किताबों में पढ़ता हूँ
बड़े-बड़े प्रजा-वत्सल, दान-वीर राजाओं के बारे में,
सब के सब चले गए,
उनकी वह प्रजा भी,
जमींदोज़ हो गए उनके राजप्रासाद भी,
अवशेष है अब उनका सारा ऐश्वर्य-बल
ऐसे किताबी अक्षरों में ही
समय-समय पर लिखे जाते हैं जो शायद
उनकी चिता-भस्मों के उन अंशों से,
संजोकर रखा है जिन्हें अभी तक किताबकारों ने
परंपराओं का बखान और विरासत का गुण-गान करने के लिए।
हमारे पुरखों की कहानियों में
अक्सर ढूँढ़े मिल जाते हैं
तब के तमाम राजा और रानी,
उनके तीन राजकुमार या कोई राजकुमारी
कभी कोई राजगुरु या राजवैद भी,
नहीं बनी थी शायद कोई स्याही उन दिनों
जिससे लिखी जाती उनके किसी प्रजा-जन की भी कहानी
बताती जो उनकी प्रजा के गुरुओं और वैद्यों का हाल भी,
नहीं थे उन दिनों शायद
प्रजा-जनों के बीच ऐसे कोई कथाकार भी,
जिनके बारे में हम कह सकते कि
उन्हीं की चिता-भस्म की मसि को संभाल रखा है
आज के दौर के तमाम जनवादी लेखकों ने।
पुरखों की किसी थाती की तरह नहीं मिलती हमें
अपने साहित्य के श्मशान में
ऐसे किसी भी प्राचीन कवि की चिता-गंध
जिसने राम-राज्य के दौरान अथवा
उसके पहले या बाद में ही महसूसा हो कभी (तुलसी को छोड़)
किसी भी प्रजा-जन का दैहिक-दैविक-भौतिक ताप।
लोक-तंत्र के इस युग में भी
प्रायः दिख जाते हैं
राजाओं जैसे आत्म-मुग्ध व आत्म-केन्द्रित कुछ जन-नेता
जिनके आचरण की झलक भर से
मिल जाती है बानगी इस बात की कि
क्या-क्या घटित होता रहा होगा
राजशाही के उस दौर में
प्रजा-जनों की उन अचर्चित बस्तियों में
जहाँ न तो कभी राज-कवि पहुँचते थे
न ही कभी ॠषि-कवि,
जहाँ न तो अख़बार होते थे, न पत्रकार,
और यदि रहे भी होंगे तो शायद
उनकी भी बोलती ऐसे ही बन्द रहती होगी
जैसे आज बन्द रहती है कहीं-कहीं
लोकतांत्रिक राजाओं की दौलत और दमन के सामने।
आज भी अवशेष है मेरे मन में
किसी सीधे-सच्चे जनानुरागी पुरातन कवि की
आत्म-शांति के लिए तर्पण करने की इच्छा,
यदि मिली चिता-रज कहीं किसी दिन
ऐसे किसी जन-कवि की तो
निश्चित अर्पित कर दूँगा मैं
शब्दों के दो-चार फूल उसकी समाधि पर
मान उसे ही पूर्वज अपना,
सीखूँगा उससे कविताई
लिखने को फिर नई कहानी
एक था राजा, एक थी रानी,
जिसने बात प्रजा की मानी,
भले मर गए राजा-रानी
मगर ख़त्म न हुई कहानी।