आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Tuesday, January 26, 2016

जलवायु परिवर्तन पर पेरिस समझौता भारत के अनुकूल

संयुक्त राष्ट्र के यूनाइटेड नेशन्स फ्रेमवर्क कन्वेन्शन ऑन क्लाइमेट चेन्ज (यू. एन. एफ. सी. सी. सी.) ने पेरिस में विगत 12 दिसम्बर, 2015 को सदस्य देशों के बीच जलवायु परिवर्तन पर हुए समझौते को ऐतिहासिक बताया। इस सम्मेलन के बारे में विश्व भर के गैर - सरकारी संगठन व अन्य रुचि रखने वाले संगठन, एक लंबे समय से अपनी - अपनी माँगे सामने रखकर आंदोलनरत थे। सभी चाहते थे कि इस सम्मेलन का हश्र पहले जैसा न हो और इससे ग्लोबल वार्मिंग की गति को थामने के लिए आगे बढ़ने का कोई रास्ता जरूर निकले। भारत जैसे विकासशील देश चाहते थे कि यू. एन. एफ. सी. सी. सी. के मौलिक स्वरूप में कोई विशेष परिवर्तन न होने पाए तथा समझौते का फोकस केवल जलवायु परिवर्तन को रोकने पर ही न होकर उसके अनुकूलन के उपायों, संभावित ख़तरों का सामना करने एवं इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए वित्तीय व्यवस्था स्थापित करने तथा जरूरी तकनीक की खोज व प्रसार जैसे समग्र पहलुओं पर केन्द्रित होनी चाहिए। वे इस बात पर भी दृढ़ थे कि कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए विभिन्न देशों की जो भी जिम्मेदारियाँ तय हों, वे तुलनात्मक समानता के सिद्धान्त एवं देश विशेष की परिस्थितियों को संज्ञान में लेकर तय की जांय। वे यह भी चाहते थे कि विकसित देशों के लिए जो भी जिम्मेदारियाँ तय की जांय, वे कानूनी बाध्यता के तौर पर निर्धारित हों। ग्रुप - 77 के देश भी, चीन व विकासशील देशों के साथ मिलकर इस बात का दबाव बना रहे थे कि समझौता सम्पूर्णता में हो और उसमें हर देश के हित का ध्यान रहा जाय। दूसरी तरफ अमेरिका अपने मित्र देशों व यूरोपियन यूनियन आदि के साथ मिलकर शुरू से ही जिम्मेदारियों को समानता व विशिष्ट परिस्थितियों के आधार पर तय किए जाने व समझौते को अन्य सभी पहलुओं व फंडिंग आदि पर फोकस किए जाने का पुरजोर विरोध कर रहा था। ये देश यू. एन. एफ. सी. सी. सी. के स्वरूप को ही बदलने पर आमादा थे, जिससे विकासशील देशों पर शुरू से ही कार्बन उत्सर्जन कम करने का दबाव बना रहे। तमाम लंबी - लंबी बहसों और कूटनीतिक जद्दोज़ेहद के बाद आखिर में जिस समझौते पर सहमति बनी उसका अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक तौर पर स्वागत हुआ है।

वास्तव में जो समझौता हुआ है, उसमें भले ही स्पष्ट रूप से विभिन्न विकसित देशों के लिए कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए कानूनी बाध्यता वाले लक्ष्य तय नहीं किए गए हैं, किन्तु इस समझौते का स्वरूप बहुत व्यापक है तथा इसमें सभी तरह के देशों के हितों का ध्यान रखा गया है। सम्मेलन के परिणामों से अधिकांश गैर - सरकारी संगठन भी कमोवेश संतुष्ट हैं। भारत के केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री श्री प्रकाश जावड़ेकर ने सम्मेलन के पश्चात घोषित किया कि भारत के सभी सुझाव मान लिए गए हैं, अतः वह इस समझौते का स्वागत करता है। मुझे लगता है कि अमेरिका जिस तरह का विपरीत दबाव विकासशील देशों पर बनाए हुए था और भारत की छवि को तो वह पिछले एक - डेढ़ साल से लगभग अडंगेबाज़ वाली स्थापित करने में जुटा था, उसको देखते हुए यह समझौता भारत के लिए विजय की एक निशानी है। अमेरिकी विदेश मंत्री जॉन केरी खुद अंत तक पेरिस सम्मेलन में मौजूद थे और सहयोगी मित्रों के साथ मिलकर लगातार अपनी चालें चल रहे थे। स्पष्ट है कि जो समझौता हुआ है, वे उससे बेहतर शायद वहाँ कुछ होने भी नहीं देते, और जो कुछ हुआ है, उसे उन्होंने निश्चित ही विश्व समुदाय के बड़े दबाव के कारण माना है। ऐसी सूचनाएँ हैं कि समझौते को अंजाम तक पहुँचाने में मेजबान देश फ्रांस के राष्ट्रपति ने परदे के पीछे से अहं भूमिका निभाई।

समझौते का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि यू. एन. एफ. सी. सी. सी. के सभी देश मिलकर पूर्वऔद्योगिक स्तर से ऊपर वैश्विक तापमान की वृद्धि 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे ही बनाए रखेंगे तथा कोशिश यह होगी कि यह वृद्धि 1 .5 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा न हो। वैश्विक तापमान का पूर्वऔद्योगिक स्तर अठारहवीं शताब्दी के संदर्भ में माना जाता है और यह अनुमान है कि 2008 तक उसमें 0.7 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि पहले ही हो चुकी है। समझौते के अनुसार जलवायु परिवर्तन का सामना सभी सदस्य देशों द्वारा मिल - जुलकर कुछ इस प्रकार से किया जाएगा कि कृषि - उत्पादन को ख़तरा न पैदा हो। यह भी तय हुआ है कि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने तथा जलवायु परिवर्तन प्रतिरोधी गतिविधियों के लिए वित्तीय - प्रवाह को स्थिर स्वरूप प्रदान किया जाएगा।

समझौते का अन्य अत्यन्त महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लक्ष्यों की प्राप्ति के कामों में सभी देश पूरी पारदर्शिता बरतेंगे। हर देश इस मामले में शीघ्र अपनी एक सर्वश्रेष्ठ योजना बनाएगा, जिसमें जल्दी से जल्दी उत्सर्जन के सर्वोच्च स्तर पहुँचने और फिर उसमें तेजी से कमी लाने तथा गैर - उत्सर्जन वाली तकनीक अपनाने की व्यवस्था होगी। विकासशील देशों को उत्सर्जन के सर्वोच्च स्तर तक पहुँचने के लिए अधिक समय मिलेगा। विकसित देशों द्वारा इसके लिए उन्हें आर्थिक एवं तकनीकी सहायता प्रदान की जाएगी। इस समझौते के क्रियान्वयन की हर पाँच साल में समीक्षा की जाएगी। पहली समीक्षा 2023 में होगी। ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लक्ष्य तुलनात्मक समानता के सिद्धांत तथा विभिन्न देशों की अलग - अलग परिस्थितियों (टिकाऊ विकास व गरीबी उन्मूलन की आवश्यकताओं के आधार पर) पर निर्धारित होंगे। सभी देश वर्ष 2050 के बाद ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को पूरी तरह से ख़त्म करने के लक्ष्य को ध्यान में रखकर काम करेंगे। लक्ष्य - निर्धारण की इस प्रकार की प्रक्रिया को ‘बॉटम अप’ प्रणाली की संज्ञा दी गई है, जिसमें कार्बन उत्सर्जन घटाने के लक्ष्य देश खुद तय करेंगे तथा बहुराष्ट्रीय स्तर पर कोई लक्ष्य - निर्धारण नहीं होगा। भारत जैसे विकासशील देशों के लिए यह बहुत ही महत्वपूर्ण निर्णय है। चूँकि यह निर्णय अमेरिकी रुख के एकदम विपरीत है, अत: देखना यह होगा कि पेरिस के बाद अमेरिका व उसके मित्र देश इस समझौते के अनुपालन को आगे बढ़ाने के लिए कितनी तत्परता दिखाते हैं, और सदस्य देश खुद पहल करते हुए कितनी जल्दी अपने राष्ट्रीय निर्धारित योगदानों की घोषणा करते हैं।

समझौते के अनुसार एक देश की ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन कमी का दूसरा देश उपयोग कर सकेगा। विकसित देश विकासशील देशों को आर्थिक सहायता भी प्रदान करेंगे। विकसित देश इसके लिए 2020 तक विभिन्न स्रोतों से 100 बिलियन डॉलर का  'जलवायु फंड' स्वरूपित करेंगे, जिसे बाद में और व्यापक बनाया जाएगा। विकासशील देशों को तकनीक के विकास व हस्तांतरण तथा क्षमता - निर्माण के लिए भी विकसित देशों से सहायता मिलेगी। भारत विशेष रूप से चाहता था कि समझौते के तहत बौद्धिक संपदा अधिकारों के नाम पर विकसित देशों द्वारा तकनीक के हस्तांरण में डाली जाने वाली रुकावटों को दूर करने की व्यवस्था हो तथा इसके लिए फंडिंग भी की जाय। यह खुशी की बात है कि समझौते में इसके लिए उचित व्यवस्था शामिल की गई है। अब समझौते पर सभी सदस्य देशों को 22 अप्रैल 2016 (विश्व पृथ्वी माता दिवस) से लेकर 21 अप्रैल 2017 के बीच हस्ताक्षर करने हैं। चूँकि समझौते के क्रियान्वयन की राह लंबी है, अत: उस पर चलते समय सुस्त हो जाने अथवा भटकने के ख़तरे भी काफी हैं। इसलिए यह देखना जरूरी होगा कि धरती को बचाने और मनुष्य के भविष्य को सुरक्षित बनाने के लिए इस महत्वपूर्ण समझौते पर विश्व के देशों द्वारा आगे कितनी सत्यनिष्ठा, पारदर्शिता व तत्परता के साथ कार्रवाई की जाती है।


(लेखक भारतीय प्रशासनिक सेवा के वरिष्ठ सरकारी अधिकारी हैं, किन्तु इस लेख में उनके निजी विचार हैं)

Thursday, January 21, 2016

विश्व व्यापार संगठन में भारत के किसानों व गरीबों के हित ख़तरे में - बाली से लेकर नैरोबी तक मामला अधर में ही

विश्व व्यापार संगठन का पिछला हंगामेदार 9वां मंत्रिस्तरीय सम्मेलन दो साल पहले दिसम्बर 2013 में इंडोनेशिया के बाली शहर में हुआ था। उस सम्मेलन में जिन मुद्दों पर चर्चा हुई उसमें भारत की दृष्टि से सबसे अहम मुद्दा था कृषि समझौते के तहत देश में किसानों को दी जा रही समर्थन मूल्य सहायता में कटौती की संभावनाओं को रोकने का। न्यूनतम समर्थन मूल्य योजना इस देश के किसानों की प्राणवायु है। देश की सार्वजनिक वितरण प्रणाली भी इसी पर निर्भर है। भारत की विशाल आबादी की माँग को देखते हुए विश्व के सभी चालाक विकसित देश यही चाहते हैं कि किसी तरह भारत अन्न उत्पादन में पिछड़े तथा उन्हें यहाँ के बाज़ार में अपने कृषि - उत्पादों की पहुँच बनाने का मौका मिले। विश्व व्यापार संगठन के कृषि समझौते के तहत किसी भी सदस्य देश द्वारा कृषि उत्पादन को बढ़ाने के लिए दी जाने वाली घरेलू सब्सिडी को नियंत्रित किए जाने के प्रावधान हैं। इन प्रावधानों के तहत सार्वजनिक वितरण प्रणाली अथवा खाद्य सुरक्षा योजनाओं के लिए की जाने वाली खाद्यान्नों की खरीद तथा उसके वितरण पर किए जाने वाले व्यय को समेकित बाज़ार समर्थन (एग्रीगेट मार्केट सपोर्ट - एम एस) की गणना से छूट तभी हासिल होती है, जब इन्हें सरकार द्वारा बाजार में प्रचलित दामों पर ही खरीदा जाए तथा घरेलू बाजार में संबंधित खाद्यान्न की ग्रेड के अनुरूप प्रचलित मूल्यों से कम मूल्य पर बेचा जाए। एम एस की गणना के लिए किसी देश की सरकार द्वारा किए जाने वाले व्यय का आकलन यह देखकर किया जाता है कि घरेलू किसानों से अंतरर्राष्ट्रीय संदर्भित मूल्य की तुलना में कितने अधिक समर्थन मूल्य पर संबन्धित खाद्यान्न की खरीद की जा रही है और खरीद की कुल मात्रा कितनी है। समझौते के अन्तर्गत प्रावधानित 'डि मिनिमिस' (अधिकतम सहायता)  की शर्त के अनुसार किसी भी विकासशील सदस्य देश द्वारा किसी उत्पाद विशेष के लिए दिया जाने वाला कुल बाज़ार समर्थन देश में उसके कुल उत्पादन के मूल्य के 10 प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकता। विकसित देशों के लिए यह सीमा 5 प्रतिशत है।
                          
मुख्य समस्या यह है कि पूर्व में जब विश्व व्यापार संगठन के तहत सदस्य देशों के बीच कृषि - समझौता हुआ था तब अंतर्राष्ट्रीय संदर्भित मूल्यों का निर्धारण वर्ष 1986-88 के मूल्यों के आधार पर स्थायी रूप से किया गया था। उस समय भारत में विभिन्न कृषि - उत्पादों के न्यूनतम समर्थन मूल्य काफी कम होते थे। किन्तु हाल के वर्षों में केन्द्र सरकार द्वारा किसानों की कृषिलागत बाज़ार की स्थिति को देखते हुए विभिन्न कृषि - उत्पादों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में काफी सुधार किया गया है (हालांकि भारतीय किसानों को ये मूल्य अभी भी कम लगते हैं), जिससे केवल अंतर्राष्ट्रीय संदर्भित मूल्य न्यूनतम समर्थन मूल्य के बीच का अन्तर बढ़ा है बल्कि कुल खरीद की मात्रा भी बढ़ी है। इससे भारत के लिएडि मिनिमिसकी सीमा को पार करने का ख़तरा पैदा हो रहा है। यदि भारत गेहूँ अथवा चावल की खरीद परडि मिनिमिसको पार करता है तो उसे इस व्यय में कटौती करनी होगी अन्यथा यह समझौते का उल्लंघन माना जाएगा और इसके लिए उस देश पर पेनाल्टी और प्रतिबन्ध लगेंगे। अमेरिका, कनाडा तथा आस्ट्रेलिया जैसे विकसित देश भारत कि खुली खाद्यान्न खरीद नीति पर प्रश्नचिन्ह उठा रहे हैं और चाहते हैं कि भारत के संबन्ध मेंडि मिनिमिसकी गणना किसी भी फसल के कुल उत्पादन के आधार पर की जाय कि केवल सरकार की खरीदी गई मात्रा के आधार पर, सरकार भले सारी उपज खरीदे, पर एम एस पी का वादा पूरी फसल पर होता है और सांकेतिक रूप से सरकार सारा ही उत्पाद खरीद सकती है। हो सकता है कुछ राज्य सरकारों द्वारा गेहूँ तथा चावल की खरीद के लिए दिया जा रहा बोनस भी आगे चलकर सवालों के घेरे में खड़ा किया जाय क्योंकि ये विकसित इसे भी खरीद की लागत में जोड़कर मूल्य सहायता की गणना करने की बात कर रहे हैं। आँकड़ों की दृष्टि से देखा जाय तो भारत के सामने गेहूँ के किसानों को दिए जाने वाले समर्थन मूल्य को लेकर फिलहाल चिंता की कोई बात नहीं है। किन्तु चावल के बारे में स्थिति चिंताजनक है, क्योंकि देश में धान के वर्तमान न्यूनतम समर्थन मूल्य के आधार परडि मिनिमिसकी जो सीमा बनती है, उसे एक मोटे अनुमान के आधार पर भारत पार कर जाने के कगार पर है। ऐसे में समझौते के माजूदा स्वरूप के अंतर्गत भारत को धान की खरीद के लिए दी जाने वाली सहायता को नियंत्रित करने के लिए बाध्य होना पड़ सकता है।

आने वाले ख़तरे को भाँपते हुए भारत सरकार का यह प्रयास रहा है कि अन्य सहयोगी देशों की मदद से दोहा राउण्ड की चर्चाएँ समाप्त होने से पहले ही विश्व व्यापार संगठन के कृषि - समझौते में ऐसे संशोधन करा लिए जाएँ ताकि देश के किसानों से न्यूनतम समर्थन मूल्य पर जरूरत के अनुरूप खाद्यान्न खरीदने में उसे कोई कठिनाई हो। इसी के तहत भारत सहित जी - 33 समूह के विकासशील देशों ने नवम्बर, 2012 में विश्व व्यापार संगठन के सामने कृषि समझौते में संशोधन का इस आशय का एक प्रस्ताव रखा था कि गरीब तथा संसाधन विहीन किसानों से की जाने वाली खाद्यान्न - खरीद के लिए दी जाने वाली सहायता को एग्रीगेट मार्केट सपोर्ट की गणना से बाहर रखा जाए। इसी के साथ ही गरीबों की खाद्य - सुरक्षा सुनिश्चित करने तथा भूख को मिटाने के लिए की जाने वाली खरीद हेतु दी जाने वाली सहायता को भी एग्रीगेट मार्केट सपोर्ट की गणना से बाहर रखा जाए। इस प्रस्ताव का कई विकसित देशों ने विरोध किया। इसी संदर्भ में कुछ विकसित देशों द्वारा एक शांति खण्ड भी प्रस्तावित किया गया, जिसके तहत सभी देशों को एक निर्धारित अवधि तक ‘डि मिनिमिस’ की सीमा से छूट मिलेगी और इस बीच में आपस में बातचीत करके समस्याओं का हल निकालने का प्रयास किया जाएगा। बाली के सम्मेलन में लिए जाने वाले निर्णय के लिए जो मसौदा प्रस्तावित किया गया था, उसके अनुसार शांति खण्ड के प्रभाव की अवधि 2017 तक रखी गई थी और इस अवधि के दौरान सभी सदस्य देशों को अपनी मूल्य  समर्थन योजनाओं, कुल कृषि - उत्पादन, कृषि उत्पादों की खरीद, खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम तथा लाभार्थी किसानों की संख्या आदि का खुलासा करना था। इसी के साथ ही समस्या के स्थायी समाधान के लिए एक कार्य योजना भी तैयार करना निर्धारित था।

भारत इस प्रकार के शान्ति प्रस्ताव के पक्ष में तो था, किन्तु वह यह नहीं चाहता कि इसकी अवधि सीमित रहे। भारत का मानना है कि जब तक समस्या का स्थायी समाधान निकल आए, तब तक शांति - व्यवस्था लागू रहनी चाहिए और तब तक किसी भी देश के विरूद्ध ‘डि मिनिमिस’ की सीमा के आधार पर कृषि के क्षेत्र में दी जा रही सब्सिडी में कटौती करने जैसी कोई कार्रवाई नहीं की जानी चाहिए। इस प्रकार स्पष्ट है कि भारत अपने किसानों को दी जा रही मूल्य समर्थन सहायता तथा अपनी खाद्य - सुरक्षा योजना के लिए दी जा रही सब्सिडी में किसी भी प्रकार की कटौती किए जाने के पक्ष में नहीं है और वह विश्व व्यापार संगठन के मंच पर ऐसे हर प्रयास का विरोध करेगा जो इस प्रकार की किसी कटौती को लागू करने के पक्ष में होंगे। उम्मीद थी कि बाली सम्मेलन में जी - 33 समूह के देशों के प्रयासों के मद्देनज़र विकसित देश एक लचीला रूख अपनाएँगे और अपने कृषि - उत्पादों को भारत जैसे विकासशील देशों के बाज़ार तक पहुँचाने के लालच में वे दोहा राउण्ड की चर्चाओं की अनिश्चितता को और ज्यादा बढ़ाने का मौका नहीं देंगे। लेकिन बाली सम्मेलन में 7 दिसम्बर, 2013 को केवल यही घोषित हो पाया कि शांति खंड के आधार पर सभी विकासशील देश चार साल तक किसी विपरीत कार्रवाई से मुक्त रहेंगे और इस बारे में शीर्घ समझौते के अनुपालन के बारे में अपनेअपने स्तर से की जाने कार्रवाई से अवगत कराएँगे। साथ ही जी - 33 देशों के प्रस्ताव के पक्ष में भारत इंडोनेशिया जैसे तमाम देशों के दबाव में विश्व व्यापार संगठन की सामान्य परिषद ने 27 जनवरी, 2014 को यह फैसला भी कर लिया था कि सभी सदस्य देश मिलकर इस मामले में त्वरित गति से चर्चाएँ करेंगे और मामले का स्थायी हल हर हालत में दिसम्बर, 2015 अर्थात नैरोबी में होने वाले आगामी मंत्रिस्तरीय सम्मेलन तक अवश्य निकाल रखेंगे। परिषद ने यह भी कहा था कि जब तक स्थायी हल नहीं निकल आता सभी देशों को शांति खंड का अंतरिम लाभ मिलता रहेगा। स्पष्ट था कि यदि स्थायी समाधान नहीं होता है तो समझौते के अनुपालन की अंतिम तिथि अभी भी दिसम्बर, 2017 ही बनी हुई है। मुझे इस बारे में जब एक बार वाशिंगटन में एक चर्चा के दौरान अमेरिका की वर्तमान सरकार की दक्षिण व मध्य एशिया की सहायक सचिव श्रीमती निशा देसाई बिस्वाल से इस बारे में नवंबर, 2014 में सीधे एक प्रश्न पूछने का मौका मिला, तो उन्होंने सीधे मेरे तर्कों से कन्नी काटते हुए कहा कि अमेरिका का मानना है कि सभी सदस्य देशों को उनके द्वारा हस्तराक्षरित समझौते की शर्तों का अनुपालन करना चाहिए और इस तरह समझौतों को बदलने का दबाव नहीं डालना चाहिए। स्पष्ट है, अमेरिका ही भारत तथा जी – 33 के देशों की कृषि समझौते से जुड़ी माँगों का सबसे बड़ा विरोधी है और उसके साथ यूरोपियन संघ, कनाडा, आस्ट्रेलिया आदि भी मजबूती से खड़े हैं।

स्पष्ट है कि इस मामले में सारा दारोमदार 15 - 18 दिसम्बर, 2015 को नैरोबी में आयोजित हुई अगले मंत्रिस्तरीय सम्मेलन पर आकर टिक गया था। इस सम्मेलन के लिए भारतीय वीणिज्य मंत्री श्रीमती निर्मला सीतारमन जी वहाँ अपनी पूरी टीम के साथ वहाँ डटी रहीं। लेकिन 19 दिसम्बर को विश्व व्यापार संगठन द्वारा जारी की गईं इस सम्मेलन की घोषणाओं को देखकर तो यही लगता है कि अमेरिका तथा यूरोपियन यूनियन के दबाओं के आगे वहाँ भारत के किसानों को दिए जाने न्यूनतम समर्थन मूल्य को तथा उसके माध्यम से देश की खाद्य सुरक्षा के लिए आवश्यक केन्द्रीय खाद्यान्न भंडार की व्यवस्था को स्थिर बनाए रखे जाने वाले स्थायी समाधान जाने के संबन्ध में कोई विशेष राह नहीं निकल पाई है। अमेरिका भी जो, जो पिछले साल विदेश सचिव श्री जॉन केरी की भारत यात्रा तक भारत को लगभग धमकियाँ सी ही दे रहा था, किन्तु बाद में राष्ट्रपति बराक ओबामा की भारत यात्रा के बाद अपने रुख में बदलाव लाने को तैयार लगा था, नैरोबी में पूरी तरह बदला नज़र आया। नैरोबी सम्मेलन का सार्वजनिक खाद्यान्न भंडार स्थापित करने तथा एम एस पी के बारे में कुल मिलाकर निष्कर्ष यही है कि जी - 33 का फार्मूला अभी तो स्पष्ट है और ही स्वीकार्य और ही भारत की 2001 से कृषि समझौते को बदलने के लिए रखी जा रहीं आपत्तियाँ सुझाव, अत: अभी सभी सदस्य देश इस पर त्वरित गति से चर्चाएँ करें और एक स्थायी समाधान की खोज करें। इसके विश्व व्यापार संगठन की कृषि - समिति की शीघ्रातिशीघ्र विशेष बैठकें बुलवाए जाने की भी सहमति बनी है। यह भी तय हुआ है कि इन चर्चाओं को दोहा राउण्ड के एजेण्डे की अन्य चर्चाओं के साथ नहीं जोड़ा जाएगा। यह बात कुछ आशावह तो है किन्तु मेरे विचार में यह अमेरिका यूरोपियन यूनियन, कनाडा, आस्ट्रिलिया, ब्राज़ील आदि के द्वारा हमारे हाथों में पकड़ाया गया एक झुनझुना भर है, जो चार दिन तक तो बजाने में तो अच्छा लगेगा, किन्तु विकसित देशों की हठधर्मिता के आगे दो साल में हम फिर वहीं पहुँच जाएँगे, जहाँ हम बाली में थे। स्पष्ट है कि यदि यह स्थायी समाधान दिसम्बर, 2017 तक नहीं निकल पाता है, तो भारत जैसे देशों की किसानों की सहायता के लिए चलायी जाने वाली मूल्य समर्थन योजना खाद्य सुरक्षा योजनाएँ गंभीर आर्थिक संकट को जन्म दे सकती हैं, जिसका देश की कृषि व अर्थव्यवस्था व्यापक प्रभाव पड़ेगा और यदि उसकी वजह से इन योजनाओं में कटौती की जाती है तो उसकी गाज़ सीधे देश के किसानों एवं सार्वजनिक वितरण प्रणाली के सहारे भूख मिटाने वाले देश के गरीबों पर ही गिरेगी।

विश्व व्यापार संगठन द्वारा इस बात को नैरोबी सम्मेलन की बड़ी उपलब्धि मानी जा रही है कि सदस्य देशों ने दोहा राउण्ड की अभी पूरी तरह धता नहीं बताया है और वे व्यापार के लिए दी जाने वाली घरेलू सहायताओं को नियंत्रित करने, गैरकृषि क्षेत्रों में मार्केटपहुँच बढ़ाने, सेवा, ट्रिप्स समझौते, विकास के समझौते तथा निर्यात सब्सिडियों को शीघ्र कम करने तथा उसके लिए विकासशील देशों को तीन साल का अतिरिक्त समय दिए जाने (ट्रांसपोर्ट सब्सिडी आदि के लिए आठ साल) और खाद्य सुरक्षा जीविकोपार्जन संरक्षण से संबद्ध कुछ उत्पादों के मामलों में विशेष दर्ज़ा दिए जाने जैसे बिन्दुओं पर बातचीत को पूरी संजीदगी के साथ आगे बढ़ाने के लिए कृतसंकल्प हुए हैं। लेकिन इस बारे में कुछ देश परोक्ष रूप से गहरा मतभेद भी रखते हैं। साथ ही इन मामलों में भी यही आशंका है कि क्या अमेरिका, यूरोपियन यूनियन, आस्ट्रेलिया, कनाडा, ब्राज़ील, मेक्सिको जैसे तमाम देश जो अंधाधुंध तरीके से अपने किसानों को निर्यात सहायता दे रहे हैं, वे यहाँ उसे सही रूप में पारदर्शिता के साथ सार्वजनिक भी करेंगे अथवा उसे कम करने को क्या वास्तविक तौर पर तैयार होंगे? एक आकलन के अनुसार भारत की तुलना में सी डी (लगभग 34 विकसित देशों द्वारा बनाया गया आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन) देशों की कृषि - निर्यात की सहायता की दर छह गुनी है। अमेरिका ने नया फार्म बिल 2014 लागू करके जिस तरह से अपने किसानों को व्यापक रूप से एक बड़े बजट की व्यवस्था करके कृषि जोखिम सहायता तथा बाज़ार में मूल्य हानि होने के लिए सहायता देना शुरू किया है, उससे उनके आगे के इरादे भी स्पष्ट है। वे इस जुगाड़ में भी हैं कि दोहा राउण्ड की शर्तों के तहत वे इन सहायताओं को कृषि समझौते में कटौती की सीमाओं से बचाकर रखे गए  ग्रीन बॉक्स (यह उन राजसहायताओं का वर्ग है, जिन्हें व्यापार को प्रभावित करने वाला नहीं माना जाता) या ब्लू बॉक्स (यह उन राजसहायताओं का वर्ग है, जो उत्पादन को प्रोत्साहित करने वाली मानी जाती हैं) में समायोजित कर ले जाएँगे और ऐम्बर बॉक्स  (यह उन राजसहायताओं का वर्ग है, जो व्यापार को प्रभावित करने वाली मानी जाती हैं और जिन्हें नियंत्रित किया जाना अनिवार्य है) की सहायताओं पर लगने वाली पेनाल्टियों से बचे रहेंगे। वे हमेशा समझौते की व्यवस्थाओं के तहत ऐसी सहायताएँ प्रच्छन्न तरीके से देने के तरीके निकाल लेते हैं क्योंकि कृषि समझौते पहले से ही उनकी गतिविधियों परिस्थितियों के अनुकूल बना हुआ है।

विश्व व्यापार संगठन के महानिदेशक एज़ीवेडो ने नैरोबी मंत्रिस्तरीय घोषणाओं को पिछले बीस साल में हुई सर्वश्रेष्ठ घोषणाओं की संज्ञा दी है और भारतीव वाणिज्य मंत्री जी ने भी सम्मेलन से लौटकर इन घोषणाओं को संसद के समक्ष रखे गए अपने बयान में भारत के हितों का पूर्ण संरक्षण करने वाला बताया है। किन्तु मुझे यह विश्वास आशंकाओं से भरा हुआ ही लगता है। यूरोपियन यूनियन ने तो सम्मेलन के पूर्व ही यह माँग रखकर खलबली मचा दी थी कि भारत अपने न्यूनतम समर्थन मूल्य कार्यक्रम के खाद्यान्नों की खरीद के लिए मूल्य तथा मात्रा की परिधि निर्धारित करे। अमेरिका ने भी इस सम्मेलन से पूर्व अपना एक विशेष अभिलेख प्रस्तुत किया और विकासशील देशों के कृषि - निर्यात के तमाम सवाल सवाल खड़े किए। इससे स्पष्ट है कि आगे कृषि समिति की चर्चाओं में होने वाला घमासान आसान नहीं होगा और भारत को बहुत तेजी और होशियारी के साथ वहाँ अपनी मूल्य समर्थन नीति व खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम को संरक्षित करने के लिए स्थायी समाधान खोजे जाने पर बल देना होगा। सदस्य देश नैरोबी में इस मुद्दे पर त्वरित गति से चर्चाएँ करने और एक स्थायी समाधान की खोज करने को तैयार भले ही हुए हों, लेकिन इसके लिए पहल और दबाव भारत को ही बनाना होगा। इसके लिए भारत को यह भी सुनिश्चित करना होगा कि इस समस्या का स्थायी समाधान निकलने के पश्चात ही विकसित देशों की रुचि वाली दोहा राउण्ड के एजेण्डे की अन्य चर्चाएँ आगे बढ़े अथवा नैरोबी में उनके द्वारा सामने रखे गए नए मुद्दों पर आगे कोई बात हो। यह दुखद स्थिति है कि 2013 में बाली में समस्या का स्थायी समाधान निकालने हेतु समय - सीमा तय हो जाने और उसके लिए वार्ताओं को आगे बढ़ाए जाने के लिए सदस्य देशों द्वारा एक कार्य योजना तैयार करके प्रस्तुत किए जाने का निर्णय लिए जाने के पश्चात दो वर्ष से अधिक का समय बीत चुका है, किन्तु अभी तक भारत न तो अपनी कार्य योजना प्रस्तुत कर पाया है और न ही इस मुद्दे पर कृषि समिति में कोई चर्चा शुरू करवा पाया है। स्पष्ट है कि समय हमारे हाथ से फिसल रहा है और इस मामले में अब पूरी मुस्तैदी से जुटने और कूटनीति की सारी महारत का उपयोग करने की जरूरत है। हमारे लिए किसी भी कारण से यह मौका गँवाना आत्महत्या करने जैसा होगा।  


(लेखक भारतीय प्रशासनिक सेवा के वरिष्ठ सरकारी अधिकारी हैं, किन्तु इस लेख में उनके निजी विचार हैं)