रभाव छोड़ती हैं, जिनमें विद्रोह की खुली मुनादी न होकर, व्यवस्था के खोखलेपन
के यथार्थ को उद्घाटित करने की भरपूर चेष्टा निहित है। गरीब व पीड़ित आमजन की वेदना
की अभिव्यक्ति भी उमाशंकर ने बड़े ही मार्मिक अंदाज़ में की है। ‘जनगणना’ शीर्षक कविता में उमाशंकर “जनगणना की जब शुरुआत हुई/ तब अंग्रेज़ों ने कभी यह सोचा नहीं होगा/ कि आदमियों को गिनने की इस प्रक्रिया में/ एक दिन भारत के लोग बैठकर/ आदमी को कम, भूख को ज्यादा गिनेंगे” कहकर स्वतंत्रता के पश्चात स्थापित हुई देश की
व्यवस्था की विफलता पर तीखा व्यंग्य करते हैं। इसी प्रकार ‘खुले आसमान में सोने वाले’ कविता में वे “जिस रात तारे नहीं उगते/ खुले आसमान में सोने वाले/ पूरी रात आँखों में ही काट देते हैं” गरीब व बेघर लोगों की लाचारी के बारे में बड़ी ही
संवेदनापूर्ण टिप्पणी करते हैं। ‘पानी’ कविता में “पूरे सात कोस तक उस एल्यूमीनियम के तसले पर/ बैठा रहा है कौआ/ और उस स्त्री को ढोना पड़ा है आज/ जीवन के बोझ से अधिक एक कौए का अतिरिक्त बोझ” कहकर वे एक गरीब, मेहनतकश और बड़ी ही दूर स्थित स्रोत से पानी लाने वाली स्त्री
की मजबूरी और पीड़ा का एक अनोखा वर्णन करते हुए संवेदना की अभिव्यक्ति का एक नया प्रतिमान गढ़ देते हैं। ‘चाय की दुकान पर पिता’ कविता में देश के किसानों की
आर्थिक बदहाली व उनकी परेशानी का जिक्र करते हुए वे कहते हैं, - “वे चाय वाले की दुकान पर रोज़ बैठते हैं/ निराश होते हैं/ फिलवक्त इतना कि मेरे गाँव के किसानों ने/ खेत में हुई आलू की उपज को खेत में सड़ाकर/ खाद बन जाने के लिए छोड़ दिया है/ क्योंकि उन्हें ढोकर मंडी तक ले जाने का किराया/ उनके वश में नहीं है।” यह निश्चित ही कवि के पिता की नहीं, भारत के करोड़ों किसानों की आज की बदहाल
स्थिति का सटीक चित्रण है।
समाज में आ रहे बदलाव को उमाशंकर चौधरी अपनी कविताओं में बहुत ही सिद्दत के
साथ दर्ज़ करते हैं। ऐसा करते समय वे कई अन्य युवा कवियों की तरह केवल निराशा को
जगह न देकर एक नई उम्मीद की किरण भी जगाते हैं। ‘वे कहते हैं’ कविता में “दुनिया के सभी मासूम लोग भूलते जा रहे हैं/ अपनी पहचान/
अपना नाम/ और यह भी कि अगर वे चाहें तो/ इस वातावरण में उनके खुले में साँस लेने के लिए अभी भी/ ढेर सारी स्वच्छ ऑक्सीज़न बिखरी पड़ी है” कहकर जहाँ वे एक तरफ आज के समाज की अंधकारमय स्थिति
पर गहरी चिन्ता व्यक्त करते हैं तो वहीं दूसरी तरफ आशा का एक बड़ा प्रकाश - पुंज भी
बिखेर देते हैं। उन्हें इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि आज की आपाधापी भरे समय में
दुनिया कितनी निर्मम और संवेदनाशून्य होती जा रही है। वे अपनी संवेदना बचाए रखना
चाहते हैं। ‘सिर्फ़ एक श्रोता’ कविता में “सुनो कोयल/ एक दिन तुम सिर्फ़ मेरे लिए आना/ मेरे आँगन वाले आम के पेड़ पर बैठना/ और सिर्फ़ मेरे लिए कूकना” कहकर
जिस तरह से वे इस भावशून्य होती जा रही दुनिया में कोयल के अकेले श्रोता बनना
चाहते हैं, वह सचमुच बहुत अच्छा लगता लगता है और कवि को मन के करीब ले आता है। उमाशंकर
चौधरी पहले ही एक अच्छे युवा कहानीकार के रूप में अपने को स्थापित कर चुके हैं।
बज़रिए ‘वे तुमसे पूछेंगे डर का रंग’ उनकी पहचान एक अत्यन्त संभावनापूर्ण युवा कवि के रूप
में भी स्थापित होनी तय है। मैं उमाशंकर की कविताओं को जानबूझकर किसी बड़े कवि की
भाषा, शैली या वैचारिक थाती से नहीं जोड़ना चाहता, क्योंकि ऐसा करना उनकी कविताओं
में झलकने वाली मौलिकता को नकारना होगा। वे समकालीन कविता के सशक्त व मौलिक नए
हस्ताक्षर हैं और मुझे पूरी उम्मीद है कि भविष्य में वे हिन्दी कविता के कैनवास पर
अपने अभिनव व विशिष्ट रंगों के सहारे एक अत्यन्त आकर्षक, अर्थपूर्ण व अमिट छाप
छोड़ेंगे।