आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

Sunday, August 31, 2014

दोलन

पेंडुलम - सा मन डोलता है
जितना इस तरफ,
उतना ही उस तरफ
दोलन थमता ही नहीं और
समय की सुई आगे की ओर
खिसकती रहती है लगातार

निरन्तर प्रतीक्षा रहती है कि
थमे कहीं मन का दोलन तो
अटक जाए पेंडुलम पर टंगी सुई
और ख़त्म हो समय के परिवर्तन का यह सिलसिला

कभी - कभी
पेंडुलम की तरह डोलना छोड़कर
पंख लगाकर आकाश में उड़ता है मन
ऐसे में वह गति के बन्धन से मुक्त हो
समय की स्नेहिलता में भीगकर
दूर क्षितिज पर उगे सतरंगी इंद्रधनुष पर
तितली - सा टंग जाता है

लेकिन लम्बे समय तक अपनी जगह पर
नहीं टिका रहता आसमानी इंद्रधनुष
मन को लौट ही आना पड़ता है उस यात्रा से
वापस इसी धरती पर
पेंडुलम की तरह रात - दिन
समय की गति के अनुरूप
निरन्तर डोलते रहने के लिए।

आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी (आचार्य के जन्म की 150 वीं वर्षगांठ पर उन्हें याद करते हुए)

मैंने ज़मीन पर पड़े
बीज के सूखे कवच को
नम होकर पिघलते देखा
और जान गया कि
मिट्टी में नमी का अंश कितना है

मैंने ज़मीन से तनकर उठते हुए
अंकुर का निरालापन देखा
और समझ गया कि
उसे कितनी उर्वर धरती का सहारा मिला है

मैंने भाषा की कोख में
एक नए शब्द का भ्रूण पलते देखा
और पहचान गया कि
उसका जीनोम किस कवि के वंश से संबद्ध है

मैंने अपने समय की भाषा के मूल में जाना चाहा
मैंने आईने पर वर्षों से जमा होती रही धूल को
रगड़कर साफ़ किया तो पाया कि
उसमें से आचार्य महाबीर प्रसाद द्विवेदी का
मुस्कराता हुआ चेहरा मुझे निहार रहा था।

हे ईश्वर!

हे ईश्वर!
मुझे पूरा विश्वास है
यदि तुम्हीं ने बनाए हैं ये
चींटियों से लेकर बंदरों हाथियों के जैसे
अपने - अपने रंग, रूप, बोली भाषा में एक - से दिखने वाले
दुनिया के सारे जीव - जन्तु
जो सहज ही घुल - मिल जाते हैं परस्पर
अपनी - अपनी प्रजाति में
भौतिक और भावनात्मक धरातल पर
तो तुमने निश्चित ही नहीं बनाए हैं
इस धरती के मनुष्य
जिनका रंग, रूप, बोली, भाषा, आस्था पर आधारित
अपनी ही प्रजाति का बंटवारा
असह्य होता चला जा रहा है
दिनो - दिन हमारे लिए

हे ईश्वर!
यदि तुमने ही बनाए हैं
इस धरती के मनुष्य
तो मैं निश्चित ही यही मानूँगा कि
तुमने ही नहीं बनाए होंगे
धरती के ये सारे अन्य जीव - जन्तु
क्योंकि इतनी सारी विषमताओं से भरी
मानव जाति का सर्जक
भला कैसे कर सकता है
इतनी सारी नैसर्गिक समता का सृजन!

हे ईश्वर!
मुझे ज्यादा संभावना इस बात की ही लगती है कि
तुमने इन दोनों का ही सृजन नहीं किया होगा
(नास्तिक नहीं, सिर्फ़ तर्कशील हूँ, इस स्पष्टीकरण के साथ)
क्योंकि इनमें से किसी एक का सृजन करने के उपरान्त
इतनी विपरीत प्रवृत्तियों वाले
किसी अन्य जीव का सृजन तुम क्यों होने देते भला!

यह तो इस दुनिया के मनुष्यों की फितरत ही लगती है कि
उन्होंने अलग - अलग देश - काल में
अपने लिए अलग - अलग किस्म के ईश्वर रचे
अपने को रंगों, वर्णों और धर्मों में बाँटा
बोलियों और भाषाओं में विभक्त किया
देशों और प्रदेशों की सीमाएँ खींचीं
इंच - इंच भूमि पर कब्ज़े के लिए
एक - दूसरे का ख़ून बहाया
संसाधनों का बंटवारा किया

जिन्होंने अपनी ही प्रजाति में सेवक और ग़ुलाम बनाए,
हे ईश्वर, क्या वे हो सकते हैं तुम्हारे ही जाये?